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दंड का अरण्य उपन्यास में आदिवासी संघर्ष

इक्कीसवीं सदी के हिंदी साहित्य के अनेक विमर्शों में आदिवासी विमर्श भी एक है। आदिवासियों के जीवन संघर्ष को अनेक उपन्यासकारों ने उपन्यासों में दर्ज किया है। शोषित, पीड़ित, प्रताड़ित, वंचित, निरीह आदिवासियों के जीवन संघर्ष को उपन्यासकर ब्रह्मवीर सिंह ने दंड का अरण्य नामक उपन्यास में चित्रित किया है। ब्रह्मवीर सिंह ने स्वयं पत्रकार होने के नाते निडरता पूर्वक आदिवासियों के जीवन संघर्ष को शब्दबद्ध किया। यह उनका प्रथम उपन्यास है।

आदिवासी समाज भारतीय समाज का अभिन्न अंग है। आदिवासी जंगल को ही अपना सर्वस्व मानकर उसी में बसे रहते हैं। जंगल के बाहर समाज में होने वाली उन्नति से उन्हें कोई सरोकार नहीं है। समाज में धार्मिक, सांस्कृतिक, सामाजिक और आर्थिक रूप में बदलाव आने पर भी आदिवासियों के जीवन में इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। सामाजिक विकास की अनेक योजनाओं में उन्हें कोई रुचि नहीं है वे जैसे के तैसे आदिम संस्कृति को अपनाकर जंगल में ही जीवनयापन कर रहे हैं। सरकारों द्वारा उनके जीवन को सुधारने के लिए कई योजनाओं के बनाने के बावजूद भी आज भी कई आदिवासी जंगलों को नहीं छोड़ना चाहते हैं। कानूनी सुरक्षा, शिक्षा और सरकार के सतत प्रयत्नों के वजह से कई आदिवासी समूह शिक्षित होकर नगरों या महानगरों में ही नहीं बल्कि देश-विदेश में भी बस रहे हैं। पर आज भी ऐसे कई आदिवासी समूह जंगल न छोड़कर विकास के किसी भी योजनाओं से लाभांवित न होकर वही आदिम सभ्यता के धरोहर के रूप में जीवन और मौत के बीच संघर्षरत हैं। जंगल में इनका जीवन पुलिस और नक्सलियों के बीच में अति दारुण्य बन गया है। दंड का अरण्य उपन्यास में उपन्यास का पात्र उदय एक पत्रकार है। पत्रिका में छपने वाले एक खबर के आधार पर पत्रकार उदय आनंद से आदिवासियों के जीवन के बारे में अपना विचार व्यक्त करता है। उनका कहना है आज हम वैज्ञानिक स्तर पर इतनी ऊंचाइयों तक पहुंच गए हैं कि मंगल और चांद पर बसने के लिए योजनाएं तैयार कर रहे हैं। बेचारे आदिवासी लोगों के जीवन में कई सदियों से कोई फर्क नहीं आया। वह जैसे के तैसे जीवन बिता रहे हैं। इस संदर्भ में उदय ने आनंद से कहा कि-

“लोग चांद और मंगल पर जाने के लिए सामान बांधकर तैयार हैं। आदिवासी पेड़ों से पिंड नहीं छुड़ाना चाहते। नंगे बदन, दारू के नशे में धुत्त पूरी दुनिया से कटे रहना चाहते हैं।आदिम सभ्यता के आखिरी गवाह बने रहना चाहते हैं भाई लोग। जैसे मूर्ख बनने और लूटने का ठेका ईश्वर ने इन्हीं को दे दिया है! चिरौंजी, इमली, तेंदूपत्ता और जंगल में मिलने वाली जड़ी बूटियों के बदले नमक लेकर मस्त हैं।” (21)

भारत आज 21वीं सदी पर उन्नति की चरम उत्कर्ष पर पहुंच रही है। इस पवित्र पावन भूमि पर जन्म लेने वाले हर किसी को अपनी इच्छा के आधार पर जीवन यापन करने का पूरा अधिकार है। कई लोग शिक्षित होकर अपने मूल से अलग होकर देश-विदेश में बसकर अपने को सभ्य मानते हैं। पर आदिवासी समूह के कुछ लोग आज भी वही जंगल को ही अपना मूल मानते हुए वहाँ से अलग नहीं होना चाहते। विकास के किसी भी सुख साधनों से अनभिज्ञ ये लोग कठिन परिस्थितियों में भी जंगल नहीं छोड़ना चाहते हैं। जंगल में अपने अधिकार को बचाने के संघर्ष में कई लोग मौत के कगार पर पहुंच गये। फिर भी धरती माता की यह निश्छल संतान अपने जन्म स्थल को किसी भी हालत में नहीं छोड़ना चाहती है। जिस मिट्टी में वे पैदा हुए हैं उस मिट्टी की रक्षा के लिए अपना तन-मन बलिदान हेतु ये तैयार हो गए हैं। जंगल को बचाने में लगे हुए इनको बदले में मौत ही उपहार के रूप में मिलती है। इस संदर्भ का उल्लेख दंड का अरण्य उपन्यास के उपन्यासकार ने इस प्रकार व्यक्त किया है कि-

क्या जानते हो तुम उनके बारे में? वे ही हैं इंसानी सभ्यता के असली वारिस। हमारे- तुम्हारे जैसे नहीं, जो दूसरों के दर्द में शोहरत तलाश रहे हैं। उनकी पीढ़ियां जंगल को बचाने में खप गई। जिस मिट्टी में पैदा हुए, उसी की सुगंध में रम गए।लाख मुसीबतें झेलीं, मगर जंगल और अपनी जमीन से दगा नहीं किया ।आज भी नहीं, जब हर दिन उन्हें दर्द देकर जाता है- मौत का दर्द ।उनकी खुशहाल जिंदगी को झुलसा दिया है, हमारे- तुम्हारे जैसे बुद्धिजीवियों ने। बेटा, मौत आदिवासी के यहां हो या मेरे- तुम्हारे यहां, मौत कइयों की जिंदगी तबाह करती है। (22)

जीवन जीने के लिये सुख सुविधाओं के साधनों को जुटाना ही अधिकांश लोगों का प्रमुख ध्येय है। सम्पन्न होने के बावजूद भी कुछ लोग सदा किसी अज्ञात शंका के वशीभूत होकर अपने जीवन को जीने के बदले ढोते रहते हैं। ऐसे लोगों के लिए जीवन भार सा बन जाता है। पर जंगल को ही पावन भूमि मानकर किसी भी हालत में वहाँ से बाहर न जाना आदिवासियों का एकमात्र जीवन लक्ष्य है। इन आदिवासियों के पास सुख सुविधाओं के कोई साधन नहीं है। शिक्षा से वंचित रह गए। अज्ञान और अंधविश्वास के कारण कई समस्याओं को भोग रहे ये आदिवासी जंगल को ही अपना सर्वस्व मानकर वहीं पर जन्म लेकर वहीं पर अपनी जीवन लीला समाप्त करना चाहते हैं। उन्हें जीवित रहने के लिए आवश्यक वस्तु भी उसी जंगल से ही प्राप्त हो जाती है। पर इन वन-पुत्रों को कानून ने आज वहाँ से बाहर निकालने में विवश कर दिया है। फिर भी कुछ लोग अपने जन्म स्थान को छोड़कर बाहर ना जाने की इच्छा से वही मर मिट रहे है। जिसका उल्लेख दंड का अरण्य उपन्यास में एन.जी.ओ. के रूप में कार्यरत अतुल आदिवासियों के जीवन के बारे में इस प्रकार बताता है कि-

भाई यहां के लोगों के लिए यह जिंदगी का हिस्सा है। कई पीढ़ियों से लोग यहीं पैदा होते रहे हैं, यहीं मर जाते हैं।यह जंगल ही उनके लिए सब कुछ है। जंगल ही यहां के लोगों के लिए मां है जंगल ही पिता है।यहीं खेती होती है, भूख मिटाने का इंतजाम भी यहीं से हो जाता है। यहां दौलत- शोहरत नहीं है, फिर भी लोग मस्त और खुश रहते हैं। जंगल जिंदगी की सभी जरूरतों को पूरा कर देता है। सदियां गुजर गईं। सुकून से रहते लोगों को पता नहीं किस की नजर लग गई है?(50)

जंगल में बसने वाले आदिवासी बुनियादी सुविधाओं के लिए जिंदगी भर तड़पते रहते हैं। वन कानून के तहत आधुनिक स्थिति में उन्हें जंगल में रहना अवैध माना गया है। इस स्थिति में पुलिस इन पर कडी़ नज़र रखती है। जिससे इनको जिंदगी भर असुरक्षा की भावना से जीना पड़ता है। क्योंकि रक्षक के ही भक्षक बन जाने से उन्हें आजीवन संघर्षमय जीवन जीना पड़ता है। कभी-कभी वहाँ रहने वाले पुलिस के द्वारा इनको कई मुश्किलों को झेलना पड़ता है। पुलिस के द्वारा इनकी औरतों का सामूहिक बलात्कार भी हो ही जाता है। जब कोई शिकायत दर्ज करने के लिए थाने में पहुंचता है तो उसको पुलिस अत्यंत क्रूरता के साथ मार भी डालती है। इस डर के कारण कोई थाने में शिकायत देने के लिए जाता भी नहीं है। इस संदर्भ का उल्लेख उपन्यासकार ने दंड का अरण्य उपन्यास में किया है। उपन्यास की बुधरी को पुलिस ने बलात्कार करके एनकाउंटर कर दिया। शिकायत करने के लिए बुधरी के पति के साथ जाने वाले चैतू को भी पीट-पीटकर उसकी पत्नी के सामने ही हत्या कर दी गयी। इतना सब होने के बावजूद भी लोगों को पुलिस वालों ने धमकी देकर चुप रहने के लिए विवश करा दिया है। उपन्यास के प्रमुख पात्र बुधराम ने अपने सामने हुए हत्या का उल्लेख उदय से इस प्रकार किया है कि-

‘हाकिम ही हत्यारा बन जाए तो सुनवाई की गुंजाइश कहां बचती है? जिस थाने में मामला दर्ज हुआ, उसी थाने के जवानों ने बुधरी को गोली मारी थी। उन्हीं के इशारे पर चैतू को मरने तक पीटा गया। सब जानते हैं। मेरे और जुग्गो के सामने चैतू की हत्या की गई। जिन पुलिस वालों ने बुधरी और चैतू की हत्या की, वे आज भी खुलेआम घूम रहे हैं। कभी भी जान से मारने की धमकी देकर चले जाते हैं। पानी में रहकर मगरमच्छ से बैर लिया जा सकता है क्या?’ ( 55-56)

आदिवासी लोग जंगल को ही अपना जन्म स्थल मानकर उसको नहीं छोड़ना चाहते हैं। जंगल आजकल नक्सलियों का अड्डा बन गया है। वे सरकार और पुलिस के खिलाफ गैर कानूनी गतिविधियों में लगे रहते हैं। वहाँ रहनेवाले आदिवासियों के हितैषी के रूप में उनके जीवन में हस्तक्षेपकरते हैं। पहले से पुलिस की निगरानी और साथ में नक्सलियों की धमकी के कारण आदिवासियों को कई प्रकार के संघर्षों का सामना करना पड़ता है। क्योंकि जंगल में इनका जीवन पुलिस और नक्सली दोनों के हाथ में फंसा हुआ है। पुलिस और नक्सली दोनों ने आदिवासियों पर कड़ी नजर रखी हुई है। दोनों आदिवासियों को सदा शंका की दृष्टि से ही देखते हैं। पुलिस को लगता है आदिवासी नक्सलियों का समर्थन कर उनकी मदद कर रहे हैं। और नक्सलियों को लगता है कि आदिवासी उनकी खबर पुलिस तक पहुंचाते हैं तब ऐसी स्थिति में दोनों आदिवासियों को मारने में पीछे नहीं हटते। इन दोनों से विरोध मोल लेना मौत से कम नहीं है। दोनों आदिवासियों को अपने फायदे के लिए उपयोग करते हैं समय आने पर मार भी डालते हैं। इस संदर्भ का चित्रण दंड का अरण्य उपन्यास में किया गया है। उपन्यास के बुधराम ने आदिवासी लोगों की दयनीय स्थिति का वर्णन इस प्रकार किया है कि-

लोग मौत के साए में जिंदा हैं। नक्सली पुलिस का खबरी बताकर मारते हैं।पुलिस की मदद लें तो नक्सली पूरे परिवार को प्रताड़ित करते हैं। नक्सलियों का साथ दें तो पुलिस फर्जी एनकाउंटर कर देती है। लोग इकट्ठे होकर विरोध करें तो नेता नाराज होते हैं। वे चाहते हैं कि कोई भी विरोध उनके बिना ना हो। वे सबसे खतरनाक हैं।पता ही नहीं चलता कि पुलिस के जरिए नुकसान पहुंचाएंगे या पुलिस पर दबाव डालकर? हम इतने मजबूर हैं कि अत्याचार के खिलाफ मुंह तक नहीं खोल सकते।जीवन की डोर कई लोगों के हाथ में हैं, जिसे जैसा खेलना है, वैसे ही खेलता है। (56)

जंगल में जीने वाले आदिवासियों का जीवन कभी पुलिस के हाथ में कभी नक्सली के हाथ में झूलता रहता हैं। दोनों आदिवासियों के घातक बन के बैठे हैं। जंगल को अपनी विरासत समझकर जीने वाले आदिवासियों का जीवन आजकल खतरे से गुजर रहा है। इतना ही नहीं उनको वहां से बाहर करने की पुरजोर कोशिश भी की जा रही है। उनको मारा जाता है, उनकी औरतों की इज्जत लूटी जाती है। विरोध करने वाले आदिवासियों को नक्सली बताकर जेल में बंद किया जाता है नहीं तो एनकाउंटर किया जाता है। बाहरवाले जंगल के संसाधनों को लूटने में लगे हैं। आदिवासियों का जीवन ना जंगल में सुरक्षित है बाहर। उनके इस संघर्ष का चित्रण उपन्यासकार ने अपने उपन्यास दंडका अरण्य में किया है। उपन्यास के आदिवासी पात्र बुधराम ने अपने लोगों की दयनीय स्थिति को उदय से इस प्रकार अभिव्यक्त किया है कि-

“आदिवासियों को डराया, धमकी दी गई, पीटा गया। महिलाओं की इज्जत लूटी गई। जानवरों को गाड़ियों में भरकर ले गए। घरों को आग लगा दी। ऐसा लगा, जैसे आफ़त टूट पड़ी है। विरोध करनेवालों को जेल में बंद कर दिया।हम यह सोचते थे कि जंगल हमारा है। अचानक हमें बताया गया कि हम यहां अपराधियों की तरह हैं। जंगल में बाहर के लोगों की आवाजाही बढ़ गई।जंगल कटने लगा। लकड़ी के तस्करों के हाथों जंगल साफ होने लगा।” ( 57)

संसार में पैदा होने वाले हर प्राणी को स्वतंत्र रूप से जीने का पूर्ण हक है। पर आदिवासी जंगल में संघर्षपूर्ण जीवन जी रहे हैं। पुलिस नक्सली के नाम पर उनको एनकाउंटर कर देती है। अगर बाहर समाज में किसी का एनकाउंटर हो तो समस्त समाज और मीडिया एकजुट होकर लड़ने लगता है।पर जब बात आदिवासियों की होती है तो ज्यादातर लोगों के लिए एक खबर है,उन पर इसका कोई असर नहीं पड़ता है। उपन्यासकार ने दंड का अरण्य में इसका चित्रण किया है। उपन्यास का उदय पत्रकार है। वह आदिवासियों की एनकाउंटर की खबर की सच्चाई को पता लगाने के लिए जंगल जाता है। वहाँ वह आदिवासियों के जीवन संघर्ष को अपनी आंखों के सामने देखता है।वह इस प्रकार अनुभव करता है कि-

उदय को लगा की जंगल मौत की बस्ती जैसा है। जहां कानून नहीं, वहशी जुनून का राज है। दिल्ली-मुंबई जैसे शहरों में पुलिस की बदतमीजी पर मीडियावाले लंबे विरोध कार्यक्रम चलाते हैं। अगर कोई फर्जी एनकाउंटर हो जाए तो मीडिया पूरी ताकत झोंक देता है। और यहां....? यहां लोगों की मौत के कोई मायने नहीं। (59)

लोगों का विचार है कि आदिवासी अभी तक अपने आदिम सभ्यता में जी रहे हैं। वह जंगल छोड़कर बाहर आकर समय के साथ नहीं बदल रहे हैं। उनको भी समय के साथ बदलना चाहिए। पर आदिवासी मूलभूत आवश्यताओं के लिए संघर्ष करते हुए जिंदगी भर जंगल में ही मर मिटता है। उनके लिए जंगल ही जीवन की ताकत है। वहाँ से ही संस्कृति को सीखते हैं। किसी भी हालत में वे जंगल को छोड़कर बाहर नहीं जाना चाहते हैं। दंड का अरण्य उपन्यास में पत्रकार उदय आदिवासियों के जीवन को देखने के लिए जंगल जाता है। और वहां उनके दुख और वेदना से पूर्ण जीवन से परिचित होकर बुधराम से जंगल छोड़कर किसी सुरक्षित जगह जाने के लिए कहता है तो बुधराम उसे इस प्रकार समझाता है कि-

आपने कितनी आसानी से कह दिया। हम पीढ़ियों से इस जंगल में हैं। जन्म लेते ही जंगल हमारी जिम्मेदारी उठाने लगता है। खाने का इंतजाम, रहने की व्यवस्था, रचने और रमने की शिक्षा, संस्कृति, गीत-संगीत, सब इसी मिट्टी से जुड़ा है। यहां की ऊबड-खाबड पगडंडियां हमें संतुलित जीवन की शिक्षा देती है। पेड़ हर परिस्थिति में जूझना सिखाते हैं। आदिवासी के रग रग में जंगल है। बताइए, कैसे छोड़ दे जंगल को? (61)

आदिवासी समाज में नारी का महत्वपूर्ण स्थान है। परिवार की धुरी नारी है। आर्थिक रूप से परिवार को संभालने के लिए नारी अनेक प्रकार के संघर्ष संघर्षों का सामना करती है। परिवार के सुख-सुविधा के लिए नारियां अपने जीवन को दांव पर लगा देती हैं। आर्थिक आवश्यकताओं की पूर्ति हेतु जंगल में घूम-घूम कर लकड़ी चुनने वाली और भी कई काम करने वाली नारियां बलात्कार और शारीरिक शोषण का शिकार बनती हैं। पारिवारिक सुख सुविधाओं के लिए अपने प्राण को त्याग देती हैं। ऐसे ही एक नारी का चित्रण दंड का अरण्य उपन्यास में है। उपन्यास की बुधरी महुआ बीनने के लिए जो जंगल गई है वहां के जवानों ने उसका बलात्कार कर नक्सली के नाम से उसका एनकाउंटर कर दिया।बुधरी और उसके साथ गयी नारियों की दयनीय स्थिति के बारे में बुधराम उदय से इस प्रकार कहता है कि-

वहशियत का खेल नहीं रुका। जवानों ने महिलाओं के कपड़े फाड़े। अर्द्धनग्न हालत में महिलाएं खुद को बचाने के लिए फरियाद करती रहीं। रोती बिलखती रहीं। महिलाओं को पीटते-पीटते जवानों पर वासना सवार हो गई। महिलाओं को छेड़ने लगे। तीनों महिलाओं के कपडे उतारकर चिकोटी काटी।स्तनों को पकड़कर चारों ओर घुमाया।रोती बिलखती महिलाओं ने रहम की भीख मांगी,मगर जवानों का दिल नहीं पसीजा। बुधरी के अलावा दोनों महिलाओं को बुरी तरह पीट कर भगा दिया। खौफ़ के मारे महिलाएं वहां से भाग कर आ गयीं। बुधरी ने भागने की कोशिश की तो जवानों ने पकड़ लिया।महिलाओं ने उसकी चीखें सुनी,फरियाद सुनी और छटपटाहट का एहसास किया। मगरबचाने की हिम्मत वे नहीं जुटा सकीं।आखिर जुनूनी जवानों के सामने विरोध मायने ही क्या रखता था? बुधरी का जवान होना ही उसके लिए काल बन गया। (62)

आदिवासियों के संघर्ष को निकट से देखने के बाद पत्रकार उदय के मन में उनके प्रति संवेदना प्रकट होती है। उनके प्रति हो रहे अन्याय को वह समझ पाता है। आदिवासियों के अपने मूल स्थान को छोड़कर न जाने का असली कारण जानने के बाद उदय के मन में भी उनके प्रति आदर भावना पनप उठती है।किसी को भी नुकसान न पहुंचानेवाले आदिवासी अपने मूल स्थान के लिए आजीवन संघर्ष कर रहे हैं। उनके पक्ष और न्याय को देखकर उदय इस प्रकार सोचता है कि-

“आखिर कोई अपनी जमीन किसी के अत्याचार की वजह से क्यों छोड़े? आदिवासी जंगल में सदियों से रहते आए हैं। यही उनका संसार रहा है। उनके शांत संसार में दखल सरकारी नुमाइंदों ने दिया। अत्याचार किया।इन नुमाइंदों ने कभी जंगल में रहनेवाले सहज, सरल और बाहरी दुनिया से अछूते लोगों का दर्द समझा ही नहीं। आदिवासी जिस जमीन पर कई पीढ़ियों से खेती करते आ रहे थे, जिस जगह पर बसेरा बनाकर रह रहे थे, अचानक उन्हें वहां से बेदखल करना शुरू कर दिया। जंगल में जीवन काटनेवालों को जंगल का अपराधी साबित कर दिया गया। जो आदिवासी जरूरत से ज्यादा लकड़ी नहीं काटता, उसपरवनकानून का शिकंजा कसा गया। आदिवासी जंगल के असली वारिस की तरह हैं। उसे न संविधान से सरोकार था और न धाराओं की कोई जानकारी हैं। सदियों से वह यही समझता रहा कि जंगल उसका है।उसी जंगल से उसकी जिंदगी चलेगी।जंगल खाने के लिए कंद-मूल,फल देगा, जंगल पीने को पानी देगा और सिर छिपाने के लिए घास-फूस का इंतजाम भी जंगल करेगा। यही आदिवासी की दुनिया थी।”(95)

उपन्यासकार ने जंगल में जी रहे आदिवासियों के संघर्ष को साहस के साथ उपन्यास में दर्ज किया है। विकास का कोई भी असर उनके जीवन पर नहीं पडा है। सरकार की नई-नई नीतियाँ भी उनकी जीवन स्तर को सुधार पाने में अभी तक पूर्णत: सक्षम नहीं हो पायी हैI पुलिस और नक्सलियों के अत्याचार के आगे भी ये अरण्य की संतानें आज भी अपने मूल स्थान को त्यागने को हरगिज तैयार नहीं हैं भले ही उपन्यास के बुधराम जैसे लोग अपना सर्वस्व खोकर मौत के कगार पर ही क्यों न पहुँच जाएँ।

संदर्भ ग्रंथ :

  1. ब्रह्मवीर सिंह, दंड का अरण्य, प्रभात प्रकाशन, नई दिल्ली

डॉ. पी. सरस्वती, सहायक प्राध्यापिका, हिन्दी विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नई- 05