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संस्कृत साहित्य में देव पद के पर्याय एवं उनके निहितार्थ

संस्कृत साहित्य में देव वाचक अनेक पदों का प्रयोग किया गया है। संस्कृत साहित्य में लगभग २४ पद ऐसे हैं जिनका प्रयोग देवता के अर्थ में किया जाता है। इन पदों का संग्रह अमरकोश में मिलता है। प्रकृत शोध-निबन्ध में देव वाचक पदों के निहितार्थ को शास्त्रीय दृष्टि से समझने का प्रयास किया गया है। इसके लिए देव वाचक पदों की व्युत्पत्ति एवं प्रयोग पर विमर्श करके निष्कर्ष का प्रतिपादन किया गया है।

संस्कृत व्याकरण में समस्त शब्द-संसार को मुख्यरूप से दो प्रकारों में विभक्त किया गया है-सुप्तिङतं पदम् [१] अर्थात् पद दो प्रकार के होते हैं- सुबन्त और तिङन्त। सुप् (सु, औ,जस् आदि) प्रत्ययों के संयोग से बने संज्ञा तथा सर्वनाम पदों को सुबन्त और तिङ् (ति, तः, अन्ति आदि) प्रत्ययों के योग से बने क्रिया पदों को तिङन्त कहा जाता है। इनके अलावा अत्यल्प संख्या में अव्यय पद होते हैं जिनमें किसी प्रत्यय का संयोग नहीं होता है। वे प्रयोग के लिए कारक और विभक्ति के अधीन नहीं होते हैं। सर्वनाम पदों को छोड़कर सभी संज्ञा पदों के विषय में संस्कृत व्याकरण का मानना है कि वे किसी न किसी रूप में धातु से ही बने होते हैं ।उनके अनुसार प्रत्येक पद के मूल में धातु होती है। धातु से ही प्रत्यय एवं उपसर्ग लगाकर शब्दों का निर्माण किया जाता है। संस्कृत साहित्य में लगभग २००० धातुएँ हैं । उन्हीं से अनन्त शब्द- संसार का निर्माण होता है। देव पद का निर्माण दिव् धातु से हुआ है। पाणिनीय धातु पाठ के अनुसार दिव् धातु का प्रयोग क्रीडा, विजिगीषा, व्यवहार, द्युति, स्तुति, मोद, मद, स्वप्न, कान्ति गति अर्थों में किया जाता है- दिव्-क्रीडा-विजिगीषा-व्यवहार-द्युति-स्तुति-मोद-मद-स्वप्न-कान्ति-गतिषु [२]। इन समस्त अर्थों में देव पद की सार्थकता देखी जा सकती है। जिस प्रकार दिव् धातु के अनेक अर्थ है ठीक उसी प्रकार से दिव् धातु से बने देव पद के अनेक पर्याय हैं।

संस्कृत साहित्य में देव पद के लिए प्रयुक्त होनेवाले पर्याय पदों का संकलन संस्कृत साहित्य के प्रसिद्ध कोशग्रन्थ अमरकोश में किया गया है। अमरकोश के अनुसार देव पद के पर्याय हैं [३]-
अमरा निर्जरा देवास्त्रिदशा विबुधाः सुरा:।
सुपर्वाणः सुमनसस्त्रिदिवेशा दिवौकसः ॥
आदितेया दिविषदो लेखा अदितिनन्दनाः।
आदित्या ऋभवोऽस्वप्ना अमर्त्या अमृतान्धसः॥
बर्हिर्मुखाः क्रतुभुजो गीर्वाणा दानवारयः।
वृन्दारका दैवतानि पुंसि वा देवताः स्त्रियाम्॥

अमर, निर्जर, त्रिदशा, विबुध, सुर, सुपार्वण, सुमनस्, त्रिदिवेश, दिवौकस, आदितेय, दिविषद, लेख, अदितिनन्दन, आदित्य, ऋभु, अस्वप्न, अमर्त्य, अमृतान्धस, बर्हिर्मुख, क्रतुभुज, गीर्वाण, दानवारय, वृन्दारक और देवता या देव ये २४ पद देव के पर्याय हैं। इन पर्याय पदों का संस्कृत साहित्य में प्रयोग किया गया है। हिन्दी और अन्य भाषाओं में इनमें से कुछ ही पदों यथा- अमर, अमर्त्य, सुर, देव और देवता का प्रयोग देखने को मिलता है। विश्व की किसी भी अन्य भाषा में देव या इसके समतुल्य पद के इतने पर्याय नहीं हैं। अब इन पर्याय पदों के निहितार्थ विवेचनीय है-
१.अमर पद का अर्थ है- अ-मर अर्थात् जो मरते नहीं हैं, उनकों अमर कहा जाता है। देवता ही मरण-धर्म से रहित होते हैं । इसीलिए उनकों अमर कहा जाता है। यह पद देव का सर्वाधिक प्रचलित पर्याय पद है।

२.अमर्त्य- अमर्त्य पद का अर्थ है- अ-मृत्य अर्थात् जो मृत्य नहीं होते हैं। यह गुण भी देवताओं में पाया जाता है। अतः देवता अमर्त्य हैं। अमर और अमर्त्य के निहितार्थ में कोई खास भेद नहीं है। इसी कारण यहाँ व्यतिक्रम करके अमर्त्य पद का विवेचन पहले किया गया है।

३.निर्जर- निर्- जर अर्थात् जो जरत्व को प्राप्त नहीं करता है अर्थात् जिनका शरीर किसी भी अवस्था में जर-जर नहीं होता है वह निर्जर कहलाता है। मनुष्य का शरीर युवावस्था के बाद जर-जर होने लगता है। शरीर के अंगों का जर-जर होना ही वृद्धावस्था है। देवता कभी वृद्धावस्था को नहीं प्राप्त करते हैं। इसीलिए उनकों निर्जर कहा गया है। अमर, अमर्त्य और निर्जर पदों का सम्बन्ध शरीर से है। देवों का शरीर विनष्ट नहीं होता है और वे न ही कभी वृद्धावस्था को प्राप्त करते हैं। वे सदा शरीर से युवा बने रहते हैं।

४.त्रिदशा- सामान्य रूप से मनुष्य के शरीर की तीन अवस्थाएँ होती हैं-बल्यावस्था, युवावस्था एवं वृद्धावस्था परन्तु जैसा कि ऊपर वर्णित किया गया है, देवता वृद्ध नहीं होते हैं अतः वे वृद्धावस्था को प्राप्त नहीं करते हैं। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि देवता दो ही अवस्था को प्राप्त करते हैं। उनकी भी तीन अवस्थाएँ हैं- बाल्य, कौमार एवं यौवन। देवता इन तीन अवस्थाओं को प्राप्त करते हैं। यौवनावस्था को प्राप्त करने के बाद वे सदा युवा ही बने रहते हैं। इसी उद्देश्य से देवता का पर्याय पद त्रिदशा का प्रयोग हुआ है।

५. विबुध- विशेषेण बुध्यते इति विबुधः अर्थात् विशिष्ट ज्ञान- विज्ञान से युक्त को विबुध कहा जाता है । कोश ग्रन्थों के अनुसार विबुध पद का अर्थ है[४]- बुद्धिमान् या विद्वान्। संस्कृत साहित्य में इस पद का प्रयोग देवता, ऋषि और मुनि के लिये किया गया है। विशेषण के रूप में भी इस पद का प्रयोग किया गया है। इन्द्रादि देवताओं के विशेषण के रूप में इस पद का प्रयोग किया गया है। देवता विशिष्ट ज्ञान- विज्ञान से युक्त होत हैं अतः वे विबुध हैं।

६.सुर- सुष्ठु राति ददात्यभीष्टम् इति सुरः अर्थात् जो विशेष रूप से प्रकाशित होता है और जो अभीष्ट को प्रदान करता है वह सुर कहलाता है। मुख्य रूप से देवता के लिये सुर पद का प्रयोग किया जाता है। देवता अपनी विद्या, शिल्प और कला से सदा प्रकाशित होते हैं। वे सदा अभीष्ट प्रदान करने वाले होते हैं।

७. सुपर्वाण- पर्वन् या पर्व पद का अर्थ होता है- गांठ, जोड़, सन्धि, ग्रन्थ का भाग( महाभरत का विभाजन पर्व में किया गया है) तथा उत्सव। इसी पद में सु निपात लगकर बहुवचन में सुपर्वाणः पद बनता है जिसका अर्थ होता है- शोभनाः पर्वाणः यस्याः ते अर्थात् जिनके शारीरिक अंग तथा अंगों के जोड़ बहुत सुन्दर हो। देवता गण के समस्त अंग निर्दोष होते हैं। उनका समस्त शरीर अत्यन्त सुन्दर और आकर्षक होता है अतः उन्हें सुपार्वण कहा गया है। पर्व पद का अर्थ उत्साह ग्रहण करने पर सुपार्वणः का तात्पर्य है- उत्साहेन पर्वाणि मन्यन्ते ये ते सुपर्वाणः अर्थात् जो सदा उत्साहपूर्वक उत्सवों को मनाते हैं। देवगण अत्यन्त उत्साह से उत्सवों को मनाते हैं अतः वे सुपर्वाण है।

८. सुमनस्- सुन्दर मनवाले सुमनस होते हैं। ऐसे ही मनवालों को संस्कृत में सुमनस कहा गया है- शोभनः मनसः यस्याः ते सुमनसः। संस्कृत शब्दकोश में इस पद का अर्थ है [५]- देवता, विद्वान् पुरुष, रमणीय, उदार, अच्छे स्वभाव वाला आदि। देवता में विद्वता, रमणीयता, उदारता आदि समस्त गुण विद्यमान होते हैं अतः संस्कृत साहित्य में देवता को सुमनसः कहा गया है।

९. त्रिदिवेश और १०. दिवौकस - स्वर्ग में रहने के कारण देवताओं को त्रिदिवेश और दिवौकस कहा जाता है।

११. आदितेय- अदितेः पुत्रः आदितेयः अर्थात् अदिति के पुत्र को आदितेय कहा जाता है। आदितेयः का बहुवचन में आदितेयाः बनता है। इस प्रकार अदिति के पुत्र होने के कारण देवताओं को आदितेय कहा गया है।

१२. दिविषद - द्युलोक अर्थात् स्वर्गलोक में रहने वाले को दिविषद कहा जाता है। देवगण स्वर्गलोक में निवास करते हैं अतः उनको दिविषद कहा गया है। वस्तुतः त्रिदिवेश, दिवौकस और दिविषद तीनों पद समानार्थक हैं।

१३. लेख- लिख् धातु में घञ् प्रत्यय के संयोग से बने लेख पद का सामान्य अर्थ होता है- दस्तावेज, लिखावट, पत्र। परन्तु अनेक स्थलों पर इस पद का विशेष अर्थ में प्रयोग किया गया है। इसका विशेष अर्थ है- लेखन कला में निपुण। देवगण लेखन कला में निपुण होते हैं अतः उन्हें लेख कहा गया है। महाकवि कालिदास ने अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में कामदेव के लिए मन्मथलेख पद का प्रयोग किया है [६]।

१४. अदितिनन्दन- इस पद का शाब्दिक अर्थ है- अदितिं नन्दयति इति अदितिनन्दनः अर्थात् अदिति को आनन्दित करनेवाले। अदिति को देवताओं की जननी कहा जाता है और एक माता को सर्वाधिक आनन्द अपनी सुयोग्य संतान से मिलता है। देवता अदिति के संतान है, अतः उनको अदितिनन्दन कहा गया है।

१५. आदित्य- अदिति की संतान होने के कारण देवताओं को आदित्य कहा गया है। महाकवि कालिदास ने कुमरसम्भव महाकाव्य में आदित्य पद का प्रयोग देव-समुदाय के अर्थ में किया है [७]। पौराणिक वर्णन के आधार पर आचार्य मल्लिनाथ ने आदित्य पद को १२ सूर्यों का समुदाय माना है। बारह सूर्य केवल प्रलयकाल में उदित होते हैं।

१६.ऋभु- ऋभु पद का बहुवचन में ऋभवः होता है। संस्कृत शब्दकोश के अनुसार ऋभुः पद का अर्थ है [८]- देवता, दिव्यता, देव। ऋग्वेद में अनेक स्थलों पर ऋभु पद का प्रयोग किया गया है। एक वर्णन के अनुसार ऋभु अत्यन्त श्रेष्ठ शिल्पकार होते थे। ऋभुओं ने इन्द्र और अश्विनि कुमारों के लिए के लिए दो घोड़ों से युक्त ऐसे रथ का निर्माण किया जो चालक के सोचने मात्र से चलते थे।
य इन्द्राय ववोयुजा ततक्षुर्मनसा हरी।
तक्षन्नासत्याभ्यां परिज्मानं सुखं रथम् [९]॥

इतना ही नहीं एक मन्त्र में कहा गया है कि ऋभुओं ने दूध देनेवाली दुधारू गायों का निर्माण किया।
तक्षन् धेनुं सर्वदुघाम् [१०]।

१७.अस्वप्ना - संस्कृत के स्वप् धातु में नक् प्रत्यय (स्वप्+नक्) लगकर स्वप्न पद का निर्माण होता है जिसका अर्थ है- शयन, सपना, शिथिलता, आलस्य और भ्रम। इसका विपरीतार्थक पद है- अस्वप्न और बहुवचन में अस्वप्ना पद बनता है। इसप्रकार इस पद का अर्थ है- जो शयन नहीं करता है, जो सपना नहीं देखता है, जो शिथिल नहीं होता है, जो आलस्य या भ्रम नहीं करता है । ये समस्त गुण देवता में पाये जाते हैं। देवता सदा अपने कर्तव्यपालन में तत्पर रहते हैं। अतः देवता को अस्वप्ना कहा गया है।

१८. अमृतान्धस - संस्कृत के अद् धातु से असुन् और घ प्रत्यय लगकर नपुंसकलिंग में अन्धस् पद बनता है। अद् धातु का अर्थ भोजन होता है। अन्धस् पद भी भोजनार्थक है। इस पद की एक दूसरी व्युत्पत्ति भी है- अन्+धस् । अन् प्राण व्यापार का नाम है । अन्न के बिना जीवन धरण नहीं किया जा सकता है। धस् धारण करने के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। इसप्रकार जिस अन्न से प्राण का धारण होता है उसको अन्धस् कहते हैं। उपनिषदों में मानव शरीर को अन्नमय कोश कहा गया है क्योंकि अन्न के बिना शरीर नहीं रह सकता है। अन्धस् का बहुवचन में अन्धसः प्रयोग होता है। यहाँ अन्धसः पद के साथ मृत पद का समास होकर मृतान्धसः पद बनता है जिसका अर्थ होता है- मृत भोजन करने वाला अर्थात् मरा हुआ भोजन करने वाला मृतान्धस होता है। इसको प्रेत-भोजन भी कहते हैं। इसके विपरीत जो प्रेत-भोजन नहीं करता है उसको अमृतान्धस कहते हैं। देवता मृत-भोजन नहीं करते हैं अतः वे अमृतान्धस हैं।

१९. बर्हिर्मुख - बर्हिः का एक अर्थ है-यज्ञ और यज्ञ ही जिसका मुख है वह बर्हिमुखः कहलाता है- बर्हि एव मुखः यस्य सः बर्हिमुखः। इसका बहुवचन में बर्हिमुखाः प्रयोग होता है। देवता का जीवन यज्ञमय होता है अतः उनको बर्हिमुख कहा गया है।

२०. क्रतुभुज- संस्कृत साहित्य में क्रतु पद का प्रयोग मुख्य रूप से यज्ञ के अर्थ में हुआ है। क्रतुभुज पद देवता के अर्थ में रूढ़ है। परन्तु व्युत्पत्ति की दृष्टि से इस पद का अर्थ है- क्रतु एव भुनक्ति इति क्रतुभुजः अर्थात् यज्ञ का जो भोजन करता हो वह क्रतुभुज है। देवता यज्ञ में प्राप्त यज्ञीय हवि को ही ग्रहण करते हैं। अतः उनको क्रतुभुज कहा गया है।

२१. गीर्वाण-संस्कृत साहित्य में गीर्वाण पद का प्रयोग देवता के पर्याय के रूप में किया गया है। गीर्वाण पद का निर्माण संस्कृत के गृ धातु से हुआ है जिसका अर्थ है वाणी या स्तुति । इसका तात्पर्य है कि देवता वाणी के अधिष्ठाता हैं, वे वाणीस्वरूप हैं, वे मधुर वाणी से प्रसन्न होते हैं और मधुर वाणी ही सृष्टि का आधार है। प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् श्रीपाद दामोदर सातवलेकर के मतानुसार देवता स्तुति का सेवन कारने वाले होते हैं अथवा वे स्तुति के योग्य होते हैं, अतः उनको संस्कृत साहित्य में गीर्वाण कहा गया है [११]।

२२. दानवारय- दानवाय अरयः इति दानवारयः अर्थात् जो राक्षसों के लिए शत्रु है वह दानवारय कहलाता है। देवता राक्षसों एवं राक्षसी प्रवृत्ति के शत्रु होते हैं। देवताओं ने समय-समय पर मानव के कल्याण के लिए राक्षस एवं राक्षसी प्रवृत्त्ति का विनाश करते रहते हैं। अतः वे दानवारय हैं।

२३. वृन्दारक- संस्कृत शब्दकोश के अनुसार वृन्द पद का अर्थ होता है [१२]- समूह, समुच्चय। वृन्द पद में आरकन् प्रत्यय लगने से वृन्दारक शब्द बनता है। इसका बहुवचन वृन्दारकाः होता है। संस्कृत साहित्य में वृन्दारक पद का प्रयोग मुख्य रूप से दो अर्थों में हुआ है-१. सुन्दर और २. देव। प्रथम अर्थ की दृष्टि से भी वृन्दारक पद का प्रयोग देवता के लिए समुचित ही है। देवता सभी के आकर्षण के केन्द्र होते हैं।

श्रीपाद दामोदर सातवलेकर वृन्दारक को समस्त पद मानकर इसका विग्रह करते हैं- प्रशस्तं वृन्दं येषां ते [१२] अर्थात् जिनका संघ प्रशंसा योग्य होता है। इस दृष्टि से देवता के लिए प्रयुक्त इस पद का तात्पर्य है कि देवता सदा संघ में रहते हैं और उनका संघ अत्यन्त प्रशंसनीय है। देवता संघटना करने में अत्यन्त निपुण होते हैं। इस प्रकार वृन्दारक पद देवताओं की संघशक्ति का परिचायक है।

२४ देव- ऊपर देव शब्द के विषय में वर्णित किया गया है कि यह पद दिव् धातु से बना है और इस धातु का प्रयोग दस अर्थों में होता हैं। वस्तुतः ऊपर वर्णित दस अर्थ दस गुण हैं जो देवों में विद्यमान रहते हैं। इसप्रकार दिव् धातु के दस अर्थों को धारण करने के कारण देव पद की सार्थकता सिद्ध होती है।

यहाँ यह भी ध्यातव्य है कि संस्कृत साहित्य में देव पद का प्रयोग पुल्लिड़्ग, स्त्रीलिड़्ग और नपुंसकलिड़्ग तीनों में होता है। इसीलिए अमरकोशकार ने लिखा है- दैवतानि पुंसि वा देवताः स्त्रियाम् [१३]। अर्थात् देव पद का प्रयोग पुल्लिड़्ग में, देवी या देवता पद स्त्रीलिड़्ग में और दैवतानि ( दैवतम्) नपुंसकलिड़्ग में प्रयुक्त होता है।

इन पर्याय पदों के निहितार्थ पर विमर्श करने पर इनको दो वर्गों में बांटा जा सकता है-१. ऐसे पद जो केवल देवता के लिए ही प्रयुक्त हो सकते हैं और उनके लिए ही प्रयुक्त किए गए हैं तथा २. ऐसे पद जो देवता के साथ-साथ मनुष्य के लिए भी प्रयुक्त हो सकते हैं। इनमें प्रथम वर्ग में अमर, निर्जर, त्रिदशा, त्रिदिवेशा, दिवौकस, आदितेय, दिविषद, दितिनन्दना, आदित्या, अमर्त्या पदों को रखा जा सकता है। ये ऐसे पद हैं जिन्हें केवल और केवल देवता के लिए ही प्रयुक्त किए जा सकते हैं। ये प्रत्येक पद देवता के किसी न किसी वैशिष्ट्य को द्योतित करते हैं। ये वैशिष्ट्य मानव में असम्भव है।

द्वितीय वर्ग में विबुध, सुर, सुपर्वाण, सुमनस्, लेख, ऋभु, अस्वप्न, अमृतान्धस्, बर्हिमुख, ऋतुभुज, गीर्वाण, दानवारय पदों को रखा जा सकता है। ये ऐसे पद हैं जो देवता के साथ-साथ मनुष्यों के लिए प्रयुक्त भी प्रयुक्त किए जा सकते हैं। संस्कृत साहित्य में इन पदों का प्रयोग ऋषियों, मुनियों एवं महापुरुषों के लिए किया गया है। स्पष्ट है कि मनुष्य अपने प्रयास से इन पदों में निहित वैशिष्ट्यों को अर्जित कर सकता है। यथा- विबुध पद को देखा जा सकता है। विबुध का अर्थ है- विशेषेण बुध्यते इति विबुधः अर्थात् विशिष्ट ज्ञान- विज्ञान से युक्त को विबुध कहा जाता है। मनुष्य शास्त्रादि के गहन अध्ययन से वैदुष्य प्राप्त कर सकता है। भारतीय ऋषियों ने अपने अथक प्रयास से उस वैदुष्य को प्राप्त किया जो देवताओं के पास था। इसी प्रकार सुर, सुपर्वाण, सुमनस् आदि पदों में निहित वैशिष्ट्य को मनुष्य अपने परिश्रम से अर्जित कर सकता है।

इसका तात्पर्य है कि मनुष्य यदि परिश्रमपूर्वक इच्छा करे तो वह देवत्व को प्राप्त कर सकता है। संस्कृत शास्त्रों एवं धर्मग्रन्थों में मनुष्य में देवत्व के प्रमाण भी मिलते हैं। शतपथ ब्रह्मण ग्रन्थ में कहा गया है - यद् देवा अकुर्वन् तत् करवाणि अर्थात् जैसा देवता करते हैं, वैसा मैं करुंगा। स्पष्ट है कि यहाँ मानव में देवत्व का प्रतिपादन किया गया है। इस पंक्ति का तात्पर्य है कि मनुष्य यदि चाहे तो वह उन समस्त कार्यों को कर सकता है जो देवता करते हैं। ऋषियों एवं मुनियों में शाप और वरदान देने का सामर्थ्य, त्रिकालद्रष्टत्व आदि गुण उनमें दैवी शक्ति को प्रमाणित करता है। ऋषियों के समान सामान्य मनुष्य भी दैवी शक्ति को अर्जित कर सकता है।

बौद्ध साहित्य में बौद्ध धर्म के संस्थापक गौतम बुद्ध और जैन साहित्य में जैन धर्म के संस्थापक महावीर को भगवान् कहा जाता है। अनेक प्रमाणों से सिद्ध है कि इन दोनों ही महापुरुषों का जन्म एवं लालन-पालन सामान्य मानव के समान ही हुआ था पर अपनी साधना से इन्हें देवत्व की प्राप्ति हुई। सनातन धर्म के आदर्श चरित्र राम-कृष्ण आदि के विषय में भी यही बात कही जा सकती है। आज भी चिकित्सकों को आम जन देवता कहते हैं । इसका एकमात्र कारण है- चिकित्सकों के द्वारा गहन अध्ययन कर मानव शरीर की संरचना को समझना और उसमें आये विकृतियों का निदान करना। पर इन दिनों चिकित्सा का व्यवसायीकरण एवं इस व्यवसाय में लालच आदि दुर्गुणों के समावेश के कारण अब इस धारणा में कमी आई है।

प्रसिद्ध वैदिक विद्वान् श्रीपाद दामोदर सातवलेकर के अनुसार मनुष्यों की तीन श्रेणियाँ हैं [१४]- राक्षस, मनुष्य और देव। मनुष्यों में सर्वोत्तम गुणों को धारण करने वाला देव है। दुर्गुणों को धारण करने वाला राक्षस है और इन दोनों के मध्य मनुष्य होता है। उनका यह वर्गीकरण अत्यन्त तार्किक है। मनुष्य जब अपने में सद्गुणों को विकसित एवं अर्जित करता है तब वह देवता की श्रेणी में आ जाता है और जब वह दुर्गुणों में संलिप्त हो जाता है तब वह दानव कहलाता है।

शतपथ ब्राह्मण में कहा गया है कि यहाँ दो ही हैं, तीसरा नहीं है- सत्य और असत्य। सत्य ही देव है और असत्य ही मनुष्य है। मैं असत्य से सत्य को प्राप्त करता हूँ।
द्वयं वा इदं न तृतीयमस्ति। सत्यं चैवानृतं च। सत्यमेव देवा अनृतं मनुष्याः। इदमहमनृतात् सत्यमुपैमीति। तन्मनुष्येभ्यो देवानुपैति [१५]।

यहाँ स्पष्ट शब्दों में कहा गया है कि सत्य का ही अपर नाम देव है। सत्य के ही सम्यक् पालन से मनुष्य देवत्व को प्राप्त करता है और सत्य से च्युत होने पर मनुष्य ही राक्षस बन जाता है।

अतः कहा जा सकता है कि मनुष्य के लिए देवत्व की प्राप्ति दुर्लभ नहीं है। वह सत्य की साधना करके देवत्व को प्राप्त कर सकता है। सत्य की साधना से मनुष्य उन समस्त ऐश्वर्यों को प्राप्त कर सकता है जो देवों के पास है। समस्त उपनिषद् साहित्य और अध्यात्म विद्या का प्रतिपाद्य विषय है- मानव के अन्दर विद्यमान आत्मा का अनावरण करना । उपनिषदों में प्रतिपादित पंच महावाक्य भी मानव के देवत्व का प्रतिपादन करते हैं। परन्तु मानव असत्य के आवरण में ऐसे लिप्त है कि उसको अपने वास्तविक स्वरूप का भान नहीं होता है। वह सत्य और असत्य में भेद नहीं कर पाता है। वह सत्य का त्याग कर असत्य को अपना सर्वस्व समझ लेता है यही उसके देवत्व प्राप्ति में सबसे बड़ा व्यवधान है। अतः आवश्यक है कि मनुष्य सत्य की साधना से असत्य के आवरण का भेद कर देवत्व को प्राप्त करे।

पाद-टिप्पणी

  1. अष्टाध्यायी सूत्रपाठ १/४/१४
  2. धातुरूपनन्दिनी , पृ २२६
  3. अमरकोश १/७-९
  4. संस्कृत हिन्दी कोश पृ ९४४
  5. वहीं पृ १११३
  6. अभिज्ञानशाकुन्तल ३/२६
  7. कुमारसंभव २/२४
  8. संस्कृत हिन्दी कोश पृ २२४
  9. ऋग्वेद १/२०/३
  10. वहीं १/२०/२
  11. वैदिक व्याख्यानमाला पृ २
  12. वहीं पृ ३
  13. अमरकोश १/९
  14. वैदिक व्याख्यानमाला पृ १
  15. शतपथ ब्रह्मण १/१/१/५
संदर्भ ग्रन्थ
  1. अमरकोश, अमर सिंह, राजकीय ग्रन्थालय, मुम्बई, १८९६
  2. धातुरूपनन्दिनी, जनार्दन हेगडे, संस्कृत भारती, झण्डेवाला दिल्ली, २०११
  3. वैदिक व्याख्यानमला, श्रीपाद दमोदर सातवलेकर, स्वाध्याय मण्डल, सूरत
  4. वैदिक-विज्ञान, श्रीगिरिधर शर्मा चतुर्वेदी, राष्ट्रिय संस्कृत विद्यापीठ, कटवारिया सराय, दिल्ली,२००५
  5. शतपथ ब्राह्मण, रूपकिशोर शास्त्री, सम्पूर्णानन्द संस्कृत विश्वविद्यालय, वाराणसी. २००४
  6. सिद्धान्त कौमुदी, भट्टोजी दीक्षीत, चौखम्भा संस्कृत संस्थान, दिल्ली, २०११
  7. संस्कृत-हिन्दी शब्दकोश, वामन शिव राम आप्टे, न्यू भारतीय बूक कोरपोरेशन, दिल्ली, २००९
  8. संस्कृत साहित्य का इतिहास, बलदेव उपाध्याय, शारदा निकेतन, वाराणसी,१९७८

अजय कुमार झा, सत्यवती महाविद्यालय, दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली. 9810914458 dr.ajaydu@gmail.com