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हिन्दी सिनेमा और महात्मा गांधी

सिनेमा अत्यन्त लोकप्रिय विधा है । जनसंचार की दुनिया में उसका अपना शीर्षस्थ स्थान है । भारतीय जनसमाज फिल्मी-दुनिया से बहुत प्रभावित है । मूक से सवाक् और ब्लैक & व्हाइट से लेकर रंगीन सिनेमा के वर्तमान रूप तक हिन्दी सिनेमा का इतिहास 100 साल से थोड़ा अधिक हो गया है । बीते हुए सौ वर्षों में हिन्दी सिनेमा ने कई पड़ाव देखे हैं । अपने प्रारम्भ से लेकर अब तक भारतीय सिनेमा जगत् ने लोगों को दीवाना बना रखा है । सिनेमा की दुनिया में विकास के कई चरण आये, उत्तरोत्तर उसकी लोकप्रियता बढ़ती भी गई । तकनीकी विकास के साथ-साथ इसके विषयों में भी विविधता आती गई । लेकिन एक बड़े आश्चर्य की बात है कि लगभग हर दूसरी-तीसरी हिन्दी फिल्म में किसी न किसी तरह राष्ट्रपिता महात्मा गांधी उपस्थित होते हैं । समझो कि रिज़र्व बैंक की नोट पर क्या आ गये, सभी के चहेते बन गए ! बस अफ़सोस इस बात का है कि, फिल्म-जगत की गांधीजी के प्रति की वो चाहत ‘नोट’ की है, गांधी-जीवन या उनके आदर्शों, मूल्यों की नहीं ! गांधी-दर्शन, गांधी-विचारधारा का प्रभाव भारतीय सिने जगत् में प्रारम्भ से छाया हुआ है, यह कहना अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए । पर ग्लानि इस बात की है कि हम भारतीय गांधीजी को नोटों पे बिठा कर, सड़कों, चौराहों पर खड़े कर के, अदालत, पुलिस थानों सहित सरकारी कार्यालयों में दीवार की शोभा बढ़ाने उनके चित्र लगाते रहे और गाँधी-भक्ति प्रदर्शित करते रहे हैं । पर उनके आदर्शों, विचारों, मूल्यों को अपनाने से कतराते रहे हैं । हिन्दी फिल्म-निर्माण में भी लगता है किसी निर्माता-निर्देशक को यकीन नहीं कि पूरे गांधीजी उन्हें करोड़ों का मुनाफा करा के दे सके ! कदाचित् इसलिए अब तक किसी भारतीय निर्माता-निर्देशक ने विश्व इतिहास के सामने प्रशंसनीय रूप से प्रस्तुत कर सके वैसी उत्कृष्ट फिल्म बनाने में सफलता प्राप्त नहीं की । गांधीजी के सामाजिक, राजनैतिक विचारों के प्रभाव पर आधारित अनेक फिल्में बनीं, बन रही हैं । लेकिन गांधीजी के जीवन पर पूर्णरूप से आधारित हो, वैसी उत्कृष्ट फिल्म निर्माण करने में भारतीय फिल्मकार सफल नहीं हुए । इसका एक कारण यह भी हो सकता है कि महात्मा के जीवन को 3 घंटे के मर्यादित समय में बांधना अत्यन्त जटिल कार्य है । उनके जीवन में नाटकीयता या संघर्ष की कमी नहीं । प्रारम्भ से लेकर अंत तक संघर्ष में ही जीवन व्यतीत हुआ । फिर कौन से प्रसंग ले और कौन से छोड़ दे, इसकी दुविधा में निर्माता-निर्देशक उलझ जाते हो, वैसा भी संभव है ! बहुआयामी, विविधतापूर्ण, जटिल व्यक्तित्व के गांधीजी को दो-तीन घंटे की फिल्म के परदे पर प्रस्तुत करना कैसे आसान रहे ? लम्बे समय तक सघन क्षेत्रकार्य किये बिना तथा सूक्ष्म अध्ययन-चिंतन के अभाव में यह संभव नहीं । इसलिए तो जब कभी बिना पूर्ण अध्ययन के प्रयत्न किये गये, दर्शकों ने उसे नकार दिया । संभवतः यह भी एक कारण है कि भारतीय निर्माता-निर्देशक गांधीजी के जीवन पर आधारित पूर्ण फिल्म बनाने का जोखिम नहीं उठा रहे ।

हिन्दी फिल्म की सफलता का मानदण्ड ही बोक्स ऑफिस की कमाई माना जाता है । इसलिए फिल्म धन कमाने बनाई जा रही है । फिल्म-निर्माण अब एक ऐसा व्यवसाय बनता जा रहा है, जिसमें साधन-शुद्धि को ध्यान में नहीं रखा जाता (वैसे प्रारम्भ से रवैया तो यही रहा)। फिल्म से जुड़े अधिकांश लोगों की निगाह मुनाफा या उसकी आय पर रहती है । बॉलीवुड में बिजनेसमैन का दबदबा है । उद्योगपति, फाइनेंसर मुनाफाखोरी के लिए पैसे लगाते हैं । गांधीजी के विचारों को या अहिंसा, सत्य, करुणा, प्रेम को दुनिया में फैलाने के मकसद से पैसे नहीं लगाते । औसतन निर्माता, निर्देशक, कलाकारों का यह मानना है कि सिनेमा का ध्येय मनोरंजन प्रदान करना है । दर्शक मनोरंजन प्राप्त करने ही थियेटर होल में प्रविष्ट होता है । फिर आदर्श-यथार्थ, कलात्मकता, सामाजिक मूल्य, नीतिमत्ता आदि में उलझे बिना दर्शकों को लुभा पाये वैसी मारधाड़, द्विअर्थी संवाद, उत्तेजक दृश्य, कामुक नाच-गान क्यों प्रस्तुत न करें ? जब कभी लीक से हटकर शुद्ध कलात्मक फिल्म बनाने गए तो अनेक लोग कर्ज़े में ऐसे डूबे कि फिर उबर ही ना पाये । साहित्यिक कृतियों को लेकर बनाई गई अनेक कलात्मक फिल्म भी बोक्स-ऑफिस पर असफल रही हैं । कदाचित् इसलिए निर्माता-निर्देशक बचते रहे, कतराते रहे हैं और असंभवित दृश्यों के, ‘सुपर हीरो’ के हैरतअंगेज़ कारनामों के सहारे धन ऐंठ रहे हैं । कितने आश्चर्य और चिंतन की बात है कि अहिंसा के पुजारी गांधीजी के राष्ट्र में हिंसा से ठसाठस भरी फिल्में अधिक सफल होती दिखती हैं ! व्यावसायिक फिल्मों में प्रतिशोध पर आधारित हिंसक दृश्यों की भरमार देखने मिलती है । बोलीवुड की फिल्म के सन्दर्भ में प्रसून सिन्हा का मत यहाँ उल्लेखनीय है -

“आज के समाज में दिन-रात बढ़ने वाला फैशन, जिसमें कम कपड़े पहनने को ही फैशन का नाम दे दिया, अपराध करने की नई-नई करामाती योजनाएं, बलात्कार के भयावह रूप और हिंसा के घिनौने चेहरे के ऊपर चढ़ा तथाकथित उच्च-वर्गीय समाज का मुखौटा यह परिणति है हमारे आज की फिल्मों की । हम जैसा समाज को देंगे, समाज हमें वही देगा । सिनेमा के साथ भी वही हो रहा है ।”[1]

फिल्म का प्रभाव जनमानस पर पड़ता है । प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से किशोर-युवा के जीवन को फिल्म अवश्य प्रभावित करती है,(कहने तात्पर्य यह नहीं कि वयस्क आदि को प्रभावित नहीं करती) यह स्वयंस्पष्ट है । मूल्यह्रास का जो दौर विकसित हो रहा है, समाज में अराजकता, हिंसक वातावरण फैल रहा है उसमें कहीं न कहीं फिल्में अवश्य जिम्मेदार हैं ।

गांधीजी के जीवन-काल के दौरान ही उनके आदर्शों, मूल्यों को आधार बना के फिल्म-निर्माण का कार्य शुरू हो चुका था । भारतीय राजनीति में उनके प्रारम्भिक काल में ही ‘भक्त विदुर’ नामक फिल्म 1921 ई. में बनी, जिसमें विदुर जी (द्वारकादास संपत) खद्दर पहने दृष्टिगत हुए । कांजीलाल राठौड़ ने कोहिनूर फिल्म कम्पनी के लिए इस फिल्म का निर्देशन किया था । यह फिल्म भारत की पहली प्रतिबंधित फिल्म बनी । अंग्रेज सरकार ने इस मूक फिल्म को महात्मा गाँधी जैसी विदुर की वेशभूषा के कारण प्रतिबंधित कर दी थी । अमरीका की फॉक्स मूवीटोन कम्पनी ने गांधीजी से संवाद (बोरसद, जिला : आणंद, गुजरात) रिकोर्ड कर ‘महात्मा गांधी टोक्स’ शीर्षक से सन् 1931 में एक फिल्म निर्माण की थी । इसमें गांधीजी के कुछ वक्तव्यों, विचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की गई थी । उसके बाद कुछ फिल्मकर्मी गांधीजी के विचार लेकर फिल्म निर्माण करने लगे । व्ही. शांताराम, देवकी बोस, विमल रॉय आदि की अधिकतर फिल्मों में गांधी-प्रभाव परिलक्षित होता है । कुछ लोग व्ही. शांताराम को तो फिल्मी दुनिया के क्षेत्र में गांधीजी के पूर्ण प्रभाव में रहे हुए फिल्मकार बताते हैं । उनकी लगभग सभी फिल्मों में किसी न किसी रूप में गांधी विचारधारा देखी जा सकती है । कहा जाता है कि 1935 में उनकी ‘महात्मा’ शीर्षक से बन रही फिल्म का अंग्रेज अधिकारियों ने विरोध किया था और आखिर उनके आदेश पर फिल्म का शीर्षक परिवर्तित कर ‘धर्मात्मा’ नाम करने उन्हें विवश होना पड़ा था । वर्ष 1954 में प्रदर्शित ‘जागृति’ फिल्म में कवि प्रदीप लिखित और हेमंत कुमार के संगीत में आशा भोसले के कंठ से निकला “दे दी हमें आज़ादी बिना खड़ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल...” गीत आज भी लोक-जुबां पर सजा रहता है, राष्ट्रीय पर्वों पर हर कहीं गूंजता है । अन्य पुरानी फिल्मों में उपकार, रोटी - कपड़ा और मकान, पूरब और पश्चिम आदि फिल्म के देशभक्तिपरक गीत गांधीजी के शाश्वत मूल्यों की याद दिलाते हैं । इन फिल्मों के नायक राष्ट्रीय एकता, साम्प्रदायिक सद्भाव हेतु संघर्ष करते रहे, जो कहीं ना कहीं गांधी के मूल्य थे । कथ्य के स्तर पर कई फिल्मों की सामाजिक जागृति पर गांधी विचार का प्रत्यक्ष प्रभाव देखने मिलता है । दो बीघा जमीन, दो आंखें बारह हाथ, अमर ज्योति, अछूत कन्या, आवारा, जागृति आदि पुरानी फिल्मों में गांधीवादी विचारधारा देखी जा सकती है । सिवा इसके अनेक हिन्दी फिल्मों में चरखा, गांधी टोपी, खद्दर आदि देखे जा सकते हैं । फिल्म में इसका व्यापक प्रयोग गांधीजी के प्रभाव को सूचित करता है । विस्तृत धरातल पर देखें तो गांधीजी और उनकी विचारधारा का प्रभाव हिंदी सिनेमा पर प्रारंभ से देखा जा सकता है । नारी उद्धार, अहिंसा, प्रेम व बलिदान, हिंदू-मुस्लिम एकता, नैतिक पतन की चिंता, नगरीय जीवन की तुलना में ग्रामीण संस्कृति को प्रोत्साहन, घोर यंत्रवाद का विरोध, मजदूर की एकता और विजय आदि गांधी-मूल्य न्यूनाधिक रूप में कई फिल्मों में देखने मिलते हैं । हिन्दी फिल्म-जगत् में गांधीजी का इतना अहम् प्रदान है या उनके इतने रूप हैं कि ‘महात्मा गांधी और हिन्दी सिनेमा’ शीर्षक से फिल्म समीक्षक जयप्रकाश चौकसे ने एक पुस्तक भी प्रकाशित की है । इस पुस्तक में हिन्दी सिनेमा के लगभग सौ वर्ष के इतिहास में गांधीजी और गांधीवाद के प्रभाव से बनी फिल्मों के बारे में बारह अध्यायों में लेखक ने रोचक जानकारी दी है ।

गांधीजी केवल किसी एक देश के लिए प्रासंगिक नहीं । गांधी विश्वनेता है । समग्र विश्व को उनके प्रेम, करुणा, अहिंसा, भाईचारे की आवश्यकता है । उनकी विचारधारा में शाश्वत मूल्य निहित है । इसलिए गांधीजी पर आधारित अधिकांश फिल्में एकाधिक भाषाओं में बनी । हिंदी और अंग्रेजी दोनों भाषाओं में तो लगभग सभी बड़ी फिल्में प्रस्तुत हुई । गांधीजी के जीवन पर बनी फिल्मों में सर्वाधिक सफलता विदेशी फिल्मकार रिचर्ड एटनबरो द्वारा निर्मित फिल्म ‘गांधी’ (1982) को मिली । तत्कालीन भारत सरकार के सहयोग से बनी यह फिल्म आठ-आठ ऑस्कर अवार्ड विजेता बनी । सर्वश्रेष्ठ फिल्म, सर्वश्रेष्ठ निर्देशक, सर्वश्रेष्ठ अभिनेता, सर्वश्रेष्ठ नया कथानक तथा फिल्म संपादन, कला निर्देशन, छायांकन, वस्त्र-विन्यास में सर्वश्रेष्ठ फिल्म घोषित की गई थी । सर्वश्रेष्ठ विदेशी फिल्म के लिए गोल्डन ग्लोब पुरस्कार भी प्राप्त किया था । सत्य और अहिंसा के प्रयोगों पर आधारित इस फिल्म में गांधीजी की भूमिका बेन किंग्सले ने निभाई थी, जो गुजराती मूल के विदेशी अभिनेता रहे, यह एक सुखद संयोग रहा । रोहिणी हट्टगंडी ने कस्तूर बा, रोहन सेठ ने जवाहरलाल नेहरू तो सईद ज़ाफरी ने सरदार पटेल की भूमिका निभाई थीं । इस फिल्म का निर्माण (शूटिंग) कार्य प्रारम्भ हुआ था 26 नवम्बर, 1980 से और 30 नवम्बर, 1982 में दिल्ली में इसका पहला प्रदर्शन हुआ । इस फिल्म को बनाने में रिचर्ड एटनबरो ने अपनी पूरी जिन्दगी लगा दी, कोई यूँ कहें तो अतिशयोक्ति नहीं माना जाना चाहिए । इस फिल्म के निर्माण द्वारा एटनबरो ने अक्षय कीर्ति प्राप्त की है । प्रदर्शन से पूर्व भी इसने कुछ रिकार्ड अपने नाम कर लिए थे । जैसे, इस फिल्म में गांधीजी की अन्तिम यात्रा के दृश्य में सम्मिलित जन-सैलाब दिखाने चालीस हजार लोगों को इकठ्ठा करने अखबारों में विज्ञापन दिया गया था, जगह-जगह पर्चे भी बांटे गए थे । निर्माता और फिल्म से सम्बन्धित अन्य व्यक्तियों को इतने लोग सेट पर इकठ्ठा होंगे या नहीं को लेकर संदेह था । लेकिन महात्मा के प्रति भक्तिभाव के कारण भीड़ स्वयंभू उमड़ी थीं लगभग तीन लाख से अधिक की, जो गिनीज वर्ल्ड रिकोर्ड्स है । इस फिल्म में सत्य, अहिंसा, असहयोग के प्रयोग को बखूबी दर्शाकर विश्व-समाज समक्ष गाँधी प्रस्तुत करने का स्तुत्य कार्य कर रिचर्ड एटनबरो अमर हो गए ।

श्याम बेनेगल की 1996 में प्रदर्शित ‘द मेकिंग ऑफ महात्मा’ (गांधी से महात्मा तक) मोहनदास करमचंद गांधी से महात्मा गांधी बनने की यात्रा प्रस्तुत करती चर्चित फिल्म है । मुख्यतः इसमें गांधी के दक्षिण अफ्रीका के 21 वर्षों के प्रवास, अनुभव, संघर्ष को परदे पर दर्शाया गया है । भारतीयों के साथ हो रहे नस्लीय भेदभाव देख आहत्, द्रवित युवा गांधी सत्याग्रह का प्रारम्भ करते हैं और बेरिस्टर से कुशल राजनीतिज्ञ में परिवर्तित होते हैं । फातिमा मीर की किताब पर आधारित इस फिल्म में रजित कपूर(Rajit Kapoor) ने गांधीजी का किरदार निभाया और कस्तूर बा के रूप में पल्लवी जोशी नज़र आई । अंग्रेजी और हिन्दी में प्रस्तुत यह फिल्म दर्शक या कला-समीक्षकों को अधिक आकर्षित करने में असफल रही ।

निर्माता, निर्देशक, अभिनेता और लेखक की बहुमुखी भूमिका निभाते हुए कमल हसन ने ‘हे राम’ फिल्म वर्ष 2000 में प्रदर्शित की । हिन्दी, अंग्रेजी, तमिल, तेलुगू में बनी यह फिल्म गांधीजी विषयक अज्ञानता, भ्रम को तोड़ने का कदम उठाती है । भारत विभाजन से लेकर गांधीजी की हत्या तक के घटनाक्रम को इसमें दर्शाया गया है । पहले मोहन गोखले को गांधीजी भूमिका के लिए अनुबद्ध किये गए थे, लेकिन दुर्भाग्य से उनके असमय निधन के कारण नसरुद्दीन शाह को सुनहरा मौका मिला । लेकिन यह फिल्म भी दर्शकों को अपनी ओर आकृष्ट करने में सफल नहीं हो पाई ।

सन् 2011 में बनी ‘गांधी टू हिटलर’ फिल्म ने विशेष प्रभाव नहीं छोड़ा, लेकिन परस्पर दो विरोधी विचारधाराओं को परदे पर निरुपित कर निर्माता-निर्देशक राकेश रंजन कुमार ने युद्ध व हिंसा के मुकाबले प्रेम व अहिंसा, शांति के संदेश को समाज में फैलाने का स्तुत्य कार्य अवश्य किया । इस फिल्म में अभिजित दत्त ने महात्मा गांधी की भूमिका निभाई । गांधीजी ने हिटलर को दो पत्र लिखे थे, उन पत्रों के आधार पर राकेश रंजन ने इसकी कथा बुनी थी । दुनिया के समक्ष दो विरोधी विचारधाराओं (गांधी और हिटलर) को आमने-सामने रखकर घृणा, विद्वेष, युद्ध, हिंसा, असत्य को छोड़कर प्रेम, शांति, करुणा, अहिंसा के मार्ग को अपनाने प्रेरित करने के लिए मानो निर्देशक ने कदम उठाया है ।

किसी भी व्यक्ति के व्यक्तिगत और सामाजिक जीवन में कोई न कोई उलझन या तनाव-संघर्ष की स्थिति अवश्य उपस्थित होती है । महात्मा गांधी भी इससे मुक्त नहीं । बल्कि यूँ भी कहा जा सकता है कि उनका जीवन तो अधिक उलझा हुआ रहा । उनके पारिवारिक जीवन में पुत्र के साथ तनाव की कहानी बहुत चर्चित रही हैं । सिद्धान्तों और मूल्यों के कारण परिवार में उठे संघर्ष, उससे निर्मित गलतफहमी का शिकार पिता-पुत्र का रिश्ता बनता गया । गांधीजी के बेटे हरिलाल के साथ तनाव की निजी कहानी को परदे पर लाने का कार्य ‘गांधी माय फादर’ के द्वारा फिरोज अब्बास खान ने सन् 2007 में किया । अनिल कपूर निर्मित इस फिल्म में नाजुक रिश्तों की घुटनभरी स्थिति को उभारा गया । अक्षय खन्ना ने बेटे हरिलाल गांधी का किरदार निभाया तो लाचार पिता की भूमिका में दर्शन जरीवाला दिखाई दिए । शेफाली शाह ने माँ और पत्नी के द्वंद्व में उलझी कस्तूर बा की भूमिका निभाई थी । इस फिल्म में गांधीजी का संवेदनशील हृदय सामने आता है । किन्तु अफसोस है कि यह फिल्म भी कोई विशेष प्रभाव नहीं पैदा कर पाई ।

तत्कालीन दौर के बड़े शीर्षस्थ नेताओं के साथ गांधीजी के सम्बन्धों को लेकर भी अनेक प्रकार की मान्यताएँ समाज में प्रचलित हैं । स्वाधीनता आंदोलन के दौरान लोकप्रिय रहे अन्य नेताओं के साथ अपनी-अपनी मान्यताओं, दृष्टिकोण को लेकर गांधीजी से विवाद उठे हो, यह सहज है । भगतसिंह, नेताजी सुभाष बाबू, सावरकर, बाबासाहब अम्बेडकर, सरदार पटेल जैसे प्रसिद्ध नेताओं के साथ गांधीजी के सम्बन्ध, शिकायत, उलझन, तनाव, संघर्ष की सच्ची-झूठी कहानियाँ समाज में बहुत चर्चित रहती आई हैं । ऐसी कहानियाँ फ़िल्मकर्मी को भी आकृष्ट करें, यह सहज है । अतः अन्य बड़े नेताओं के साथ राष्ट्रपिता के सम्बन्धों की टकराहट या उलझन आदि को व्यक्त करने का कार्य भी हिन्दी सिनेमा ने किया है । गांधीजी को नायक नहीं अपितु सहयोगी चरित्र के रूप में प्रस्तुत करती फिल्मों में से कुछ फिल्में उल्लेखनीय हैं ।

वर्ष 1993 में प्रदर्शित केतन मेहता की फिल्म ‘सरदार’ में भारत के पहले गृहमंत्री व उपप्रधानमंत्री सरदार वल्लभभाई पटेल और महात्मा गांधीजी के घनिष्ट रिश्ते को, उनकी विचारधाराओं को बखूबी दर्शाया गया है । इस फिल्म में अन्नू कपूर गांधी के रूप में तो परेश रावल सरदार के रूप में दर्शक के समक्ष उपस्थित हुए ।

स्वतत्रंता और सामाजिक भेदभाव के सन्दर्भ में डॉ. भीमराव अम्बेडकर और गांधीजी के विचारों में मतभेद थे । जब्बार पटेल निर्देशित और त्रिलोक मलिक निर्मित ‘डॉ. बाबासाहब अम्बेडकर’ फिल्म 2000 ई. में प्रदर्शित हुई । इस फिल्म में मोहन गोखले ने गांधी की भूमिका और मामुट्टी ने बाबासाहब की भूमिका निभाई । मूल रूप से अंग्रेजी में बनी यह फिल्म नौ भाषाओं में डब की गई ।

सन् 2001 में वेद राही निर्देशित ‘वीर सावरकर’ में सुरेन्द्र राजन गांधी की भूमिका में परदे पर नजर आये । इस फिल्म में संघर्ष, क्रान्ति और आवश्यकता पड़ने पर हिंसा के भी समर्थक विनायक दामोदर सावरकर और अहिंसा, साधनशुद्धि के आग्रही गांधीजी के विचारों के द्वंद्व को बखूबी दर्शाया गया ।

‘द लीजेंड ऑफ भगतसिंह’ वर्ष 2002 में प्रदर्शित फिल्म है । इसमें अजय देवगन भगतसिंह के किरदार में और सुरेन्द्र राजन गांधी बनकर सामने आये । इस फिल्म का निर्देशन राजकुमार संतोषी ने किया था । असहयोग आन्दोलन को स्थगित करने के गांधीजी के निर्णय से नाखुश भगतसिंह राष्ट्र की स्वतंत्रता के लिए गांधीजी से अलग हुए । गांधीजी और भगतसिंह के सम्बन्धों को उजागर करती यह फिल्म बहुत अधिक सफल नहीं हो पाई ।

निर्देशक श्याम बेनेगल ने सन् 2005 में ‘नेताजी सुभाषचन्द्र बोस : द फोरगोटन हीरो’ शीर्षक से फिल्म निर्मित की, जिसमें सुरेन्द्र राजन ने महात्मा गाँधी का किरदार तो सचिन खेडेकर ने नेताजी का रोल निभाया था । देश की आज़ादी के लिए जीवन समर्पित कर देनेवाले नेताजी और गांधीजी के विचारों में असहयोग आन्दोलन के पश्चात् मतभेद खड़े हुए और नेताजी ने अपना स्वतंत्र मार्ग चुन लिया । दोनों महान सपूतों के बीच रहे नाजुक सम्बन्धों को दर्शाने का इसमें प्रयत्न किया गया है ।

वर्ष 2005 में बनी जह्नु बरुआ निर्देशित और अनुपम खेर अभिनीत व निर्मित फिल्म ‘मैंने गांधी को नहीं मारा’ भी उल्लेखनीय रही । नाथूराम गोडसेवादी विचारधारा को उद्घाटित करती इस फिल्म में अनुपम खेर ने निवृत्त मनोरोगी प्रोफेसर उत्तम चौधरी की भूमिका निभाई थी, जिन्हें भ्रम होता है कि उन्होंने गांधीजी की हत्या की है । इस फिल्म में दर्शक को परदे पर कहीं गांधी नज़र नहीं आते, फिर भी फिल्म में बराबर उनकी उपस्थिति महसूस होती रहती हैं ।

इन सारी फिल्मों के अतिरिक्त अन्य कुछ फ़िल्में भी बनी थीं । गांधीजी के आदर्शों का प्रासंगिक उपयोग कुछ निर्माता-निर्देशकों ने किया । लेकिन कोई विशेष उल्लेखनीय तथ्य प्रस्तुत करने या दर्शकों पर प्रभाव छोड़ने में वह सफल नहीं हो पाई । गांधीजी का खंडन और मंडन करने भी फिल्म बनती रही, आगे भी बनती रहेगी । कुछ विदेशी कलाकारों ने गांधी का मजाक उड़ाने डॉक्युमेंट्री फिल्में भी बनाई थीं ।

इक्कीसवीं शताब्दी में गांधीजी की प्रासंगिकता को लेकर बहुत चर्चाएँ चलती रही हैं । गांधीजी की 150वीं जन्म-जयंती पर देशभर में कई तरह के कार्यक्रम आयोजित किये गए लेकिन फिल्म-जगत लगभग खामोश रहा । वैसे गांधी के सत्य और अहिंसा को मजाक बना देने वाले इस उद्योग जगत से और क्या उम्मीद भी रखें ! बॉलीवुड हो या साउथ की फिल्में या फिर जिसका आकर्षण अभी युवाओं में बढ़ता जा रहा है उस हॉलीवुड की फिल्में भी हिंसा समर्थित हैं । कानून, प्रशासन, पुलिस, सत्ता की अपराधियों के साथ सांठगांठ के परिणाम स्वरूप फिल्मों में न्याय लेने का निर्णय नायक करने लगा है । कानून की धज्जियां उड़ाते हुए नायक स्वयं अपराधी को सज़ा सुनाता है, उन्हें दण्ड देता है । खून से सने नायक-खलनायक को देख दर्शक सीटियां बजाते हैं, तालियां ठोकते हैं । इसी माहौल में देश का युवा दर्शक अपने विचारों को, व्यक्तित्व को गढ़ रहा है । उसके दिमाग पर इन दृश्यों की गहरी पकड़ देखी जाती है । उस माहौल में अहिंसक गांधी युवाओं को कैसे और क्यों प्रासंगिक लगे ? अधिकांश युवाओं ने गांधी को पढ़ा नहीं । सोशल मीडिया के भ्रामक संदेशों में उलझ कर गांधी बनाम सावरकर या भगत सिंह या अन्य कोई मानने-समझने लगे हैं । सत्य और अहिंसा का समाज में प्रचलन ही नहीं रहा, फिर गांधीजी के मूल्यों की क्या कीमत होगी उनके मन में ? शायद इसलिए वर्तमान युवा पीढ़ी में गांधीजी का आकर्षण बहुत ही कम देखने मिलता है । अब मौजूदा युवा पीढ़ी के सामने गांधीजी के विचार नए रूप से प्रस्तुत करने की आवश्यकता है । इसलिए जरूरी बन गया है कि बच्चों एवं युवाओं को गांधी विचारधारा का व्यापक और समुचित रूप से परिचय दिया जाए और यह कार्य फिल्मों के जरिये किया जाये तो उसका प्रभाव अधिक विस्तृत व स्थायी रहेगा ।

भले दिन-रात गाँधी के आदर्शों, विचारों, मूल्यों की हत्याएँ होती रहे, महात्मा के पुतले बनाकर पुनः उन पर गोलियाँ बरसाई जाये । लेकिन जनमानस से गाँधी को कोई ताकत मिटा नहीं सकती । भले कम लोगों के भीतर, लेकिन किसी न किसी रूप में गाँधी के विचार जीवित रहेंगे यह सत्य है । फिल्म निर्माण में भी नए तरीके से गांधी को प्रस्तुत करने का विचार उठा और राजकुमार हिरानी ने 2006 में बनाई ‘लगे रहो मुन्नाभाई’, जो पर्याप्त रूप से सफल रही । राजकुमार हिरानी ने गांधीवाद की जगह नया ‘गांधीगीरी’ शब्द दिया और गांधी दर्शन को युवा दर्शकों के बीच ले आए । इसमें नायक संजय दत्त (मुन्ना) को छाया के रूप में गांधीजी दिखाई देते हैं और गांधीगीरी का नया आयाम खुलता है । इस फिल्म में गांधीजी का किरदार निभाया है, मराठी कलाकार दिलीप प्रभावलकर ने । ‘जागरण फिल्म फेस्टिवल’ में अजय ब्रह्मात्मज से साक्षात्कार के दौरान राजकुमार हिरानी ने इस फिल्म से संबंधित बातें करते हुए कहा था –

“... हम फिल्म में यह बोलने की कोशिश कर रहे हैं कि महात्मा गांधी के आदर्श आज के जमाने में भी चल सकते हैं । अब इस बात को लोगों तक पहुंचाने के लिए हम ऐसा क्या करें कि उन्हें विश्वास हो जाए ?... सीधे तरीके से ऐसा बोलेंगे तो नहीं हो पाएगा, हमको कुछ करके दिखाना पड़ेगा । कुछ सीन ऐसे लिखने पड़ेंगे जिसमें वे विश्वास करने लायक लगें ।... वह दीवार पर थूकने वाला सीन याद हो । गांधीजी अक्सर कहा करते थे कि जो आदमी गलत कर रहा है, उसे उसकी गलती का अहसास कराओ । तो हमने उस सीन में वही किया । दूसरा सीन था वह मैट्रीमोनियल वाला । एक्चुअली मेरा एक दोस्त था जो हमेशा वेटर को सीटी मार कर बुलाता था । अभिजात ने मुझे गांधीजी का एक क्वॉट बताया था जिसमें उन्होंने कहा था कि अगर किसी इंसान के व्यवहार को परखना हो तो यह देखो कि वह अपने से छोटे लोगों के साथ कैसा व्यवहार करता है ?”[2]

कहने का तात्पर्य यह है कि एक गाल पे कोई तमाचा मारे तो दूसरा गाल आगे करने की गांधी फिलोसोफी या अहिंसा आज का युवा स्वीकार नहीं करेगा । लेकिन अलग तरीके से युवा के सामने हिंसा का घिनौना चेहरा बताते हुए उसे हिंसा से दूर रहने प्रेरित किया जाये तो वह अहिंसा को अपनायेगा इसमें शक नहीं । इसलिए अब फिल्मों में नए रूप में गांधी-दर्शन को प्रस्तुत करना पड़ेगा । लीक से अलग हटकर बनाई गई कुछ अन्य फिल्में गांधीजी के विचारों को नई शैली में प्रस्तुत करती रही । जैसे, जनवरी, 2010 में प्रदर्शित अमित राय की फिल्म ‘रोड़ टू संगम’ साठ साल पुरानी फोर्ड वी-8 कार के इंजन की मरम्मत का विषय लेकर भारतीय मुसलमान, जिनमें कुछ पाकिस्तान-प्रेमी भी हैं, सत्ता की पाशविकता, तमाशबीनों की अमानवीयता को प्रस्तुत करती है । गांधीजी का प्रभाव इस फिल्म में पर्याप्त रूप से छाया हुआ प्रतीत होता है । आशुतोष गोवारीकर की ‘लगान’ में भी गांधी मूल्य देखे जा सकते हैं ।

इन फिल्मों के अतिरिक्त एक और फिल्म का जिक्र करना लाज़िमी लगता है । सन् 1963 में निर्देशक मार्क रोबसन (Mark Robson) ने अंग्रेजी भाषा में ‘नाइन अवर्स टू रामा’ बनाई, जिसमें जे. एस. कश्यप ने मोहनदास गांधी की भूमिका निभाई । इस फिल्म में हत्यारे नाथूराम गोडसे की मानसिकता को उजागर करने का प्रयत्न किया गया है ।

महात्मा गाँधी के जीवन पर आधारित कई सारी डॉक्युमेंट्री(वृत्तचित्र) फिल्में भी बनीं । भारतीय व विदेशी निर्देशक-निर्माता गांधीजी के जीवन-काल में ही वृत्तचित्र बनाने लगे थे । मूलतः चीन के निवासी और आजन्म घुमन्तू रहे पत्रकार, फिल्मकार श्री ए. के. चट्टीएर ने 1937-38 के भारत-भ्रमण के दौरान गांधीजी के कई चित्र लिए थे । उसी के आधार पर उन्होंने 81 मिनट की एक डॉक्युमेंट्री ‘महात्मा गांधी : ट्वेंटीएथ सेंचुरी प्रोफेट’(महात्मा गांधी : 20वीं सदी का मसीहा) बनाई, जिसका 15 अगस्त, 1947 के दिन दिल्ली में जवाहरलाल नेहरू, राजेन्द्र प्रसाद, इन्दिरा जी आदि की उपस्थिति में प्रथम प्रसारण हुआ था । भारतीय सेंसर बोर्ड द्वारा प्रमाणित प्रथम डॉक्युमेंट्री का श्रेय इस फिल्म को मिला हुआ है । मूल तमिल में बनी इस फिल्म में तमिलनाडु के तिरुपुर में सूत कातती 200 महिलाएँ दिखाई गई थीं । इस फिल्म को हिन्दी और तेलुगू में डब किया गया था ।

वर्ष 1968 में विठ्ठलभाई झवेरी ने ‘महात्मा : लाइफ ऑफ गांधी’ डॉक्युमेंट्री बनाई । गांधीजी के महात्मा बनने की सफ़र को दर्शाती यह फिल्म अंग्रेजी और हिन्दी दोनों भाषाओं में बनी थी ।

वृत्तचित्रों की अगली कड़ी में 2009 में बीबीसी द्वारा निर्मित मिशेल हुसैन की ‘गांधी’ डॉक्यूमेंट्री विशेष उल्लेखनीय है । इसमें गांधी की जीवन यात्रा का वृतांत प्रभावक रूप से झलकता है ।

तत्कालीन रंगकर्मी, फिल्म निर्माता, निर्देशक गांधीजी के प्रभाव से मुक्त नहीं थे । केवल भारतीय ही नहीं, बल्कि विदेशी कलाकार भी महात्मा के कार्यों और उनकी जीवनशैली से प्रभावित थे । इसी प्रभाव के चलते विश्व के महान कलाकारों में जो आज भी शीर्षस्थ हैं, ऐसे चार्ली चैप्लिन ने भी दूसरे गोलमेज सम्मेलन (1931) के दौरान उसमें शरीक होने लंदन पहुँचे गांधी से मुलाकात की थी । यह बात अलग है कि गाँधी पहले तो मुलाकात के लिए कतई तैयार नहीं थे, लेकिन जब चार्ली चैप्लिन के परदे के बाहर के कार्यों का पता चला तो फिर मिलने तैयार हुए थे और आखिर 22 सितंबर, 1931 के दिन विश्वप्रसिद्ध नेता और अभिनेता की ऐतिहासिक मुलाकात संभव हुई ।

फिल्म और गांधीजी के सम्बन्ध को लेकर एक और महत्वपूर्ण तथ्य सामने आता है कि सिनेमा जन-मनोरंजन एवं जन-शिक्षा का इतना प्रभावशाली, सशक्त माध्यम होने के बावजूद विश्व के श्रेष्ठ राजपुरुष, स्वतन्त्र भारत के राष्ट्रपिता मोहनदास करमचंद गांधी फिल्म से परहेज करते–रखते आये थे । कहा जाता है कि अपनी उम्र में उन्होंने सिर्फ दो ही फिल्में, पहली 1943 ई. में ‘मिशन टू मोस्को’ और दूसरी मराठी निर्देशक विजय भट्ट की वाल्मीकि रामायण पर आधारित फिल्म ‘रामराज्य’ देखी थी । सिनेमा को दूषण समझते-कहते महात्मा ने ये फिल्में भी विशेष अनुरोध करने पर देखी थी । अपने जीवन में बिना फिल्म देखे, स्वानुभव के बगैर उसकी भर्त्सना करते रहे, फ़िल्मी दुनिया को जीवनभर हिकारत भरी नज़रों से देखते रहे । स्वस्थ समाज के लिए फिल्म को घातक मानते रहे, सदैव निरर्थक समझते रहे । अपने कुछ लेखों में भी फिल्म की भर्त्सना कभीकभार करते रहे । यहाँ तक कि मुंबई के एक दैनिक को सिनेमा से संबंधित प्रश्नावली का उत्तर देने से इनकार तक कर दिया था । फिल्म के प्रति ऐसी ही उपेक्षा समाज के कई अन्य लोग भी करत आये हैं । वैसे यह समुचित नहीं जान पड़ता । फिल्म के प्रभाव से समाज को अछूता रखना जब नामुमकिन हो तब उससे दूर भागना कतई उचित प्रतीत नहीं होता । यह ध्यान में रखना आवश्यक है कि सिनेमा जनता को जोड़ने, उनको जागृत करने का कार्य भी बखूबी करता है । फिल्म या फिल्मी दुनिया में बुराई नहीं है वैसा नहीं, लेकिन जहाँ बुराई है वहाँ उसमें सुधार लाने के प्रयत्न किये जाने चाहिए, न कि बुराई से घृणा करते हुए उससे दूर भागना चाहिए । गांधीजी भी कदाचित् उससे दूर ना भागे होते तो संभव है कि भारतीय सिनेमा जगत् का इतिहास कुछ और ही होता !

यह सच है कि फिल्म के प्रति गांधीजी की इतनी घृणा के लिए फ़िल्मी दुनिया के कार्य, उसकी प्रवृत्ति, प्रदर्शित सामग्री अधिक जिम्मेदार है । लेकिन सिवा इसके एक तथ्य और भी नज़र आता है । फिल्म के प्रति उनके कठोर रवैये पीछे बचपन के उनके पारिवारिक संस्कारों का प्रभाव भी जिम्मेदार रहा हो ऐसा कहा जा सकता है । इसके अतिरिक्त वे इतने कामों में उलझे रहते थे कि उनके पास दो-तीन घंटे बैठकर फिल्म देखने का अवकाश ही नहीं था । फिर भी यह नितांत सच है कि फिल्म से घृणा की जगह महात्मा को फिल्म में आदर्श कैसे स्थापित किया जाए यह बताने की आवश्यकता थी । कलात्मक फिल्मों का निर्माण करने के लिए देश के युवा फिल्मकर्मियों, रंगकर्मियों, व्यापारियों को प्रेरित करने की जरूरत थी । फिल्म निर्माण के साथ भले, ईमानदार समाजसेवी लोगों को जोड़ने के लिए फिल्म के प्रति समाज में विधायक नज़रिया स्थापित करने की आवश्यकता थी । यहाँ उल्लेखनीय है कि ख्वाजा अहमद अब्बास ने ‘फिल्म इंडिया’ पत्रिका के अक्टूबर, 1940 के अंक में गांधीजी के नाम एक खुला पत्र प्रकाशित किया था, जिसमें गांधी से फिल्म के प्रति पूर्वाग्रह प्रेरित कटु, कठोर रवैये की उम्मीद ना होने का दर्द व्यक्त किया गया था ।

खैर, भारतीय हिन्दी सिनेमा अगर गांधीजी की विचारधारा के पथ पर अग्रसर हुआ होता तो कदाचित् इतिहास कुछ और होता । लेकिन दर्शक की रुचि के बहाने फिल्मकर्मी अवास्तविक घटनाक्रम को परदे पर परोसते रहे । दर्शक की रुचि को परिमार्जित करने की जगह उसे जिससे बहलाया, भड़काया जा सके वही निर्मित-प्रदर्शित करते रहे । फिर दोष का मटका दर्शक के सर ! लेकिन सच्चाई यह है कि दर्शक को दोष देकर फिल्मकार अपने आपको बचा नहीं सकते । दर्शक की रुचि को परिष्कृत करने का प्रयत्न पूरे मनोवेग से नहीं किया गया, यह एक हकीकत है । सब के सब फिल्मकर्मी वैसे हैं, यह कहना न्यायसंगत नहीं होगा । हिन्दी फिल्म क्षेत्र में कुछ फ़िल्मकार ऐसे हैं जिनकी सोच और प्रस्तुतीकरण की शैली बोलीवुड को नई दिशा दे सकती है । प्रसून सिन्हा बताते हैं –

“आज भी हमारे मध्य ऐसे कई फिल्मकार हैं जिनकी सोच, तकनीकी क्षमता और प्रस्तुतीकरण की शैली में वह ताकत है जो समाज को निश्चित ही एक नई दिशा दे सकती है ।”[3]

लेकिन ऐसे फिल्मकारों को अब दर्शक की रुचि की परवाह न करते हुए, खतरे उठाते हुए आगे बढ़ना होगा और लगातार अपने प्रयत्न समवेत रूप से जारी रखने पड़ेंगे । वर्तमान समय में गांधी को सिनेमा से जोड़ने की सख्त आवश्यकता है । मानवीय मूल्यों से सभर, हिंसा से मुक्त, भेदभावविहीन समाज रचना की स्थापना की ओर उन्मुख होने गांधी मूल्य सहायक हो सकते हैं । यह कार्य नई चेतना से संपन्न, साहसी फ़िल्मकर्मी ही कर सकते हैं ।

गांधीजी हत्या हो सकती हैं, गांधीवाद की नहीं या गांधीजी की विचारधारा नहीं मर-मिट सकती; यह कहने-सुनने में बहुत अच्छा लगता है । पर कटु सत्य यह है कि देश में पल-पल, डगर-डगर पर गांधी की विचारधारा की हत्या हो रही है । राजनैतिक धरातल पर तो गांधीजी के आदर्शों से बिलकुल विपरीत विचारधारा देखने मिल रही है । सादगी के प्रतीक गांधी के नाम पर कितने और कैसे-कैसे झमेले खड़े किये जा रहे हैं, इस हकीकत से सभी अवगत है । समाज में असहिष्णुता बढ़ती जा रही है । संकीर्ण मानसिकता राजनीति में एकचक्री शासन भुगत रही है । हर क्षेत्र की तरह फिल्मी दुनिया के लोग भी दुम हिलाते, जी हजूरी करते हुए मानवीय मूल्यों के साथ खिलवाड़ करते जा रहे हैं । फिर फिल्म निर्माता या दर्शकों को गांधीजी की जीवनधारा या विचारधारा को रंगीन परदे पर प्रस्तुत करने या दिखाने में क्या और क्यों दिलचस्पी हो ? ऐसे विषाक्त माहौल में यह कहना जरूरी नहीं लगता कि अब भारतीय दर्शक को अपने रुचि-रुझान में बदलाव लाना होगा । आंखों से जो दृश्य देखते हैं, उसका प्रभाव मन पर पड़ता है । फिल्म से किशोर, युवा विशेष प्रभावित होते हैं । हिंसक, कामुक दृश्यों से उनके मन पर विघातक प्रभाव पड़ता है । इसलिए हिंसा की भरमार से फिल्म को मुक्त कराने की सख्त आवश्यकता है । चारों ओर हिंसा, विद्वेष से ग्रस्त विश्व को गांधी-मूल्य की आवश्यकता है । युवा पीढ़ी को यह नेतृत्व लेना होगा कि वह फिल्मों से हिंसक दृश्य, विकृत वारदातों, अवास्तविक दृश्यों को हटा कर ज़मीन से जुड़ी समस्याओं को उठाते हुए वास्तविक से दिखने वाले दृश्यों को पर्दे पर चित्रित करने के लिए निर्माता-निर्देशक को बाध्य करें । सत्य, प्रेम, करुणा, अहिंसा, मानवता, विश्वबंधुत्व आदि के लिए आवश्यक है कि फिल्मों में गांधीवाद अधिकाधिक मुखर हो । समाजसेवी, कला-प्रेमी लोगों को फिल्म उद्योग से जुड़कर फिल्म को कामुकता, शराबखोरी, हिंसा, झूठ से दूर कर यथार्थ धरातल पर जोड़ने के लिए आगे आना चाहिए । समग्र विश्व को गांधी के मार्ग पर चलते हुए अमन, भाईचारा, प्रेम, अपनत्व को तलाशना होगा । कैमरे के पीछे से गांधीजी की नज़रों से देखते हुए इक्कीसवीं सदी में युवा, किसान, गाँव, छात्र, मजदूर, दलित, आदिवासी, घुमंतू, महिला आदि को नये सिरे से समाज के सामने प्रस्तुत करने की सख्त आवश्यकता है ।

सन्दर्भ संकेत :

  1. भारतीय सिनेमा : ... एक अनंत यात्रा, श्री नटराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2006, पृ.76
  2. टॉकिज़ : सिनेमा का सफर, राजकमल प्रकाशन प्रा. लि; नई दिल्ली, प्र. सं. 2016, पृ.20-21
  3. भारतीय सिनेमा : ... एक अनंत यात्रा, श्री नटराज प्रकाशन, दिल्ली, प्र. सं. 2006, पृ.76

डॉ. रवीन्द्र एम. अमीन, एसोसियेट प्रोफेसर, हिन्दी विभाग, आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज, देहगाम, जिला : गांधीनगर । सम्पर्क सूत्र : 9824662828 ravi6003@gmail.com