वैदिककालीन हिन्दी दलित साहित्य
१. प्रस्तावना :
'दलित' शब्द आधुनिक जरूर है, किन्तु दलितों की दारूण गाथा सनातन है । दलित धारा प्राचीन है, उसके इतिहास और साहित्य की एक परंपरा है । इस परंपरा का क्रमबद्ध विकास होता रहा है । यह परंपरा शुरू से ही वैद और वर्णव्यवस्था विरोधी परंपरा रही है । भारतीय समाज में भेदभाव के जहरीलें बीज वैदिककाल में ही बोये गये थे, जो अंकुरित, पुष्पित और पल्लवित होकर विशाल वट-वृक्ष का रूप धारण कर चुका है तथा इनकी जड़े अत्यंत गहरी है । हिन्दी साहित्य के इतिहास लेखन की एक सुदीर्घ परंपरा रही हैं । समय परिस्थिति के साथ साहित्य के स्वरूप, शिल्प एवं उनके अन्तर्वस्तु में अनेक परिवर्तन आये हैं । भारतीय सामाजिक जीवन की मुख्यधारा के अंदर हाशिये की जिन्दगी व्यतीत कर रहे इन लोगों ने एक तरह से गुलामी की यातना को सहा था और अपनी बातों को समाज के सम्मुखसमय-समय पर रखा । दलित साहित्य से जुड़े इन लोगों ने समय-समय पर अपनी भावनाओं को जिस मार्मिकता के साथ व्यक्त किया वह मानवीय संवेदना को झकझोरने वाली हैं । दलित साहित्य का स्रोत वैदिक साहित्य, उपनिषद, महाभारत आदि का गहराई से अध्ययन करने पर दिखाई देता है । यह सच है कि किसी भी सामाजिक व्यवस्था में असमानता की भावना मौजूद रहने पर ही समता मूलक सामाजिक व्यवस्था के निर्माण की कोशिशें भी प्रारंभ हो जाती है । यह प्रयास हमें वैदिककाल से ही दृष्टिगत होने लगता है।
२. दलित-साहित्य का उद्भव-विकास :
"आधुनिक भारतीय साहित्य में दलित साहित्य का आविर्भाव एक महत्वपूर्ण घटना है ।...दलितों को सामाजिक समता दिलाने के लिए कई सामाजिक आंदोलन चलाए गए । इन आदोलनों के परिणाम स्वरूप दलित साहित्य का जन्म हुआ"1
“भारतीय संस्कृति के निर्माण में जिन्हें सदियों से समाज तुच्छ मानता आया हैं । उन शुद्रों का बहुत बड़ा योगदान है । इस योगदान को हटा दे तो संस्कृति का यह भव्य महल टूकडों-टूकड़ों में बिखर जाएगा, नष्ट हो जाएगा । दलित साहित्य के उद्भव को इसी परिप्रेक्ष्य में देखना, सोचना और अवलोकन कर स्वीकार करना होगा, तभी हम सही मायने में दलित साहित्य, दलित साहित्यकार और दलित साहित्य के आंदोलन का मूल्यांकन कर सकेंगे ।“ 2
"दलित अस्तित्व को निरंतर राष्ट्रीय चेतना, संघर्ष तथा आंदोलन के साथ जोड़े रखना कोई मामूली बात नहीं थी, लेकिन डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ने यह संभव बना दिया । उन्होंने न केवल यह सिद्ध कर दिया कि दलित जाग उठे हैं, अपितु दलितों को अब अधिक उपेक्षित नहीं किया जा सकता । यह उन्होंने मात्र अपने भाषणों से ही नहीं किया, बल्कि एक ऐसे साहित्य का सूत्रपात किया । जिसने दलित चेतना को संघर्ष के मार्ग पर ला दिया । उसे बैचेन एवं आंदोलित कर दिया, ताकि वह पुनः सुषुप्त अवस्था में न चली जाए । डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर के विचारतंत्र के अन्तर्गत ही दलित साहित्य का प्रादुर्भाव हुआ । उन्होंने अपने साहित्य में दलित, पीड़ित, शोषित और उपेक्षित समाज पर होने वाले भीषण अन्याय, शोषण, विषमता तथा विपन्नता को प्रकाशित कर अपने दलित साहित्य की रचना की ।"3
इस तरह "भारत में राष्ट्रीय आंदोलन की तीव्रता के साथ-साथ दलित चेतना का आविर्भाव भी हुआ, जिसे साहित्यिक स्वरूप एक ऐसे व्यक्ति ने दिया जो स्वयं दलित समाज से ही शोषण एवं अन्याय के विरोध में उभर कर सामने आया । वह व्यक्ति डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर ही थे । उन्होंने अपनी पत्रिकाओं एवं पुस्तकों के माध्यम से दलित-चेतना को साहित्य तथा राजनीति से जोड़ा । दलित समाज की मुकवाणी-चीख-पुकार,यातनापूर्ण जीवन मुखरित करनेवाले डॉ. बाबासाहेब आंबेडकर को दलित-साहित्य का प्रणेता कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी, क्योंकि उनकी विचारधारा के अन्तर्गत दलित चेतना एवंदलित साहित्यक की सशक्त रूप में अभिव्यक्ति हुई ।"4
"हिन्दी दलित साहित्य ने एक आंदोलन का रूप ईस्वीसन् १९८० के बाद से ही लेना शुरू किया । ईस्वीसन् १९८० में 'भारतीय दलित साहित्य मंच' और ईस्वीसन१९८२ में 'भारतीय दलित-साहित्य अकादमी' की स्थापना से हिन्दी में दलित साहित्य को एक पहचान पाने में मदद मिली तथा विभिन्न विधाओं में ढेर सारे साहित्य का सृजन सामने आया | जिसने न केवल स्वयं को स्थापित किया, बल्कि परंपरागत साहित्य की जड़ों को हिलाने में भी महत्वपूर्ण भूमिका का निर्वाह किया ।...साहित्य के दूसरे आंदोलनों की तरह दलित साहित्य का आरंभ भी कविता से हुआ...अस्सी के दशक से तेज हुई दलित-साहित्य की मुहिम से कविता, कहानी, नाटक, उपन्यास, आत्मकथा आदि सृजन किया ।''5
इस सम्बन्ध में पुन्नीसिंह के विचार अत्यंत महत्त्वपूर्ण हैं, "दरअसल हिन्दी क्षेत्र में दलित साहित्य के बारे में चर्चा गत सदी के नौंवे दशक के प्रारंभ में शुरू हुई । मराठी दलित साहित्य के चर्चित कथाकार दया पवार को १९८० ईस्वीसन् के बाद साहित्य अकादमी अवार्ड प्राप्त हुआ और उनकी चर्चित आत्मकथा 'बलूंत' का हिन्दी में अनुवाद 'अछूत' के नाम से छपा, तभी से हिन्दी लेखकों की उत्सुकता मराठी के दलित साहित्य की ओर बढ़ी ।ईस्वीसन् १९८१ में ग्वालियर में इसी विषय पर एक गोष्ठी आयोजित हुई जिसमें हिन्दी और मराठी के कई साहित्यकारों ने हिस्सा लिया ।"6
ईस्वीसन् १९५० में 'दलित साहित्य संघ’ की स्थापना तथा ईस्वीसन् १९५३ में 'जनता’ साप्ताहिक पत्रिका में 'दलित साहित्य की आलोचन’ इस बात का मुख्य प्रमाण है कि उस समय तक दलित साहित्य का समालोचन करने के लिए पर्याप्त दलित साहित्य था । अतः ईस्वीसन् १९२५ से लेकर ईस्वीसन् १९५० का कालखंड दलित साहित्य का आरंभिक काल ठहरता है । "आज का हिन्दी दलित साहित्य, जिसका उद्भव हिन्दी में २०वीं शताब्दी के नवम् दशक से माना जा सकता है, हिन्दी साहित्य की ही एक अद्यतन और विशिष्ट धारा है ।...हिन्दी साहित्य की लम्बी विकास यात्रा में विभिन्न युगों मे विभिन्न विचारधाराओं से प्रभाव ग्रहण करते हुए विभिन्न साहित्यधाराएँ विकसित हुई । इसी क्रम में हिन्दी में डॉ. बाबा आंबेडकर की विचारधारा से प्रेरणा लेकर दलित साहित्य भी विकसित हो रहा है ।"7 इस प्रकार दलित आंदोलनों के साथ-साथ दलित साहित्य भी विकसित हुआ ।
३. पूर्व वैदिककाल :
भारतीय साहित्य इतिहास में पूर्व वैदिककाल के अन्तर्गत दलित साहित्य अथवा दलित इतिहास जैसा लिखित ग्रंथ या दस्तावेज आज तक उपलब्ध नहीं है । प्राचीन समय में अनार्य शिल्पकारों (दलितों) की भग्न, विध्वंस सिन्धुघाटी सभ्यता के अवशेष और आर्यों के धार्मिक ग्रंथों में उनसे जुड़ी सामग्री दलितों के प्राथमिक इतिहास पर प्रकाश डालती है । "वैदकि मंत्रो के द्रष्टा दलित ऋषियों में कवष ऐलूष, मुहिदास, ऐतरेय, ऋषि दीर्घमता, औशिज काक्षीवन्, वत्सकात्यायन, सुदक्षिण क्षैमि, रैक्य ऋषी, सत्यकाम जाबाल आदि वैदकालीन दलित साहित्यकार हैं । इसमें महर्षि कवष ऐलूष को प्रारंभिक दलित साहित्यकार होने पर प्रबुद्धजनों को आपति नहीं होनी चाहिए । 'वैदिककाल के प्रथम दलित महर्षि कवष ऐलूष थे ।"8 उस समय साहित्य नाम की कोई चीज भी थी या नहीं ? अतः दलितों के मन में व्यवस्था के विरुद्ध जो क्षोभ और विद्रोह भाव थे, वे कलात्मक प्रतीकों के माध्यम से व्यक्त होते रहे होंगे । लोकगीत और लोकगाथाओं में क्षोभ और विरोध के ऐसे स्वरों की तलाश की जा सकती है । ऐसी लोकचेतना सहज ही लोकगाथा एवं लोकनाट्य आदि कलाओं को गढ़ लेती हैं । विरोध और प्रतिकार की वह मौखिक चेतना मौखिक साहित्य के रूप में अभिहित की जा सकती है । "भारतीय संस्कृति और समाज में प्रचलित विभिन्न लोककथा एवं लोकगाथाएँ इसके प्रमाण हैं ।"9 अत: सिन्धु घाटी में प्राप्त शिलालेखों को सही रूम में पढ़ लिया जाता है तो पूर्व वैदिककाल के पुरे इतिहास को जानना सरल हो सकता है ।
भारत में आर्यों के आगमन से वहाँ के मूल निवासी अनार्य शिल्पकारों से युद्ध हुआ । इसमें मूलनिवासी अनार्यो की पराजय होती है और उसे 'दास' बना दिया । अनार्यों की स्थिति पशुओं से भी बदतर बना दी । पशुओं की तरह उनकी खरीद फरोक्त होती और उन्हें दानस्वरूप अपने हितैषियों को दिया भी जाता था । बहादुर होने के कारण उन्हें गाँव बाहर आर्यो ने अपनी सुरक्षा के लिए रखा और अपनी सहायक सेना में भी भर्ती किया । आर्यो और अनार्यो (मूलनिवासियों) के युद्ध का वर्णन ऋग्वेद में 'दाशराज' युद्ध के रूप में मिलता है । आर्यों से इस युद्ध मे लडने वाले पिजावन, पैजवन, दिवोदास और सुदामदास राजा थे जिन्होंने अपने पराक्रम और शूरवीरता से आर्यों के छक्के छुड़ा दिये थे । आर्य भारत के मूलनिवासियों को दास, दस्यु, अनार्य, असुर, राक्षस, अनास, मघ्रवाच, कृष्णवर्णा, दानव, शुद्र, शिश्नदेवा आदि अपमान जनक नामों से पुकारते थे । अनार्यों के नायक वृतासुर थे । इनके अन्य प्रमुख राजाओं में निवृद्ध बलि, चमुरि, धनि, विघु, नमुचि, शम्बर, मृगया, शारदासुर, शुष्ण, अर्बुद, कृष्णा, वैरोचन, मुचकुंद, नंदक, अंधक, हिरण्यकशिपु, त्रिपुर और जलंधर आदि के नाम वेदों में पाये जाते हैं । आर्यो का नायक था 'इन्द्र' और उपनायक 'उपेन्द्र’ । आर्य अपने को 'देवता' कहते थे । आर्य और अनार्यो का यह संघर्ष सैंकडों वर्षों तक चलता रहा । इसे ही 'देवासुर संग्राम' कहा गया है । "हे इन्द्र ! तूने पांच हजार काले वर्णों के असुरों को मारा जैसे लोग कपडों को फाड़ते हैं उसी तरह तूने शत्रु के नगरों को तोड़ डाला ।"10 अनार्य आर्य संस्कृति, वर्णाश्रम, संस्कार और उनके धार्मिक ग्रन्थों को न मानते हुए उन्हें खुली चुनौती देते थे जिसका वर्णन वेदों में किया गया है । "जो राक्षस आदि शत्रु हमारे यज्ञ को नष्ट करने के लिए हमसे बैर करते हैं, उन्हें अग्नि और सोम देवता तिरस्कृत करें।"11 अनार्य (शुद्र) चूँकि आर्य सत्ता की सदैव खुली चनौती देते रहे और उनकी आधीनता को नकारते रहे, इसलिए आर्यो ने वैद, ब्राह्मण ग्रन्थों में शूद्रों की सामाजिक, आर्थिक और शैक्षिक गतिविधियों पर प्रतिबन्ध लगाकर और उन्हें अपमानित कर समाज में सबसे नीचे डाल दिया । "जो भारतीय समाज में 'दलित' थे नहीं, वे एक ऐतिहासिक-सामाजिक प्रक्रिया में भारतीय के मूलनिवासियों से ही अप्राकृतिक रूप से क्रृर सत्ता व दमन का प्रयोग कर 'दलित’ बनाए गए है । अजीब बात है कि विश्व के अन्य देशों में दासप्रथा सैंकड़ों वर्ष पूर्व समाप्त हो गई, लेकिन हमारे देश में हजारों वर्षों से जबरदस्ती थोपी जाति व्यवस्था व एक बहुत बड़े मानव समूह का जातिगत आधार पर उत्पीड़न व दमन आज तक जारी है ।"12 आर्यों ने अपने धार्मिक ग्रन्थों में शूद्रों (दलितों) के मानवीय अधिकारों पर यो प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें मानव की श्रेणी से नीचे गिराकर जानवरों की श्रेणी में डाल दिया । इसके विरोध में हजारों अनार्य शूरवीरों ने संघर्ष किया होगा, उत्पीड़न के विरुद्ध रुदन, चित्कार किया होगा । अपने साथ अमानवीय व्यवहार पर साहित्य के नाम पर जरूर कुछ लिखा गया होगा, लेकिन अप्राप्य है । फिर भी प्राचीन ग्रंथो में दलितों की शूरवीरता, पराक्रम की तरह अगर हम आर्यो के इन प्रतिबन्धों के विपरीत रची गई कुछ रचनाओं का पता लगा पाते हैं तो दलित साहित्य आन्दोलन का वह प्रभात होगा । अत: तत्कालीन अनार्यों द्वारा लिखित साहित्य को उपलब्धि होने पर हम दलित साहित्य के प्रारंभिक साहित्यिक चरण का नामाभिधान कर सकेंगे ।
४. उत्तर वैदिककाल :
पूर्व वैदिककाल में जिस षड्यंत्र के अन्तर्गत वैदशास्त्रों और मनुस्मृति में शूद्रों के मानवीय अधिकारों पर प्रतिबन्ध लगाकर उन्हें विद्या, धन और सामाजिक स्तर से वंचित कर दिया गया । उत्तर वैदिककाल में मनु की तत्कालीन वर्गव्यवस्था को स्वीकार लिया गया । उस आधार पर कर्म के सिद्धांत के स्थान पर जन्म के सिद्धांत को समाज ने अपना लिया । अयोग्य ब्राह्मण भी पूजनीय हो गया, सयोग्य और विद्वान शूद्र भी अयोग्य, अस्पृश्यता और नीच माने जाने लगा । अपनी एक छत्र शक्ति के बल पर आर्य सर्वसामान्य प्रतिष्ठित बने ।
आर्यों की वर्गव्यवस्था के विरुद्ध कोई साहित्य रचा गया हो, वह हमें उपलब्ध नहीं है पर उस काल के दो महाकाव्य और आर्यों की धार्मिक पुस्तक ‘रामायण’ और ‘महाभारत’ ऐसे दस्तावेज हैं जिनमें हमारी मनुवादी व्यवस्था को तोड़कर प्रतिरोध किया गया । रामायण में हम पहला उदाहरण 'शम्बूक' का पाते हैं जो शूद्र होकर ब्राह्मणों की तपस्या करने के एकाधिकार को तोड़ता हुआ वृक्ष पर उल्टा लटक कर तपस्या कर रहा था, इसीलिए वर्ण व्यवस्था को तोड़ने के अपराध में स्वयं राम ने अपनी तलवार से उसका वध कर दिया । 'महाभारत' में भील बालक एकलव्य शुद्र होते हुए क्षत्रियों के एकाधिकार धनुर्विद्या को सीखकर पारंगत हो जाता है । वर्णव्यवस्था के विधान को उल्लंघन करने के अपराध में गुरू द्रोणाचार्य बलपूर्वक उसके दायें हाथ का अंगूठा कटवा देते हैं । ताकि वह भविष्य में पुनः धनुष चलाने का साहस न कर सके । "आलोचकों की दृष्टि में निषादराज के पुत्र एकलव्य का अंगूठा ब्राह्मण द्रोणाचार्य ने इसलिए कटवा दिया कि ब्राह्मणवादी व्यवस्था में निषादपुत्र एकलव्य को ब्राह्मण द्रोण सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर के रूप में स्वीकार नहीं कर सकते थे, किन्तु महाभारत में वर्णित समस्त घटनाक्रम को देखते हुए यह प्रतीत होता है कि इस दु:खद घटना के पीछे राज्याश्रय पर जीवित द्रोण का यह वचन मुख्य कारण था | जिसमें उन्हें अर्जुन को वह आश्वासन दिया था कि तुम्हारें समान में अन्य कोई धनुर्धर नहीं बनने दूंगा और उसी वचन को अक्षुण्ण रखने के लिए पक्षपाती द्रोण ने एकलव्य का अँगूठा गुरुदक्षिणा में लेने का जधन्य कार्य किया ।"13 उत्तर वैदिककाल में ब्राह्मणों का अत्याचार चरमसीमा पर पहुँच गया तो महात्मा बुद्ध और महावीर स्वामी इसके विरोध में सामने आये । इन दोनों राजकुमारों ने 'अहिंसा परमो धर्म:' का नारा दिया और 'वैदकी हिंसा, हिंसा न भवति' मान्यता को ठुकराते हुए जात-पात, ऊँच-नीच, भेद-भाव और वर्णव्यवस्था के खिलाफ जेहाद छेडा । बौद्ध और जैन धर्म के आने पर आर्यो की कट्टरपंथी वर्णव्यवस्था की धज्जियाँ उखाडी जाने लगी । इसके लिए आर्यो के धार्मिक ग्रन्थों की मान्यताओं को असत्य साबित करने के लिए बौद्ध और जैन साहित्य लिखा गया । 'धम्मपद' ने ब्राहण वर्गो की जन्मगत उच्चता पर प्रश्नचिन्ह लगा दिया था । इससे न्याय के समक्ष ब्राह्मण भी सब वर्गो के समान कठघरे में आ गये । बौद्ध धर्म की महायान शाखा में जाति-व्यवस्था पर कठोरतापूर्वक चोट की । धम्मपदों में दलित और छोटी जातियों को अभिव्यक्ति करने का पहली बार अवसर मिला । "यद्यपि प्राचीन भारतीय साहित्य में वाल्मीकि और व्यास जैसे दलित कवियों की परंपरा दिखाई पड़ती हैं, किन्तु यह परंपरा दलित परंपरा नहीं कही जा सकती । प्राचीन भारतीय वाङ्मय में दलित-पिछडे ऋषिमुनि और कवि मनीषी भी मुख्यधारा के पोषक अंग मात्र हैं । इनसे भी दलितों की कोई परंपरा नहीं बनती । दलितों की समानान्तर और पुष्ट परंपरा बौद्ध आन्दोलन के साथ शुरू होती है, जो कतिपय अवरोधों के बावजूद अविच्छिन्न रूप से आधुनिक काल तक चली आई हैं ।"14 "भगवान बुद्ध की विशुद्ध वाणी में दलितों के प्रति असाधारण करुणा प्रदर्शित हुई है । उन्होंने जन्मना वर्णव्यवस्था के स्थान पर कर्म एवं ज्ञान को कहीं अधिक महत्त्व दिया है । भगवान बद्ध के ये बिचार पालि भाषा में निबद्ध त्रिपिटक ग्रन्थों में संग्रहित है । धम्मपद में भगवान बुद्ध के मूख से समय-समय पर निकली ४२३ गाथाएँ संकलित है जो बौद्ध धर्म की अवधारणाओं के दर्पण है ।"15 "बौद्ध ग्रन्थों में प्रायः दासों, कम्मकारों और पेरसो का जिक्र पाया जाता हैं । प्रथम बार इन ग्रन्थों में 'दलित' शब्द का प्रयोग हुआ । उस काल में प्राय: बड़े-बड़े भूमिपति थे जो ‘पेस्सों' को (ठेके पर श्रम करनेवाले को) रख लेते थे, जैसे आजकल के बंधुआ मजदूर रखे जाते हैं ।"16 यह स्पष्ट है कि पुरुषसुक्त में प्रतिपादित वर्णव्यवस्था पर भगवान बुद्ध से पहले किसी ने भी आवाज तक नहीं उठाई थी । अतः कह सकते है कि "इतिहास पर दृष्टि डाले तो वह सिद्ध होता है कि दलित चेतना के दार्शनिक और वैचारिक आधार का स्त्रोत गौतम बुद्ध ही रहे हैं । गौतम बुद्ध ही प्रथम पुरुष है जिन्होंने वर्णव्यवस्था के औचित्य को चुनौती देते हुए उसे नाजायज ठहराया ।"17 इससे यह पता चलता है कि "बुद्ध दर्शन ने जनसाधारण के मनमस्तिष्क में स्वत्व निजता की जो ज्योति जगायी वह अप्रतिम है, अतुलनीय है । दलित, पीड़ित, उपेक्षित में जितना आत्मविश्वास जागृत करने का कार्य बुद्ध के दर्शन ने किया उतना तो शायद ही किसीने किया होगा ।...भारत की भूमि पर यहबुद्ध का ही दर्शन है जिसने स्वत्व की भावना के जागरण के साथ-साथ आत्मसम्मान की ज्वाला दलितों, पीड़ित, उपेक्षित, तिरस्कृत और बहिष्कृत के मन मंदिर में प्रज्वलित की ।“18
डॉ.रामधारीसिंह 'दिनकर' ने बुद्ध के योगदान के बारे में लिखा है "जातिप्रथा को चुनौती देकर बुद्ध ने इस देश में एक महान आन्दोलन का आरंभ किया जो प्राय: गांधीजी तक चलता आया है और आज भी चल रहा है ।"19 'सुत-निपात' में तथागत ने जाति व्यवस्था के कर्मवादी स्वरूप को स्थापित करते हुए कहा है कि जाति से कोई वृषल (अछूत) नहीं होता और न जाति से कोई ब्राह्मण । कर्म से ही कोई वृषल होता है और कर्म से ही ब्राह्मण-
"न जच्चा बसलो होति ।
न जच्चा होनि ब्राह्मणों ।
कम्मुना वसलो होती,
कम्मुना होती ब्राह्मणों |” 20 (सु.न. वसल सुत–२१)
बुद्ध धर्म दलितों के लिए जेठ की तपती धूप में बरसात की शीतल फव्वारे बन कर आया था । उसने वर्ण व्यवस्था को नकारते हुए शिक्षा के द्वार सभी अछूतों के लिए खोल दिए । पूजा-पाठ और भक्ति के अधिकार उन्हें भी दिये । जन्म के आधार पर पेशे को भी नकार दिया । इससे अछूतों को राहत मिली । उन्हें समाज में समता और सम्मान मिला । इस काल के अन्तर्गत साहित्यिक दृष्टि से दलित संवेदन को लेकर कोई रचनाएँ नहीं मिलती है ।
संदर्भ सूचि :-