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अनामिका की कविताओं में स्त्री

“मार-पीट, गाली-गलौज, भ्रूण-हत्या, कटाक्ष, बलात्कार, और तरह के यौन-दोहन, सती, पर्दा, डायन-दहन, प्रोनोग्राफी, ट्रेफिकिंग, वेश्यावृत्ति, यांत्रिक-संभोग, प्रेमहीन विवाह बंधन, अनाचार-गर्भ, साफ-सुथरे और सुरक्षित प्रसव केंद्र का अभाव-दुनिया के जितने अपराध हैं- प्रायः सब का प्राइम साइड स्त्री शरीर ही तो है। शरीर जो की इतना नरम और कोमल है,फिर भी इतना कर्मठ,लचीला और फुर्तीला शरीर, जिसने आपको धारण किया है, आपको पाला-पोसा है, कहानियाँ लोरिया सुनाई हैं, दिन-रात आपकी खिदमत में जुटा है, आखिर आपसे चाहता क्या है? वैसा व्यवहार जो, बक़ौल पोरस, एक राजा दूसरे से चाहता है। प्रजातंत्र की गौरव इसमें ही है कि यहाँ सब शहँशाह हैं, कोई छोटा-बड़ा, ऊंचा-नीचा नहीं, सबकी ही मानवीय गरिमा कि रक्षा होनी है।”[1]

स्त्रियाँ एक लंबे समय से अपने अस्तित्व रक्षा और अधिकार प्राप्ति के लिए पुरुष प्रधान समाज से लोहा लेती आ रही हैं। उनके लोहा लेने की पध्दति कभी मौन तो कभी मुखर रही है। वे अपने अधिकार प्राप्ति की लड़ाई में तमाम प्रकार की पीड़ाए और यातनाएं भी झेलती आई हैं, जिसका जीता-जागता प्रमाण उनकी लेखनी है। उनके जीवन संघर्ष और त्रासदी का एक लंबा इतिहास है, किन्तु वे निरंतर समाज से अपने अधिकार हेतु मुठभेड़ करते हुए वर्तमान समय में अपने आप को पहले से काफी बेहतर और सशक्त बनाने में सफल रही हैं। इसके बावजूद उनकी समस्याए पूर्णत: खत्म नहीं हुई हैं। वे आज भी पुरुषवादी सत्ता से दो-दो हाथ कर रही हैं और यह किसी के अधिकार में हस्तक्षेप के लिए नहीं बल्कि अपने अधिकार प्राप्ति के लिए है। उनका उद्देश्य किसी के आधिकार क्षेत्र मे प्रवेश करने की नहीं है बल्कि अपने अधिकार क्षेत्र की सुरक्षा है। वे वर्तमान समाज से बस समान अधिकार की कामाना करती हैं, अपनी मेहनत और समर्पण का उचित मूल्य पाना चाहती हैं और इसके लिए वे कई स्तर पर युद्धरत भी हैं। इनमें कुछ खुलकर समाज से सीधे संवाद कर रही हैं तो कुछ अपने लेखन कार्य के माध्यम से अपनी उपस्थिती दर्ज करा रही हैं। उनका मुख्य उद्देश्य पुरुषवादी सोच को बदलना है न की बदला लेना। वे स्त्री के जीवन के यथार्थ और संघर्ष से साक्षात्कार कराते हुए उनके जीवन के त्रासदी से समाज को अवगत कराती हैं।

समकालीन महिला लेखिका बहुआयामी प्रतिभा की धनी अनामिका स्त्री विमर्श केन्द्रित अपनी सशक्त लेखनी के लिए पूरे हिन्दी साहित्य जगत में जानी जाती हैं। वे स्त्री के आनेक पक्षों को बहुत बारीकी से अपने लेखन में प्रस्तुत करती हैं। आनामिका अपनी कविताओं में स्त्री जीवन के विविध रूपों का पाठक को साक्षात्कार कराती हैं। वे अपनी कविताओं में निर्भीक हो कर पुरुष सत्ता के सामने यह प्रस्ताव रखती हैं कि हम स्त्रियों को बहुत गंभीरता और कायदे से समझा जाए-
“एक दिन हमने कहा
हम भी इंसान हैं-
हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर
जैसा पढ़ा होगा बीए के बाद
नौकरी का पहला विज्ञापन !
× × ×
सुनो हमे अनहद की तरह
और समझो जैसे समझी जाती है
नई-नई सीखी भाषा !”[2]

स्त्रियाँ भले दो टूक पुरुषों से ऐसा कहे लेकिन आज के लोकतान्त्रिक युग में भी उन्हें समान्यत: वस्तु ही समझा जाता है। आज के वैज्ञानिक एवं तर्क संगत युग में स्त्रियाँ दोयम दर्जे की प्राणी समझी जाती हैं। उनके साथ पहले की तरह कमोवेश वर्तमान समय में भी भेद-भाव किया जाता है। आए-गए दिन तमाम तरह की सामाजिक घटनाएं स्त्रियों को आहत करती रहती हैं। स्त्री आज भी अपने पूरे अधिकार के साथ पुरुष के समक्ष खड़ी नहीं हो पाई हैं। वे आज भी अपने मर्जी से जो चाहे वो नहीं कर सकती, जहाँ चाहे वहाँ नहीं जा सकती। आज के उत्तर-आधुनिक युग में भी रूढ़ परम्पराएँ और पुरानी मान्यताएँ उनके पैरों की बेड़ियाँ बनी हैं, जो उन्हें प्राय: आज भी दहलीज़ पर ही ठिठकाये रहती हैं-
“ईसा मसीह
औरत नहीं थे
वरना मासिक धर्म
ग्यारह बरस की उमर से
उनको ठिठकाये ही रहता
देवालय के बाहर !”[3]

यह बहुत दुर्भाग्य की बात है कि इस तर्कपूर्ण समय में भी स्त्री के साथ इस तरह के भेद-भाव की खबरे आती रहती हैं। अनामिका इस कविता के माध्यम से आज की थोथी समानता और लोकतान्त्रिक सच को मार्मिक ढंग से सबके समक्ष प्रस्तुत करती हैं, साथ ही स्त्री की आंतरिक पीड़ा और टीस को भी प्रस्तुत करती हैं कि किस तरह माहवारी, जो कि एक प्राकृतिक क्रिया है जिसके कारण स्त्री के साथ भेद-भाव किया जाता है। आज भी ऐसे धर्मगुरु, पंडे, पूजारी, पादरी, मुल्ला, अध्यापक हैं, जो संकीर्ण मानसिकता से ग्रसित होकर स्त्री को हीन भावना से देखते हैं। हमारे इस समाज मे स्त्री तब तक पूजनीय और सम्माननीय है जब तक वह पुरुष के बनाए नियम-कानून पर चलती है जैसे ही वह पुरुष के बनाए साँचे से बाहर होती है तो वह समाज के लिए त्याज्य हो जाती है-
“अपनी जगह से गिरकर
कहीं के नहीं रहते
केश, औरत और नाखून-
अन्वय करते थे किसी श्लोक का ऐसे
हमारे टीचर।”[4]

भर्तृहरि ने नीतिशतक में लिखा है कि पद, केश, दांत एवं नाखून आदि जब अपनी जगह होते हैं तब तक ही वे अच्छे लगते हैं। लेखिका ने भर्तृहरि के इसी बात को आधार बना कर स्त्री की सच्चाई को दर्शाया है। कितनी अजीब बात है कि केश एवं नाखून जैसे निर्जीव वस्तुओं से सजीव स्त्रियों की तुलना की जाती है। पुरुष की हर सफलता में स्त्रियों का महत्वपूर्ण योगदान होने के बावजूद भी उनके साथ इस तरह के अमानवीय व्यवहार किया जाता है। लेखिका ऐसी उपेक्षित स्त्रियों की पीड़ा को अपनी कविता में अनामिका जगह देती हैं। स्त्री हर समय, हर आवस्था में पुरुष के साथ माँ, पत्नी, मित्र आदि के रूप में खड़ी हुई नजर आती हैं और वह समाज संचालन में, समाज समृध्दि में अहं भूमिका निभाती हैं बावजूद इसके वह प्रसंगच्यूत या हाशिये पर होती हैं। अनामिका तुलसीदास की पत्नी रत्नावली के माध्यम से इस विडंबना को इस तरह प्रतिविम्बित करती हैं-
“एक ‘विनयपत्रिका’ मेरी भी तो है,
लिखी गई थी वो भी समानान्तर
लेकिन बाँची नहीं गई अबतलक !”[5]

प्रायः हम देखते हैं कि तुलसीदास के ‘विनयपत्रिका’ की तो खूब चर्चा होती है, विद्वानों के द्वारा खूब सराही भी जाती है किन्तु रत्नावली को भूला दिया जाता है। ठीक उसी प्रकार पुरुष की सफलता की तो खूब चर्चा होती है, वाह-वाही होती है पर उसकी सफलता में अप्रत्यक्ष रूप से सहयोगात्मक भूमिका निभाने वाली स्त्री प्रायः परिदृश्य से ही गायब रहती है। स्त्री की इसी विडंवना को कवयित्रि इस कविता के माध्यम से सबके समक्ष लाती हैं। अनामिका स्त्री मर्म को समझने और प्रकाशित करने की अनन्य क्षमता रखती हैं। ध्यान दिया जाय तो हम देखते हैं कि स्त्री हमेशा से उपेक्षित, प्रताड़ित और परिदृश्य से ओझल रही हैं जिसका एक पूरा इतिहास है। उनको यही पीड़ा दिन-रात सालती है कि वह पुरुष का इतना ख्याल रखती हैं पर पुरुष उनका तनिक भी ख्याल नहीं रखता। स्त्री की इसी तकलीफ को अनामिका इस तरह व्यक्त करती हैं-
“मैं उनको रोज झाड़ती हूँ
पर वे ही हैं इस पूरे घर में
जो मुझको कभी नहीं झाड़ते।”[6]

स्त्री वैसे भी पुरुष से अपेक्षा रखती ही कितनी है। बस थोड़ा प्यार और अपनापन इससे ज्यादा तो वह क्या चाहेगी भला वह भी उसे नहीं मिल पाता। उसकी कामना यही होती है कि वह जिस तरह पति को चाहती है, उसका ध्यान रखती है। उसका पति भी उसे उसी तरह चाहे और ध्यान रखे। किन्तु अफसोस की यह चाह उनकी कभी पूरी नहीं होती फिर भी वे पुरुष के बेहतर होने कि उम्मीद जल्दी नहीं छोड़ती। वे हर तरह की तकलीफ, उपेक्षा, अत्याचार, पीड़ा आदि सह लेती हैं पर जल्दी बगावत पर नहीं उतरती हैं। वे अपनी सारी तकलीफ़े तरह-तरह के नुस्खों के माध्यम से छुपा लेती हैं। वे जब भी, जहां भी दिखती हैं हँसती-मुस्कुराती हुई ही दिखती हैं और इसमें सहयोगात्मक भूमिका आज का बाजार निभा रहा है। आज का बाजार प्रायः पुरुषवादी विचार से नियंत्रित है जिसने स्त्री के वास्तविक जीवन को बदल कर रख दिया है। जिसके स्त्रियाँ अपना अधिकार भूल गई हैं। वे जिसे वरदान समझ रही हैं वह उनके लिए वास्तव में अभिशाप है। कवयित्रि स्त्री जीवन की इस विडम्बना को इस तरह प्रस्तुत करती हैं-
“कितना अच्छा है…यह बीसवीं सदी है
अब पीट कर जा सकती हूँ मैं ब्यूटी-पार्लर !
वहाँ मुझे आरामकुर्सी मिलेगी,
और लड़कियां बिना कुछ पूछे
कर देगी बरफ-पट्टी !

कितना अच्छा है...यह बीसवीं सदी है
अब पीट कर जा सकती हूँ बाजार,
अपने लिए एक टॉफी खरीदकर
जल्दी भुला सकती हूँ मुंह का कड़वापन,
सारी मीयादी बुखार।”[7]

उपर्युक्त काव्य पंक्ति में लेखिका बाजार की चकाचौध मे लिप्त उन स्त्रियों की कहानी कहती हैं जो अपने पीड़ा का निदान बाजार में ढ़ूँढ़ती हैं, जबकि उन्हें पता नहीं होता कि बाजार से उनके अस्तित्व और अस्मिता दोनों को खतरा है। अनामिका इस कविता में स्त्री जीवन की विडम्बना का बड़ा मार्मिक उदघाटन किया है। इसी तरह की अभिव्यंजना ‘घूँघट के पट खोल रे !’ कविता में कवयित्रि करती हैं। लेखिका इस कविता के जरिये स्त्री के बाह्य और आंतरिक सच को खोल कर आँखों के सामने ल देती हैं। आज हर जगह देखे तो स्त्री सशक्त, समर्थ, साहसी, हँसती-खेलती हुई दिखाई जाती है क्या सचमुच स्त्री का जीवन ऐसा है किसी को इस बात से कोई प्रयोजन नहीं है जिसके कारण स्त्री को लगता है कि उसको इस दुनिया में कोई समझ सकता है। इसी विसंगति को कवयित्रि इस तरह प्रस्तुत करती हैं-
“हँसती हुई दिखती है वे
हर ओर-
टीवी में
सारे मुख पृष्ठो\चौराहों पर !
पिटकर भी निकली हों घर से
तो जाहिर नहीं होने देतीं !
नये ज़माने का घूँघट
हँसी है शायद-
सबके मुँह पर है यह-
एक नये ड्रेसकोड के ही तहत !
एक अँगूठे की तरह ही
दिखती हैं देह
पार टीवी के
वे।”[8]

स्त्री वर्तमान समय में हर क्षेत्र में महत्वपूर्ण भूमिका निभाते हुए भी गौण समझी जाती है। वह आज हर क्षेत्र में अपना योगदान दे रही है किन्तु उन्हें आज भी कई तरह की पीड़ा, प्रताड़नाए और उपेक्षाओं से गुजरना पड़ रहा है, अभी इन सब चीजों से उन्हें पूर्णत: निजात नहीं मिला है। आज भी वह अपने पूरे वजूद के साथ समाज के समक्ष नहीं खड़ी हो पाई है। उन्हें आज भी पुरुषवादी मानसिकता वाले हेय दृष्टि से देखते हैं और अपने से कमतर मापते हैं।

अनामिका एक ऐसी लेखिका हैं जिन्हें समाज के हर क्षेत्र की महिलाओं के विषय में जानकारी रहती हैं, वे चाहे शहरी कामकाजी स्त्रियाँ हो या ग्रामीण-घरेलू हो। वे उनकी पीड़ा-तकलीफ को बहुत नजदीक से जानती-समझती हैं और अपने कविताओं में बहुत संवेदनात्मक तरीके से व्यक्त करती हैं। अनामिका वर्तमान समय में वस्तु की तरह बाजार में बेची-खरीदी जाने वाली स्त्रियों की भी त्रासदी को अपनी कविता में टाँकती हैं। ‘चौदह बरस की दो सेक्स वर्कर्स’ कविता में सेक्स वर्कर्स लड़कियों के जीवन की त्रासदी और समाज के दो मुंहेपन को बहुत मार्मिक ढंग से प्रस्तुत करती हैं और कवयित्रि बाजार के इस घिनौने खेल को भी आँखों के सामने लाती हैं जहां स्त्री बिकने के लिए मजबूर है। इसके साथ वे वर्तमान व्यवस्था की भी पोल खोलती हैं जिसमें स्त्री बाजार की वस्तु बन गई है और उसे अपना शरीर बेचने के लिए बेवश किया जाता है। अनामिका इस कविता के माध्यम से पुरुष के उस सड़े वर्ग को जो स्त्री को महज वस्तु से ज्यादा कुछ नहीं मानता है और पूरी व्यवस्था के गाल पर करारा थप्पड़ जड़ती हैं। कितनी अजीब बात है कि एक चौदह वर्ष की लड़की जिसने अभी तक ठीक से दुनिया तक नहीं देखी-समझी उसे यह व्यवस्था लाकर बाजार में वस्तु की भांति पटक देती है, हवश की आग में जलाने-मरने के लिए। कविता की उस चौदह वर्ष की लड़की को देखे तो वह अभी पूरी तरह से अपने बालमन से भी भी बाहर नहीं आ पाई है। जिसके पीड़ा और बालमन का अनामिका बहुत मार्मिक चित्र खींचती हैं-
“अंकल, तुम भारी बहुत हो !
अच्छा, एक चॉकलेट खिला दो !
अंकल, तुम्हारे भी बेटी है ?
अच्छा, बोलो, उसका क्या नाम ?
वह भी मेरी-जैसी मजेदार है क्या-बोलो तो !
अंकल, करिश्मा-सा दिखती है क्या ?
मुझको ये वाला स्टाइल सूट करता ?
छोड़ जाओं, अंकल, ये जाँघिया !
पेट दुख रहा है कुछ मेरा-
होगा, अरे, माहवारी का चक्कर ही होगा !”[9]

प्रस्तुत कविता के अंदर से बाहर तक पाठक को झकझोर देती है और समाज के सामने कई प्रश्न खड़ी करती है। यह कविता उन लोगों के मुँह पर करारा थप्पड़ जड़ती हैं जो सिर्फ अपनी बेटी को ही बेटी समझते हैं बाकि सबको हवसजदा नजरों से देखते हैं और बाजार की वस्तु समझते हैं।

स्त्री जीवन की एक बहुत बड़ी समस्या उनके जीवन का अकेलापन है। उनके आस-पास सारी दुनिया होते हुए भी वह एकदम अकेली, एकदम निपट और बाहर से एकदम भरी, अंदर से एकदम खाली! चाहे उसके कितने भी रिश्ते-नाते, संबंध क्यों न हो, किन्तु उसके खालीपन की अलग त्रासदी है जिसे कवयित्रि ‘सार्वजनिक चौका’ कविता मे सार्वजनिक करती हैं-
“पति एक था उसका, प्रेमी थे पाँच-
बच्चे छह, मुर्गी और बकरियाँ सात,
निंदक उतने जितने तारे और प्रशंसक भी
बहुत सारे !
फिर भी वह एकदम अकेली थी।”[10]

अनामिका उपर्युक्त कविता की पात्र रमावती नाइन के माध्यम से समस्त स्त्रियों के जीवन की त्रासदी को प्रस्तुत करती हैं कि किस तरह रमावती नाइन इंद्रधनुष की तरह अनेक रंगो से लबालब और मिनिस्टर की तरह व्यस्त होते हुए भी एकदम अकेली ! प्रायः देखा जाए तो स्त्रियाँ प्रेमी, पति, बच्चे, परिवार के लिए दिन-रात खटती-मरती हैं, किन्तु उनका कोई नहीं होता है। वे अपने को प्रायः हर मोड़ पर अकेला ही पाती हैं। उनके जीवन में हमेशा एक रिक्तता बनी रहती है कारण की उनकी संवेदना का किसी को ख्याल नहीं रहता है। ऐसे ही जलेबी बुआ अकेलेपन से जूझ रही जलेबी बुआ की पीड़ा को पढ़ने की कोशिश करती हैं-
“कोई उसे जानता नहीं
पूरे शहर में कि घर में
किसी की वो कोई नहीं है
कोई नहीं उसका-
कोई नहीं होता है जैसे डाली का पत्ता।”[11]

जैसे डाली से पत्ते गिर जाने पर डाली को कोई अफसोस नहीं होता वैसे ही जलेबी बुआ जैसी स्त्रियों के घर में रहने या न रहने से किसी को कुछ भी फर्क नहीं पड़ता। वे हर समय अपने अकेलेपन और ऊब से लड़ती रहती हैं और यही स्थिति आज के सम्पन्न घरानों की स्त्रियों की भी है।

इस प्रकार अनामिका की कविताओं में स्त्री जीवन के विविध पक्ष देखने को प्राप्त होते हैं। अनामिका का भावपक्ष जितना सशक्त है उतना ही अभिव्यंजना पक्ष भी ! अनामिका भाषा के स्तर पर भी निरंतर प्रयोग करती रहती हैं। डॉ शिवप्रसाद शुक्ल इनके कविता के वस्तुपक्ष और भाषा के विषय के बारे में कहते हैं-“काव्य भाषा को जद्दोजहद काव्य सौंदर्य में ढाला यानी अनामिका काव्यवस्तु एवं काव्यभाषा सारगर्भित, भदेश, देशज, अभिजात्य होने के साथ समकालीन प्रचलित अन्य भाषाओं के शब्दों का बेहिचक प्रयोग करती हैं। उनकी संवेदना भाषा से आवृत्त होकर एक लम्बे संघर्ष का बयान काव्यात्मक स्तर पर करती हैं।”[12] अनामिका एक प्रगतिशील कवयित्रि हैं जो अपनी परंपरा से जुड़े होने के बावजूद भी वे नए प्रयोग करती रहती हैं। वे न तो जड़ परंपरा को पकड़ कर रखती हैं और न ही वे आधुनिकता का विरोध करती हैं। वे समकालीन महिला कविता में खुद अपनी जमीन तैयार करती हैं जिसे खारिज नहीं किया जा सकता है।

संदर्भ सूची

  1. स्त्री विमर्श की उत्तर-गाथा, अनामिका, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा सं. 2017, पृ. 11
  2. खुरदुरी हथेलियाँ, अनामिका, राधाकृष्ण प्रकाशन, दिल्ली, तीसरा सं. 2019, पृ. 13-14
  3. दूब-धान, अनामिका, भारतीय ज्ञानपीठ प्रकाशन, नई दिल्ली, दूसरा सं. 2008, पृ. 28
  4. खुरदुरी हथेलियाँ, अनामिका, पृ. 15
  5. दूब-धान, अनामिका, पृ. 18
  6. खुरदुरी हथेलियाँ, अनामिका, पृ. 19
  7. दूब-धान, अनामिका, पृ. 78
  8. कविता में औरत, अनामिका, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2019, पृ. 113
  9. दूब-धान, अनामिका, पृ. 69-70
  10. अनुष्टुप, अनामिका, किताब घर प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2010, पृ. 68
  11. बीजाक्षर, अनामिका, वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2019, पृ. 33
  12. अनामिका एक मूल्यांकन, सं. अभिषेक कश्यप, सामयिक बुक्स, नई दिल्ली, प्रथम सं. 2013, पृ. 100

विनोद कुमार शुक्ला, शोध छात्र – हिन्दी-विभाग, सरदार पटेल, विश्वविद्यालय, वल्लभ विद्यानगर, आणंद, गुजरात, 388120 मो. 8347511345 ईमेल- vinodshukla5495@gmail.com