Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

‘महापुरुष’ में हरिपाल त्यागी के व्यंग्य-लक्ष्य

अगर ‘साहित्य’ को मैथ्यू अर्नाल्ड के शब्दों में “जीवन की आलोचना” कहा जाये तो ‘व्यंग्य’ को तीखी आलोचना कहना होगा । समाज का यदि साहित्य आईना है तो व्यंग्य उसका सबसे साफ आईना । व्यंग्य के माध्यम से सही मायने में हिन्दी साहित्य ने अपना सामाजिक राजनीतिक कर्तव्य निभाया है । इस तरह हिन्दी व्यंग्य हिन्दी साहित्य की एक बड़ी उपलब्धि है ।

व्यंग्य का लक्ष्य किसी विशिष्ट घटना, विशिष्ट स्थान, अथवा राजकीय व्यक्‍ति या सामाजिक-धार्मिक विसगंतियों आदि को बनाया जाता है । व्यंग्य एक ऐसा हथियार है जिसके माध्यम से समाज की अव्यवस्था, लोगों का छल-कपट, पाखण्ड, भ्रष्टाचार, मिथ्याचार, अन्याय आदि पर प्रहार किया जाता है और सच्‍चाई को उजागर किया जाता है । व्यंग्य हमारे यथार्थ की एक ऐसी अभिव्यक्‍ति है जिसमें व्यक्‍ति तथा समाज की कमजोरियों, दुर्बलताओं, कथनी और करनी के बीच के अंतर को व्यंग्य एक सही दिशा में हमारे सामने लाता है । जैसा हिंदी साहित्य के इतिहास में व्यंग्यकार हरिशंकर परसाई आदि ने किया है । हर एक साहित्यकार-व्यंग्यकार का लक्ष्य अलग-अलग होता है, लेकिन मुख्य हेतु एक होता है । जिस तरह सिद्ध कवि सरहपा ने अपने व्यंग्य का लक्ष्य वैदिक अनुष्ठानों को बनाया था उसी तरह उनके बाद मध्यकाल के कबीर और कुछ कवियों ने अपने समय के ढकोसलों, प्रदर्शनों-दिखावों, धार्मिक अनाचारों, शास्त्रीय वाग् जालों आदि को अपने व्यंग्य का लक्ष्य किया है । इसी तरह आधुनिक काल के भी आरंभ से ही व्यंग्यकारों में भारतेंदु, बालमुकुन्द गुप्त, प्रतापनारायण मिश्र आदि ने अपने व्यंग्य का लक्ष्य अंग्रेजी सरकार, धार्मिक, सामाजिक विसगंतियों आदि को बनाया ।

“सही अर्थों में भारतेन्दु युग के कवियों ने व्यंग्य की महत्ता को समझा । उस युग में व्यंग्य को महत्त्वपूर्ण स्थान मिला । तत्कालीन अंग्रेजी शासन की ज्यादती से क्षुब्ध होकर कवियों ने देशी, विदेशी, लाला साहब, पुलिस, एड़िटर और अंग्रेज-भक्‍त सभी पर तीखा व्यंग्य किया । भारतेन्दु तो उसके प्रतिनिधि थे ही । पं. बालकृष्ण भट्ट ने टैक्सों की मारी जनता के दुखों को व्यक्‍त किया, तो पं. राधाचरण गोस्वामी ने इलबर्ट बिल पर स्यापा लिखकर व्यंग्य-बाण छोड़े । पं. प्रताप नारायण मिश्र ने अपने युग की विद्रूपताओं को सशक्‍त व्यंग्य के माध्यम से अभिव्यक्‍त किया ।”[1]

व्दिवेदी युग में व्दिवेदी, मैथिलीशरण गुप्त आदि ने अंग्रेजी सभ्यता का अंधानुकरण करने वाले भारतीयों को अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाया । उनके बाद के व्यंग्यकारों में राधाकृष्ण, हरिशंकर परसाई, शरद जोशी, श्रीलाल शुक्ल, नागार्जुन आदि ने स्वातंत्र्य आंदोलन, मध्यवर्गीय ढकोसलों, अंग्रेजी प्रशासन, भारतीय तत्कालीन राजकीय लोगों, वर्तमान समस्याओं आदि को अपने-अपने व्यंग्य का विषय बनाया है ।

इसी तरह बहुमुखी प्रतिभा वाले कलाकार हरिपाल त्यागी में व्यंग्य की तीव्र संवेदना उनकी हर विधा की रचनाओं में अन्तर्निहित है । इन्होंने भी अपने व्यंग्य का लक्ष्य व्यक्‍तियों, घटनाओं, स्थितियों को बनाया है । इन्होंने अलग-अलग घटनाओं, स्थितियों, व्यक्‍तियों आदि को लेकर व्यंग्य चित्र भी बनाये हैं, परन्तु उसी के साथ-साथ शब्दों के द्वारा भी अपने व्यंग्य का प्रकटीकरण किया है । हरिपाल त्यागी की व्यंग्यात्मक शब्द-चित्रों की किताब है, ‘महापुरुष’ । यह मुख्यतः ‘हास्य-व्यंग्य’ और ‘विनोद’ की किताब है ।

‘महापुरुष’ में बहुचर्चित नौ साहित्यकारों और शब्दकर्मियों के व्यक्‍ति -जीवन, रचनाओं, आदतों आदि की विसगंतियों को व्यंग्य का लक्ष्य बनाया गया हैं । इन शब्द-कर्मियों में कवि, कलाकार, सम्पादक, आलोचक आदि हैं और स्वयं व्यंगकार हरिपाल त्यागी भी शामिल हैं । उसमें उन्होंने अपने शब्द-व्यंग्य की कूची से जिन महापुरुषों के छवि-चित्र उभारे हैं । वे हैं- कमलेश्‍वर, त्रिलोचन शास्त्री, विद्यानिवास मिश्र, राजेन्द्र यादव, निर्मल वर्मा, अशोक वाजपेयी, नामवर सिंह, रवीन्द्रनाथ त्यागी, और एक ‘लघु-पुरुष’ के रूप में खुद हरिपाल त्यागी भी हैं । उन महापुरुषों के व्यंग्यात्मक रेखांकन भी हरिपाल त्यागी के किये हुए हैं । उन्होंने इन महापुरुषों के जीवन के विभिन्‍न पहलुओं को देखा-परखा है । उनके जीवन के अछूते पहलुओं को लाने के साथ-साथ उनकी चारित्रिक विशेषताओं, आदतों, व्यवहारों, सोच-विचार, प्रवृत्तिगत असंगतियों, कमजोरियों, रुसवाइयों, महत्वाकांक्षाओं आदि का उपयोग करके उन्हें अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाया हैं । इनके साथ-साथ हरिपाल त्यागी खुद की भी हँसी उड़ाते हैं । निर्ममता से अपने ऊपर अपने ही हथियार का वार करना बहुत मुश्किल काम है ।

व्यंग्य का लक्ष्य हमेशा दूसरों को चोट पहुँचाना, उन्हें निराश करना, उन्हें बेचैन करना और दुख पहुँचाना ही नहीं होता बल्कि अप्रत्यक्ष रूप से इन सब स्थितियों में भी मनुष्य-जीवन की हित-कामना ही छिपी रहती है । इन स्थितियों से गुजर कर ही उसका स्वच्छ परिणाम सार्थक रूप धारण करता है, अर्थात् यथार्थ या सच्‍चाई को प्रकट करता है । इसी संदर्भ में परसाई कहते हैं - “अच्छा व्यंग्य सहानुभूति का सबसे उत्कृष्ट रूप होता है ।”[2] आज सारी दुनिया में व्यंग्य ही साहित्य का मूल स्वर है । बुर्जुआ समाजों में बेहद विसंगति है - परिवार से लेकर राष्ट्र-मंत्रिमंडल तक भ्रष्टाचार, अन्याय, शोषण, मिथ्याचार, पाखंड है । इन सब विषयों को व्यंग्यकार अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाते जा रहे हैं, लेकिन हरिपाल त्यागी ने अपनी व्यंग्य की किताब ‘महापुरुष’ में बहुचर्चित नौ साहित्यकार और शब्द कर्मियों के व्यक्‍ति -जीवन, रचनाओं, आदतों आदि की विसंगतियों को व्यंग्य का लक्ष्य बनाया है। उनके व्यंग्य के निशाने पर पहले साहित्यकार हैं कहानीकार ‘कमलेश्‍वर’ । हरिपाल त्यागी ने कहानीकार कमलेश्‍वर को महापुरुष संज्ञा तो दी है पर साथ ही उन्हें उनकी एक बहुचर्चित कहानी के शीर्षक को याद करते हुए ‘कस्बे का एक आदमी’ भी बताया है । कमलेश्‍वर मूलतः कस्बे के रहने वाले थे । वे रेडियो-दूरदर्शन और साहित्यिक पत्रकारिता से जुड़े हुए थे । इसी कारण उन्होंने कहा हैं, - “कोई मामूली-सा मीडियोकर भी मीडिया की सीढ़ी के सहारे बाँस के ऊपरी छोर पर बैठकर महापुरुष कहला सकता है । जरूरी सिर्फ इतना है कि आदमी लफ्जों की कीमियागिरी जानता हो । इसका जीता-जागता उदाहरण कस्बे का वह आदमी है ।”[3] और इसी को लेकर आगे लिखा है कि “लड़का बड़ा हुआ तो ज्योतिषी जी ने उसकी कमर पर लहसुन के काले निशान देख लिये और तुरंत भविष्यवाणी दाग दी....ये लच्छन तो किसी महापुरुष में ही देखने को मिलते हैं, यह भविष्यवाणी सौ फीसदी सही निकली । कस्बे का आदमी बड़ा होने पर साहित्यकार बन गया । हालांकि, उसमें कुछ गुण मच्छीमार के भी थे, वह डोरी-धागे का इस्तेमाल किए बिना शब्दों सें ऐसा जाल तैयार करता, जो वास्तविक जाल से ज्यादा वास्तविक लगता ।”[4] कमर पर लहसुन के काले निशान सिर्फ हास्योत्पादक ही नहीं, कमलेश्‍वर के पत्रिका-सम्पादक होने, दूरदर्शन के उप निदेशक तथा फिल्मों के लेखक होने से उन्हें पैसे, ‘पावर’ और प्रसिद्धि मिली थी । उन्होंने कहानी के क्षेत्र में ‘समान्तर’ नाम से एक ‘गुट’ या आन्दोलन खड़ा किया ।

कमलेश्‍वर के बाद हरिपाल त्यागी ने कविवर त्रिलोचन शास्त्री और अशोक वाजपेयी के व्यंग्यात्मक शब्द-चित्र खींचे हैं । हरिपाल त्यागी ने त्रिलोचन शास्त्री को ‘महाभारत में महापुरुष’ कहा । इस रचना में उन्होंने त्रिलोचन के जीवन का ‘चित्रण’ कृष्ण और अर्जुन के संवादों के माध्यम से किया है । सही में त्रिलोचन शास्त्री ‘भारत में महा विद्वान’ थे, उस समय । त्रिलोचन व्यंग्यकार के पड़ोसी भी रहे थे । अतः त्यागी भी एक किस्म के अधिकार भाव से भी बाते करते हैं । जैसे - “हिंदी का सबसे ज्यादा पैदल चलने वाले कवि को पत्थर का देवता बनाकर छोड़ देना हमें अच्छा नहीं लगता । यह और बात है, महापुरुष महाभारत कालीन पितामह भीष्म जैसे नजर आते हैं । शरों से बोधित आज हरिद्वार के एकांत में सबसे अलग-अलग पड़े हैं । तो क्या उन्हें ऋषि-तुल्य मानकर उनकी पूजा अर्चना की जाए?”[5] त्रिलोचन शास्त्री बड़े विद्वान तथा घुमक्‍कड़ कवि थे । हिन्दी के अवाँगार्द रचनाकारों में एक थे । जब शरीर थक गया तो पुत्र के पास देहरादून हरिद्वार चले गये । उन्होंने जीवन भर काफी संघर्ष किया और सफल भी हुए ।

अशोक वाजपेयी को हरिपाल त्यागी ने ‘मुक्‍ति का बंधन’ शीर्षक से याद किया है । कवि, प्रशासक, आलोचक अशोक वाजपेयी को सदा पद से प्रेम रहा है ।

बाद में हरिपाल त्यागी समकालीन हिंदी साहित्य में एक खास ढंग से दलित एवं स्त्री विमर्श का झंडा उठाकर चलने वाले ‘हंस’ पत्रिका के सम्पादक, राजेन्द्र यादव को अपने व्यंग्य का लक्ष्य बनाते है । राजेन्द्र यादव को हरिपाल त्यागी ने ‘नयी कहानी’ आन्दोलन के मोहन राकेश और कमलेश्‍वर के साथ जोड़कर उन्हें ‘तीसरा सवार’ कहा है । “लीजिए मिलिए, आप हैं भूतपूर्व कहानी आंदोलन के तीसरे सवार । तीन सह सवारों में आपका स्थान घोड़े की पूँछ के पास सुरक्षित था ।”[6] और आगे लिखते है —“यह बात अब पुरानी हो गई है, जब आपने बैकडोर से ‘नई कहानी’ के भीतर सशरीर घुसने का दुस्साहसी प्रयत्न किया था । यह एक खतरनाक प्रयोग साबित हुआ, क्योंकि दुर्भाग्य वश, ठीक इसी अवसर पर, घोड़े ने लात मार दी और तभी से आपने न सिर्फ प्रयोगों से, बल्कि लेखन से भी बेजार हो गए ।”[7]

इस के बाद हरिपाल त्यागी ने कहानीकार निर्मल वर्मा को अपने व्यंग्य-का लक्ष्य बनाया है । हरिपाल जी ने निर्मल वर्मा को ‘अपने घर में अजनबी’ शीर्षक दिया और उनके बारे में कहा है - “जीवन शैली और लेखन शैली में भी यूरोपीयता के बावजूद आप अपने वक्‍तव्यों और टिप्पणियों में यकीनन सच्‍चे भारतीय हैं । इतने सच्‍चे कि आपके सम्मुख सभी भारतीय लेखक और साहित्य तथा कला के रसिक स्वयं को विदेशी अनुभव करते हैं ।”[8] निर्मल वर्मा को पंजाबी लेखक के साथ देश का सर्वोच्‍च साहित्यकार पुरस्कार दिया गया था । “भारतीय ज्ञानपीठ ने एक अधकटा फल महापुरुष की सेवा में अर्पित किया था, जिसे संकोच के साथ ग्रहण करना पड़ा.... ऐसे फलदायक अवसर रोज रोज तो नहीं आते । सहमी हुई प्लेट की लाल-लाल आँखें अब भी उन्हें घूर रही हैं । थोड़ी ही देर में यह सामग्री उनकी पेट में पहुँच कर सुख देगी । यही वह एक चिथड़ा सुख है जिसके लिए मार्क्सवाद का कलात्मक मुखौटा विश्‍वबाजार में बेच देना पड़ा ।”[9] ‘एक चिथड़ा सुख’ निर्मल वर्मा की पुस्तक का नाम है । निर्मल वर्मा आरंभ में घोषित मार्क्सवादी थे किंतु चेकोस्लोवाकिया पर रूस के हमले को अपनी आँखों से देखने के बाद उन्होंने मार्क्सवाद से मुंह मोड़ लिया ।

इन्हीं के साथ-साथ हरिपाल त्यागी आलोचक नामवर सिंह और प्रसिद्ध विद्वान विद्यानिवास मिश्र को अपने व्यंग्य के क्षेत्र में लाते है । नामवर सिंह को ‘महापुरुष के निमित्त’ और ‘चोटी’ के विद्वान विद्यानिवास मिश्र को ‘परम पुरुष मिथक पुराण’ कहा है । नामवर सिंह के बारे में हरिपाल लिखते हैं - “बीसवीं सदी को यह गौरव प्राप्त हुआ हैं कि उसने एक ऐसे रत्‍न को जन्म दिया, जो रेयर है और भिन्‍न-भिन्‍न सभाओं में अवसरानुकूल अपनी रंग–छवियाँ बिखेर रहा है । आप वाराणसी की अमूल्य देन हैं और पिछले कई दशकों से दिल्ली को धन्य करते आ रहे हैं । आज वाराणसी आपके वहाँ न होने से कष्ट में है और दिल्ली आपके यहाँ होने से ।”[10] नामवर सिंह के बारे में प्रसिद्ध है कि वे लिखने से अधिक बोलने में विश्वास रखते है । लोग कहते हैं कि वे सभाओं का रुख देखकर बोलते हैं । इस महान आलोचक नामवर सिंह का जन्म वाराणसी में हुआ था लेकिन उनके ज्ञान का योगदान दिल्ली के लोगों को मिला है । सिर पर चोटी रखने वाले विद्यानिवास मिश्र का नजारा है “यह सज्जन शुद्ध रूप से एड़ी से चोटी तक दर्शनीय है । किसी भी कोने से देखिए, आप इन्हें श्रद्धेय ही पाएंगे । संस्कृत की विद्वत्ता भी इन्हें गरिमामय बनाने में सहायक सिद्ध हुई है, क्योंकि अधिकांशतः श्रद्धालुओं में संस्कृत बोलना या लिख पाना टेढ़ी खीर है । यों भी श्रद्धा के लिए तथ्यात्मकता अथवा वस्तुपरकता की आवश्यकता नहीं होती, इनके स्थान पर केवल तर्कहीन भावना से ही काम चलाया जाता है ।”[11] विद्यानिवास मिश्र यह हिंदी, संस्कृत के बड़े विद्वानों में एक गिने जाते हैं । इसके बाद हरिपाल जी ने चचेरे भाई, प्रशासक और व्यंग्यकार रवीन्द्रनाथ त्यागी को अपने व्यंग्य के निशाने पर रखा है । रवीन्द्रनाथ त्यागी सिविल सेवा में थे, कवि और व्यंग्य लेखक थे और अच्छे मनुष्य थे । उन्होंने बार-बार हरिपाल त्यागी की सहायता की है और मानवतावाद उनका आदर्श भी रहा है । हरिपाल त्यागी ने ‘अंतरात्मा की आवाज’ शीर्षक से उनके बारे में टिप्पणी की है । जैसे “बड़े भाई साहब का बड़प्पन यह था कि वह छोटे भाई को समझे बिना भी स्नेह जताते रहे, जबकि छोटा भाई उन्हें समझकर भी दर देने को विवश होता रहा । भाई साहब रोज-रोज पढ़ी जाने वाली किताबों को रट-रटाकर प्रथम श्रेणी में पास होते रहे । मैं अपने प्रश्नों के उत्तर कहीं अधिक कठोर और क्रूर जिंदगी में ढूँढ़ता रहा ।”[12]

अपने भाई के बाद आखिर में हरिपाल त्यागी ने अपने को ‘लघुपुरूष’ कहकर खुद को व्यंग्य का पात्र बनाया । ‘एक लघुपुरूष का बयान’ शीर्षक देकर अपनी व्यंग्यात्मक तस्वीर हरिपाल त्यागी ने निकाली है । अपनी पहचान और दर्द के बारे में कहते है कि “लंबे समय से बैठे रहने के कारण मेरे पैर अकड़ गए थे, इसलिए चाल में कुछ व्यंग्यात्मक पुट तो आना ही था । लेकिन टेढ़ी-मेढ़ी चाल ध्यान तो खींचती ही है और इसी से पहचान भी बनती है । प्रत्येक टेढ़ी चाल के पीछे सिर्फ पैरो की अकड़न ही नहीं और भी दर्द हो सकते हैं ।”[13] एक चित्रकार होते हुए साहित्य में आने के बाद किस तरह वह अनुभव करते है उसका चित्रण इन शब्दों में करते है जैसे - “साहित्य की दुनिया में प्रवेश करने के बाद अब मैं स्वयं को उस रूपवती नव वधू की तरह भी अनुभव करने लगा हूँ जिसके मायके में तो अनेक प्रेमी हों, लेकिन ससुराल में अदायें और करतब दिखाने के अवसर पूरे न मिलते हों । मेरा मायका चित्रकला में हैं और ससुराल साहित्य में ।”[14] खुद के बारे में बताते हुए कहते है की “अच्छा व्यंग्यकार उसे कहते हैं जो सामने वाले के गालों पर अपनी अंगुलियों की छाप छोड़कर प्रभुत्व प्राप्त करके प्रसन्नता का अनुभव करता है । लेकिन मैं कुछ गलतियाँ कर जाता हूँ - अपने गाल पीट कर दूसरे के गालों को सहलाने लगता हूँ । तब अपने-पराए का फर्क मुश्किल हो जाता है । पाठक इसे मेरी विनम्रता मान कर भ्रमित न हो । दरअसल, यह नये व्यंग्य साहित्य का आत्म-संघर्ष है, जिसमें सामाजिक, राजनीतिक, साहित्यिक और दार्शनिक पीड़ाओं का समवेत स्वर सुना जा सकता है । ये पीड़ाएँ सिर्फ रचनाकार की ही नहीं है, सभी इनमें अपने-अपने ढंग से शामिल हैं । आपस में लड़ते झगड़ते हैं । फिर चूमते–चाटते भी है । खाँसना खुनकना और बमकना सब कुछ आपसी संबंधों का हिस्सा हैं । ये चीजें जीवन-रथ के पहियों में ग्रीस का काम करती हैं ।”[15]

इस तरह उपरोक्त दरअसल हरिपाल त्यागी ने जिस रूप में इन लेखकों के शब्द-चित्र प्रस्तुत करते हुए अपनी रचनात्मक क्षमता का उपयोग किया है वह महत्वपूर्ण है । उन्होंने नवीन और तराशे हुए शिल्प का प्रयोग किया जिसने पाठकों को आकर्षित किया । कहना होगा कि पाठकों को ही नहीं, स्वयं उन लेखकों को भी जिन पर व्यंग्य-बाण छोड़े गये हैं । साहित्यकारों के चित्रों के साथ-साथ उनकी आदतों, व्यवहारों तथा प्रवृत्तिगत-असंगतियों, चारित्रिक विशेषताओं, दुर्बलताओं, और उनके जीवन के अछूते पहलुओं को, कमजोरियों, रुसवाइयों, महत्वाकांक्षाओं आदि के साथ-साथ गोपनीय गुण-दोषों को लोगों के सामने लाने का प्रयास किया है।

आज भी हिन्दी में व्यंग्यात्मक शैली में लेखक अपनी रुचि, शक्‍ति या सामर्थ्य के अनुसार व्यंग्य को उपन्यास, कविता, कहानी, नाटक, टिप्पणी, आलेख आदि के रूप में प्रस्तुत करने का प्रयास कर रहे हैं । इनके साथ-साथ साक्षात्कारों, रेखाचित्रों, शब्द चित्रों और व्यक्‍ति चित्रों के रूप में भी आज कल व्यंग्य लिखने का प्रयास कुछ रचनाकार कर रहे हैं । हिन्दी में साक्षात्कार, रेखाचित्र और शब्द-चित्र पर कुछ ही रचनाकारों ने काम किया है । इसमें रामवृक्ष बेनी पुरी, छायावादी कवि महादेवी वर्मा और मनोहर श्याम जोशी के नाम उल्लेखनीय हैं । महादेवी वर्मा द्वारा लिखे गये रेखाचित्रों ने विद्वानों को उसके विद्या गत स्वरूप पर विचार करने के लिए विवश किया । मनोहर श्याम जोशी के साक्षात्कारों और शब्द-चित्रों पर अधिक बात नहीं हुई । संभवतः इस प्रकार के लेखन की किंचित चुनौतियों के कारण आलोचक उससे कन्नी काट जाते रहे होंगे । लेकिन शब्द चित्र, रेखाचित्र साक्षात्कार की चुनौतियां भी कम नहीं हैं । आज भी यत्र-तत्र रेखाचित्र पढ़ने को मिल जाते हैं । लेकिन इस विधा का भी अपेक्षित विकास नहीं हुआ । शब्द-चित्र की दिशा में लेखकों की उदासीनता स्पष्ट रूप से दिखाई देती है । ऐसी गंभीर स्थिति में हिन्दी में हरिपाल त्यागी का आगमन हुआ । उन्होंने व्यक्ति-चित्र और शब्द-चित्रों को व्यंग्यात्मक रूप देकर अपनी चर्चित किताब ‘महापुरुष’ प्रस्तुत की है । यह किताब एक रस साहित्य के परिवेश में नयी ताजगी लाने जैसी है । इससे यह आशा की जा सकती है कि यह एक नयी विधा के रूप में लोगों को आकर्षित करेगी ।

संदर्भ-

  1. हिन्दी व्यंग्य साहित्य और हरिशंकर परसाई – मदालसा व्यास – पृ. सं 11
  2. सदाचार का तावीज – हरिशंकर परसाई – पृ.सं – 09
  3. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 17
  4. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 18
  5. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 29
  6. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 41
  7. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 42
  8. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 90
  9. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 91
  10. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 77
  11. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 52
  12. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 110
  13. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 119
  14. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 121
  15. महापुरुष – हरिपाल त्यागी – पृ. सं. 1721, 122

डॉ. साईनाथ नागनाथ गणशेटवार, सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, क्रिस्तु जयंती महाविद्याल (स्वायत्त), बेंगुलुरू. 560077 saikumarganshetwar@gmail.com