Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

बुढ़ापे की टूटती लाठियाँ: गिलिगडु

भारतीय संस्कृति पूरे विश्व में ख्यात है। खान-पान हों, रीति-रिवाज हों, रहन-सहन हों सभी विश्वविख्यात हैं। संयुक्त परिवारों में जिस तरह दादा-दादी, नाना-नानी बच्चों को कहानियाँ के माध्यम से विभिन्न धार्मिक-सांस्कृतिक मूल्यों को समझा-बता देते है वैसा अन्यत्र दुर्लभ है। संयुक्त परिवारों की यह भी विशेषता है कि वहाँ बच्चे भी कब बड़े हो जाते है पता नहीं चलता। “पाश्चात्य देशों से आकर विद्वान, चितंक और पर्यटक भारत में संयुक्त परिवार देखकर दांतों तले अंगुली दबाने पर मजबूर होते रहे हैं।”[1]

पर ये भी सच है कि संयुक्त परिवारों की परंपरा अब बहुत सीमित रह गई। पढ़-लिखकर रोजगार के लिए घर से, अपने शहर से दूर जा कर जो बसे वे अकेले ही बसे। महानगरों में सब कुछ महँगा है। साथ ही सभी के पास समय का अभाव है। नौकरी की तलाश में महानगर आना भी आवश्यक है। जीवन की इसी आपाधापी में घर-परिवार पीछे छूट जाता है।

हिंदी कथा जगत् में चित्रा मुद्गल की विशिष्ट पहचान है। धारदार कहानियाँ से समकालीन यथार्थ को परत दर परत प्रस्तुत करती हैं। उनकी रचनाओं में अद्भूत भाषिक संवेदना है जो पाठक को चकित कर देती है। ‘गिलिगडु’ चित्रा जी का छोटा उपन्यास है किंतु उसकी संवेदनशीलता बहुत गहरी है। डॉ. रमेश चंद मीणा उपन्यास के लिए कहते हैं-“पाठक सारी रचना में एक पात्र (जसवंत सिंह) के माध्यम से गुजरते हैं। पाठक एक बड़ा, पूरा व्यापक पैमाने पर खींचे व्यक्ति चित्र के सामने अपने आपको खड़ा पाते हैं।... सारी कहानी तेरह दिनों में सिमटी है। एक वृद्ध की तेरह दिनों की दैनिकी को देखते। सुनते या अपने सामने घटता हुआ पाते हैं। रचना सात खंडो में बँटी है।”[2]

इस उपन्यास में एक सेवानिवृत बाबू जसवंतसिंह की कथा को विभिन्न कोणों के साथ कहा गया है। बाबू जसवंतसिंह कानपुर में रहते थे। नौकरी में रहते हुए अनेक जगह रहे, पर उन्हें बसने के लिए कानपुर ही ठीक लगता। मकान बना, वहीं बसे। वे कहते हैं-“लोगों को कानपुर चाहे जितना गंदा, बेतरतीब, पिछड़ा, दंगे-फसादों वाला हिकाता शहर लगे। उनके लिए तो आत्मीय सुख-सुविधाओं का पर्याय ही रहा है। देश का मेनचेस्टर यूं ही नहीं कहा जाता रहा उसे।”[3]

छोटे शहर की सबसे बड़ी विशेषता है कि वहाँ आपको सब पहचानते हैं। किसी से कहलवाकर भी कोई भी सामान मंगवाया जा सकता है। एकाएक पैसा देने की भी जरूरत नहीं जब हो तब दे दो। जसवंत बाबू ने भी बड़ा सा प्लॉट ले अपनी पसंद का मकान बनवा लिया। संयोग से उनके घर के सामने नगर पालिका ने शानदार बगीचा बनवा दिया। बगीचे में पक्षियों का कलरव, ठंडी हवाएँ सब कुछ सुकुन देने वाला था।

घर के पीछे गैरेज में ‘रामआसरे पासी’ को बसा लिया ताकि उसकी पत्नी सुनगुनियां घर के कामकाज कर दे। बस्ती भी हो गई, सुविधा भी। सब कुछ बढ़िया से चल रहा था। लेकिन एक दिन अचानक नरेन्द्र की अम्मा को सुबह चार बजे पीठ में भंयकर पीड़ा हुई। दर्द को कम करने के लिए बाबू जसंवत ने कोम्बीफ्लेम दे दी और पीठ पर वोलिनी मल दिया। शायद थोड़ा आराम मिला था लेकिन सोई तो वापस उठी ही नहीं। डॉक्टर को बुलाया भी लेकिन ‘साइलेन्ट अटेक’ ने हमेशा के लिए चैन की नींद सुला दिया था। बाबू जसवंतसिंह के लिए यह अप्रत्याशित था। वे समझ ही नहीं पा रहे कि अब कैसे जीया जाएगा। वो कभी-कभी यह सोच लेते थे कि उनके न रहने पर दिन चैन से कटेगे यह उनका कितना बड़ा भ्रम था। पत्नी के जाते ही वे कैसे अकेले-अकेले रह गए। “अकेलापन साग भाजी नहीं जो आसानी से कट जाए।”[4]

सबकी राय मानकर बेटे के यहाँ आ गये। अपना घर, अपना सामान जो कुछ भी था, वही छोड़ कुछ कपड़ों के साथ आ गए। जहाँ उन्हें कमरा तो नहीं, एक बालकनी में रहने का स्थान मिला। पहले ही दिन वे उस फ्लैट से बाहर कर दिये गए। उन्हें बड़ी हैरानी हुई कि उनका बेटा उन्हें बालकनी में रहने को कह रहा है। जहाँ ब्लेक स्लाइडिंग ग्लास लगवाकर बंद किया जा रहा है। उन्होंने कहा भी....”दबी जबान से उनके आपत्ति प्रकट करने पर कि रात उन्हें कई दफे पेशाब करने के लिए उठना पड़ता है और इस बालकनी में दिक्कत होगी।”[5]

लेकिन उनकी बात पर नरेन्द्र ने कोई तवज्जों नहीं दी। धीरे-धीरे बाबू जसवंतसिंह ने भी उसे अपने कमरे के रूप में स्वीकार कर लिया और कोई उपाय भी नहीं था, उनके पास। बुढ़ापा और अकेलापन धीरे-धीरे उनकी लाचारी बढ़ा रहा था। घर में थोड़ी देर बैठकर उनसे बातचीत कर ले उनका हाल पूछ ले, इतना समय किसी के पास है ही नहीं। उन्हें घर के कुत्ते को घुमाने की जिम्मेदारी सौंपी गई। अन्यथा वे अपने बेटे के घर में बिल्कुल गैर जरूरी थे। वे स्वयं सोचते कि चलो किसी को तो मेरी जरूरत है-“कानपुर आते ही इस उन्हें इस बात से प्रसन्नता हुई थी कि चलो बेटे-बहू ने टॉमी की जिम्मेदारी सौंपकर उन्हें अपने गृहस्थी की किसी जिम्मेदारी के काबिल तो समझा। अब तो उन्हें यह भी लगने लगा है कि इस घर में वे सही अर्थों में किसी के लिए बुजुर्ग है तो वह केवल टॉमी है।”[6]

टॉमी को उनके ही कमरेनुमा बालकनी में ही बाँध दिया गया। वे रोज उसे घुमाने ले जाते। कभी थोड़ी देर तक सुस्ताने का मन भी हो तो वे सो नहीं सकते थे। टॉमी अलार्म के साथ ही उठ जाता और जसवंत बाबू के न उठने पर घड़ी नीचे गिरा देता। उसकी उद्दंडता से वे डर गये कि कभी गुस्से में वह हमला न कर दे उन पर। एक दिन जब वे टॉमी को घुमाने ले गए तो टॉमी ने उन्हें गिरा दिया जिस पर एक अजनबी ने उन्हें सहारा दे उठाया-“अरे, अरे चोट अधिक तो नहीं आई आपको? रुकिए, रुकिए, जल्दी न मचाइये उठने की। लीजिए हाथ पकड़िए, संकोच न किजिए।”[7] हाथ पकड़कर अजनबी ने उन्हें उठा लिया और उन्हें समझाया कि चप्पल पहनकर सैर नहीं करते। और कुत्ते के साथ सैर करना भी अपनी हड्डिया तुड़वाने को न्यौता देना है। जसवंत बाबू को अजनबी की बातें बहुत अच्छी लग रही थी। उन्हें लगा कोई तो है जो उनकी चिंता कर रहा है वरना घर में उनके लिए किसी के पास न समय है, न परवाह। अजनबी उनके साथ-साथ चलते हुए उन्हें घर तक छोड़ने आया। जसवंत बाबू की हिम्मत नहीं हुई कि उन्हें घर बुलाकर चाय पिला सके। अजनबी ने अपना परिचय दिया और सुबह मिलने का वादा कर निकल गए। वे भी रिटायर्ड कर्नल थे-बाय दि वे- “हमें विशनू-नारायण स्वामी कहते है-रिटायर्ड कर्नल स्वामी। नोयडा में रहता हूँ। जमुना किनारे के लहलहाते खेत हमें इस ओर खीच लाते है। खेतों में खड़ी गन्ने की फसल की मीठी महक दुर्लभ हो रही।”[8]

दोनों को ही बात करना अच्छा लग रहा था। हमउम्र होने से एक दूसरे की तकलीफों को बेहतर समझ रहें होगे। कर्नल स्वामी ने उन्हें अच्छे जूते पहनने की सलाह दी। साथ ही चोट से हो रहे दर्द से राहत के लिए ‘अर्निका-30’ लेने को कहा। कर्नल स्वामी उन्हें गेट पर छोड़ कल उसी जगह मिलने का वादा कर निकल गए जहाँ आज मिले थे। अगले दिन कर्नल स्वामी जूते व अर्निका साथ ही लेते आए थे। जसवंत बाबू को जूते पहनाकर सैर पर ले गए। जसवंत बाबू के मन में ख्याल आया उनका बेटा भी रोज उन्हें चप्पल में देखता है पर कभी उन्हें ख्याल नहीं आया कि पिता को जूते पहनवा दे। उनको अपना जमाना याद आ गया। जूते और कपड़े के खासे शौकिन थे खास कर जूतों के उनका मानना था जूते-“आदमी की मान-प्रतिष्ठा, महल-अटारी में नहीं आइना बने जूतों मे बसती है। जूते लकदक न हो तो मर्द की चाल महरियों-सी छमछमाने लगती है।”[9] किंतु पत्नी के देहान्त के बाद दिल्ली आते हुए वे अपने सारे जूते गाँव में बाँट आये थे। बेटे के उत्साह रहित स्वर से खिन्न होकर। बेटे को लग रहा था अब पिताजी को जूते की क्या जरूरत है। सो वे एक भी जोड़ी अपने साथ नहीं लाए।

कर्नल स्वामी ने उनका ध्यान खेतों के बीचों-बीच मड़ैया पर खींचा। खेत में दिखती मैंनाओं को देख उन्हें अपनी पोतियाँ याद आ गई। पोतियों के बारे में बात करते उनके चेहरे पर उत्साह और चमक साफ दिखाई दे रही थी। जसवंत बाबू को गिलि का अर्थ चिड़िया बताते हुए कहते हैं- “लेकिन मेरी गिलिगडु हैं मेरी जुड़वा पोतियाँ चहकती, फुदकती, मस्ती करती, ‘हुड़दगें मचाती। कुमदनी और कात्यायिनी...उफ् कैसी धमाल हैं दोनों! पूछिए मत।”[10]

कर्नल स्वामी अपने परिवार के बारे में बताते, अपने घर में अपने सम्मान का बखान करते तो जसवंत बाबू को लगने लगता की उन्हें उनके घर में बिल्कुल सम्मान नहीं मिलता। कहने को उनके भी दो पोते हैं लेकिन वे कम्प्यूटर में खेल-खेलने में व्यस्त रहते हैं। यहाँ अनामिका जी याद आती हैं-“कम्प्यूटर दादा, मोबाइल दादी, टेलीविजन बुआ, कोचिंग चाचा, मम्मी और डैडी-बस इतनी सी दुनिया हो।”[11] वे क्या घुलेगे-मिलेगे। फिर भी-उन्होंने प्रयास भी किया कि वे अपने पोतों से घुले-मिले, उनकी पसंद की जगह ले जाकर पार्टी भी करे। किंतु पोतो ने कोई दिलचस्पी नहीं दिखाई दादा के साथ जाने में। जिससे जसवंत बाबू में जो थोड़ा बहुत जोश आया था वह भी जाता रहा। वे रह भले बेटे के घर में रहे थे लेकिन घर में घुसते ही उन्हें लगता किसी अजनबी के यहाँ आए हैं। इस उम्र में जिस अपनेपन की दरकार उन्हें है वो नहीं मिलता। बेटा अपनी नौकरी में व्यस्त है, शाम को घर आने पर भी पिता के साथ थोड़ी देर नहीं बैठता, सुबह की चाय के साथ भी वो अपनी ई-मेल देखता है और उनके उत्तर देता है। अनामिका अपने उपन्यास ‘तिनका-तिनके पास’ में बच्चों की व्यस्तता के संबंध में लिखती हैं “दुलारू’ राम जब कमाऊ राम बन जाते हैं तब इनके फुर्सत के दो पल भी उनके वृद्ध अभिभावकों को मुश्किल से नसीब होते है।”[12] जब बेटे ही अपने माता-पिता को वक्त नहीं देते तो घर के अन्य सदस्यों से उम्मीद करनी व्यर्थ है।

सुबह की सैर पर कर्नल स्वामी से मिलना जसवंत बाबू के लिए बड़ा सुखद था। वे उनसे बातें कर बहुत हल्का महसूस करते। किंतु उन्हें मन ही मन ईर्ष्या भी होती उनके संयुक्त परिवार की बातें सुन। कर्नल स्वामी ने अपने परिवार का परिचय करवाते हुए बताया-“पत्नी नहीं है। उन्हें गए हुए बरसों बीत गए। तीन बेटे हैं, तीन बहुएँ हैं। बड़े बेटे के दो युवा बेटे हैं-श्रीधरन, श्रीनिवासन। मंझली बेटे-बहू की नन्हीं गिलीगडु हैं। छोटे बेटे और छोटी बहू यानि कि श्यामली और प्रभाकरन के कोई बच्चा नहीं हैं। .....पूरा परिवार साथ ही रहता है।”[13] कर्नल स्वामी के अनुसार पत्नी के जाने के बाद से बच्चे उनका विशेष ख्याल रखते हैं। नौकरी के समय दुर्गम मोर्चों पर तैनाती के कारण घर-परिवार के साथ कम रह पाए सो बच्चे चाहते हैं उन्हें खूब पारिवारिक सुख मिले। इसलिए सब साथ रहते हैं।

कुछ ही दिनों की जान-पहचान ने जसवंत बाबू को कर्नल स्वामी से गहराई तक जोड़ दिया। दोनों साथ-साथ सुबह की सैर करते और खूब बतियाते। कर्नल स्वामी ने उन्हें बातों में बातों में लगभग अपने बारे में सब बता दिया लेकिन जसवंत बाबू अपने परिवार और उनसे स्वयं के संबंधों का ब्यौरा उन्हें नहीं दे पाए। कैसे कहते कि बहु सुनयना को वे उनका उत्साह से भरा होना नहीं सुहाता। कैसे कहते कि बेटे को उनका कोई शौक ठीक नहीं लगता। कैसे कहते कि बेटी अब उनका पक्ष लेने बजाय भाई-भाभी के पक्ष में है, चाहती है कि वे लॉकर कर सरेंडर कर दे और गहने बाँट दे। उनके दोनों बच्चे सोच रहे हैं कि उन्हें वृद्धाश्रम भेज दे ताकि उनका मन लगा रहे और बेटे को अमेरिका जाना पड़े तो वे आराम से जा सके।

बाबू जसवंत सिंह को जूते लाकर कर्नल स्वामी ने सुबह की सैर के लिए नियमित कर दिया था। अब वे कुर्तें-पायजामें के बजाए ट्रैक-सूट पहन घूमने जाते बिना निमय तोड़े। पिछले दो-तीन दिन से कर्नल स्वामी उन्हें नहीं मिल रहे थे। जाने क्या-क्या विचार उनके मन में आने लगे थे। बुरे विचारों को छिटककर वे सोचते कि कहीं बाहर चले गये होगे या कि कहीं अपनी प्रिया से मिलने नैनीताल चले गये होगें।

कर्नल ने ही उन्हें बताया था कि एक इतवार सैर से लौटने के बाद अखबार देख रहे थे जिसमें एक दिलचस्प विज्ञापन था-“तलाश है एक पेंशनयाफ्ता विधवा रीडर को एक अकेले या विधुर जीवनसाथी की जो जीवन के आखिरी पड़ाव में उनका हमसफर बन सके। शादीशुदा एक लड़के और दो जवान बाल-बच्चों वाली बेटियों की माँ वह अपने दायित्वों से मुक्त हो चुकी है। बच्चे अपनी घर-गृहस्थी में रमे हुए हैं। और उन्हें अकेलापन काट रहा है। इच्छुक व्यक्ति अपना फोटो, परिचय सहित विचारार्थ प्रेषित करें।”[14]

यह विज्ञापन कर्नल को बिल्कुल वैसा ही लगा जैसे मोर्चे पर मुस्तैद फौजी हो। उन्होंने इस महिला से पत्र-व्यवहार किया और जारी भी रखा। एक बार मिलने के लिए उन्हें नैनीताल बुलाया क्योंकि अणिमा दास को यह जगह बहुत पसंद है। पसंद तो जसवंत बाबू को भी शालिनी थी। जब एक बार आगरा में बीमार हुए थे, तब शालिनी ने अलीगढ़ से फोन, हालचाल पूछने के लिए किया था। फोन पर बात करने से पता चला गया था कि वे बीमार हैं। वह रात बारह बजे उनके पास पहुँच गई थी। रात भर उनके माथे पर अपनी हथेली टिकाएँ बैठी रही थी। याद करते है तो आज भी दिल की धड़कने तेज हो जाती है।

उम्र कोई भी हो हर व्यक्ति को प्रेम और अपनापन चाहिए। खासकर जब उम्र का बढता पड़ाव हो तो अपनेपन की खास जरूरत होती है। घर के बड़ो-बूढ़ो को थोड़ा समय, थोड़ी तवज्जो बहुत है समय निकालने के लिए। वे स्वयं भी जानते हैं कि उनका जितना खाली समय घर के बाकि सदस्यों के पास नहीं है। लेकिन कुछ देर तो उनके पास बैठा ही जा सकता है, रोज नहीं तो कभी-कभी ही सही।

जब तक कर्नल स्वामी से दोस्ती नहीं हुई थी तब तक जसवंत बाबू अपनी बिल्डिंग में अपना हम उम्र ढूढ़ते थे ताकि कुछ देर बैठ कर बातें कर सके। लेकिन घर से उन्हें हिदायत थी हर तरफ से घुलते मिले नहीं। जसवंत बाबू को लगता वे कानपुर से दिल्ली आए ही क्यूँ। वहाँ सुनगुनियां उनका ध्यान भी रखती और सम्मान भी करती। उसने तो कहा ही था-“नहीं भूल पाते बाबू जसवंत सिंह कि नरेन्द्र की ओट होते ही आँखों में आंसू भरकर सुनगुनियां ने उन्हें घेरा था। जाने को मालिक दिल्ली जा रहे हैं बेटे-बहू के हियां। राजी-खुशी रहें। पर मालिक अपनी देहरी-दुआर की सुध बनाए रखें। गूं-मूत उठाने का सौभाग्य गरीब सुनगुनियां को भी दे।”[15]

सुनगुनियां, जसवंत बाबू के घर के पीछे बने गैरेज में सपरिवार रहती थी। घर में चौका-बासन करती, दरवाजे झाडू, बुहारू, तपती गरमियों में पानी का छिड़काव-सब उसके जिम्मे था। वह सब खुशी-खुशी करती और अपने बच्चों के साथ वहीं गैरेज में रहती। दिल्ली के छोटे से फ्लैट में बालकनी को कमरे के रूप में पाकर जसवंत बाबू बहुत आहत हुए थे। उन्हें अपना कानपुर वाला घर बहुत याद आता जिसे उन्होंने खूब दिल से बनवाया था। कर्नल स्वामी से मिलकर वे अपना कुछ गम भूलने लगे थे। कर्नल बहुत जिंदा दिल इंसान थे, सो दोनों की खूब जमने लगी। वे उन्हें दिल्ली घूमा लाए, एक बार पिक्चर दिखा लाए। यहाँ तक की एक बार दोनों होटल में पीने भी साथ बैठे और कई पुरानी यादों को ताजा किया।

बाबू जसवंत, कर्नल के साथ सैर करते हुए उनको बहुत जान गए थे। दोनों अपने मन की बातें सुबह ही कर लेते। उनसे मिलने के बाद जसवंत बाबू को दिल्ली ठीक लगने लगा। वे पहले किसी भी समय घूमने चले जाते थे लेकिन कर्नल स्वामी से मिलने के बाद तो निर्धारित समय से जाने लगे। कुछ दिन सिलसिला यूँ ही चला। एक दिन कर्नल घूमने के निर्धारित स्थान पर समय से नहीं पहुंचे। जसवंत बाबू इंतजार करते रहे। एक दिन दो दिन, तीन दिन समय बीतता रहा, बेचैनी बढ़ती रही। कर्नल स्वामी का सुबह न आना जसवंत बाबू के लिए पीड़ादायक होने लगा। उन्होंने फोन पर बात करने का प्रयास किया। लेकिन फोन घर पर किसी ने उठाया ही नहीं। कई दुश्चिंताएँ, बुरे विचार उन्हें आने लगे। पर सबको दूर छिटक वे 13 वें दिन उन्होंने कर्नल स्वामी के घर जाने का निर्णय लिया। उन्हें याद है कि एक दिन कर्नल ने उन्हें घर का पता बताया था। बार-बार फोन करने पर भी किसी ने नहीं उठाया तो उन्होंने 197 पर फोन के बारे में और घर का पूरा पता पूछा। 197 ने बताया-“फोन बिल्कुल ठीक है। घर पर शायद कोई है नहीं। वे पता नोट कर लें- ई-303, सेक्टर छब्बीस, नोएडा।”[16]

टैक्सी से कर्नल स्वामी के घर जाएँगे और टैक्सी वाले से पहले ही कह देंगे एक-डेढ़ घंटे रुकना पड़ेगा। क्योंकि उनका दोस्त उन्हें बिना चाय नाश्ते के जाने नहीं देगा। कर्नल स्वामी ने एक इतवार दिन का खाना अपने घर रखा था। वे अपने पूरे परिवार से जसवंत बाबू को मिलना चाहते थे। लेकिन अचानक कोई न कोई अड़चन आ जाती और ये कार्यक्रम फिर आगे खिसक जाता। लेकिन अब 13 दिन लगातार कर्नल के सैर पर न आने से जसवंत बाबू ने घर जाकर मिलना ही तय किया। रास्ते से अच्छी मिठाई की दुकान से काजू कतली पैक करवा के, गिलिगडू के लिए चॉकलेट, केक और आइसक्रीम पैक करवायी। खोजते हुए वे कर्नल के घर पहुँच गये। तीसरे माले पर पहुँच कर अधीर हो उन्होंने घर की घंटी बजाई। 13 दिन जसवंत बाबू को 13 बरस लम्बे लगे थे। वे बार-बार घंटी बजा रहे थे, पर कोई दरवाजा खोलने नहीं आया। उनका उत्साह ठंडा पड़ने लगा, क्रोध भी आने लगा कि सपरिवार कहीं बाहर गए तो इत्तिला क्यूँ नहीं की। बहुत सोचते-सोचते उन्होंने पड़ोसी के घर की घंटी बजाई। पड़ोसी महिला ने दरवाजा खोला और पूछा कि वे कौन हैं और कैसे आए हैं।

बाबू जसवंत बाबू ने अचकचाते हुए कहा कि वे कर्नल स्वामी के दोस्त हैं, पास ही मयूर विहार से आए हैं। सफाई देते हुए यह भी कहा कि बहुत दिनों से वे सैर पर नहीं आए तो सोचा मिल कर आऊँ। महिला के स्वर अनायास तल्ख हो गए वे बोलीं-
‘आप उनके दोस्त हैं और आपको नहीं मालूम?
जी...।
आपके दोस्त कर्नल स्वामी अब इस दुनिया में नहीं रहे...।
मतलब?
खत्म हो गए। ईश्वर को प्यारे हो गए।

ये सुन बाबू जसवंत का सिर घूमने लगा, वे जहाँ खड़े थे वहीं दीवार का टेका लेने लगे। महिला समझ गई थी, उन्होंने हाथ का सहारा दे उन्हें भीतर बैठक में सोफे पर बिठाया, पानी पिलाया और कॉफी लाने से पहले पूछा भी कि वे ठीक हैं या डॉक्टर को बुलाया जाए। जसवंत बाबू इस विडंबना को झेलने का साहस जुटा रहे थे। वे तो क्या-क्या सोच कर आए थे। यहाँ उन्होंने क्या सुना। कॉफी पीते हुए थोड़ा सहज होते ही उन्होंने सबसे पहले यही पूछा ‘कब’। महिला ने बताया आज उन्हें गए हुए 12 दिन हो गए-
“भाई साहब हमेशा की भांति प्रसन्नचित्त सुबह की सैर के लिए निकले। सात-आठ सीढ़ियाँ उतरते ही उनके सीने में अचानक भयंकर दर्द उठा। कुछ देर बाद हिम्मत जुटाकर उन्होंने हमारे घर की घंटी बजाई। .........उन्हें देखते ही डॉक्टर ने कह दिया भाई साहब को दिल का दौरा पड़ा है।...रास्ते में उन्हें दूसरा सीवियर अटैक हुआ और उस अटैक को भाई साहब झेल नहीं पाए।...महिला की बातें सुन वे सोचने लगे कि भरे-पूरे परिवार के होते हुए कर्नल स्वामी अकेले कैसे ये क्या सब कहीं गए हुए थे। पूछने पर पता चला पिछले आठ वर्षों से वे अकेले रह रहे थे। मिसिज श्रीवास्तव ने बताया कि चौरानवें में पत्नी की मृत्यु के बाद कर्नल स्वामी अकेले हो गए थे। तीनों बेटो ने तब तक नई नौकरियाँ पकड़कर नए भविष्य की तलाश में नए शहरों में बस गए। वे अपने पिता के प्लॉट को बेचकर अपने घर बनाना चाहते थे। एक बार दे देने के बाद भी वे और पैसा मांग रहे थे। ना देने पर मारपीट करते। बहू अनुश्री जिसकी दो जुड़वा बेटियाँ थी उसने अपने नृत्य गुरु के साथ रहना शुरू कर दिया। डेढ़ साल की जुड़वा मासूम बेटियों को छोड़। दादी ने बड़े जतन से पाला-पोसा। दादी के न रहने पर उनका पिता उन्हें ले गया और हैदराबाद में ही हॉस्टल में डाल दिया। वे बोली-“बच्चियों की तस्वीरें कर्नल स्वामी ने पूरे घर में लगा रखी थी। श्रीनारायण से छिपाकर वे हैदराबाद बच्चियों से मिलने अक्सर जाया करते थे। होटल में रहते थे।.... हॉस्टल की वार्डन मिलिट्री के उनके एक जिगरी दोस्त की विधवा है।” [17]

मिसिज श्रीवास्तव के कोई संतान नहीं है लेकिन वे कहती हैं उन्हें कोई गम नहीं इस बात का क्योंकि जिनके तीन-तीन पुत्र हैं वे भी तो रह अकेले ही रहे हैं। मृत्यु की सूचना देने पर भी एक बेटा-बहू आए और दाह संस्कार कर चौथे से पहले चले गये। और जाते-जाते कह गये इस घर का सामान बेचना है उनके किसी का काम का नहीं और मकान भी बेचना है। कर्नल खाना भी स्वयं ही बनाते थे। ऐसी मुलायम इडली बनाते थे कि अच्छे-अच्छों से न बने। रोज शाम चार बजे मलिन बस्तियों के बच्चे आते थे जिन्हें वे मेदु बड़ा और इडली बड़े चाव से खिलाते हो और पढ़ाते। ये सब सुन बाबू जसवंत अपनी आँखें छिपाते हुए खड़े हो गए और कहा कि केक और आइसक्रीम उन्हीं बच्चों को बाँट दे। सीढ़ियां उतरते हुए देखते रहे कि कौनसी सीढ़ी होगी जिस पर उनका मित्र अंतिम सांस ले रहा था-“कौन-सी सीढ़ी है वह! उसी सीढ़ी पर वह पांव नहीं रखना चाहते। उसे हाथ से छूना-टटोलना चाहते हैं। प्राण कहीं भी निकले हो, सांसे छूटनी यही से शुरू हुई....।”[18]

कर्नल स्वामी के ऐसे चले जाने से जसवंत बाबू फिर से अकेले हो गए। मन तो बहुत जोर जोर से रोने को कर रहा था लेकिन नहीं रोये। उन्हें अजीब-सा लग रहा था, आंखें खोलते ही लगता जैसे एक ही चीज दो-दो दिखाई दे रही है। वे सोचने लगे कहीं आंखों का नंबर बदल तो नहीं गया, मोतियाबिंद का ऑपरेशन हुए बरसों बीत गए हैं। ड्राइवर से पूछने पर जो ड्राइवर ने कहा उससे उन्हें आभास हुआ लाख न चाहने पर भी आँखों के रहट पानी उलीच रहे हैं-“बाऊजी सब ठीक है आपने अपनी आंखें पोंछ लेनी है।’ ऊपरवाले ने जिसकी जितनी लिखी होती है बाऊजी उतनी ही होती है।[19]

बाबू जसवंत सिंह को अपने जेब में से कर्नल स्वामी की दी वह कविता मिली जो उन्हें अणिमा दास ने भेजी थी। यह वही कविता है जो उनसे खो गई थी। वे उसे पढ़ने के लिए व्यग्र हो गए। कविता पढ़ते-पढ़ते ही उन्होंने तय कर लिया कि वे अपने जीवन की गति को जड़ नहीं होने देंगे। वे घर जाने से पूर्व ही कानपुर का टिकट कटवाएंगे, फिर एस.टी.डी. बूथ से फोन कर सुनगुनियां से बात करेंगे। वे उसे कहेंगे कि अपने और उसके रिश्ते को वह जो भी नाम देना चाहे दे। उन्हें स्वीकार होगा, उसे ही चुनना है। उसे अनाम रूप से ही अपने भीतर जीते रहे हैं और आगे भी शायद जीते रहते थे अगर आज यह कविता नहीं पढ़ी होती तो। वे आज बहुत कुछ करना चाहते हैं वे कहना चाहते है-“वे जीवन का यह नितांत नया पड़ाव अपनी गिलिगडू कात्यायिनी-कुमुदनी के साथ बिताना चाहते हैं। वे कानपुर वाले घर के सामने वाले बरगद को अपने घर में रोपना चाहते हैं। नहीं भूल पाते कि मुंह अंधेरे उनके उठने से पहले एक चिड़िया चहकती हैं फिर खो-खो खेलती हुई-सी वह दूसरी को जगाती हैं.....।”[20]

जसवंत बाबू अपने परिचित एडवोकेट से बात कर नई वसीयत बनाएंगे और उसे रजिस्टर्ड करवाएंगे कि कानपुर वाला घर उनकी पैतृक संपत्ति नहीं है। यह मकान उनकी अर्जित संपत्ति है। उनके न रहने पर उस घर की एकमात्र अधिकारिणी सुनगुनियां होगी। वे उसके नाम एक नया लॉकर भी लेगे। लॉकर उनके नाम लेने से कोई विवाद नहीं होगा। वैसे उन्हें पूर्ण विश्वास है कि सुनगुनियां किसी भी प्रकार की चुनौती का सामना करने में समर्थ है। चूँकि यह वही सुनगुनियां है जो अपने पति की मृत्यु के बाद गांव से किसी बूढ़े से विवाह करने के बजाय जसवंत बाबू के घर आ गई थी। अपने सारे-रिष्तेदारों से पीछा छूड़ा कर, अपने बच्चों का पालन-पोषण अपने बल पर करने के विश्वास के साथ। घरों में काम कर उसने अपना घर-खर्च चलाया भी और साथ जसवंत बाबू के गैराज में रह कर उनके घर के काम को भी संभाला।

जसवंत बाबू को लगता है कि वे दिल्ली के बजाय अपने घर में ज्यादा सकुन से रह सकेगे। वे सुनगुनियां की बेटियों को पाल-पोस कर अपने जीवन को अधिक सार्थक कर पाएगें। वे जानते हैं उनके इस निर्णय से उनके बेटे नरेन्द्र को धक्का लगेगा, उसके प्रति घृणा होगी, लेकिन वे अपना निर्णय नहीं बदलेगे। वे नरेन्द्र को किसी लोकोपवाद में नहीं घसीटना चाहते, जो कुछ भी हो रहा है या होगा उसके वे स्वयं जिम्मेदार होंगे। उनके मरणोपरांत उनकी कपालक्रिया भी न उनका, न ही सुनगुनियां का बेटा करेगा बल्कि ये अधिकार भी वे सुनगुनियां को ही दे रहे हैं।

इस उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता यह है कि इसमें वृद्धों के जीवन की स्थिति का बड़ा मार्मिक और यथार्थ चित्रण है। उपन्यास का पढ़ते-पढ़ते कई बार आँखे नम हो जाती है। जो माँ-बाप अपना पूरा जीवन बच्चों के लिए लगा देते हैं वे ही बच्चे उन माँ-बाप को बोझ समझने लगते है। बड़ी उम्र में जब उन्हें जरूरत है उनके पास न समय है ना सहानुभूति। पालतू कुत्ते से प्यार जता लेगे, उनकी पसंद की टी.वी. चैनल लगा देगे, उनके लिए पसंद के बिस्किट ला देगे लेकिन यही सब काम घर के बुजुर्ग के लिए करने में कष्ट होता है, बोझ लगता है। घर के सदस्य उन्हें इग्नोर करते हैं। उन्हें घर के ऐसे कोने में जगह देते हैं जिसमें उनके रोजमर्रा के जीवन में खलल ना पड़े। वृदावस्था के रोग उन्हें तकलीफ देते हैं। जबकि ये रोग वे स्वयं नहीं चाहते। जसवंत बाबू का ये पूछना कि-“घर में बच्चों की शिकायतें नहीं आती। बुड्ढ़ों की आती है। इस सोसायटी के लोग शायद कभी बूढ़े नहीं होंगे। न उनकी शकित क्षीण होगी न स्मृति। ऐसे अजर-अमर जन्में हैं, न कभी कोई कष्ट व्यापेगा न हारी बीमारी।”[21]

उम्र के हर पड़ाव के अपने सुख-दुःख हैं। सब दिन एक से नहीं रहते लेकिन ये समझ शायद व्यक्ति को बहुत देर से आती है। कानपुर जा कर सुनगुनियां के साथ रहने का निर्णय बाबू जसवंत ने यूही नहीं लिया। बार-बार खुद को प्रताड़ित होते कोई कब तक सहेगा। तुलसीदास जी का दोहा याद आ जाता है-
आवत ही हरषे नहीं, नैन न उमंगे नेह,
तुलसी वहाँ न जाइए, कंचन बरसे मेघ।

ऐसी जगह क्या जाना, क्या रहना। जसवंत बाबू भी भीतर तक दुखी थे। फिर जो मित्र अपने परिवार की, परिवार के स्नेह की, अपनेपन की बाते करता जो था सब झूठी थी। मित्र के अकेलेपन के कष्ट को भी वे समझ रहे थे। कर्नल स्वामी ने हमेशा उनसे अपने परिवार की तारीफ की जबकि परिवार के लोग उनसे मारपीट करते थे। जसवंत बाबू को लगा कि अपने लोगों के बीच गैरो के समान रहने से बेहतर है कि गैरो के बीच अपनों सा रहा जाए। वे जानते हैं पोते उनसे कभी घुल-मिल नहीं सकेगे जबकि सुनगुनियां के बच्चे उन्हें अपना पालनहार मानते है। दुनिया क्या सोचेगी, लोग क्या कहेगे इस सब के बारे में सोचने के बजाय स्वयं के बारे में सोचने के बजाय स्वयं के बारे में सोचना ज्यादा तर्क संगत है।

चित्रा जी ने इस उपन्यास में जिस तरह से जसवंत बाबू और कर्नल स्वामी की स्थितियों को बयां किया है वह प्रशंसनीय तो है ही साथ ही हमें चेतावनी भी देती हैं कि समय कैसा कठिन आ रहा है। हम अपने घरों में अपनों के ही बीच बेगाने होते जाएँगे। भारतीय मूल्यों का विघटन होता जा रहा है। एकल परिवारों के बढ़ते चलन ने मनुष्य को सबसे दूर कर दिया है। परपंरागत पारिवारिक ढाँचे के टूटने से भी इस समस्या को बढ़ावा मिला है। वरना तो-
“घर में हैं बूढ़े लोग
रोशनदान की तरह
रखना ख्याल इनका
अपनी जान की तरह
बुजुर्ग तो है पेड़
छाया इनकी है घनी....।”[22]

संदर्भ ग्रंथ

  1. रमेश चंद मीणा : वृद्धों की दुनिया, वृद्ध, वृद्धावस्था और वृद्धाश्रम, लता साहित्य सदन, गाजियाबाद, 2015, पृ. सं. 35
  2. वही, कुत्ते की पसंद, पृ. सं. 204
  3. चित्रा मुद्गल : गिलिगडु, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृ. सं. 27
  4. वही, पृ. सं. 87
  5. वही, पृ. सं. 56
  6. वही, पृ. सं. 10
  7. वही,पृ. सं. 12
  8. वही, पृ. सं. 14
  9. वही, पृ. सं. 20
  10. वही, पृ. सं. 21
  11. अनामिका: तिनका-तिनके पास, वाणी प्रकाषन, दिल्ली, 2008, पृ. सं. 84
  12. वही, पृ. सं. 148
  13. चित्रा मुद्गल: गिलिगडु, सामयिक प्रकाशन, नई दिल्ली, 2003, पृ. सं. 23
  14. वही, पृ. सं. 77
  15. वही, पृ. सं. 31
  16. वही, पृ. सं. 69
  17. वही, पृ. सं. 138
  18. वही, पृ. सं. 139
  19. वही, पृ. सं. 141
  20. वही, पृ. सं. 144
  21. वही, पृ. सं. 65
  22. रमेश चंद मीणा : वृद्धों की दुनिया, वृद्ध, वृद्धावस्था और वृद्धाश्रम, लता साहित्य सदन, गाजियाबाद, 2015, पृ. सं. 35

डॉ. नीतू परिहार, सहा. आचार्य, हिंदी विभाग, मोहनलाल सुखाड़िया विश्वविद्यालय, उदयपुर (राज.)