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ऐतिहासिक पृष्ठ-धारा में मानसिक उथल-पुथल : उत्तर प्रियदर्शी के सन्दर्भ में

मन की विविध अवस्थाओं पर सैद्धान्तिकों द्वारा जो चिंतन मनन हुआ है उससे पूर्व ही प्रत्येक व्यक्ति के भीतर घटित उमंगों, आवेगों तथा भावावेगों या भाव वैचित्र्यों को समझने की क्षमता साधारण जनता पर निहित थी। एक कहावत है कि ‘चेहरा मन का दर्पण’ है। मानोविज्ञान को अंग्रेज़ी में साइकोलोजी कहता है। साइकोलोजी शब्द के प्रथम प्रयोक्ता के रूप में तर्कशास्त्री ‘गोक्लोनियस’ को माना है। उन्होंने अपने पुस्तक ‘On The Nature and Origin of the Human Soul’ में आत्मविज्ञान का प्रतिपादन किया है, जिसका परिभाषित रूप है मानोविज्ञान। वुडवर्थ के अनुसार मानोविज्ञान, “व्यक्ति की क्रियाओं का विज्ञान है।”[1] डॉ. मैक्डूगल ने लिखा है – “हम मन की परिभाषा बहुत कुछ इस प्रकार कर सकते हैं कि मन, मानसिक अथवा कार्यसाधक शक्तियों की एक सुव्यवस्थित संहति का नाम है।”[2]

बौद्ध विज्ञान के शब्दों को देखा जाए तो, “ऐसा सत् जो सत्ता के रूप में आता है एक ऐसा सम्मिश्रण है जो स्कन्धों अथवा पुंजों से मिलकर बना है और यह स्कंध मनुष्य जाति के संबंध में पाँच है तथा दूसरों में और भी कम है। मन के अन्दर एक विशेष पद्धति का एकत्म्य है। यह मानसिक शक्तियों का सम्मिश्रण है।”[3] भारतीय आर्यभाषाओं में मध्यकालीन भाषा के रूप में पाली भाषा की गणना हुई है। पाली को बौद्ध धर्म की भाषा माना है। इस भाषा में रचित अद्वितीय ग्रन्थ है ‘त्रिपिटक’। इस ग्रंथ का अंश है ‘अभिधम्म पिटक’, जिसमें मनोविज्ञान और दार्शनिक शिक्षाएँ संग्रहित है।

हिंदी साहित्य जगत के विशिष्ट रचनाकार ‘अज्ञेय’ के रचना वैभव का प्रत्यक्षीकरण है ‘उत्तर प्रियदर्शी’। ऐतिहासिक तथ्य को गीति-नाट्य में रूपांतरित करके मनोवैज्ञानिकता का विश्लेषण सटीक ढंग से प्रस्तुत किया गया है। गीति-नाट्य या नाट्य-काव्य या गीति-काव्य – “ रूपकत्व और काव्यत्व का संगम स्थल है। काव्य-तत्व और नाट्य-तत्व जिसमें आकर एक ऐसे स्वरूप-विधान की सृष्टि कर देते हैं जिसमें काव्यत्व के कारण मानव जीवन के राग तत्व बड़ी स्पष्टता से उभरकर आते हैं। भावनाएँ और अनुभूतियाँ अपनी तीव्र और वेगवती धारा में हमें अपने साथ बहा ले जाती हैं।”[4] इस नाटक में गीति नाट्य के सभी तत्व है। गीति-नाट्य में भावों का प्राधान्य होता है। रचनाकार इसमें बाह्य चेष्टाओं से ज़्यादा मनोभावों के चित्रण को अहमियत दिया है। “प्रेरणा” शीर्षक के द्वारा अज्ञेय ने इसके कथानक पर प्रकाश डाला है। पूर्व जन्म में भिक्षा माँगते आए बुद्ध को बालक (इस जन्म में ‘अशोक’) ने एक मुट्टी धूल दे दी। धूल ग्रहण कर बुद्ध ने उसे धरती पर ही डाल दिया। उसी दान से प्राप्त कृपा के द्वारा कलान्तरण में वे सम्राट अशोक बन जाता है।
“ मुट्ठी-भर धूल उठा कर
शिशू स्मितमुख, उदार,
देता है : ”[5]

प्रेरणा के द्वारा बालक की कथा का उल्लेख करके बाल मनोविज्ञान को उकेरा गया है। बालक के निष्कलंक मन के कारण ही भिक्षू को मिट्टी दान में दिया है जो उसके पास शेष रही थी। उसे न खुद का पता है न बुद्ध का। उसे कोई पद की आस्था नहीं। इसलिए उसे अहं का बोध नहीं। बालक के निष्कलंक मन की दया, स्नेह, करुणा आदि समय के साथ बदलता रहता है। इस बदलाव का प्रत्यक्ष उदाहरण है अगले जन्म में सम्राट अशोक का उदय। अपने पद व परिवेश के कारण उसमें अहं, क्रोध तथा क्रूरता पैदा हुई है।

इस नाटक के प्रमुख पात्र हैं ; प्रियदर्शी, घोर एवं भिक्षुक। इन्हीं पात्रों के द्वारा मनोविज्ञान के विभिन्न पक्ष को श्रोता व पाठक के सामने प्रस्तुत करने में रचनाकार सक्षम रहे हैं। अज्ञेय इस रचना के द्वारा कलिंक विजय एवं नरक निर्माण से अहंजन्य प्रियदर्शी पर विचार करना चाहता है, जिस पर इतिहासकार भी मौन रहे थे। प्रियदर्शी यानी सम्राट अशोक अपने पद एवं जय के अहंकार से यमराज के नरकलोक के समान ऊँची दीवारों वाला नरक बनाने का आदेश देता है। जिसमें उसके आदेशानुसार प्रेत शत्रुओं पर यंत्रणा हुआ है। प्रियदर्शी का कहना है –
“मैं नहीं सुनूँगा
नहीं सहूँगा
नरक चाहिए, मुझको
इन्हें यंत्रणा दूँगा मैं
जो प्रेत-शत्रु थे मेरे तन में
एक फुरहरी जगा रहे हैं
अपने शोषित की अशरीर छुअन से
उन्हें नरक
मेरा शासन है अनुल्लंघ्य
यंत्रणा! नरक चाहिए।”[6]

इस क्रूर वृत्ति को निभाने हेतु घोर को नियुक्त किया गया तथा उसे नरक का राजा बना दिया। प्रियदर्शी ने यह भी कहा है कि अगर स्वयं वह भी आ जाए तो दूसरों की तरह उसे भी यंत्रणा दी जाए। यह विचार भी अहंकार से उत्पन्न हुआ है और यह भी भूल गया कि पल भर में कुछ भी पलट जाता है। घोर भी अपनी शारीरिक क्षमता व प्राप्त पद पर अहंकार करने लगे। जो घोर के संवाद से व्यक्त है –
“मैं महाकाल ! मैं यम ! अपनी सीमा में
मैं आत्यंतिक, नियति-नियंता, शासन दुर्निवार!
मैं घोर
मेरे शासन में
नहीं व्यतिक्रम! दया
द्रोह है! दंड्य!
यह मेरा संसार-नरक है
सत्ता की मुट्ठी में जकड़ी....।”[7]

‘मैं’ शब्द अहंकार का प्रतीक है। अगर किसी व्यक्ति अपनी बुद्धि, क्षमता व सौन्दर्य पर गर्व करने लगे समयानुसार वह बोध अहं में तब्दील जाता है। महाभारत में श्रीकृष्ण ने कहा है अगर कोई अहंकार करता है तब उससे श्रेष्ठ का जन्म अवश्य होगा तथा अहं किए व्यक्ति का पतन या ह्रास भी होगा। इसी तथ्य का प्रतीक है ‘प्रियदर्शी’। “अहंकार का अस्तित्व विषय के बोध अथवा उसके अस्तित्व पर निर्भर है। विषय न रहे, तो अहंकार भी लुप्त हो जायेगा। विषय के संबंध से ही अहंता का बोध होता है।” [8]

इस नाट्य का अंतिम व सशक्त पात्र है ‘भिक्षु’। वह बुद्ध का प्रतीक है। मनोवैज्ञानिक शैली में भिक्षु करुणा का प्रतिनिधि है। इसलिए नरक में प्रवेश किए भिक्षू पर अनेक तरह की यंत्रणायें विफल हो जाते हैं । क्योंकि वह किसी भ्रम का गुलाम नहीं। प्रियदर्शी एवं घोर इसी भ्रम में भड़क रहे हैं । “अहंकार भ्रम से उत्पन्न होता है और भाव या व्यक्तिगत आत्मा में व्याप्त रहता है। अहंकार से ही मानसिक चिंतायें, भय और जीवन के बढ़ने वाले काम उत्पन्न होते हैं। अहंकार से बड़ा और कोई शत्रु नहीं है।”[9] उद्धरण में व्यक्त किए असीम चिंता, भय, अहंकार आदि असंतुलित मन का द्योतक है। यंत्रणा का असर न पड़े भिक्षू की चमत्कार को देखने आए प्रियदर्शी को भी घोर का गण बाँधता है। उस वक्त अशोक की प्रतिक्रिया –
“यह क्या है प्रसाद ? तुम
मेरे अधिकृत हो-प्रतिभू! सत्ता का
स्रोत तुम्हारी-मैं हूँ-शासन आत्यंतिक
मेरा है! मत भूलो! घोर!
तुम्हारी मर्यादा है! ”[10]

महाभारत के तहत ‘व्यास’ ने कहा है कि अपने अधिकार पर अहंकार करने वाला व्यक्ति अपनी पतन से पूर्व चेतन युक्त नहीं रहेगा। यहाँ प्रियदर्शी के भीतर ‘मैं’ पनपने के कारण एक नरक का निर्माण हो चुका है। अहं का भाव उसे पूर्ण रूप से अन्धा या अज्ञानी बना दिया। इसी अज्ञान के कारण बाहरी नरक उस पर हावी हो रहा है। प्रियदर्शी के अहंकार को याद दिलाता हुआ घोर का संवाद विचारणीय है –
“और प्रतिश्रुति तेरी?
तेरा शासन राजा,
क्या मुझको हो अनुल्लंघ है?
बँधा हुआ है तू भी!
नरक
स्वयं तूने माँगा था!
‘मुझको नरक चाहिए’। ले,
प्रियदर्शी, परमेश्वर!
अपनी स्फीत अहंता का
यह पुरस्कार! ले। नरक! ”[11]

ज्ञान केवल एक व्यक्ति की अस्मिता नहीं बल्कि एक व्यक्तित्व को गठन करने वाली प्रक्रिया है। जिस व्यक्ति में व्यक्तित्व है वह अहं का वाहक नहीं। मनीषियों का कथन है कि अज्ञानी से भी खतरनाक है अधूरे ज्ञानवाले व्यक्ति। अधूरे ज्ञान वाले व्यक्ति दूसरों के व्यथा पर कथापी व्यथित नहीं होता । उसे अपनी भलाई या जीत का परवाह है। इस तरह के व्यक्ति हर पल भीतर के भ्रम में जीता है। इस तरह भीतरी भ्रम में जीता-जागता है, प्रियदर्शी। जिसे भिक्षु उद्बोधन करके अहंता की नरक से मुक्त करता है। भिक्षु का संवाद –
“जहाँ तुम्हारे अहंकार का!
यम की सत्ता
स्वयं तुम्ही ने दी उसको
*******************
नरक! तुम्हारे भीतर है वह! वहीं
जहाँ से निःसृत पारमिता करुणा में
उसका अघ घुलता है-स्वयं नरक ही गल जाता है।
अहंता जहाँ जगी-भव-पाश बिछे, साम्राज्य बने-
प्राचीन नरक के वहीं खिंच गये :
जागी करुणा-मिटा नरक,
साम्राज्य ढहे, कट गए बंध,
आप्लावित ज्योति के कमल-कोश में
मानव मुक्त हुआ! ”[12]

अहं बोध से चेतन लुप्त व्यक्ति को चेतन युक्त होने के लिए किसी दुस्थिति का सामना करना पड़ेगा। जिसके तहत वह मानवीयता, करुणा, शान्ति आदि अनुभव प्राप्त करता है। यहाँ प्रियदर्शी ने भी भिक्षू के द्वारा ज्ञानार्जन किया तो मन के कल्मष एवं कलंक ध्वस्त हो जाता है तथा करुणा जागृत होती है। अहं से मुक्त प्रियदर्शी का कथन –
“कल्मष-कलंक धूल गया! आह!/
युद्धांत यहाँ यात्रांत हुआ!/
खुल गया बंध! करुणा फूटी!/
आलोक भरा! यह किंकर/
मुक्त हुआ! गत शोक।”[13]

पद-प्रशस्ति, बुद्धी-क्षमता, धन, सौन्दर्य इत्यादि अल्पमात्र है यानी किसी भी क्षण लुप्त हो सकता है। अपने भीतर अहंकार जताने व मिटाने का मुख्य श्रेय परिवेश को है। डॉ.वर्मा कहते हैं, “ यह मनोवैज्ञानिक सत्य है कि किसी परिस्थिति से गुज़र कर ही व्यक्ति उससे ऊँचा उठ सकता है। दर्पस्फीत अहंकार ग्रस्त मन नरकीय विकृतियों का कारण बनता है, किन्तु जब उसे स्वयं ही अपने द्वारा सृष्ट नरक की ज्वाला में जलना पड़ता है तो उसका विकार भस्म हो जाता है और वह निर्मल और निष्कुल हो जाता है। ”[14]

उत्तर प्रियदर्शी की उपादेयता का कारण यह है कि प्रियदर्शी जैसा पात्र आधुनिकता के दौर में भी दृष्टव्य है। आत्म का विज्ञान है मनोविज्ञान , आत्मा का हत्याकारक है अहंकार। मनीषियों का कहावत है जो व्यक्ति अहंकार एवं लालच में मुग्ध हुआ है, तो वह वर्त्तमान में नहीं जीएगा। उसका मन असंतुलित रहेगा। इसलिए अहंता को त्याग कर वर्त्तमान काल में जीने का प्रयास करना है। मानवीयता का वाहक बनकर जीना चाहिए।

सन्दर्भ ग्रन्थ सूची

  1. “Psychology can be defined as the science of the activities of the individual” - Wood worth & Marquise: Psychology, P.2.
  2. An outline of psychology – Mcdougall, William – P.248
  3. भारतीय मनोविज्ञान – डॉ.श्रीमती लक्ष्मी शुक्ला – पृ.49
  4. हिंदी साहित्य कोश, भाग एक – सं: धीरेन्द्र वर्मा – पृ.197
  5. उत्तर प्रियदर्शी – अज्ञेय – पृ.35-36
  6. वही – पृ.40-41
  7. वही – पृ.42-43
  8. भारतीय मनोविज्ञान – डॉ.श्रीमती लक्ष्मी शुक्ला – पृ.148
  9. वही – पृ.148
  10. उत्तर प्रियदर्शी – अज्ञेय – पृ.57
  11. वही – पृ.58-59
  12. वही – पृ.62-63
  13. वही – पृ.64-65
  14. नई कविता को नाट्यकाव्य – पृ.343

प्रत्यूष्. पी, शोधार्थी, हिंदी विभाग, श्री शंकराचार्य संस्कृत विश्वविद्यालय, कालडी, केरल. संपर्क : 8075701723