दुष्यंत कुमार के काव्य में चित्रित विविध-आयाम
दुष्यंत कुमार ने अपनी रचनाओ से साहित्य जगत में हलचल पैदा कर दी थी क्योंकि उनके साहित्य में एक समूचे राष्ट्र का मोहभंग, उसकी झुँझलाहटें, अदृश्य गुस्से या नाराजगी, असंतोष, उम्मीदों का टूटना, आशाओं का धूमिल होना, लोक सौंदर्य और संवेदना, सामाजिक, राजनैतिक, आर्थिक आदि समस्याएँ और न जाने कितनी कोप की अपरिमित मुद्राएँ करवटें ले रही हैं। उनके संपूर्ण साहित्य में आम-आदमी की समस्याओं को दिखाया गया है। चाहे उनके द्वारा लिखा साहित्य किसी भी विधा का हो। कविता, काव्यनाटक, गीत, गजल, कहानी, संस्मरण, रेखाचित्र, एकांकी और उपन्यास आदि तक, सब में निरंतर दुष्यंत कुमार की प्रखर प्रतिभा और विरल सर्जनात्मक जिजीविषा के उदाहरण देखने को मिलते हैं जिनमें लोक चेतना से लेकर राष्ट्रीय चेतना तक पायी व्याप्त है।
इस शोध-पत्र में हम दुष्यंत कुमार की प्रमुख काव्य कृतियों के आधार पर उनकी कविताओं में चित्रित विविध-आयामों का अध्ययन करेंगे क्योंकि दुष्यंत कुमार ने अपने काव्य के विषय जीवन के विभिन्न पक्षों या पहलुओं को ध्यान में रखकर चुना है। दुष्यंत कुमार का काव्य स्वतंत्रता के पश्चात आरम्भ होता है इसलिए उनके काव्य में स्वतंत्रता के बाद की युगीन परिस्थितियों से उत्पन्न समस्याओं का चित्रण अधिक देखने को मिलता है। कवि की सबसे बड़ी विशेषता है कि वे किसी भी वाद या परम्परा से नहीं जुड़े थे। स्वतंत्र होकर काव्य रचना करते रहे। उनकी कविताओं के विषय बहुत विस्तृत और गहराई लिए होते हैं। उन्होंने जीवन के विभिन्न पहलुओं से विषय चुने हैं। जैसे- पौराणिक और धार्मिक विषय, पीड़ित या दुखी आम आदमी की पीड़ा, जनहित या राष्ट्रहित, प्रजातंत्र समाज व्यवस्था पर चोट करना, सांस्कृतिक, नैतिक, सामाजिक मूल्यों में बदलाव, लोक संवेदना, लोक सौंदर्य, युद्ध अशांति, जीवन की व्याख्या, मानव भावनाएँ और आशा-निराशा आदि। दुष्यंत कुमार जी ने चार काव्य-संग्रहों की रचना की।
कलम से सूर्य का स्वागत करने वाले कवि दुष्यंत कुमार ने साहित्य जगत में पदार्पण ‘सूर्य का स्वागत’ शीर्षक काव्य-संग्रह के साथ किया। ‘सूर्य का स्वागत’ काव्य-संग्रह 1957 में प्रकाशित हुआ था। जिसमें 48 कविताएँ संकलित हैं। इन्हीं कविताओं की शक्ति के बल पर दुष्यंत कुमार जी ने हिन्दी साहित्य जगत में अपना महत्वपूर्ण स्थान बना लिया। इस संग्रह की कविताएँ 1953-54 में एम.ए. की पढ़ाई के दौरान लिखी गई थी। मार्कण्डेय की सहायता से 1957 में ‘सूर्य का स्वागत’ संग्रह प्रकाशित हुआ है। वैसे तो कवि ने 14-15 साल की बाल उम्र से ही कविताएँ लिखनी आरम्भ कर दी थी। ये कविताएँ बीज से अंकुर जैसी स्थिति से लिखी गई। साहित्य दृष्टि से 1949 की कविताएँ लिखी गईं। जिस समय कवि नटहौर में पढ़ता था। यह वही समय था जब राष्ट्र के राजनीतिक क्षितिज पर आशंकाओं के बादल मंडरा रहे थे। आजादी प्राप्त होने के उपरांत उत्पन्न होने वाली अनेक समस्याओं से देश जकड़ा हुआ था। गांधी जी की हत्या, हिन्दू-मुस्लिम दंगे, शरणार्थियों आदि जैसे समस्याएँ सामने खड़ी थी। राष्ट्र के इस वातावरण ने कवि को बहुत ज्यादा प्रभावित किया। इन्हीं विषयों को लेकर कविताएँ लिखनी आरम्भ की। गाँधी जी की हत्या के उपरांत उन्होंने अनेक कविताएँ लिखीं। इस सन्दर्भ में ‘भुला सकूँगा नही कभी’ शीर्षक कविता को देखा जा सकता है। यह कविता कवि ने नटहौर के कॉलेज के समय में लिखी थी- ‘‘तुमने मुझको रंग बिरंगे सपने बहुत दिखाए/ तुमने पथ में मेरे पग के नीचे फूल बिछाए/ तुमने मेरे उर में लाखों स्वर्णिम लोक बसाए/ तुमने मेरे कर में लाखों सुख के गीत लिखाएँ/ पर चाहा जब अहम् तुम्हारा मेरे में खो जाए/तुमने तब दे अतिशय पीड़ा सब अरमान जलाए/ जान गया कैसे सहते हैं सहकर कष्ट महान’’[1]
गांधी की हत्या को कवि ने जन सामान्य की तरह निंदनीय माना। इस प्रकार दुष्यंत कुमार ने देश के आकाश में मंडराते काले बादलों पर लिखकर तत्कालीन अशांति पूर्ण वातावरण की ओर संकेत किया। इसलिए उनकी शुरूआती कविता में राजनैतिक वातावरण बराबर चित्रित हुआ है।
दुष्यंत कुमार ने स्कूल के समय ही लिखना आरम्भ कर दिया था। वह पहले ‘परदेशी’ और ‘विकल’ नाम से कविताएँ लिखते थे। बाद में दुष्यंत कुमार के नाम से ही लिखने लगे। कवि ने जब लिखना आरम्भ किया था। तब साहित्य जगत में छायावादोत्तर गीति-काव्य और प्रगतिवाद के स्वर सुनाई पड़ रहे थे इसलिए उनकी शुरूआती कविताओं में प्रगतिवाद के स्वर दिखाई देते हैं। ‘उस समाज को’ शीर्षक गीत को उदाहरणस्वरूप देख सकते हैं- ‘‘उस समाज को कौन रसातल में जाने से रोक सकेगा/ जिस समाज में नारी जाति को अबला का उपनाम दिया है/ जिस समाज ने नारी जाति का जी भरकर अपमान किया है/ अपने घर की प्राचीरों तक उसका सीमित क्षेत्र बनाकर/ जिस समाज ने उसको अपनी राहों से अनजान किया है/ उस समाज को कौन अरे ठोकर खाने से रोक सकेगा’’[2]
कवि की शुरूआती कविताओं में छायावादी रूमानी शैली की छाप दिखाई देती है। इस तह की ज्यादातर कविताएँ गीतात्मक शैली में लिखी गई है। कवि को जिससे प्रेम हुआ था, वह प्रेमिका प्रवास में है इसलिए वह उसकी प्रतीक्षा करते रहते हैं। एक तरह से वे निरंतर वियोग पीड़ा में जल रहे हैं लेकिन उन्हें उसके वापस लौटने की उम्मीद बराबर लगी रहती है। साथ ही कवि सोचता है यदि प्रेमिका रूठ गई है तो मैं उसे किस प्रकार मना सकता हूँ। ‘तुम्हीं बता दो’ शीर्षक गीत को उदाहरण के रूप में देख सकते हैं- ‘‘तुम्हीं बता दो कैसे अपना/ रूठा साजन आज मनाएँ/ जिसने दृग के तीर मारकर/ छलनी-सा उर कर डाला है/ जिसने नयनों के प्यालों में/ सागर का जल भर डाला है।’’[3] इन गीतों में सौंदर्य की लालसा है। प्रेमिका का देहाकर्षण का कुछ बोध होता है। लेकिन मूल में कहीं भी आभास नहीं होता है। इसलिए कवि लिखते हैं- ‘‘गोरी नश्वर काया पर अभिमान करो मत।/ सुषमा का आगार धूप क्षण में हर लेगी।’’[4] इस गीत में एक तरफ प्रिय के पाने की लालसा है तो दूसरी तरफ नश्वर काया की क्षणभंगुरता का आभास कवि कराता है।
प्रेम के साथ-साथ शुरूआती कविताओं में यथार्थ बोध भी चित्रित हुआ है। ‘दीवार दरारें पड़ती जाती है, इसमें ‘दीवार’ कविता की यह पंक्ति मानवता के बीच विद्यमान भेदोपभेद की सूचक है। दुष्यंत जी की कविताओं में मानवता का स्वर मुखर रूप से प्रकट होता है। ‘संसार नहीं मिलता’ शीर्षक गीत को उदाहरण के रूप में देख सकते हैं तथा दुष्यंत जी को मानवता का कवि घोषित करती है- ‘‘है बदल न पाए अब तक धरती-अंबर/ है वही हिमालय वही वायु वह सागर/ मानव की जिंदगी बहुत सस्ती है/ जो आता है हर बार यहाँ मर-मरकर’’[5]
दुष्यंत कुमार के शुरूआती गीतों और कविताओं का मूल सार के रूप में इतना कहा जा सकता है कि इनमें मूल समस्या प्रेम की है। इसके साथ ही आशा, निराशा, लालसा, बेचैनी, छटपटाहट, वेदना, करूणा तथा स्वाभिमान जैसी विशेषताएँ देखने को मिलती है। स्वतंत्र रूप से देश की तत्कालीन स्थिति, स्वार्थपरकता और मानवता को भी कवि ने व्याख्यायित किया है।
अब बात करते हैं ‘सूर्य का स्वागत’ कविता संग्रह की। जिसकी कविताओं में मानव जीवन संबंधी पर्याप्त विषयों को कवि दुष्यंत कुमार द्वारा उठाया गया है। हृदयों में नफरतों का साम्राज्य वर्तमान समय में इतना व्यापक या विस्तृत हो गया है कि मनुष्य, मनुष्य को काटने के लिए तैयार है। आत्मीयता समाप्त होती जा रही है। पारस्परिक स्वार्थता के कारण मनुष्य के मधुर संबंधों रूपी दीवार जर्जर होकर गिर रही है। वह मनुष्य अपने स्वार्थ तक सीमित हो गया है। बढ़ती हुई विषमता के कारण मनुष्य जहरीले सर्प के समान व्यवहार करने लगा है। जिसके कारण समाज में सर्वत्र बिखराव है टूटन है, पारस्परिक सद्भाव का अभाव है। ‘दीवार’ शीर्षक कविता को उदाहरण के रूप में देख सकते हैं - ‘‘दीवार, दरारें पड़ती जाती है इनमें/ दीवार, दरारें बढ़ती जाती हैं इनमें/ तुम कितना प्लास्टर औं’ सीमेंट लगाओगे/ .../ दीवार भला कब तक रह पाएगी रक्षित/ यह पानी नभ से नहीं धरा से आता है।’’[6]
वर्तमान समय में समाज में धार्मिक कर्म-काण्डों का बोल-बाला है। गुणों से हीन समाज पंगु होता जा रहा है। दुष्यंत जी की कविताओं में इनसे मुक्ति पर सवाल किया गया है। साथ ही कवि स्पष्ट रूप से कहते भी हैं कि मात्र गीत, कविता और गज़लों से काम नहीं चलेगा। मनुष्य को अपने हृदय में परिवर्तन करना होगा। साथ ही अपनी रेशम जैसी अभिलाषाओं को कम करना पड़ेगा। ‘कुंठा’ शीर्षक कविता इसका उदाहरण है - ‘‘मेरी कुंठा/ रेशम के कीड़ों-सी/ ताने-बाने बुनती/ तड़प-तड़पकर/ बाहर आने को सिर धुनती’’[7] ‘कुंठा’ कविता के माध्यम से कवि ने मानव मन के मनोवैज्ञानिक स्वभाव का चित्रण किया है। मनुष्य अपनी इच्छा, अभिलाषाओं और आकांक्षाओं के कारण नैतिक कर्तव्य को भुलाकर अन्याय का पक्षधर हो जाता है जिसका उदाहरण ‘कुंठा’ शीर्षक कविता है।
‘सूर्य का स्वागत’ काव्य संग्रह में कवि ने कुंठित इच्छाओं से प्रभावित होकर श्रांगरिक सौंदर्य का वर्णन भी किया है। जिसमें नारी सौन्दर्य के विविध नये उपमान देखने को मिलते हैं। ‘वासना का ज्वार’ और ‘दो पोज’ कविताएँ महत्वपूर्ण नजर आती है। अपार सौन्दर्य के साक्षात्कार तथा मुस्कान के कारण कवि को अपने हृदय का संयम हारा हुआ नजर आता है। उदाहरण के लिए ‘दो पोज़’ शीर्षक कविता देख सकते हैं- ‘‘सद्यस्नात तुम/ जब आती हो/ मुख कुंतलो से ढका रहता है/ बहुत बुरे लगते हैं वे क्षण जब/ राहू से चाँद ग्रसा रहता है।/ पर जब तुम/ केश झटक देती हो अनायास/ तारों सी बूँदें/बिखर जाती है आसपास/ मुक्त हो जाता है चाँद/ तब बहुत भला लगता है’’[8]
दुष्यंत कुमार ने जिंदगी को सफलता के मंच तक पहुँचाने में सत्य के महत्व को सदैव स्वीकार किया। जो व्यक्ति झूठ बोलकर कुछ देर के लिए अपनी इच्छाओं रूपी प्यास बुझा सकता है लेकिन उसे शीतलता सत्य रूपी पानी से प्राप्त होती है। सत्य को न अपनाने वाला व्यक्ति अभावों का जीवन जीता है। ‘सूर्य का स्वागत’ काव्य संग्रह की कविताओं में कवि ने यह दिखाने की भरसक कोशिश की है। दुष्यंत कुमार के अनुसार सत्य से कुछ संघर्ष तो करना पड़ता है लेकिन वह मानते हैं कि सत्य की ही जीत होती है। उनकी नजर में ‘जीवन ही संघर्ष है’ वाला सिद्धांत ही सब कुछ है। उनका स्वयं का व्यक्तित्व भी कुछ ऐसा ही बयान करता है। उन्होंने सत्य से कभी मुँह नहीं मोड़ा, जिसके कारण उनकी अनेक नौकरियाँ छूटी और तबादले हुए लेकिन सत्य का साथ नहीं छोड़ा। ‘ओ मेरी जिन्दगी’ शीर्षक कविता में कुछ ऐसा ही दिखाई देता है- ‘‘मैं उस समय तक चलूँगा/ जब तक उँगलियाँ गलकर न गिर जाएँ/ तुम फिर भी अपनी हो/ वह फिर भी गैर थी जो छूट गई;/ और उसके सामने कभी मैं/यह प्रगट न होने दूँगा/ कि मेरी ऊँगलिया दगाबाज़ है/ या मेरी पकड़ कमजोर है/ मैं चाहे कलम पकड़ूँ या कलाई’’[9] दुष्यंत कुमार का जीवन जीने का अंदाज कुछ ऐसा ही रहा है- अवरोधों का डटकर सामना करना और दु:ख को हँसते-हँसते झेलना। जो व्यक्ति सुख भोगकर दुनिया से चला गया वह ऐसे सुख से वंचित रह जाता है जिस पर करोड़ों करुण मुस्काने कुर्बान है, उस सुख का नाम ही दु:ख है। दुखी व्यक्ति ही सुख का आनन्द ले सकता है क्योंकि दु:ख के दीपक में ही सुख रूपी लौ जलती है। और वह जीवन के अंधकार को दूर करती है। ‘मैं और मेरा मेरा दुख’ शीर्षक कविता इसका प्रमाण है- ‘‘दु:ख:/ किसी चिड़िया के अभी जन्मे बच्चे सा;/ किंतु सुख:/ तमंचे की गोली जैसा/ मुझको लगा है/ आप ही बताएँ/ कभी आपने चलती हुई गोली को चलते,/ या अभी जन्मे बच्चे को उड़ते हुए देखा है?’’[10] दु:ख पूर्ण जिंदगी से घबराकर व्यक्ति को कभी भी परिस्थितियों से समझौता नहीं करना चाहिए, क्योंकि जो परिस्थितियों से समझौता करता है वह कायर है, उसका पौरुष मर जाता है। ‘सूर्य का स्वागत’ काव्य संग्रह की ‘अनुभव दान’ शीर्षक कविता इसका प्रमाण है। जीवन की सफलता का केवल एक ही रास्ता है कि व्यक्ति विश्वास और सीना तानकर समस्या के सामने खड़ा हो जाए।
काव्य-संग्रह की कविताओं में मध्यवर्गीय मनुष्य के जीवन में चलने वाले द्वंद्व को कई कविताओं में चित्रित किया गया है। ‘नयी पीढ़ी के गीत’ शीर्षक कविता में कवि दुष्यंत कुमार ने यही दिखाने का प्रयास किया है। उनकी मान्यता है कि जिन्दगी जीते चलो, आज असफलता तो कल सफलता प्राप्त होगी। सफलता प्राप्त होने का विश्वास मत छोड़ो, इसी विश्वास के साथ व्यक्ति को जीना चाहिए, तभी जीवन का अर्थ प्राप्त होता है। मनुष्य की आशाएँ ही मनुष्य के जीवन का भार ढोती रहती है। दु:खों को दूर करने के लिए मनुष्य को आशावादी होना चाहिए। ‘शब्दों की पुकार’ शीर्षक कविता को उदाहरण स्वरूप देखा जा सकता है- ‘‘एक बार फिर/ मृत विश्वासों ने करवट ली/ सूने आँगन में कुछ स्वर शिशुओं-से दौड़े,/ जाग उठी चेतना सोई;/ होने लगे खड़े वे सारे आहत सपने/ जिन्हें धरा पर बिछा गया था झोंका कोई!’’[11]
इस संग्रह की अंतिम कविता ‘सूर्य का स्वागत’ है। जो कवि के व्यक्तित्व में आशावाद के गुण को प्रमाणित करती है। कवि ने कविता ने दिखाया है कि सूर्य अस्त हो जाने से पूर्व व्यक्ति आशाहीन हो चुका है लेकिन जैसे ही सूर्य नई ऊर्जा के साथ उदय होता है, तो उसके स्वागत के लिए खड़ा होता है। ‘सूर्य का स्वागत’ काव्य संग्रह की कविताओं में दुष्यंत जी ने मानव जीवन की संदेशपरक व्याख्या करी है। एक व्यक्ति को आशावादी बनाना चाहते हैं। व्यक्ति को अंतिम समय तक आशा नहीं छोड़नी चाहिए। साथ ही अन्य कविताओं में निराशा, घुटन और जलनशील सत्यों और असत्यों के कारण मन के द्वंद्व की व्याख्या भी की गई है। कविताओं में चित्रित यथार्थ कवि का स्वयं भोगा हुआ है।
दुष्यंत कुमार के ‘सूर्य का स्वागत’ काव्य संग्रह के बाद, ‘आवाजों के घेरे’ काव्य संग्रह 1963 में प्रकाशित हुआ। इसमें 51 कविताएँ संकलित हैं। इस संग्रह की कविताओं में ‘सूर्य का स्वागत’ संग्रह की कविताओं की अपेक्षा अधिक विविध, विषयों को लेकर विस्तार जिंदगी को व्याख्यायित किया है। साथ ही जीवन से संबंधित अनेक प्रश्न किए और अनेकों उत्तर भी सुझाये गये हैं। कवि ने समाज में जहाँ भी कुछ देखा है उसे व्यक्त करने से संकुचित नहीं हुए हैं। घायल और पीड़ितों और घायलों की करूणा गाथा कहने के लिए तत्पर रहते हैं। वह अपने कलम के साथ संपूर्ण ब्रह्मांड में घुमते हैं। वे करूणा को कविता में दार्शनिक की दृष्टि से नहीं, बल्कि यथार्थ की तेज निगाहों से परखते और पहचानते हैं। प्रस्तुत संग्रह की कविताओं में कवि के हृदय की जो व्याकुलता है, बनी रही है। क्योंकि कवि, एक सफल कवि की अपेक्षा एक सफल व्यक्ति बनने के लिए ज्यादा बेचैन रहता है। इसके लिए कवि ने परम्पराओं का खंडन किया है और टूटती मानवता को जोड़ने का प्रयास किया है।
‘आवाज़ों के घेरे’ काव्य संग्रह की कविता में कवि का आशावाद के प्रति मोह और ज्यादा बढ़ा है। कवि अवसरवादियों की आलोचना करते हैं। वे कविता में चमत्कार और आतंकित गुणा को अच्छा नहीं समझते हैं। दुष्यंत कुमार की कविता में सीधे-सादे पहनावे में समाज की पथ प्रदर्शक है। वह गुमराह लोगों को रास्ता दिखाने का कार्य करती है। आम आदमी की जिंदगी का विश्लेषण प्रस्तुत करती है। उनकी कविताएँ मुखौटे ओढ़े नहीं रहती है और न ही उनमें शब्दों के चमत्कार पर बल दिया जाता है। वह आम आदमी के लिए लिखी गई है। और उन्हीं की पीड़ा, उत्तेजना, दबाव, अभाव और उनके संबंधों के उलझावों को व्यक्त किया जाता है। ‘आवाजों के घेरे’ काव्य संग्रह की कविताओं में मध्यवर्गीय मनुष्य की जिंदगी और वातावरण को चित्रित किया गया है। कवि समाज में सामाजिक विषमताओं ऊँच नीच, बेईमानी, धोखा-धड़ी, अन्याय, अत्याचार आदि को देखकर कवि विचलित हो जाता है। साथ ही विद्रोह के गीत गाने लगता है। संग्रह की ‘विवेकहीन’ शीर्षक कविता को उदाहरण के रूप में देखा जा सकता है- ‘‘जल में आ गया ज्वार/ सागर आंदोलित हो उठा मित्र/ नाव को किनारे पर कर लंगर डाल दो/ कर कुंठा क्रांति बन जाती है जहाँ पहुँच/ लहरों की सहनशीलता की उसी सीमा पर/ आक्रमण किया है हवाओं ने।’’[12] सामाजिक भेद-भाव के कारण मनुष्य की अभिलाषाएँ खत्म हो जाती है लेकिन कवि इसका विरोध करता है। कवि चाहता है कि मनुष्य को परिवर्तन के लिए छटपटाना चाहिए। मनुष्य को स्वतंत्र होकर जीवन व्यतीत करना चाहिए। उसका सामाजिक, धार्मिक और सांस्कृतिक आदि सभी परम्परागत बंधनों को तोड़ देना चाहिए। यदि मनुष्य ऐसा नहीं करता है तो वह असंतोष और अव्यवस्था को जन्म देता है। मनुष्य को सुखवाद से ग्रस्त नहीं होना चाहिए बल्कि दु:खों के साथ खुशी-खुशी जीवन जीना चाहिए। दु:ख के बाद सुख अवश्य आता है।
सर्वभूतहित भावना के कवि दुष्यंत कुमार संग्रह की कविताओं में एक ओर निराशा जीवन का विश्लेषण करते हैं दूसरी तरफ निराशा रूपी कोहरे को दूर करने के लिए आशा रूपी किरणें फैलाते हैं। भविष्य की वंदना करते हुए समूचे मानव जीवन, समाज के उज्ज्वल भविष्य के लिए आस्था बल और आकाश के समान उदार विशाल हृदय मांगते हैं। अन्याय व अत्याचार के लिए आग, जिससे मानव के माथे पर लगे दाग धोए जा सके और सांस्कृतिक उत्थान के द्वार खटखटाये जा सकें। ‘राह खोजेंगे...’ शीर्षक कविता इसका प्रमाण है- ‘‘आह/ वातावरण में बेहद घुटन है/ सब अँधेरे में सिमट आओ/ और सट जाओ/ और जितने आ सको उतने निकट आओ/ हम यहाँ से राह खोजेंगे’’[13] दुष्यंत कुमार का दैनिक जीवन ऐसे लोगों के बीच ही व्यतीत होता है, जो अपने आपको राजनीति के बड़े पुर्जे मानते थे। इन लोगों की करतूतों से भली-भांति परिचित भी थे और ऐसे लोगों पर ‘दूसरा संदर्भ’ शीर्षक कविता में कवि ने व्यंग्य भी किया है। इस संग्रह में कवि ने प्रजातंत्र विरोधी ठहरावों को जीवन-विरोधी प्रस्ताव मानकर सदैव अस्वीकार किया है और उन्हें जनसुख में बाधक मानकर निंदा भी की है। ‘आवाजों के घेरे’ काव्य संग्रह की कविताओं पर गाँधीवाद का प्रभाव स्पष्ट रूप से दिखाई देता है। कवि की कविताएँ ही नहीं बल्कि कवि का व्यक्तित्व भी गाँधीवाद से प्रभावित है। गाँधी की मृत्यु पर कवि ने अनेकों कविताएँ उन पर लिखी थी। जिनमें हिंसकतत्वों की भर्त्सना की जिन्होंने राष्ट्रपिता की हत्या की।
‘गौतम बुद्ध से’ प्रस्तुत संग्रह की अंतिम कविता है। इसमें कवि ने बौद्धों के करूणावाद पर सटीक व्यंग्य किया है। महात्मा बुद्ध ने दु:ख को जीवन का एकमात्र कारण स्वीकार किया। भूखे व्यक्ति के लिए बुद्ध का यह जीवन का समाधान कवि को उचित नहीं लगता है क्योंकि कवि दुष्यंत कुमार मानवता को सर्वोपरि मानते हैं इसलिए वह इस विचारधारा की आलोचना करते हैं और कविता में लिखते हैं- ‘‘दु:ख है मूल आज भी जिसकी/ मात्रा की कुछ शर्त नहीं है,/ संघ धम्म की शरण/ लाख सिर पटके कोई अर्थ नहीं है;’’[14]
‘आवाजों के घेरे’ काव्य संग्रह की कविताओं में सर्वत्र अन्याय के विरूद्ध बेचैनी दिखाई देती है। मध्यवर्गीय व्यक्ति के अभावों और भावों को कलम से कुरेदा है। उसकी पीड़ा और दुखों की आंसू रूपी माला बनाकर आशा रूपी धागे में पिरोया है। और उसे क्रंदन तथा कोलाहलों के बीच घुटती हुई आवाजों के गले पहनाया है।
‘आवाजों के घेरे’ में घिरा हुआ व्यक्ति और दुष्यंत कुमार जी बहुत बेचैन रहते हैं। आगे वह संवेदनाओं से संपन्न हो विपन्नता के वन में भटकते हुए, वीरान जिंदगी लिए विषमताओं से बसंत वेला मे आनंद मानने लगता है। लेकिन यह वसंत वेदनाओं से रिक्त नहीं है। हर क्षण, हर पल वेदनाओं का चक्र चलता रहता है। ‘जलते हुए वन का बसंत’ काव्य संग्रह 1973 में प्रकाशित हुआ था जिसमें 45 कविताएँ संकलित है। इस काव्य संग्रह की कविताओं में आम आदमी की वेदना, बेचैनी, संबंधों के खोखलेपन और सामाजिक, राजनैतिक व नैतिक मूल्यों के प्रभाव की कहानी, सीधी, सरल भाषा के द्वारा बयान की है। स्वतंत्रोत्तर भारत में आदमी की असलियत के बयान के साथ कवि ने मानवता के पुनरूद्धार हेतु संकल्पशक्ति का वरण करने की साधना पर बल दिया है। प्रस्तुत संग्रह तीन भागों में बँटा हुआ है- इतिहास बोध, देश प्रेम और चक्रवात आदि में।
कवि दुष्यंत कुमार की कविताओं में संघर्षरत मनुष्य का चित्रण सबसे ज्यादा किया जाता है क्योंकि वह स्वयं भी संघर्षरत रहे हैं और वह ‘संघर्ष ही जीवन है’ वाली उक्ति में विश्वास रखते हैं और यह सही भी है। संघर्ष करने वाला व्यक्ति कुछ देर के लिए असफल हो सकता है परंतु वह पूरी तरह असफल नहीं हो सकता क्योंकि उसके साथ संघर्ष करने के लिए मनोबल होता है। जिसके कारण उसे सफलता निश्चित मिलती है, ‘अवगाहन’ शीर्षक कविता ऐसे ही संघर्षशील व्यक्ति की गाथा प्रस्तुत करती है- ‘‘अदृश्य तक निकल गया! आह!/ मैं तो यहाँ तक अभी आया नहीं हूँ।/ मैंने यहाँ तक कभी सोचा नहीं है।/ उसने कब तिरना सीख लिया!/ वह कैसे धारा में अनायास डुबकियाँ लगाता है,/ वह देखो, नदी पार करता है’’[15]
दुष्यंत कुमार की कविताओं के विषय दैनिक-जीवन क्षेत्र से उठाये हुए होते हैं। वर्तमान समय में हर स्थान पर एक भीड़ दिखाई देती है, जिसमें केवल अपनत्व के लिए लोगों को अजनबियों की श्रेणी में खड़ा कर देते हैं। रेल यात्रा में लोग किस प्रकार मानवता को भूलकर दूसरे व्यक्तियों के साथ शत्रुओं जैसा व्यवहार करते हैं। एक-दूसरे के प्रति संदेहों, शंकाओं से भर जाते हैं। कवि ने इसका सुन्दर चित्रण ‘एक सफर पर’ शीर्षक कविता में किया है- ‘‘बहुत बुरी हालत है, डिब्बे में/बैठो हुओं को/ हर खड़ा हुआ व्यक्ति शत्रु/ खड़े हुओं को बैठा हुआ बुरा लगता है/ पीठ टेक लेने पर/ मेरे भी मन में/ ठीक यही भाव जगता है/मैं भी धक्कम-धू में/ हर आने वाले को/क्रोध से निहारता हूँ’’[16]
आज व्यक्ति समाज में रहते हुए भी उससे कह गया है, पारस्परिक सद्भाव वह भूल गया है। व्यक्ति अपने आप में ही उलझकर रह गया है। मानवता धीरे-धीरे सो रही है। समाज में अन्याय व अत्याचार है, दर्द है, बेचैनी है, घुटन है, टूटन है, पर कहाँ है किसी को किसी से कुछ लेना-देना नहीं है। कवि ने युद्ध, विद्रोह, अन्न संकट, सत्ता परिवर्तन तथा अन्य समस्याओं की ओर भी संकेत किया है। व्यक्ति अपने अस्तित्व को बनाये रखने के लिए कुछ भी करने के लिए तैयार रहता है। वह समाज में मान सम्मान और उसको प्राप्त करने के चक्कर में मानवता को भूल जाता है। काव्य-संग्रह की कविताओं में कवि ने मानव जीवन के नग्न यथार्थ का चित्रण किया है। व्यक्ति किस प्रकार अपना संपूर्ण जीवन बाजार से रसोई तक चलने के चक्कर में नष्ट कर देते हैं। उसकी इच्छाएँ जीवन का एकमात्र उद्देश्य बनकर रह जाती है। वर्तमान परिस्थितियों और मानव मूल्यों में जो वैषम्य विद्यमान है जिसके कारण मानव मूल्य नष्ट हो रहे हैं। ऐसे व्यक्ति को आदर्श पराजित करते हैं और सत्य छलता है जिसके बारे में कवि ‘बसन्त आ गया’ शीर्षक कविता में लिखते हैं- ‘‘मुझे उस भविष्य तक पहुँचने से पहले ही/ रूकना पड़ा/लगा मुझे/ केवल आदर्शों ने मारा/ सिर्फ सत्य ने छला/ मुझे पता नहीं चला’’[17]
‘जलते हुए वन का बसन्त’ काव्य संग्रह की कविताओं में कवि ने देश, देशप्रेम, देश भक्ति और देशद्रोह, जनता की स्थिति, मंत्रियों के क्रिया-कलाप, चुनाव, भ्रष्टाचार, झूठे आश्वासन, युद्ध की आवश्यकता, लोकतंत्र की असफलता के कारण और उच्च-निम्न वर्ग के जीवन स्तर की निकृष्टता-श्रेष्ठता आदि विषयों का सूक्ष्म, सांकेतिक, प्रतीकात्मक व कहीं-कहीं सीधी अभिव्यक्ति की है। कवि ने ऐसे लोगों की आलोचना की है जो लोग राष्ट्रप्रेम के नारे लगाते हैं, चीखते-चिल्लाते हैं, पर सचमुच हृदय से कोई देशहित में कार्य नहीं करते हैं। ऐसे लोग देश-प्रेम हो चाहे अन्य किसी पहलू पर दिखावा करते हैं। ऐसे लोगों की दुष्यंत कुमार जी ने ‘देश-प्रेम’ शीर्षक कविता में आलोचना की है- ‘‘कोई नहीं देता साथ/ सभी लोग युद्ध और देश-प्रेम की बातें करते हैं।/ बड़े-बड़े नारे लगाते हैं।/ मुझसे बोला भी नहीं जाता।/ जब लोग घंटों राष्ट्र के नाम पर आँसू बहाते हैं/ मेरी आँख में एक बूँद पानी नहीं आता’’[18] ऐसे उदास जन-सामान्य के लिए कवि नई पीढ़ी व इतिहास से क्षमा माँगते हुए कहते हैं। मात्र दिखावे से, अर्द्ध-सत्य से, और झूठे आँसू बहाने से देश व जनता का विकास संभव नहीं है।
काव्य-संग्रह की कविताओं में द्वंद्व भी देखने को मिलता है। कवि एक तरफ परम्पराओं, मान्यताओं का खंडन करता है तो दूसरी तरफ उनकी प्रतीक्षा भी करता है। कवि मानता है कि परम्परावादी होने से विकास बाधित होता है। दूसरी तरफ इन्हें तोड़ने के लिए साहस की आवश्यकता होती है क्योंकि कभी-कभी जिंदगी में ऐसे पल भी आते हैं कि कर्म, विराग, कल्पना सब व्यक्ति को दिशाहीन कर देते हैं। ‘सृष्टि की आयोजना’ शीर्षक कविता में कवि ने कुछ ऐसा ही चित्रण किया है- ‘‘मैं- जो भी कुछ हाथ में उठाता हूँ/ सपने या फूल/ मिट्टी या आग/ कर्म या विराग/ मुझे कहीं नही ले जाता।/ सिर्फ एक दिग्भ्रम की स्थिति तक’’[19]
कवि दुष्यंत कुमार ने अपने तीसरे काव्य संग्रह में विषय विविधता का परिचय दिया है। कविताओं में देश-प्रेम की भावना भी है और दोहरी प्रवृत्ति के लोगों की निंदा भी। साथ ही एक ओर मानव के समक्ष सुरसा के मुँह के समान खड़ी समस्याओं का भी बोध कराया है। साथ ही संघर्ष करने की इच्छाशक्ति भी दिखाई देती है। संघर्ष से ही सफलता मिलती है। जिंदगी की नीरसता और प्रकृति की वस्तुस्थिति के प्रतीक पद्धति से अनेक बिम्ब खींचे हैं।
दुष्यंत कुमार जी की अंतिम काव्य संग्रह ‘साये में धूप’ 1975 में प्रकाशित हुआ। जो कविता संग्रह न होकर गज़लों का संग्रह है। इस गज़ल-संग्रह से दुष्यंत कुमार ने रातों-रात हिन्दी साहित्य जगत में ही नहीं उर्दू गज़ल परम्परा भी ख़लबली मचा दी थी। क्योंकि गज़ल को शायरों और पाठकों ने केवल प्रेम, मोहब्बत, प्यार आदि के पर्याय के रूप में ही स्वीकार किया था। लेकिन दुष्यंत कुमार ने गज़लों के बाह्य पुराने रूप में नई वस्तु को प्रस्तुत किया, जिसमें महँगाई, गरीबी, भुखमरी, बेकारी, भ्रष्टाचार, लापरवाही, शासक वर्ग पर व्यंग्य लोगों ने स्वतंत्रता से जो आशाएँ लगा रखी थीं, उन आशाओं का टूटना, आदि विषयों पर अपनी लेखनी चलाई।
गज़ल एक स्वतंत्र साहित्यिक-विधा की श्रेणी में आती है। उर्दू में तो गज़लों की लम्बी परम्परा देखने को मिलती है। साथ ही उर्दू में एक से एक बड़े गज़लकार और शायर हुए हैं। गालिब, मीर, फ़िराक, फैज़ अहमद फैज़, मुनव्वर राणा आदि। गालिब़ ने अपने भावों, विचारों को गजल में व्यक्त कर उसे सर्वसामान्य के लिए बना दिया है। वैसे हिन्दी में भी महाकवि निराला, नीरज, रामदरश मिश्र, रघुवीर सहाय, त्रिलोचन, रमासिंह जैसे गज़लकारों की एक परम्परा है। इनके बारे में यह कहा जा सकता है कि इन्होंने भी गज़लों में अपने हाथ आजमाये। जो इनके लिए महत्वपूर्ण नहीं बन सकी। दुष्यंत कुमार जी से पूर्व हिन्दी में रचित गज़लों की यही स्थिति रही। वह हिन्दी जगत के पाठकों को प्रभावित नहीं कर सकी। कवि दुष्यंत कुमार जी कहते हैं कि मैं केवल गज़ल दिखाने के लिए गज़ल नहीं लिखा हूँ या सिर्फ पोशाक बदलने के लिए मैंने गज़लें नहीं ही है उसके कई कारण हैं जिनमें सबसे मुख्य कारण है कि मैंने अपनी तकलीफ, दुख को इसमें व्यक्त किया है। यह तकलीफ केवल दुष्यंत कुमार की नहीं है बल्कि आम-आदमी की दु:ख-दर्द की बात करते हैं। गज़ल ज्यादा से ज्यादा लोगों तक पहुँचती है और पाठक के हृदय को झकझोरकर रख देती है।
दुष्यंत कुमार की तकलीफ अपनी नहीं है बल्कि आम-आदमी की तकलीफ है। जिसके बारे में कवि ने स्वयं की अपनी एक गज़ल में लिखा है- ‘मुझमें रहते हैं करोड़ों लोग चुप कैसे रहूँ।’ स्वतंत्रता से आम-आदमी ने आशाएँ लगा रखी थी कि स्वतंत्रता के बाद उन्हें भी चैन की जिंदगी जीने को मिलेगी। लेकिन कुछ नहीं बदला केवल सरकारें बदली। आम आदमी उसी तरह सरकारों की अदला-बदली की चक्की में पिसता रहा है। उसकी स्थिति आज भी वैसे ही है। कवि द्वारा लिखने एक गज़ल का शेर सारी कहानी व्यक्त कर देता है- ‘‘न हो कमीज़ तो पावों से पेट ढक लेंगे,/ ये लोग कितने मुनासिब हैं इस सफर के लिए।’’[20] लेकिन तत्कालीन सरकारों ने आजादी से पहले बहुत वादे किये थे जो पूरे नहीं हो सके। आम-आदमी के सभी सपने एक-एक करके टूटने लगे। आम-आदमी के सपनों को टूटता देख दुष्यंत कुमार जी ‘साये में धूप’ गज़ल-संग्रह की पहली गज़ल का पहला शेर ही इस प्रकार है- ‘‘कहाँ तो तय था चिराग़ाँ हरेक घर के लिए/ कहाँ चिराग मयस्सर नहीं शहर के लिए’’[21]
कवि ने जो लिखा वह खुलकर लिखा। उन्होंने शासक वर्ग पर खूब व्यंग्य किये। उन्हें किसी भी तरह की परवाह नहीं थी। यह उनके व्यक्तित्व का गुण था। शासक वर्ग पर साहित्य की चोट से बराबर प्रहार करते रहते थे। एक बार तो उनकी नौकरी भी चली गई थी लेकिन फिर भी वह अपनी आदत के अनुसार लिखते ही रहे। वह सरकारों पर खुलेआम लिखते थे। वे एक शेर में लिखते हैं- ‘‘तेरा निज़ाम है सिल दे जुबान शायर की,/ ये एहतियात जरूरी है इस बहर के लिए।’’[22]
कवि की गजलों में देश-प्रेम भी बराबर झलकता है। क्योंकि उनके अंदर देश-प्रेम कूट-कूट कर भरा हुआ था। वह भारत के लिए जीना और मरना चाहते थे। शेर में इस प्रकार से लिखते हैं- ‘‘जिए तो अपने बग़ीचे में गुलमोहर के तले,/ मरें तो गैर की गलियों में गुलमोहर के लिए।’’[23] लेकिन वह देश की नाजुक हालत को देखकर दुखी होते थे। हर क्षेत्र में महामारी चाहे सामाजिक, चाहे आर्थिक, चाहे प्रशासनिक आदि स्थिति सबकी सब दयनीय दिखाई देती हैं इसलिए कवि दुष्यंत कुमार जी असंतुष्ट नजर आते हैं। वे गज़ल में लिखते हैं- ‘‘कल नुमाइश में मिला तो चीथड़े पहने हुए,/ मैंने पूछा नाम तो बोला कि हिन्दुस्तान है।’’[24]
कवि की बेचैनी का कारण आम आदमी की पीड़ा रहा, इस पीड़ा से प्रेरित होकर वे राष्ट्र निजामों को फटकारने से भी नहीं चूकते थे। वे सदैव मानवता के लिए जीने मरने वाले व्यक्ति थे। उनकी गज़लों में मानवता के खिलाफ जहाँ कहीं भी जो कुछ देखा, उसका चित्रण किया गया है। और उसको देखकर जोरदार प्रतिक्रिया व्यक्त करते। वे चुप रहने वाले नहीं थे। वे लिखते हैं- ‘‘ये जुवां हमसे सी नहीं जाती,/ जिंदगी है कि जी नहीं जाती।’’[25] आगे लिखते हैं दूसरी गज़ल में- ‘‘सिर्फ हंगामा खड़ा करना मेरा मकसद नहीं,/ मेरी कोशिश है कि ये सूरत बदलनी चाहिए।’’[26]
‘साये में धूप’ की गज़लों में दुष्यंत जी ने सत्य के पक्ष को कहीं भी छोड़ा नहीं है। उन्होंने देश में व्यापक स्तर पर फैली समस्याओं पर अपनी लेखनी बिना किसी भय से चलाई है। उन्होंने अपने मुँह पर कभी मुखौटा नहीं लगाया अर्थात उनकी कथनी और करनी में कोई अंतर नहीं दिखता है। जो लोग दोहरी जिंदगी जीते हैं कवि उनसे नफ़रत करता है। उनके लिए वे एक गज़ल के माध्यम से कहते हैं- ‘‘यहाँ तो सिर्फ गूंगे और बहरे लोग बसते हैं,/ खुदा जाने यहाँ पर किस तरह जलसा हुआ होगा’’[27]
कवि परंपराओं, रूढ़ियों, मान्यताओं और विश्वास-अंधविश्वासों का तो जोरदार विरोध करता है और कहता है कि ये व्यक्ति ही नहीं बल्कि राष्ट्र की प्रगति में भी बाधक होती है। इसलिए वे उनका खंडन करते हैं और लिखते हैं- ‘‘पुराने पड़ गए डर, फेंक दो तुम भी/ ये कचरा आज बाहर फेंक तो तुम भी’’[28]
‘साये में धूप’ गज़ल संग्रह की गज़लों में मानव जीवन से संबंधित विविध विषयों पर कवि ने अपनी लेखनी बिना किसी रूकावट के चलाई है। साथ ही इन गज़लों में उर्दू और हिन्दी के शब्दों का मिश्रण भी दुष्यंत कुमार जी ने बहुत सावधानी से किया है। गज़लों में हिन्दी-उर्दू का संगम देखने योग्य है। कवि ने गज़लों में ऐसे उर्दू शब्दों का प्रयोग किया है जिन्हें भाषा ने आसानी से पचा लिया है।
इस प्रकार दुष्यंत कुमार के काव्य में विभिन्न आयाम देखने को मिलते हैं। ‘सूर्य का स्वागत’ काव्य संग्रह की कविताओं में आशा और उज्ज्वल आस्था का भाव झलकता है तो ‘आवाजों के घेरे’ काव्य संग्रह की कविताओं में व्याकुलता और प्रश्नाकुलता अपनी आक्रामक उपस्थिति जता रही है। ‘जलते हुए वन का बसन्त’ काव्य संग्रह की कविताओं में आम-आदमी बेचैनी और संबंधों के खोखलेपन का रेखांकित किया गया है। ‘साये में धूप’ गज़ल संग्रह में तो जीवन के सभी पक्षों को कवि ने एक साथ उठा लिया है। मानव के जीवन के प्रत्येक पक्ष पर कवि ने अपनी लेखनी चलाई है।
संदर्भ ग्रंथ सूची:-