नामवर सिंह और दूसरी परम्परा की खोज
हिंदी साहित्य में नामवर सिंह एक अत्यंत सजग आलोचक हैं | इन्होंने अनेक ऐसे कार्य किये, जिससे आलोचना की विकास यात्रा आगे बढ़ सकी | ये आदिकालीन साहित्य से अपनी आलोचना की रचना प्रक्रिया आरम्भ करते हैं और नए से नए कवियों के बारे में बेबाक होकर अपनी राय व्यक्त करते हैं | ये पृथ्वीराज रासो से लेकर मुक्तिबोध और धूमिल तक की लम्बी और विशाल काव्य परंपरा को आत्मसात कर उसकी सम्यक समीक्षा करते हैं | इनके मूलतः लेखन का आरम्भ अपभ्रंश से होता है किन्तु नई कविता और समकालीन साहित्य पर भी इन्होंने सर्वाधिक सशक्त टिप्पणी की | नामवर जी ने अपना आलोचकीय जीवन ‘हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योगदान’ से आरम्भ किया | इस पुस्तक पर विचार व्यक्त करते हुए उन्होंने जो बीच-बीच में टिपण्णी की वह सुचिंतित है | इसी पुस्तक में वह सिद्धों की रचनाओं के बारे में लिखते हैं कि कुल मिलाकर सिद्धों की रचनाओं में जीवन के प्रति बहुत सकारात्मक दृष्टिकोण है | नामवर सिंह का संक्षिप्त परिचय इस प्रकार है- नामवर सिंह का जन्म वर्त्तमान चंदौली जिला के जीयनपुर गाँव में 28 जुलाई 1926 ई. को हुआ; उस वक्त यह बनारस जिला में था | इन्होनें हिंदी साहित्य में एम.ए. व पीएच.डी करने के बाद काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में अध्यापन किया | लेकिन किन्हीं कारणों इन्हें बी.एच.यू छोड़ना पड़ा | बी.एच.यू के बाद डाक्टर नामवर सिंह ने क्रमशः सागर विश्वविद्यालय और जोधपुर विश्वविद्यालय में भी अध्यापन किया | बाद में जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय में उन्होंने काफी समय तक अध्यापन किया | नामवर सिंह ताउम्र हिंदी समाज अथवा हिंदी पट्टी से जुड़े रहे और ज्यादा सक्रिय रूप से मौजूद रहें | इनकी सक्रियता का उदाहरण इनके द्वारा विशाल कार्यों से ही पता चलता है जो परिमाण में अत्यधिक हैं | इनकी रचनायें इस प्रकार हैं-
शोध- 1. हिंदी के विकास में अपभ्रंश का योग | 2. पृथ्वीराज रासो की भाषा|
आलोचना- 1. आधुनिक साहित्य की प्रवृतियाँ | 2. छायावाद | 3. इतिहास और आलोचना | 4. कहानी : नई कहानी | 5. कविता के नये प्रतिमान | 6. दूसरी परंपरा की खोज | 7. वाद विवाद संवाद |
साक्षात्कार- 1. कहना न होगा | 2. बात बात में बात | पत्र संग्रह- काशी के नाम | व्याख्यान- आलोचक के मुख से | संपादन कार्य- संपादन और लेखन के अलावा इन्होंने 1965 से 1967 तक जनयुग(साप्ताहिक) और 1967 से 1990 तक आलोचना(त्रैमासिक) नामक दो हिंदी पत्रिकाओं का संपादन भी किया | सम्पादित पुस्तकें- 1.संक्षिप्त पृथ्वीराज रासो- 1952(आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी के साथ) | 2. पुरानी राजस्थानी | 3. चिंतामणि भाग-3 | 4. कार्ल मार्क्स : कला और साहित्य चिंतन | 5. नागार्जुन : प्रतिनिधि कवितायेँ | 6.मलयज की डायरी(तीन खण्डों में) | 7.आधुनिक हिंदी उपन्यास भाग-2 | 8. रामचंद्र शुक्ल रचनावली(सह-संपादन- आशीष त्रिपाठी) | इनके अलावा भी आठ पुस्तकों का प्रकाशन आशीष त्रिपाठी के संपादन में हुआ | और जे.एन.यू. के क्लास नोट्स भी उनके तीन छात्रों द्वारा ‘नामवर के नोट्स’ के नाम से प्रकाशित हुए | इसके अलावा भी अनके कार्य नामवर सिंह द्वारा किये गए परन्तु किन्हीं कारणों से प्रकाशित न हो पाए हैं | उपर्युक्त रचनाओं को देखा जाय तो यह परिमाण में इतने ज्यादा हैं कि इनको देख कर ही यह सहज अंदाजा लगाया जा सकता है कि ये हिंदी साहित्य में कितने मनोयोग से लगे हुए थे | नामवर सिंह की आलोचना शैली में एक खास बात नज़र आती है कि ये किसी भी विषय पर अपनी एक मौलिक दृष्टिकोण रखते हैं | इनका नजरिया तार्किक और वैज्ञानिक दृष्टिकोण से युक्त है | जब भी ये कोई स्थापना गढ़तें हैं तो उसके पीछे एक मजबूत तर्क देते हैं और उस तर्क को ख़ारिज या अस्वीकार सहजता से नहीं किया जा सकता | यह प्रवृत्ति हिंदी के कम आलोचकों में मिलती है, यदि निजी तौर पर मैं कहना चाहूं तो मुझे यह शैली आचार्य शुक्ल की शैली की तरह ही प्रतीत होती है | अपनी स्थापनाओं को जिस तरह डाक्टर नामवर सिंह रखते थे चाहे वह वाचिक रूप से या लेखनी के माध्यम से हो वह अप्रतिम है, अप्रतिम इसलिए कि अनेक आलोचकों की तरह बात को गोल-गोल घुमाते नहीं थे; बल्कि सीधे-सीधे बिना भय के अपनी बात रखते थे | उनके इसी अंदाज ने ही हिंदी आलोचना को एक व्यापक परिधि दी |
दूसरी परम्परा की खोज(1982)- नामवर सिंह की यह पुस्तक एक सुचिंतित और योजनाबद्ध परिणति है | योजनाबद्ध से मेरा आशय है कि डाक्टर नामवर सिंह का मानना था कि एक पुस्तक वह अपने गुरुदेव हजारी प्रसाद द्विवेदी के ऊपर निकालना चाहते थे | और यह पुस्तक उसी विचार की परिणति है | एक साक्षात्कार में( यह साक्षात्कार दूरदर्शन आर्काइव पर प्रकाशित हुआ था, जो आज भी यूटूब पर मौजूद है) जिसमें हिंदी समाज के अनेक बड़े आलोचक एवं कवि मौजूद थे, जिसमें नामवर सिंह, केदारनाथ सिंह, निर्मला जैन, मंगलेश डबराल, मदन कश्यप और पुरुषोत्तम अग्रवाल मौजूद थे | इस साक्षात्कार में ज्यादातर सभी विद्वान नामवर जी से ही प्रश्न और किस्से पूछ रहे थे; और अपना उत्तर एवं अनुभव नामवर जी सभी के साथ साझा कर रहे थे | इसी साक्षात्कार में केदारनाथ सिंह ने नामवर सिंह से पूछा कि उन्हें ‘दूसरी परंपरा’ शब्द किससे मिला; क्या यह रवीन्द्रनाथ टैगोर से मिला ? तब नामवर सिंह ने बताया कि यह शब्द तो उनका ही गढ़ा हुआ है और इससे जुड़ीं स्मृतियां वह साझा करने लगे | वह बतातें हैं कि सच पूछिये तो मैं जब ‘कविता के नए प्रतिमान’ की रचना कर रहा था उसी समय से ही मुझे लग रहा था कि जो नई कविता की परंपरा अज्ञेय द्वारा चलाई जा रहा है उसमें सब कवि फिट नहीं बैठ रहे हैं | मुझे लगता था कि रघुवीर सहाय और श्रीकांत वर्मा इस परंपरा में नहीं बैठ रहे हैं|
इसलिए मैंने इस पर सोचा और पाया कि इस नई कविता के सामानांतर एक अन्य धारा चल रही है और यह स्थिति केवल कविता में ही नहीं है, बल्कि उपन्यास, कहानी, साहित्य और संस्कृति में भी मौजूद रही है और यह स्थिति हमेशा थी | क्योंकि उस समय राजनीति में भी एक विकल्प की आवश्यकता महसूस की जा रही थी | और नामवर जी कहते हैं कि उन दिनों परम्परा-परम्परा बहुत सुनने में आ रहा था इसलिए मैंने दूसरी परम्परा नाम रखा | दूसरी परम्परा का अर्थ भी वह स्पष्ट करते हैं कि दूसरा का अर्थ सेकेंडरी से नहीं है अपितु अदर से है | और इस परम्परा के केंद्र में एक दृष्टिकोण पंडित जी(हजारी प्रसाद द्विवेदी) द्वारा व्यक्त किया गया है | ऐसा नामवर सिंह का मानना था |
‘दूसरी परम्परा की खोज’ पुस्तक में मुख्यतः आठ निबंध संकलित हैं और प्रत्येक निबंध एक दूसरे से संबद्ध है | नामवर जी इसे एक मुकम्मल पुस्तक के तौर पर देखते हैं | इस पुस्तक की भूमिका में नामवर जी इस प्रकार लिखते हैं- “परम्परा के समान ही खोज भी एक गतिशील प्रक्रिया है | फिर भी इस यात्रा में पड़ाव आते हैं | यह पड़ाव, दुर्भाग्य से, तभी आया, जब पंडित जी न रहे | यह छोटी-सी पुस्तक उस पड़ाव का अनुचिंतन है | इसमें न पंडितजी की कृतियों की आलोचना है, न मूल्यांकन का प्रयास | अगर कुछ है तो बदल देने वाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज, जिसमें एक तेजस्वी परम्परा बिजली की तरह कौंध गई थी | उस कौंध को अपने अन्दर से गुजरते हुए जिस तरह मैंने महसूस किया, उसी को पकड़ने की कोशिश की है | सफल कहाँ तक हो सका, इसका उत्तर ‘परम्परा की दूसरी खोज’ ही देगी | संभव है, इसमें मेरी अपनी खोज भी मिल जाए!”1
जैसा कि डाक्टर नामवर सिंह ने भूमिका में ही स्पष्ट कर दिया है कि इस पुस्तक में हजारी प्रसाद द्विवेदी की कृतियों की न ही आलोचना की गयी है न ही उनका मूल्यांकन करने का प्रयास किया गया है, इस पुस्तक का महत्त्व इस कारण है कि इसमें एक बदल देने वाली उस दृष्टि के उन्मेष की खोज है | जिसमें एक तेजस्वी परम्परा बिजली की तरह कौंध गई थी | आगे इसी पुस्तक की भूमिका में वे इस प्रकार लिखते हैं कि “परम्परा के रूप में वे मिले तो अनायास ही, लेकिन लगा कि उन्हें पाने के लिए आयास जरुरी है| यह खोज तभी शुरू हुई थी | पूरी तो आज भी कहाँ हुई, फिर भी विद्वानों के सम्मुख आज उस खोज की अंतरिम रिपोर्ट पेश करते हुए मन थोड़ा हलका लग रहा है |”2
नामवर जी जिस प्रकार हजारी प्रसाद द्विवेदी को यहाँ एक नई परम्परा के रूप में दिखलाते हैं | इसका मतलब है कि जो परम्परा साहित्य में अभी तक मौजूद रही है उसके अन्यत्र भी एक परम्परा मौजूद है परन्तु यह परम्परा अभी तक साहित्य में दिख नहीं रही थी | किन्तु मुख्य परम्परा के समान्तर ही एक अन्यत्र परम्परा चलायमान रही थी जो मुखरित हो कर भले ही हमारे सामने न आ रही थी | लेकिन किन्हीं भी कारणों के द्वारा उस परम्परा के अस्तित्व को नकारा नहीं जा सकता है | और इसी अन्यत्र परम्परा से हजारी प्रसाद द्विवेदी का सम्बन्ध है | इस परम्परा के अलावा भी एक और तरफ इशारा नामवर जी कर रहे हैं कि यह परम्परा एक व्यापक परिधि में है और इस पुस्तक में यह अंतरिम रिपोर्ट ही है अर्थात नामवर जी का ऐसा सोचना रहा होगा कि इस पर फाइनल रिपोर्ट अभी बाद में देंगे मसलन एक गंभीर वैचारिक चिंतन के परिणाम स्वरुप इस अन्यत्र परम्परा (जिसे नामवर जी दूसरी परम्परा कह रहे हैं) पर विस्तार से बात करेंगे | इस प्रकार के चिन्तन के परिणाम स्वरुप उन्होंने इस पुस्तक को सामने लाया |
इस पुस्तक में ‘दूसरी परम्परा की खोज’ शीर्षक से पहला लेख है | इस लेख के आरम्भ में नामवर सिंह ने हजारी प्रसाद के शान्तिनिकेतन पहुँचनें और अध्यापन कार्य आरम्भ करने के दिन को द्विजत्व प्राप्ति का दिन कहते हैं| और इस प्रकार लिखते हैं- “1930 की 7 नवम्बर को पंडितजी शान्तिनिकेतन पहुंचे और 8 नवम्बर से उन्होंने अध्यापन कार्य शुरू किया | इसे वे द्विजत्व-प्राप्ति का दिन कहते थे| वैसे, द्विज तो पहले से ही थे | उपनयन संस्कार हुआ ही होगा | लेकिन अपना दूसरा जन्म वे शान्तिनिकेतन पहुँचने को मानते थे |”3 आगे “शांतिनिकेतन में एक विधवा अपनी कन्या का विवाह हिन्दू विधि से करना चाहती थी | किसी ने कह दिया कि नान्दी श्राध्द विधवा नहीं कर सकती | गुरुदेव ने नए-नए आये काशी के ज्योतिषाचार्य पंडित हजारी प्रसाद द्विवेदी को बुलवा भेजा | पूछा, ‘हिन्दुओं का हजारों वर्ष का इतिहास है, क्या उसमें पहली बार यह घटना हो रही है? पहले भी तो तो यह स्थिति आई होगी ?’ पंडित जी घर आये | स्मृति-ग्रंथों की छानबीन की | देखा कि पूर्वपक्ष में ऐसे बहुत से वचन हैं जो विधवा के इस अधिकार को स्वीकार करते हैं | लेकिन वचनों की संगति लगाते समय निष्कर्ष रूप में यही कहा गया है कि विधवा को ऐसा अधिकार नहीं है | जाकर गुरुदेव को बताया तो हंसकर बोले, ‘क्या पूर्वपक्ष के वे ऋषि कुछ पूज्य हैं, जिसका खंडन उत्तरपक्ष में किया गया है? इस प्रश्न ने पंडित जी को झकझोर दिया | परम्परा क्या उत्तर पक्ष ही है? पूर्वपक्ष नहीं? जिस परम्परा को अब तक अखंड समझते आ रहे थे, देखते-देखते शिवधनुष के समान खंड-खंड हो गई | लगा कि परम्परा और भी हो सकती है | एक तरह से यह इतिहास-बोध का उदय था |”4 इस उद्धरण में एक तरह से अन्यत्र परम्परा के इतिहास बोध को दिखलाने का प्रयास किया जा रहा है |
आगे नामवर जी दिखलाते है कि किस प्रकार द्विवेदी जी को दूसरी परम्परा की दृष्टि रविंद्रनाथ के यहाँ से मिलती है | इस क्रम में आगे कहते हैं कि “शान्तिनिकेतन न आते तो शायद रविन्द्रनाथ के प्रसिद्ध निबंध ‘भारतवर्ष में इतिहास की धारा’ (1912) पर दृष्टि न पड़ती | उस निबंध में अनेक ऐसी स्थापनाएँ हैं जिनका पल्लवन द्विवेदी जी की कृतियों में मिलता है | एक स्थापनाएं तो यही है : “किसी को यह नहीं समझना चाहिए कि अनार्यों ने हमें कुछ नहीं दिया | वास्तव में प्राचीन द्रविड़ तत्वज्ञानी नहीं थे |
पर उनके पास कल्पना-शक्ति थी, वे संगीत और वास्तुकला में कुशल थे | सभी कला-विधाओं में वह निपुण थे |”5 नामवर जी आर्य और द्रविड़ संस्कृति के माध्यम से यह दिखलाना चाहते हैं कि एक परम्परा की धारा वहां भी मौजूद है | जिसे दूसरी परम्परा कह्ते हैं | और इस परम्परा का बोध द्विवेदी जी को रविन्द्रनाथ के यहाँ से मिला था | जिसके परिणाम स्वरुप “द्विवेदी जी ने इस रास्ते चलकर गन्धर्वों, यक्षों और नागों जैसी आर्येतर जातियों के कलात्मक अवदान की खोज की |”6 जैसा कि अपने अनेक साक्षात्कारों एवं व्याख्यानों में नामवर जी कहते रहे कि दूसरी परम्परा हमारी संस्कृति में भी मौजूद है संभवतः उनका इसी रूप में एक आंशिक इशारा है|
रविन्द्रनाथ की ही यह धारणा थी कि “वैष्णव धर्म में एक ओर भगवदगीता का विशुद्ध, उच्च धर्मतत्व है तो दूसरी ओर अनार्य ग्वालों में प्रचलित देव लीला की विचित्र कहानियां भी उसमें सम्मिलित हैं |...वैष्णव धर्म का आश्रय लेकर जो लोक-प्रचलति पौराणिक कथाएँ आर्य-समाज में प्रतिष्ठित हुईं उनमें प्रेम, सौन्दर्य और यौवन की लीला है; प्रलय-पिनाक के स्थान पर बांसुरी के स्वर हैं, भूत-प्रेत के स्थान पर वहां गोपियों का विलास है; वहाँ वृन्दावन का चिर-बसंत और स्वर्गलोक का चिर-ऐश्वर्य है |...आभीर संप्रदाय-प्रचलित कृष्णकथा वैष्णव धर्म में घुलमिल गई |”7 उपर्युक्त दोनों उद्धरणों के माध्यम से नामवर सिंह दिखलाना चाहते हैं कि एक जो समान्तर परंपरा की धारा चल रही है वह आर्य संस्कृति के बरक्स द्रविड़ संस्कृति के रूप में तो मौजूद है ही इसके साथ वैष्णव दर्शन के मूल में जो मौजूद है उसमें भी दूसरी परंपरा के दर्शन मुख्यतया समाहित हैं | हमारे यहाँ मुख्य संस्कृति जिसे वैदिक संस्कृति के रूप में जानी जाती है वह मुख्यतः है तो आर्यों की संस्कृति ही लेकिन अनार्य ग्वालों की संस्कृति भी उसमें समाहित है | जैसे देखे तो भगवतगीता का विशुद्ध, उच्च धर्मतत्व है तो दूसरी ओर अनार्य ग्वालों में प्रचलित देव लीला की कहानियाँ | नामवर जी दूसरी परम्परा के खोज के क्रम में बताते हैं कि यह आरम्भ से ही चली आ रही परम्परा है |
नामवर जी रविन्द्रनाथ के इसी निबंध के माध्यम से बताते हैं कि कबीर विषयक जिज्ञाषा भी द्विवेदी जो को यहीं से प्राप्त होती है | रविन्द्रनाथ अपने निबंध में इस प्रकार लिखते हैं- “कबीर की जीवनी और रचनाओं में यह स्पष्ट देखा जा सकता है कि उन्होंने भारत की समस्त बाह्य आवर्जना का अतिक्रमण करते हुए उसके अन्तः करण की श्रेष्ठ सामग्री को ही सत्य साधना समझकर उपलब्ध किया था |...लोकाचार, शास्त्रविधि और अभ्यास के रुद्ध द्वार पर आघात करके उन्होंने भारत को जगाने का प्रयास किया |”8 मुख्यतः देखा जाय तो नामवर जी का स्पष्ट मानना था कि द्विवेदी जी को जो भी भारतीय संस्कृति और भारतीय साहित्य की परम्परा की दृष्टि मिलती है वह रविन्द्रनाथ के यहाँ से ही | और नामवर जी कहते हैं कि यह ऋण उन्होंने बार-बार स्वयं स्वीकार की | आगे इसी परम्परा के विकास क्रम में कहते हैं कि “द्विवेदी जी ने कम-से-कम हिंदी को रविंद्रनाथ की प्रेरणा से वह दिया जो उनसे पहले किसी ने न दिया था | मिसाल के लिए कबीर का क्रांतिकारी रूप |” आगे लिखते हैं नामवर जी कि कबीर के माध्यम से जाति-धर्म-निरपेक्ष मानव की प्रतिष्ठा का श्रेय तो द्विवेदी जी को ही है | एक प्रकार से यह दूसरी परम्परा है | द्विवेदी जी को धर्मनिरपेक्ष दृष्टि के कारण ही नामवर जी उन्हें एक नई परम्परा के रूप में देखते हैं | इसी निबंध में ही नामवर सिंह उस प्रश्न को भी उठाते है कि द्विवेदी जी शुक्ल जी की परम्परा के आलोचक हैं या नहीं ? इसी क्रम में अनेक तथ्य सामने दिखलाते हैं | यदि द्विवेदी जी शुक्ल जी की परम्परा के आलोचक हैं तो नन्ददुलारे वाजपेयी, विश्वनाथ प्रसाद मिश्र आदि किस परम्परा के हैं जबकि वे स्वयं अपने आपको शुक्ल पक्ष का ही मानते हैं | यदि ऐसा है तब यही कहना पड़ेगा कि शुक्ल जी की कम-से-कम दो परम्पराएँ हैं, जिसका स्पष्ट अर्थ है कि शुक्ल जी में गहरे अंतर्विरोध हैं | ऐसी स्थिति में देखना होगा कि द्विवेदी किस परंपरा से संबद्ध है ?
“पहले साहित्य में सामाजिक आदर्श | शुक्ल जी के लोकधर्म के प्रतीक तुलसीदास हैं, द्विवेदी जी के कबीर | भक्ति के स्तर पर बहुत-कुछ समान, व्यवहार के स्तर पर एकदम विरुद्ध | यों स्वयं तुलसी कबीर का बिना नाम लिए स्पष्ट विरोध करते हैं और शुक्ल जी की इसमें सहमति है | द्विवेदीजी इस बात में तुलसीदास से भी असहमत हैं और शुक्ल जी से भी | क्या यह विरोध भी परंपरा में शामिल है ? यदि हाँ तो फिर विकास है या ह्रास ?”10 आगे भाव पक्ष के बारे में नामवर जी लिखते हैं “शुक्ल जी की दृष्टि में सूर की गोपियों का प्रेम एकांतिक है, अथवा लोक-विरोधी | द्विवेदी जी की दृष्टि में सूर की गोपियों का प्रेम कुल-जाति की मर्यादा को तोड़ता है, इसलिए लोकवादी है | यदि यह विरोध भी परम्परा में ही शामिल है तो विकास है या ह्रास ?”11 अंत में भाषाई आधार पर तुलना करते हैं कि द्विवेदी जी शुक्लजी की ही परम्परा को क्या आगे बढ़ा रहे हैं ? “शुक्ल जी की दृष्टि में कबीर की वाणी असाहित्यिक और उटपटांग है | द्विवेदी जी की दृष्टि में कबीर वाणी के डिक्टेटर हैं और व्यंग के बादशाह | काव्य को जांचने का यह विरोधी मानदंड भी यदि परम्परा में ही शामिल है तो यहाँ विकास और ह्रास का निर्णय और भी कठिन है |”12
नामवर सिंह शुक्ल जी और द्विवेदी जी के साहित्य में से भाषा, भावबोध और सामाजिक आदर्श को लेकर तुलना करते हैं और लगभग यह बतलाने की कोशिश करते हैं कि यह दो महत्वपूर्ण रचनाकार भिन्न-भिन्न परम्परा से आते हैं और हिंदी की प्रगतिशील परम्परा को विकसित करते हैं | इनका यह निष्कर्ष उन सारे लोगों के लिए भी है जो द्विवेदी जी को शुक्लजी की परम्परा का विकास करते हुए समझते थे |
इस पुस्तक में दूसरा लेख ‘ब्राह्मण समाज में ज्यों अछूत’ नाम से संकलित है | संभवत: इस पुस्तक में यह सबसे लम्बा लेख भी है | साररूप में कहें तो इसमें द्विवेदी जी के जीवन संघर्ष को दिखलाया गया है | चाहे वह बचपन में धनाभाव के चलते शिक्षा लेने में आई कठिनाई हो अथवा काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से बुलावा आने पर उन्हें कुछ लोगों के ऐसे पत्र प्राप्त हुए जिसमें उन्हें काशी से दूर रहने को कहा गया था; जब वह शान्तिनिकेतन में थे तो | और इसकी परिणति अंततोगत्वा 1960 में द्विवेदी जी को काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से निकाल दिया गया | इस पुस्तक में अनेक ऐसी बातें दी गयी हैं जिसमें द्विवेदी जी का आत्मसंघर्ष व्यक्त होता दिखता है | इस लेख के आरम्भ में ही नामवर जी ने यह स्थापित करने का प्रयास किया है कि द्विवेदी जी को तुलसीदास का जीवन संघर्ष अपना संघर्ष प्रतीत होता था | नामवर जी ने द्विवेदी जी द्वारा तुलसीदास पर लिखा निबंध ‘तुलसीदास का स्मरण’ को उद्घृत करते हुए यह बताया कि जिस प्रकार का जीवन संघर्ष तुलसीदास के जीवन में शुरू से रहा; वह जन्मते ही माता-पिता के सुख से वंचित हो गये, जीवन अर्थाभाव में ही व्यतीत हुआ और युवावस्था में काशी के पंडितों ने जिस प्रकार उनका अनादर किया ठीक उसी प्रकार द्विवेदी जी भी अपने जीवन के संघर्षों को याद करते हैं उन्हें महात्मा तुलसीदास का जीवन संघर्ष अपना जीवन संघर्ष दिखता है | “...हाय, हाय, कैसा भाग्यहीन रहा होगा वह बालक, जिसके माँ-बाप ने जनमते ही स्वर्ग का रास्ता लिया- ‘माता-पिता जग जाय तज्यो’- और ‘विधिहू न लिखी कछु भाल भलाई |’...परिस्थितियां बाल्यकाल में तुलसीदास के प्रतिकूल थीं- बहुत प्रतिकूल! और युवावस्था में?...युवावस्था भी बहुत सुख की नहीं थी |...काशी में पंडितों ने उन्हें बड़ा तंग किया था- गाली-गलौज, डांट-फटकार | हमेशा से ही ऐसा होता आया है | बड़े तेज को बर्दाश्त नहीं कर सकने से लोग गाली-गलौज पर उतर आते हैं |”13
द्विवेदी जी जब काशी रहकर अध्ययन कर रहे थे तो उन्हें आर्थिक कष्ट बहुत था, जिसे देखा जा सकता उनके द्वारा बनारसीदास चतुर्वेदी को 19-09-1945 ई. को जो पत्र लिखा | इस पत्र के कुछ अंश को नामवर जी इस निबंध में प्रस्तुत किये हैं | आगे इस निबंध में द्विवेदी जी की शान्तिनिकेतन में नौकरी लगना और फिर काशी में पुनः लौटना | फिर विश्वविद्यालय की राजनीतिक घटनाक्रम के कारण उन्हें नीचा दिखाने के अनेक प्रयास किये गये | फिर उनको काशी हिन्दू विश्वविद्यालय से हटाया जाना और चंडीगढ़ में जा कर नौकरी करना | लेकिन परिस्थितियों ने एक बार फिर उन्हें चंडीगढ़ से काशी ला दिया और एक बार पुनः काशी हिन्दू विश्वविद्यालय में रेक्टर के पद पर वह आसीन हो गये | दो वर्ष पश्चात वे बी.एच.यू. के हिंदी विभाग में व्याकरण योजना के निदेशक बनें | कुछ वर्षों के पश्चात काशी हिन्दू विश्वविद्यालय के व्याकरण विभाग को छोड़कर उत्तर-प्रदेश सरकार की हिंदी ग्रन्थ अकादमी सम्भालने लखनऊ पहुँच गये | “लेकिन इस बार का छूटना कुछ ऐसा हुआ कि चाहें तो महीने में आधे दिन घर भी रह सकते हैं | गरज कि काशी छूटा तो लेकिन आधा ही! पूरा छूटने का अर्थ था महाप्रस्थान!”14 | अंत में इस निबंध के नामवर जी इस बात से ख़त्म करते हैं कि “हजारी प्रसाद द्विवेदी मनुष्य थे | तुलसीदास के समान ही काशी के “ब्राह्मण समाज में जो अछूत,”लेकिन मनुष्य |
इस पुस्तक में तीसरा निबंध ‘अस्वीकार का साहस’ नाम से है | इस निबंध में द्विवेदी जी द्वारा कबीर को किस प्रकार स्थापित किया गया है; उसकी चर्चा की गयी है | नामवर जी आरम्भ इस प्रकार करते हैं-“हजारीप्रसाद द्विवेदी का नाम कबीर के साथ उसी तरह जुड़ा है जैसे तुलसीदास के साथ रामचंद्र शुक्ल का | हिंदी में द्विवेदीजी पहले आदमी हैं जिन्होंने यह घोषणा करने का साहस किया कि, “हिंदी साहित्य के हजार वर्षों के इतिहास में कबीर जैसा व्यक्तित्व लेकर कोई लेखक उत्पन्न हुआ | महिमा में यह व्यक्तित्व केवल एक ही प्रतिद्वंदी जानता है, तुलसीदास |”(कबीर, पृष्ठ संख्या-222) यदि हजारी प्रसाद द्विवेदी के, “कबीरदास बहुत कुछ को अस्वीकार करने का अपार साहस लेकर अवतीर्ण हुए थे |”(पृष्ठ-7) तो कबीर के हजारी प्रसाद में भी यह साहस कम नहीं है |”15 यह निर्विवाद सत्य है कि कबीर को हिंदी साहित्य में स्थापित करने का कार्य तो हजारी प्रसाद द्विवेदी ने ही किया | “क्योंकि किसी कवि को साहित्य में प्रतिष्ठा दिलाने वाले थे आचार्य शुक्ल; लेकिन उन्होंने जहाँ तुलसीदास, सूरदास और जायसी पर स्वतंत्र रूप से विस्तृत समीक्षाएं लिखीं, कबीर को इस योग्य नहीं समझा |”16 आगे नामवर जी इस लेख में यह भी लिखते हैं कि कबीर का तिरस्कार मुख्यत: उनकी अटपटी भाषा और कवित्वहीनता को ही लेकर किया गया था, इसलिए द्विवेदी जी ने ‘कबीर’ पुस्तक में इस पर सविस्तार और सोदाहरण चर्चा की | जबकि द्विवेदी जी साफ लिखते भी हैं कि भाषा पर कबीर का जबरदस्त अधिकार था | वे वाणी के डिक्टेटर थे | इस निबंध के ज्यादातर हिस्से में नामवर सिंह ने यह दिखलाने का प्रयास किया है कि किन-किन दृष्टिकोण से द्विवेदी जी ने कबीर को स्थापित किया है |
इसी पुस्तक में चौथा लेख ‘प्रेमा पुमर्थो महान’ नाम से संकलित है | यदि इसके नाम का यदि अर्थ तलाशा जाय तो प्रेम सबसे बड़ा पुरुषार्थ है | ऐसा नामवर जी का भी मानना है | इस लेख में साररूप से कहा जाय तो इसमें नामवर सिंह के द्वारा यह दिखाया गया है कि द्विवेदी जी ने प्रेम की अनिवार्यता की स्थापना पर खास जोर दिया है जिसमें द्विवेदी जी प्रेम विषयक अवधारण पर खास जोर देते हुए उसको रेखांकित तो करते ही हैं साथ ही शुक्ल जी से तुलना करके वह यह भी दिखलाने की कोशिश करते हैं कि द्विवेदी जी का प्रेम विषयक दृष्टिकोण ज्यादा उदारता और बड़े फलक को लिए हुए है | इसमें वह कुछ उद्धरण आचार्य द्विवेदी के तो कुछ आचार्य शुक्ल के दिए हैं | जिसकी चर्चा प्रसंगवश की जाएगी | नामवर सिंह द्विवेदी जी की प्रेम विषयक दृष्टिकोण की चर्चा के लिए उनके सूर साहित्य, बाणभट्ट की आत्मकथा और अनामदास का पोथा जैसे ग्रन्थ से प्रमाण लेते हैं वहीं आचार्य शुक्ल के प्रेम विषयक दृष्टिकोण को सामने लाने के लिए सूरदास एवं जायसी पर लिखी आलोचनात्मक पुस्तकों को लेते हैं | “ प्रेम पाप नहीं, बल्कि मनुष्य का ‘स्व-भाव’ है और इस स्वाभाव को स्वीकार करके ही चरम लक्ष्य को प्राप्त किया जा सकता है- यह स्थापित करने के लिए ही द्विवेदी ने गोया ‘अनामदास का पोथा’ नामक अपना अंतिम उपन्यास लिखा | रैक्क की पीठ को जब से जाबाला का स्पर्श प्राप्त हुआ तभी से उसमें एक सनसनाहट-सी होती है और उसे वह खुजलाया करता है | भगवती अरुंधती पूछती हैं तो वह कहता है कि वह जो पाप का फल है | मैंने पापा किया था, उसी का दंड भोग रहा हूँ | इस पर भगवती समझाती हैं कि यह तो सनसनाहट है वह पाप के कारण नहीं है, मन के कोने में छिपी हुई किसी दुर्दुम अभिलाषा-भावना की देन है | यह बात तू कभी न सोच कि तूने पाप किया और उसका दंड भोग रहा है | नहीं, इसमें पापा की कोई बात नहीं है | कुछ देर बाद इस प्राण के उपासक ऋषिकुमार को दार्शनिक स्तर पर उसकी समस्या का समाधान करते हुए भगवती फिर बतलाती हैं कि तुम्हारा झुकाव प्राणतत्व की ओर है, और तुम ब्रह्म के प्रिय रूप को अपनाने में समर्थ | महाज्ञानी याज्ञवल्क ने प्राण की उपासना करने वाले को ‘प्रिय ब्रहम’ अधिकारी बताया था | रैक्क यह गूढ़ दर्शन ठीक से समझ नहीं पाता तो भगवती उसे जनक-याज्ञवल्क संवाद का पूरा ब्यौरा देते हुए फिर कहती हैं कि ‘प्रियता’ प्राण से ही तो प्रकट होती है तभी तो कहते हैं ‘प्राण-प्रिये!’ निष्कर्ष यह कि तुम्हारा स्व-भाव प्रेम है | उसी के माध्यम से तुम सत्य का साक्षात्कार कर सकते हो |”17 अब आचार्य शुक्ल की प्रेम विषयक दृष्टि जो इस प्रकार है-“विचित्र विडम्बना है कि हिंदी भक्तिकाव्य के अनेक लोकवादी मूल्यों के प्रशंसक आचार्य शुक्ल ने भी भक्तिकाव्य के प्राण ‘प्रेम’ को अभारतीय कहा | भक्ति संप्रदाय में प्रेम का ही दूसरा नाम माधुर्य भाव है | यह माधुर्य भाव कबीर और जायसी में भी है तथा सूर और मीरा में भी | जायसी आदि सूफियों के काव्य में प्रेम का महिमा-गान देखकर आचार्य शुक्ल को कुछ ऐसा विश्वास हो चला कि यह माधुर्य भाव मूलतः फारसी परम्परा की वस्तु है और इस प्रकार अभारतीय है | उन्होंने कुछ कटुता के साथ लिखा कि ‘भारतीय भक्ति का सामान्य रूप रहस्यात्मक न होने के कारण इस ‘माधुर्य भाव’ का अधिक प्रचार नहीं हुआ | आगे चलकर मुसलमानी ज़माने में सूफियों की देखादेखी इस भाव की ओर कृष्णभक्ति शाखा के कुछ भक्त प्रवृत्त हुए | इसमें मीराबाई हुई जो ‘लोक-लाजखोकर’ अपने प्रियतम श्री कृष्ण प्रेम में मतवाली रहा करती थीं |’ मीरा को व्यंग का लक्ष्य बनाए के बाद आचार्य ने लिखा कि ‘चैतन्य महाप्रभु में सूफियों की प्रवृत्तियां साफ झलकती हैं |’ |”18 उपर्युक्त उद्धरण को देखने के पश्चात यह कहा जा सकता है कि आचार्य शुक्ल और आचार्य द्विवेदी की प्रेम विषयक दृष्टि में बहुत भिन्नता है जहाँ आचार्य शुक्ल प्रेम को महत्वपूर्ण नहीं समझते जबकि आचार्य द्विवेदी प्रेम की अनिवार्यता पर बल देते हैं; या इस रूप में भी कहा जा सकता है कि प्रेम को द्विवेदी जी जीवन के आदर्श रूप में चित्रित करते हैं | इस लेख में मुख्य स्थापना प्रेम विषयक दृष्टिकोण को लेकर ही है |
इस पुस्तक में पांचवा लेख ‘भारतीय साहित्य की प्राणधारा और लोकधर्म’ नाम से संकलित है | इस लेख में मुख्यतः हजारी प्रसाद द्विवेदी की रचना ‘हिंदी साहित्य की भूमिका’ की स्थापनाओं को लेकर प्रकाश डाला गया है | साथ ही मध्यकालीन सांस्कृतिक बदलाव को लेकर विचार व्यक्त किये हैं | विद्वानों द्वारा जिसमें आचार्य शुक्ल की वैचारिकी, द्विवेदी जी की वैचारिकी, रामविलास जी की स्थापनाएं और इरफान हबीब की स्थापनाएं शामिल की गयी है | लेकिन इन सभी के केंद्र में द्विवेदी जी की स्थापनाएं ही ज्यादा महत्वपूर्ण रूप से दर्ज की गयी हैं | मिसाल के तौर पर कुछ बातें इस प्रकार- लेख का आरम्भ इस प्रकार नामवर जी करते हैं “29 जनवरी, 40 को हजारी प्रसाद द्विवेदी ने पं. बनारसीदास चतुर्वेदी को लिखा : ‘यदि आप इधर आयें तो अपनी लिखी एक छोटी-सी पुस्तिका दिखाऊंगा | पुस्तक का नाम होगा ‘भारतीय साहित्य की प्राणधारा’ या ऐसा ही कुछ |’ यह वही पुस्तक है जो अगले महीने फरवरी में हिंदी साहित्य की भूमिका के नाम से प्रकाशित हुई |”19 इस पुस्तक की भूमिका का आरम्भ इस घोषणा से होता है : “मैं जोर देकर कहना चाहता हूँ कि अगर इस्लाम नहीं आया होता तो भी इस(हिंदी) साहित्य का बारह आना वैसा ही होता जैसा आज है |” इस प्रसंग को उद्घाटित करके नामवर जी अपनी बात आरम्भ करते हैं लेख में | फिर आगे आचार्य शुक्ल के उन कथनों को उद्घृत करते हैं जिसमें वह भक्ति का उद्भव इस्लामिक प्रतिक्रिया के फलस्वरूप करते हैं | आगे तथ्य एवं निष्कर्ष के फलस्वरूप नामवर जी इस लेख में यह बताना चाहते हैं कि मध्यकाल में जिस प्रकार की परिस्थितियां रहीं उनके आधार पर यह कहा जा सकता है कि भक्त इस्लामिल प्रतिक्रिया वादी नहीं है क्योंकि तुलसी, सूर के काव्यों में कहीं भी प्रतिक्रिया के फलस्वरूप उपजा साहित्य नज़र नहीं आता है | चूँकि मध्यकाल में तुर्कों की सत्ता स्थापित हो जाने के कारण सामाजिक ढांचा में जरुर बदलाव आये | जिसे इरफान हबीब अपने शोध ‘प्रौद्योगिकीय परिवर्तन और समाज’ में बताते हैं कि 13वीं और 14वीं सदी में भारत में वस्त्र उद्योग, सिचाईं, कागज, चुम्बकीय कुतुबनुमा, समयसूचक उपकरण के क्षेत्रों में उल्लेखनीय विकास हुआ | जिससे निम्न वर्ग अथवा मध्यम वर्ग के जीवंन में बदलाव आने शुरू हो गये | क्योंकि इन सारे कार्यों को करने के लिए इन्ही लोगों को लिया जाता था | जिससे इनके जीवन में गुणात्मक परिवर्तन होना आरम्भ हुआ | इसी कारण इस्लाम ने भारतीय मध्यकालीन समाज को अवश्य परिवर्तित किया परन्तु भक्ति आन्दोलन का श्रेय इनको नहीं जाता है | इस लेख में मुख्यतः मध्यकालीन स्थापना से सम्बंधित वैचारिकी व्यक्त की गयी है और उसमें भी द्विवेदी जी की वैचारिकी को स्थापित करने का प्रयास किया गया है |
इस पुस्तक में छठवां लेख ‘संस्कृति और सौन्दर्य’ के नांम से संकलित है | इस लेख के आरंभिक हिस्से में नामवर सिंह संस्कृति की अवधारणा पर बात रखते हैं साथ ही द्विवेदी जी का इस पर क्या वैचारिक चिंतन हैं इस को भी बताते हैं | वहीँ अंतिम हिस्से में संस्कृति के वैचारिक पक्ष को सामने लाते हैं | मुख्यरूप से इस लेख में दो हिस्से हैं लेकिन उनका आतंरिक सामंजस्य भी दिखलाया गया है | “ ‘अशोक के फूल’ केवल एक फूल की कहानी नहीं, भारतीय संस्कृति का एक अध्याय; और इस अध्याय का अनंगलेख पढ़नेवाले हिंदी में पहले व्यक्ति हैं हजारीप्रसाद |”20 नामवर सिंह इस लेख में द्विवेदी जी के निबंध ‘अशोक के फूल’ के माध्यम से भारतीय संस्कृति के वैचारिक चिंतन को दिखलाने का प्रयास किया है | द्विवेदी जी का मुख्य चिंतन है संस्कृति को लेकर कि आर्य और आर्येतर उपादानों का मिश्रण है भारतीय संस्कृति | ‘अशोक के फूल’ निबंध में दो वाक्य महत्वपूर्ण हैं-“देश और जाति की विशुद्ध संस्कृति केवल बात की बात है | सब कुछ में मिलावट है, सबकुछ अविशुद्ध है |” आगे नामवर जी कहते हैं कि “और सच कहा जाय तो आर्य संस्कृति की शुद्धता के अहंकार पर चोट करने के लिए ही ‘अशोक का फूल लिखा गया है, प्रकृति वर्णन करने के लिए नहीं | यह निबंध द्विवेदी जी के शुद्ध पुष्प-प्रेम का प्रमाण नहीं, बल्कि सांस्कृतिक-दृष्टि का अनूठा दस्तावेज है |”21 यदि निष्कर्ष रूप में कहा जाय तो द्विवेदी जी का वैचारिक चिंतन संस्कृति को लेकर जो है वह आर्य और आर्येतर के मिश्रण का परिणाम है | भारतीय संस्कृति केवल विशुद्ध आर्य संस्कृति ही नहीं है | द्विवेदी जी का सौन्दर्य की वैचारिकी बहुत स्पष्ट है, वे सौन्दर्य को अत्यधिक महत्त्व देते थे, उनके विचार-प्रवाह (1959) निबंध में इस वैचारिकता को देखा जा सकता है, “...वे अनुभव करते हैं कि जिस जनता को पेट-भर अन्न नहीं मिलता, वह सौन्दर्य का सम्मान नहीं कर सकती | नींव के बिना इमारत नहीं उठा सकती है | ‘भूखे भजन न होई गोपाला |’ किन्तु इसके साथ ही यह भी सच है कि ‘जो जाति सुन्दर का सम्मान नहीं कर सकती वह यह भी नहीं जानती कि बड़े उद्देश्य के लिए प्राण देना क्या चीज है | वह छोटी-छोटी बातों के लिए झगड़ती है, मरती है और लुप्त हो जाती है |” इस अंश के द्वारा सहजता से ज्ञात हो जाता है कि द्विवेदी जी सौन्दर्य को कितना अधिक महत्त्व देते हैं | द्विवेदी जी सौन्दर्य को सौन्दर्य न कह कर ‘लालित्य’ कहना ज्यादा पसंद करते हैं | नामवर सिंह इस लेख में आचार्य शुक्ल की सौन्दर्य विषयक वैचारिकी को भी सामने रखते हैं | निःसंदेह आचार्य शुक्ल की सौन्दर्य विषयक दृष्टि द्विवेदी जी से भिन्न है | वह सौन्दर्य को जीवन में महत्त्व नहीं देते थे |
कुल मिलकर यह कहा जा सकता है कि नामवर सिंह इस लेख में द्विवेदी जी की संस्कृति और सौन्दर्य विषयक दृष्टिकोण को सामने रखते हैं और उससे जुड़ी कुछ स्थापनाएं दूसरे आलोचकों की भी सामने रखते हैं; लेकिन दूसरे आलोचकों की वैचारिकता को स्थापित करते नहीं दिखते | उन सभी के समान्तर द्विवेदी जी ही स्थापित होते हैं |
इस पुस्तक में सातवां लेख ‘त्वं खलु कृती’ नाम से संकलित है | इस लेख में मुख्यत: द्विवेदी जी की साहित्य विषयक दृष्टिकोण को सामने रखा गया है | इसमें नामवर सिंह ने द्विवेदी जी और आचार्य शुक्ल के वैचारिक साहित्यक दर्शन को प्रस्तुत किया है; साथ ही यह भी कहा जा सकता है कि नामवर जी की स्थापनाएं भी आचार्य द्विवेदी के साथ हैं | इस पुस्तक के लगभग प्रत्येक लेख में द्विवेदी जी की स्थापनाओं के बरक्स आचार्य शुक्ल के वैचारिक चिंतन को सामने लाया गया; और इन दोनों के तुलनात्मक दृष्टिकोण को सामने रखने के बाद नामवर जी एक प्रकार से प्रत्येक पर द्विवेदी जी की स्थापनों के साथ खड़े दिखते हैं |
द्विवेदी जी साहित्य के बारे में लिखते हैं-“मैं साहित्य को मनुष्य की दृष्टि से देखने का पक्षपाती हूँ | जो वाग्जाल मनुष्य को दुर्गति, हीनता और परमुखापेक्षिता से बचा न सके, जो उसकी आत्मा को तेजोद्दीप्त न बना सके, उसे साहित्य कहने में संकोच होता है |(पृष्ठ .166)”22 | आगे नामवर सिंह इसी लेख में शुक्ल के साहित्य विषयक विचार को सामने रखते हैं जिसमें उनका कहना है कि द्विवेदी जी से पहले आचार्य शुक्ल के सम्मुख भी साहित्य के मूल्यों की पीठिका में सामान्य मनुष्य ही था | लेकिन यह स्पष्ट होना चाहिए कि अनेक बातों में समान होते हुए भी द्विवेदी जी का सामान्य मनुष्य शुक्ल जी के सामान्य मनुष्य से एकदम भिन्न था | आगे नामवर सिंह इस दृष्टिकोण को समझने के लिए शुक्ल जी के तुलसीदास और द्विवेदी जी के कबीर को देखने के लिए कहते हैं | इस पर नामवर सिंह इस प्रकार टिप्पणी करते हैं | “द्विवेदीजी का मानव जिस हद तक ‘जाति-धर्म निर्विशेष’ और समाजवाद समाज के मानव के निकट था, शुक्लजी का मानव कदाचित न था | वैसे, साम्यवाद और समाजवाद के विषय में आशंकाएं दोनों को है- शुक्ल जी को ज्यादा द्विवेदी जी को कम |”23 मोटे तौर पर कहा जाय तो इस लेख में द्विवेदी जी की साहित्यविषक रूचि और वैचारिकी ही उपस्थित है |
इस पुस्तक में आठवां और अंतिम लेख ‘व्योमकेश शास्त्री उर्फ़ हजारीप्रसाद द्विवेदी’ नाम से संकलित है | इस लेख में वस्तुत: नामवर सिंह ने द्विवेदी जी के छद्मनाम को लेकर अपने विचार रहें हैं | साथ ही उन्होंने यह भी बताने की कोशिश की कि उनको यह नाम असल में क्यों रखना पड़ा है; अथवा इसकी क्या आवश्यकता उन्हें पड़ी | “व्योमकेश शास्त्री ‘गप्प’ की सर्जनात्मक भूमिका के लिए गढ़े हुए एक चरित्र हैं |”24 एक तरह से इस नाम को लेकर नामवर जी कि राय है कि उन्होंने इसे मुखौटा के रूप में इस्तेमाल किया और इसकी स्थापना में अनेक तर्क भी प्रस्तुत करते हैं | वह लिखते हैं कि “कला के इतिहास से परिचित विद्वान् जानते हैं कि आदिम काल से मुखौटों का प्रयोग होता आया है | नृत्य और नाट्य की ऐसी अनेक शैलियाँ आज भी प्रचलित हैं जिनमें मुखौटे अभिव्यक्ति के लिए सबसे समर्थ साधन माने जाते हैं |... मनुष्य जब स्वयं बोलता है तो अपने असली रूप में नहीं होता | उसे एक मुखौटा दे दीजिये, फिर देखिये वह सच बोलने लगेगा | दरअसल मुखौटा इसलिए मूल्यवान है कि वह स्वयं एक कलाकृति है और कलाकृति और कलाकृति स्वयं मनुष्य से ज्यादा अभिव्यंजक होती है | विचित्र विरोधभास है कि जो मुखौटा चेहरा छिपाता है, वही भावों को ज्यादा उद्घाटित करता है | ”25 आगे नामवर सिंह मुखौटे की स्थापना को लेकर ही आगे बात करते हैं और द्विवेदी जी से जोड़ते हैं “द्विवेदी जी जब अपनी कथाकृतियों में अपने-आपको किसी कल्पित कथावाचक की ओट में छिपाते हैं तो प्रयोजन अपने आपको अधिक-से-अधिक उद्घाटन का ही होता है |”26 मुख्यतः इस लेख में उनके छद्मनाम को लेकर ही स्थापनाएं हैं | कहने की आवश्यकता नहीं कि द्विवेदी जी एक ऊँच कोटि के विद्वान थे | और नामवर सिंह ने जिस प्रकार इनकी स्थापनाओं को विशेष दृष्टिकोण से सामने रखा वह मिसाल है | इन्होंने इस परम्परा का विकास द्विवेदी जी में दिखाया जो वास्तव में वैज्ञानिक एवं तार्किक है | इनकी स्थापनाओं से सहजता से असहमत नहीं हुआ जा सकता, वास्तव में इनकी यह पुस्तक दूसरी परम्परा की खोज हिंदी आलोचना में एक नयी तरह से दृष्टि देती हुई जान पड़ती है | इससे हिंदी की आलोचना विधा विकसित होती है |
सन्दर्भ सूची-