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सदियों का संघर्ष - त्रिलिंगी जीवन-यथार्थ

आधुनिक हिंदी समीक्षा की सामाजिक दृष्टि एवं दिशा परिवर्तन में जनता की संघर्षचेतना की भूमिका महत्वपूर्ण रही है। भारतेन्दु युग से लेकर छायावाद तक के काल की समीक्षा में स्वाधीनता आन्दोलन का प्रभाव गहरा था। प्रगतिवादी आलोचना ने किसानों और मज़दूरों के संघर्षों से प्रभावित था। मौजूदा समय में नारी, दलित, आदिवासी जैसे हाशिएकृत लोगों की अस्मिता की लड़ाई के तहत सामाजिक समीक्षा की भी विभिन्न दृष्टियाँ उभरकर सामने आर्इं। ये साहित्य के साथ-साथ वर्तमान सामाजिक गतिविधियों को भी अपने अपने नेत्रबिन्दुओं से विश्लेषित कर रही है। इससे साहित्य और साहित्यिक समीक्षा की भी पुरानी मान्यताएँ सरासर नष्ट होती जा रही है। फलस्वरूप साहित्य का नया समीक्षा दर्शन समाजोन्मुख कई विमर्श के रूप में प्रस्तुत हुआ है। वर्तमान समाज का प्रत्येक मानव अपने अस्तित्व की लड़ाई में अनवरत प्रयासरत है। यह अस्मिता की लड़ाई शहदत भरे समय की माँग है।

वर्तमान दौर में त्रिलिंगी विमर्श अन्य विमर्शों के समानान्तर हिंदी साहित्य में अपनी उपस्थिति दर्ज करा रहा है। त्रिलिंगी लोगों की अस्मिता के संकट को लेकर साहित्यकार अपनी चिन्ता ज़ाहिर करते नज़र आ रहे हैं। दरअसल अंबेदकर, महात्मा फुले जैसे शिखरस्थ अगुआ इनकी संघर्ष-चेतना के पथ प्रदर्शन के लिए इनके आगे नहीं खड़े हैं, ये अपनी लड़ाई खुद लड़ रहे हैं और समाज की मुख्य धारा में शामिल होने की लगातार कोशिश कर रहे हैं। अपने परिवार से, समाज से तिरस्कृत उत्पीड़ित जनतति समाज से मात्र सम्मानपूर्ण जीवन के तलबगार है। आदिम संस्कारों और रूढ़ियों से योजनाबद्ध पुरुष केन्द्रित समाज में वे अपनी हिस्सेदारी निभाने के लिए कानून की मदद ले रहे हैं। तथाकथित मुख्यधारा समाज इनसे निन्दनीय व्यवहार करके हिजड़ा कहकर इन्हें नकारने की कोशिश करता है। रोटी, कपड़ा, मकान, शिक्षा, स्वास्थ्य जैसी सतही ज़रूरतें भी इनके नसीब से बाहर हैं। सदियों से हाशिए पर पटक दिए गए तबकों की जीवन परिस्थितियाँ भी अतिदयनीय हैं।

पुरुषमेधा समाज में परिवार का धर्म प्रजाओं का उत्पादन है यानी लैंगिक ऊर्जा को संतानों की सृष्टि पर केन्द्रित रखना ही है। समाज अपनी पीढ़ी दर पीढ़ी को आगे बढ़ाने में उपयुक्त सामाजिक व्यवस्था को ही स्वीकारता चलता है। अतः स्त्री और पुरुष के बीच उपयोगिता की राजनीति काम आती है। फलस्वरूप समाज में द्विलिंगी व्यवस्था का अनुसरण ही अभिकाम्य माना जाता है। गनीमत है परिवार का मुख्य- धारा- संकल्प संतानोत्पत्ति पर केन्द्रित है। जो प्रत्युत्पादन क्षमता के बाहर हैं ऐसे नाकामयाब सन्तानोत्पादकों को समाज निष्कासित कर देता है या पार्शवीकृत कर देता है। कभी कभी स्त्री या पुरुष जैसी उनकी सूरत है वैसे ही जीवन- यापन के लिए परिवार द्वारा बाध्य किए जाने पर तृतीय प्रकृति के लोग स्वयं घर -बार छोड़ने के लिए मज़बूर हो जाते हैं। समाज की उपयोगी भूमिका से पृथक प्रकृति के दर्द झेलनेवाले त्रिलिंगीलोगों को अपनी इन्सानी हक हासिल करने के लिए सरकारी कार्यालयों, न्यायपालिकाओं का दरवाज़ा घटघटाना पड़ता है।

त्रितीय लिंगी व्यक्ति वह है जिसे जन्म के समय स्त्री या पुरुष का जननांग तो मिलता है लेकिन वह लिंग उसकी मानसिक प्रकृति पर चोट पहुँचाता है। इसका स्वत्व पारंपरिक पुरुष या स्त्री के बीच अस्थिर रहता है। केवल मानव ही नहीं पशु-पक्षियों, पेड़-पौधों में भी स्त्री, पुरुष और इतरलिंगी मिलते हैं। इतरलिंगियों पर घृणित दृष्टि बरतनेवाला जीव तो मनुष्य ही है। त्रिलिंगी लोगों का प्रादुर्भाव मानव-सृष्टि के साथ ही हुआ होगा।

भारतीय पुराण-साहित्य में इनका कई उल्लेख मिलते हैं। कामसूत्र में पुरुष को पुंप्रकृति, स्त्री को स्त्रीप्रकृति जो स्त्री या पुरुष नहीं उसे तृतीय प्रकृति कहा गया है। मनुस्मृति, महाभाष्य और तमिल व्याकरण ग्रंथ "तोलक्काप्पियम' में तृतीय प्रकृति के तौर पर इन्हें चिह्नित किया गया है। जो नृत्य-संगीत में प्रवीण है उनकी विवक्षा अप्सरा (स्त्री), गन्धर्व (पुरुष) किन्नर (उभय लिंगी) आदि रूपों में प्राप्त हैं। मोहिनी अवतार और अर्धनारीश्वर की कल्पना भी इसका प्रमाण देता है। महाभारत युद्ध में शिखण्डी एक योद्धा था। अपने अज्ञातवास काल में अर्जुन बृहन्नला रूप में विराट राज्य में रह रहा था। मिस्त्र, मोहनजोदडो संस्कृतियों में एवं कौटिल्य के अर्थशास्त्र में भी त्रिलिंगी प्रकृति के लोग पाए जाते थे। दिल्ली दरबार में इतरलिंगियों को उच्च पद दिया जाता था। अलाउद्दीन खिलजी के शासन काल में मलिक गफूर का और मुगल सुलतान जहांगीर के काल में ख्वाजा सराय हिलाल का फौजदार के रूप में भी खास उल्लेख हैं। इनके पार्श्वीकृत जीवन की शुरूआत मुख्यतः अंग्रेज़ी शासन के दौरान हुई थी। सन् 1861ई. में अंग्रेज़ सरकार द्वारा लगाया हुआ कानून आई.पी.सी.377 लैंगिक अल्पसंख्यकों केलिए गहरी चोट थी। सन् 1871ई में अंग्रेज़ सरकार क्रिमिनल ट्राइब्स आक्ट या जरायमपेशा अधिनियम भी इन पर लगाया था। अंग्रेज़ ईसाइयों के धार्मिक ग्रंथ बैबिल के कई वाक्य इसका प्रमाण देता है। लैंगिक अल्पसंख्यकों पर बैबिल का एक वाक्य है “माता की कोख से ऐसे ही लोग बाहर आएँगे जिनके साथ शादी या अन्य संबंध रखना कदापि ठीक नहीं, वे पतितमानस हैं (वि.मत्ताई -19-12)

अलग अलग देशों में अलग अलग भाषाओं में ये भिन्न नामों से पुकारे जाते हैं। भारत, पाकिस्तान, बंग्लादेश जैसे राज्यों में ये हिजड़े हैं। किंपुरुष, किन्नर, हिजड़ा (हिन्दी) नपुंसकुडु, कोज्जा, मादा (तेलुंगु) थिरुनंग्गाई, अरावनी (तमिल) जोगण्पा (कन्नड), ख्वाजसारा, नामर्द (उर्दू) खसुआ, जनखा, खुसरा (पंजाबी), युनक (अंग्रेज़ी) इत्यादि कई नामों से पुकारे जाते हैं। हिमाचल प्रदेश के कनौर जिले के पहाड़ी जन जो किन्नर नाम से जाने जाते हैं, ये त्रितीय लिंगियों को किन्नर कहने के विरुद्ध आवाज़ उठा रहे हैं।

सदियों से सामाजिक व्यवस्था के हिस्से बने त्रिलिंगी लोगों का अपना जीवन प्रकरण है। पारिवारिक घराना (जो सात घरों से गठित है) जैसी व्यवस्था इनके सामाजिक जीवनेच्छा का प्रकटीकरण है। लैंगिकता के संदर्भ में भ्रमित भिन्न भिन्न परिवेश से आए हुए ये लोग एक अजूबे आपसी रिश्ते को निभा रहे हैं। गुरु एवं चेले के रिश्ते में गुरु उस परिवार का स्वामी है और चेले सदस्य बनकर विधिवत् दायित्व निभाकर गहनतम पारस्पर्य व्यवस्था का निर्वाह करते हैं। चेलों के मध्य माँ, बहन, दादी आदि शामिल हैं। शल्य चिकित्सा द्वारा बधिया (ट्रान्सेक्शुवल) बनने पर दीक्षा संस्कार (निर्वाण) होता है। ये सारे चाल चलन इन्हें संवेदनात्मक एवं आर्थिक तौर पर घर का अहसास प्रदान करता है। खुद के घर से अमानवीय प्रकरण द्वारा निर्वासित ये लोग घराने तक पहुँचने के दरमियान कई उत्पीडन सह लेते हैं। Lesbian, gay, bisexual and transgender (LGBT) individuals encounter conflicts with the normative sociological structure more frequently which has the potential to make the law more tangibly within family decisions. [Amanda. K. Baumle & D’Lane R Compton, Legalizing LGBT] समाज इस बात से आँखें मूँद रहा है कि ये भी जेंडर आधारित निर्मिति का एक रूप है।

युगों से विपरीत परिस्थितियों के होते हुए भी अपनी भाषा (बोली), रीति-रिवाज़, संस्कार, वेश-भूषा आदि में इन्होंने पृथकत्व बनाए रखा है। कर्मकाण्डों, त्योहारों, पर्वों, उत्सवों, मेलों आदि के द्वारा इन लोगों ने अपने नाच गाने की कला का विकास किया था। परिवार के माँगलिक कार्यों में इनकी उपस्थिति इस बात की साक्षी है कि वर्षों पहले से ही शादी-व्याह, बच्चों का जन्म आदि मौकों पर नाच-गाने से इन्हें पैसे, गहनें एवं कपड़ों से सन्तुष्ट रखा करता था। विड़ंबना तो यह है कि जो खुद बच्चा पैदा करने में अक्षम है उनके आशीर्वाद के लिए निसंतान दम्पतियाँ संतान प्राप्ति के निमित्त कतार में खड़े रहते हैं।

बेरोज़गारी, शिक्षा का अभाव, जटिल जीवनचर्या आदि के कारण हो रहे आर्थिक अभाव इन्हें गनिका वृत्ति की ओर धकेल देते हैं। सार्वजनिक स्थानों में सार्वजनिक शौचालय में इनका शोषण होता है। इनके प्रति व्याप्त अफवाहों, गलतफहमियों के कारण इन्हें किराए पर घर, नौकरी आदि प्रदान करने में लोग हिचकते हैं और इनके प्रति हिकारत की दृष्टि बरतते हैं।

पुरुष लिंग में जन्म लेकर स्त्रीलिंगी मानसिकता या उल्टे मानसिक द्वंद्व झेलने केलिए ये अभिशप्त हैं। जेंडर ऐडेन्टिटी क्राइसिस के तहत घुटन, तनाव, दुःख-दर्द आदि से उद्भूत मानसिक असंतुलन से यो पीड़ित हैं। यह तो मानसिक बीमारी नहीं होर्मोन के बदलाव से उत्पन्न भ्रमित या बेचैन मन की विकृतियाँ हैं। मनोविज्ञान ने 1973 ई में समलिंगी रिश्ते के विषय में सकारात्मक भूमिका अदा की थी। 2013ई में आए हुए Diagnostics & Statistics Manual of Mental Disorders DSM-V में ट्रान्सजेंडरस् के तनाव को मानसिक बीमारी की तालिका से हटा दिया गया था। ट्रान्सजेंडर्स के प्रति समाज की प्रतिकूल प्रतिक्रिया और अवहेलना की वजह से उत्पन्न “कटुता’ जेन्डर डाइसफोर है, इसी तथ्य को भी उसमें दर्ज किया गया। मन की चोट से, हताशा से उबरने के लिए आज मनोविज्ञान शास्त्र में प्रभावी दवाइयाँ उपलब्ध हैं। अज्ञानवश ये लोग कभी कभी अपने लैंगिक अस्तित्व को छुपाकर प्राथमिक विद्यालयों में भर्ती हो जाते हैं और नौकरी तक पहुँच पाते हैं। हालांकि वहाँ भी इनका जीवन दूभर हो जाता है। कई आत्महन्ता भी हो जाते हैं।

आधुनिक नियम-कायदे ने त्रिलिंगी लोगों को यौनिक या लैंगिक अल्पसंख्यकों की सूची में शामिल किया है। मानव अधिकारों की सार्वभौमिक घोषणा (1948) अन्तर्राष्ट्रीय प्रसंविदा (1966) यूरोप कॉनवेशन (2006) आदि अन्तर्राष्ट्रीय नियमों के द्वारा इन्हें नागरिक के रूप में मान्यता देने का कदम उठाया गया है। भारत के उच्च न्यायालय द्वारा पन्द्रह अप्रैल दो हज़ार चौदह को इन्हें तृतीय लिंगी (Third Gender) की संज्ञा दी गई और अपने लिंग निर्धारण की छूट भी दी गई। इन्हें कानूनी मान्यता देकर सामाजिक एवं शैक्षिक दृष्टि से पिछड़ा वर्ग घोषित किया गया। सन् 1994ई में मुख्य चुनाव आयुक्त टी.एन.शेषन द्वारा लैंगिक विकलांगों को मतदान के अधिकार दिलाने से राजनीति में इनका रास्ता खुल गया। 2009ई में भारत सरकार द्वारा इनको पुरुषों और महिलाओं से अलग स्वीकृति देकर निर्वाचन सूची एवं मतदाता पहचान पत्रों में “अन्य’ के तौर पर एक खेमा भी जोड़ दिया गया है । ट्रान्सजेंडर्स को सम्मानपूर्ण श्रेणी में लाने के लिए 2015ई जून में ओक्सफोर्ड इग्लिश डिक्शनरी के अगले संस्करण में मिक्स शब्द जोड़ने का निर्णय लिया गया है। पुरुष, स्त्री आदि के लिए मिस्टर, मिसिस, मिस जैसे “मिक्स’ शब्द इनके नाम के आगे जोड़ सकते हैं। भारत में 2015ई जून में ही हैदराबाद नलसार लॉ यूनिवेर्सिटी के स्नातक विद्यार्थी अनन्दिता मुखर्जी को पहली बार “मिक्स’ जोड़कर प्रमाण पत्र दिया गया। ऐसे ही आर्थिक, राजनैतिक अधिकारों की उनकी लड़ाई भी धीरे-धीरे प्रगति पथ पर है।

बहरहाल संविधान के कानून इनके समान अधिकार पर गौर करने के बावजूद कानूनियत विलम्ब के कारण इन्हें इनकी आवास व्यवस्था एवं पारंपरिक मूल्यों से एक तरह से हाथ धोना पड़ा और नई नीति-व्यवस्था के इन्तज़ार के लिए बाध्य होना पड़ा। जाति के नाम पर ,लिंग वैविध्य के नाम पर ये गहरी पीड़ा भुगत रहे हैं।

ट्रान्सजेंडेर्स भाषापरक विवेचन से गुज़रकर भाषा व्यवहारों को पारकर अपनी स्वत्व- निर्मिति के उपाय ढूँढते हैं। The LGBTQ+ Community is not a monolith. It includes lesbians, gay persons, bisexuals, transmen, transwomen, asexual, intersex, people and more- each with distinct gender and sexual identities and agendas. A homosexual isn’t a hijra isn’t a cross dresser, but the hetero mainstream mostly (R. Raj Rao, Literary Review, The Hindu Oct.20, 2019) LGBTTQ+के ग्लोबल संज्ञाओं के भीतर आनेवाले ये लोग पार्श्वीकृत जन-ऐक्य स्थापित करके तथाकथित मुख्यधारा में आना चाहते हैं। पर सामाजिक न्याय की यह वैश्विक भाषा इनमें प्रतिनिधित्व करनेवाले प्रत्येक के अधिकारों को क्या देख पाएँगे। यह इनकेलिए चुनौती है। समाज में संबोधन की रीत लड़का, लडकी में सीमित है। पुरुषलिंगी और स्त्रीलिंगी के अतिरिक्त एक तीसरी लिंगी को पार्श्व में ही रखा जाता है। तीसरे स्थान पर या मुख्य धारा लिंगों से उत्पीडित होकर त्रिलिंगी लोग समाज के सम्मुख यही प्रश्न रखता है कि हम पार्श्वीकृत क्यों? जन्म में अपना क्या अपराध? ‘दिव्या’ के माध्यम से यशपाल ने इसी ओर तर्जनी उठायी थीं। “जन्म का क्या अपराध यदि यह अपराध है तो इसका मार्जन किस प्रकार संभव है। शस्त्र की शक्ति, धन की शक्ति, विद्या की शक्ति जन्म को परिवर्तित नहीं कर सकती। कोई भी उपाय जन्म के अपराध का मार्जन नहीं कर सकता। जन्म के अपराध का प्रतिकार क्या मनुष्य देव से कर ले’’। प्रश्न तो गंभीर है उत्तर कठिन भी।

यह तो सर्वविदित है कि युगीन जीवन परिस्थितियाँ एवं साहित्य के बीच बिंब-प्रतिबिंब भाव है। दूसरे शब्दों में युगीन सारी परिस्थितियाँ संवेदनशील रचनाकारों की चिन्तनधाराओं को निरन्तर प्रभावित करती रहती है और साहित्यकार इन प्रभावों को आत्मसात करके उनके समन्वित स्वरूप से अपने युग और उसके मूल्य- बोध को नयी दिशा प्रदन करते हैं। ऐसे युगीन परिस्थितियों के मूल्यांकन से नए विमर्श जन्म लेता है। वर्तमान युग में अपने अस्तित्व के लिए संघर्षरत त्रिलिंगी लोगों का जीवन और उनके अस्मिता-संघर्ष के विविध आयामों को अपनी रचनाओं द्वारा चिह्नित करना रचनाकार अपना दायित्व समझते हैं। युगीन अन्तर्विरोधों और दबावों से शोषण का मोहरा बने त्रृतीय प्रकृति की जनता के सामाजिक, आर्थिक , सांस्कृतिक और मनोवैज्ञानिक जीवन यथार्थ का पारदर्शी वर्णन इन रचनाओं की खासियत है। हिन्दी साहित्य के स्थापित प्रतिमानों को तोड़ने में इन साहित्यकारों ने जो साहस दिखाया है यह यकीनन स्वीकारनेयोग्य है।

स्वतंत्र चिंतन एवं निष्पक्ष विचारधाराओं से अपनी लेखकीय क्षमता की पहचान प्रस्तुत करने में महेन्द्र भीष्म, प्रदीप सौरभ, चित्रा मुद्गल, नीरजा माधव, निर्मला भुराडिया, डॉ.विजेन्द्र प्रताप सिंह, डॉ.अनसूया त्यागी, निवेदिता झा, गीतिका वेदिका इत्यादि कई साहित्यकार प्रतिबद्ध हैं। समाज के कई सडी-गली व्यवस्था के कारण अन्धकार लिप्त जीवन बिताने में अभिशप्त अपर लिंगी लोगों के जीवन-यथार्थ को उपजीव्य बनाकर आठवीं-नवीं शती में ही कई कहानियाँ लिखी जा चुकी थीं। सन् 1939ई. में निराला द्वारा रचित कुल्लीभाट में भी समलैंगिकता का उल्लेख हुआ था। बधावावृत्ति, बिंदा महाराज (शिवप्रसाद सिंह) खलीक अहमद बुआ (राही मासूम रज़ा) आदि कहानियों में इनके जीवन के रेखा चित्र तो हैं लेकिन इनके शोषण को एवं मुक्ति के उपायों को विमर्श के मंच पर ले आने में ये पर्याप्त नहीं रहीं। मौजूदा दौर में त्रिलिंगी जनता के संकटों को, संघर्षों को देखने-परखने और अभिव्यक्त करने का प्रयास उत्तराधुनिक रचनाकारों द्वारा हुआ है। फलस्वरूप कई कहानी-संग्रहों का संपादन भी हो रहे हैं। कथा और किन्नर [ 2018ई सं.डॉ.विजेन्द्रप्रताप सिंह, डॉ.रविकुमार गोंड ] थर्डजेंडर चर्चित कहानियाँ (2018 ई. सं.डॉ.विमल ग्यानोवाराव सूर्यवंशी) थर्डजंडर हिंदी कहानियाँ (2017ई. डॉ.एम.फिरोज़खान) आदि कुछ महत्वपूर्ण कहानी संग्रह हैं।

नीरजा माधव कृत “यमदीप’ उपन्यास (2002ई.) त्रिलिंगी विमर्श की नाँदी है। त्रिलिंगी समाज की विरूपताओं एवं विसंगतियों पर लिखित प्रस्तुत उपन्यास की रचना-प्रक्रिया के तहत नीरजा जी लिखती है “सांख्य दर्शन के अनुसार सृष्टि केलिए प्रकृति और पुरुष का द्वैत कारक है। भौतिक जगत में भी स्त्री-पुरुष एक दूसरे के अर्धांश हैं। एक दूसरे के अभाव में अपूर्ण रहने के प्रत्यय भारतीय धर्म का और इस प्रकार संस्कृति का प्राण है। यही द्वैत उदात्त मानवीय मूल्यों एवं संवेदनशील संबन्धों की स्थापना का आधार बनता है और सृष्टिचक्र का कारण भी। जहाँ से स्त्री-पुरुष का यह द्वैत समाप्त होता है वहीं से शुरू होता है तृतीय प्रकृति समुदाय (हिजड़ों) का जीवन और इस प्रकार यह उपन्यास “यमदीप” भी। (यमदीप लिखते हुए, तृतीय लिंगी विमर्श, पृ.25) त्रिलिंगी पात्र नाजबीबी के माध्यम से थर्डजेंडर समाज के जीवन – यथार्थ को यहां व्यक्त किया गया है। साथ ही बालसुधार गृह, नारीसुधार गृह जैसी संस्थाओं द्वारा लड़कियों के यौनशोषण संबन्धी निर्मम सत्य को भी इसमें उद्घाटित हुआ है। देहव्यापार, चोरी हिंसा करना, भीख माँगना आदि बातें त्रिलिंगी लोगों के उसूलों के खिलाफ है। लेकिन आर्थिक अभाव की कटुतम सच्चाइयाँ एवं असंगत व्यवस्थाओं के कारण ये इसकी ओर खींच लिए जाते हैं।

सन् 2005ई, में प्रकाशित “मैं भी औरत हूँ’ इनके चिकित्सकीय उपचार की दृष्टि से सराहनीय उपन्यास है। लेखिका डॉ.अनसूया त्यागी स्वयं एक गैनक्कोलजिस्ट है। त्रिलिंगी लोगों के शारीरिक गठन को प्रस्तुत करने के साथ इस निरीह जीवन से बाहर आकर चिकित्सा द्वारा सम्मानपूर्ण जीवन प्राप्त करने की सलाह भी तीन पीढ़ियों की इस कथा द्वारा दी गई है। उपन्यास की लेखन शैली तो सामान्य है पर इससे व्यक्त होनेवाली संवेदना का स्वर हृदयतल को स्पर्श करता है।

त्रिलिंगी जीवन को निकट से परखनेवाले महेन्द्र भीष्म द्वारा रचित दो उपन्यास है किन्नर कथा (2009ई.) और मैं पायल (2016ई.)। किन्नर कथा में “तारा’’ के द्वारा जननांग दोषी समाज के कई अनछुए पहलुओं को प्रस्तुत करके लेखक इनके सशक्तीकरण की पैरवी देता है। किन्नर गुरु पायल सिंह ने समाज में अपने सम्मान निमित्त जो लड़ाई लड़ी थी इस संघर्ष की गाथा है “मैं पायल’। 2019ई में इसका चौथा संस्करण अमन प्रकाशन द्वारा प्रकाशित भी हुआ है। 2008ई में मनोज रूपड़ा द्वारा रचित “प्रतिसंसार’ आनंद की जेंडर आइडेंटीटि क्रैसिस की कथा है। प्रदीप सौरभ की “तीसरी ताली’ (2014 ई) की कथावस्तु किसी एक रंग में रंगे नहीं है। “तीसरी ताली’ द्वारा खोजी पत्रकारिता के अवांतर रिपोर्ताज शैली में समलैंगिकता, मज़बूरन देहव्यापार, अप्राकृतिक यौन शोषण आदि को चित्रित किया गया है। त्रिलिंगी मानव अपने पर हो रही अमानवीयता की नृशंसता को झेलने के लिए ऐतिहासिक कहानियों का भी सहारा ढूँढता है और उस पर जश्न मनाते हैं, जुलूस निकालते हैं। मरने के बाद मुर्दे को जूते से पीढ़ते हैं ताकि दुबारा त्रिलिंगी रूप में न जन्मे। तमिलनाडु के कुवांगम मेले के कूंथन्डवार महोत्सव द्वारा इनके बीच व्याप्त कई अन्ध विश्वासों से अवगत कराने का दायित्व भी उपन्यासकार ने निभाया है। उपन्यास के अंत में फोटोग्राफर विजय के बयान का तीर सीधे ही पाठकों के हृदय में जाकर चुभता है – “दुनिया के दंश से अपने आप को बचाने के लिए मैं ने लगातार लडाई लड़ी और खुद को स्थापित किया। मैं नाचना-गाना नहीं, नाम कमाना चाहता था। भगवान राम के उस मिथक को झुठलाना चाहता था, जिसके कारण तीसरी योनी के लोग नाचने-गाने के लिए अभिशप्त हैं, परिवार और समाज से बेदखल है।’’ (पृ.195)

आधुनिक समाज अर्थ केन्द्रित है। इस “अर्थ’ ने मानव को मानवता से हटाकर पशुता की ओर ले गया। जब तक समाज यौन केन्द्रित बना रहेगा तब तक मानवीय भावनाओं का ह्रास होता रहेगा। निर्मला भुराडिया का”गुलाम मंडी’ (2013ई) की कथा ह्यूमन ट्राफिकिंग, मानव तस्करी आदि कई मोड़ लेकर अस्पष्ट जेंडरवाले लोगों की अभावग्रस्त विस्थापित जीवन पर समाप्त होती है। अन्तर्राष्ट्रीय देहव्यापार जो उत्तराधुनिक समाज का बाईप्रोडक्ट है उसे एक विलक्षण अंदाज़ में इसमें चित्रित किया गया है। विश्व रूपी मंडी में कैसे स्त्री और त्रिलिंगी, शोषण का शिकार बनती है इसके अनचिह्न पहलुओं को इस उपन्यास द्वारा खोलकर पाठकों के सामने रख दिया गया है।

साहित्य अकादमी द्वारा पुरस्कृत चित्रा मुद्गल का त्रिलिंगी केन्द्रित उपन्यास है “पोस्ट बॉक्स नं.203 नाला सोपारा’ (2016ई) माँ के ममत्व भरे आँचल की ऊष्मा से विघटित होकर चौदह वर्ष का विनोद या बिन्नी कैसे बिमली बन जाता है – इस संकट की यात्रा में पाठक भी रूबरू होकर शामिल हो जाते हैं। बिमली के दहशत भरे जीवन की कठोर-कोमल भावनाएँ दिल को झकझोरती है। “पढ़ाई ही हमारी मुक्ति का रास्ता है। कोई रास्ता ही नहीं छोड़ा गया हमारे लिए।” (पृ.110) बिन्नी के ज़रिए लेखिका का त्रिलिंगियों से यह कथन सौ फीसदी जायज है। कीचड़ से सनी हुई बिन्नी का जीवन-यथार्थ, बेटे से पृथक रहकर बॉ का मानसिक संघर्ष हृदय को कुरेदता रहता है। “घर वापसी’ के लिए त्रिलिंगी लोगों को अपनी पहचानीकृत लिंग में रहने का छूट कानून देता तो है लेकिन नैतिकता – अनैतिकता का सवाल एवं घर-बाहर की समस्या आदि से निपटना उनकेलिए आसान नहीं है। लिंगपूजक समाज या लिंगविहीनों को बरदास्त करेगा। ऐसे पत्र दर पत्र माँ से पूछे गए बिन्नी के कई सवाल समाज से हैं।

भगवत अनमोल का उपन्यास ‘ज़िन्दगी 50-50’ (2017ई) मोनिका देवी कृत अस्तित्व की तलाश में सिमरन (2018ई) और हाँ मैं किन्नर हूँ – कांता भुआ (2018ई) आदि भी त्रिलिंगी केन्द्रित उपन्यास की कोटी में आते हैं।

सामाजिक अवहेलना के कटु-तिक्त उत्पीड़नों की कटुतम सच्चाइयों को आत्मवृत्तांत द्वारा समाज के सामने रखने का प्रयास भी त्रिलिंगियों द्वारा हुआ है। अपनी सीमा स्वयं तय करती हुई समाज की मुख्य धारा में स्वयं को प्रस्तुत ए.रेवती की तमिल भाषा में लिखी गई आत्मकथा है उनरवुम उरूवामुन। (ए-ट्रूथ एबौट मी)। ऐ आम विद्या (विद्या) मैं हिजड़ा मैं लक्ष्मी (लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी) आदि अन्य उल्लेखनीय आत्मकथाएँ हैं। लीक से हटकर चलकर एक नर्तकी के रूप में लक्ष्मी (लक्ष्मीनारायण त्रिपाठी) ने सफलता पायी है। “पर समय ऐसा भी आया मैं ने विद्रोह किया – सब करूँगी पर अपनी स्वतंत्रता के साथ समझौता नहीं करूँगी। सच, मैं ने समझौता नहीं किया। अलग अलग वजह से ..... कभी मीडिया को साक्षात्कार दिया, कभी छोटे परदे पर गयी, कभी विदेश जाना पड़ा तो कभी कहीं और। कई बार इस संदर्भ में कम्यूनिटी ने मुझ पर जुर्माना भी लगाया। मैं ने उसका भुगतान किया। फिर बार बार ऐसा करती रही। एक वक्त ऐसा आया कि मुझे कम्यूनिटी से बाहर निकाला गया। (मैं हिजड़ा....... मैं लक्ष्मी, पृ.146) इन प्रेरणादायक वाक्यों से लक्ष्मी ने अपने ही समाज के अन्धविश्वासों पर भी खुलकर प्रहार किया है। गरीबी, अशिक्षा आदि के दलदल में फँसे त्रिलिंगी समाज को अपनी पुरानी सामाजिक मान्यताओं से प्रतिशोध करके नए युग के अनुकूल अपने को टालने का उपदेश भी ये कथाएँ दे रही हैं। गरीबी, भेदभाव, अपमान और सामाजिक आर्थिक उत्पीड़न से जनित अपनी बदहाली से संबन्धित कई सवाल ये आत्मकथाएँ रखती हैं।

हरीश. वी. शर्मा (हरारत), प्रभाकर क्षेत्रिय (इला नाटक) आदि नाटककारों ने भी जनटिक विकलांगों के दुःख-दर्द को कलमबद्ध करने की पहल की है। त्रिलिंगी लोगों की जीवन- पीड़ा को परखने और अभिव्यक्त करने का प्रयास कवियों द्वारा भी हुआ है। किन्नर (निवेदिता झा) अधूरी देह (गीतिका वेदिक) आदि कविताओं द्वारा तृतीय प्रकृति के लोगों के संघर्ष को भली-भाँति उकेरा गया है। त्रिलिंगी लोगों की अस्मिता संबन्धी उलझनों और परेशानियों को स्पष्ट करती अधूरी देह की पंक्तियाँ हैं – “नहीं नारी हूँ मैं और नर नहीं हूँ। विवश हूँ मूक हूँ, पत्थर नहीं हूँ। जिसे मौका मिला उसने सताया। सभी ने रक्त के आँसु रुलाया। अधूरी देह.............।

गिरीशचन्द्र पाण्डेय द्वारा 2019ई में लिखे “पंखुडियाँ अन्तर्द्वन्द्व की -‘’काव्य को त्रिलींगी लोगों पर लिखित प्रथम प्रबंध काव्य का दावा संपादक डॉ.विजेन्द्र प्रताप सिंह द्वारा किया गया है। सात खण्डों में निबंधित प्रस्तुत कृति शिखण्डी के मन में अन्तर्निहित हिजड़ेपन की व्यथा का काव्य रूपान्तर है। “प्रस्तुत प्रबन्ध- काव्य ग्रंथ ‘पंखुडियाँ अन्तर्द्वन्द्वों की’ महाभारत के अमर पात्र शिखंडी पर आधारित ऐसा काव्य है जो भारतीय समाज में पौराणिक काल से ही वंचित, दमित, शोषित और हाशिए कृत थर्डजेंडर समुदाय की जीवन- व्यथा को बहुत ही गहरे तक उकेरता है और हमें सोचने पर विवश कर देता है कि क्या भारतीय समाज इतना संवेदनशील है कि इस समुदाय की सुधा तक नहीं ली गई। (डॉ.विजेन्द्रप्रताप सिंह, भूमिका, पृ.9) सारी शिखण्डियों की प्रतिनिधि बनकर वह शिखण्डी रणक्षेत्र में भीष्म के आगे ऐसा खड़ा था जैसे वह वर्तमान समाज के सम्मुख खड़ा हो। शिखण्डी एक पहाड़ की भाँति/ भीष्म के निकट आकर/ अपने नेत्र किए हुए/ लाल-लाल/ काल, कराल, ज्वाल/ शर-संधान/ को ललकारा/ पितामह को धिक्कारा (पंखुडियाँ अन्तद्वन्द्वों की, पृ.71)

त्रिलिंगी केन्द्रित कुछ रचनाओं की साहित्यिक स्तरीयता का मूल्यांकन पाठकों की ज़िम्म्दारी है। स्तरीय साहित्य अपने समाज से निरपेक्षता में नहीं सापेक्षता में ही रचा जाता है। इस दृष्टि से हमें इन्हें परखना चाहिए। वदन को सज धजकर अपने मानसिक तनाव को छिपाकर चलनेवाले त्रिलिंगी लोगों के जीवन के निर्मम सच को हमारे सम्मुख प्रस्तुत करके समाज की सभ्यता एवं आधुनिक बोध पर प्रश्न चिह्न खड़ा करने में ये रचनाएँ ज़रूर कामयाब हुई हैं। विस्थापन, तनाव एवं घुटन से उपजे यथार्थ को समेटी हुई ये रचनाएँ गहन भावप्रवणता से उकेरी गई हैं।

किन्नर केन्द्रित साहित्य वर्तमान सामाजिक विमर्श का प्रत्यक्षीकरण है। स्त्री-पुरुष द्वंद्व के बाहर और एक अलग दुनिया के संघर्ष को प्रस्तुत करती प्रत्येक कृति हमें यह याद दिलाती है कि त्रितीय लिंगी लोग भी समाज के हर व्यक्ति की तरह अपनी माँ-बाप की सन्तानें हैं और उन्हें भी इन्सान होने का आभास दिला देना समाज का फर्स बनता है। हिंदी साहित्य के स्थापित प्रतिमानों को तोड़कर एक पुनर्नवा सामाजिक सोच प्रस्तुत करने में ये रचनाएँ आकूत संभावनाएँ देती हैं। एक राष्ट्र का विकास उसके आर्थिक विकास में नहीं जनता के सम्मानपूर्वक जीवन बिताने के हक पर भी निर्भर है । हर एक नागरिक को यह प्राप्त होना है। बहिष्कृत लोगों को मुख्यधारा की ओर संक्रमित करने की नैतिकतायुक्त सामाजिक प्रतिबद्धता नयी संस्कृति की सृष्टि में चार चाँद लगा देगी।

डॉ. के. श्रीलता विष्णु, प्रोफसर और अध्यक्षा, शीशंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, पन्मना कॉपस, कोल्लम-691583, ई मेल -sreelathavishnu2018@gmail.com