Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)

समकालीन हिन्दी कविता और विस्थापन की विविधता

विस्थापन शब्द सुनते ही पाठकों के ज़हन में बहुत सारे शब्द आते हैं जैसे सांस्कृतिक विस्थापन और मानसिक विस्थापन अर्थात् वैश्वीकृत समाज में गरीबों का विस्थापन, आदिवासियों का विस्थापन, दलित विस्थापन, लोकतंत्र का विस्थापन,स्त्रियों का मानसिक विस्थापन और पुरुषों का मानसिक विस्थापन आदि।विस्थापन को अंग्रेज़ी में डायसपोरा, डिसप्लेसमेंड और एक्सैल आदि शब्दों का प्रयोग होता है तो हिन्दी में निर्वासन, निष्कासन, जलावतनी और अलगाव आदि शब्दों का प्रयोग होता है। विस्थापन का इतिहास बहुत लम्बा है। कवि कुमार अंबुज के अनुसार विस्थापन की प्रक्रिया है अटूट अनादि काल से लेकर उत्तराधुनिक काल तक यह प्रक्रिया चल रही है। कभी राजनीतिक गतिविधियों के कारण तो कभी युद्ध के कारण, धर्म- रंग -नसल के नाम पर तो कभी प्राकृतिक विपत्तियों के कारण भी विस्थापन होते हैं।

कवि ज्ञानेन्द्रपति ने अपनी कविता अधरात घास –गन्ध की निम्नपंक्तियों में प्राकृतिक विपत्तियों के कारणों की खोज की है,जिसके कारण मानव अपने स्थान छोड़कर नये इलाके में जाकर बसने के लिए मजबूर हैं।
विकास / हाँ, ठीक सुना हमने
विनाश नहीं विकास/टूटते हैं अब भी/प्रकृति के प्रकोप हम पर
सूखा-बाढ़ शीतलहर /पारी-पारी[1]

प्राकृतिक संसाधनों का अंधाधुंध दोहन से प्रकृति की स्वाभाविकता नष्ट हो जाती है। फलस्वरूप प्रकृति का प्रकोप मानव झेलते हैं जैसे –बाढ़, सूखा, सुनामी आदि । इस प्रकार भी मानव अपने जन्मस्थान से अलग रहने के लिए मज़बूर हैं।

विस्थापितों के कवि के नाम से मशहूर कवि अग्निशेखर( डॉ.कुलदीप सुंबली ) के प्रमुख चार काव्य संग्रह है किसी भी समय, मुझसे छीन ली गई मेरी नदी, कालवृक्ष की छाया में, जवाहर टनल।उनकी कविताओं में जेहाद और मुस्लिम कट्टरवाद के कारण कश्मीर घाटी से अर्थात् मातृभूमि से विस्थापित हुए हिन्दु पंडितों के दर्द को महसूस कर सकते हैं ।
छलनी छलनी मेरे आकाश के भीतर से
बह रही है। स्मृतियों की नदी।
ओ मातृभूमि।
क्या इस समय हो रही है
मेरे गाँव में वर्षा[2]

विस्थापन से अपनी मिट्टी,अपनी भाषा .वेश –भूषा, आचार –विचार, खान-पान तथा जाति-धर्म से व्यक्ति को अलग रहना पड़ता है। इससे व्यक्ति की अस्मिता पर संकट पैदा होता है। कवि ओम भारती की कविता की आँख कविता की निम्न पंक्तियाँ हैं।
न हम थे, न गाँव, न हमारे घर
खेत के चैगान, खेल और खलिहान कुछ भी नहीं
भूगोलशास्त्र में भी हमारी
हमारों की कोई जगह नहीं थी[3]

वैश्वीकरण के दौर में उदारीकरण और मुक्त बाज़ार व्यवस्था के रूप में परिवर्तन की तेज़ गति ने अवश्य ही राष्ट्रों की सोमाओं का विलोप का कारण बना, लेकिन उसने साथ ही साथ अमीरी और गरीबी के बीच की खाई को बढ़ाया है। इस कारण गरीब उस मुक्त बाज़ार की चकाचौंध की दुनिया से बाहर रहते हैं। वैश्वीकृत समाज में गरीबों का एक्सैल होने का मतलब उनका विस्थापन होना है। इस सच्चाई को समकालीन हिन्दी कवि कुमार अंबुज भली-भाँति जानते हैं। उनकी कविता बाज़ार की निम्न पंक्तियाँ हैं-
और इस वक्त था जूतों की दूकान के शो –केस के सामने/जहाँ लुभावने मॉडल्स के नीचे लिखी थी जोड़ी की कीमत/-----/ मगर तीन सौ चालीस की पर्ची देख कर/---/कीमकों बढ़ती रही हैं उसी अनुपात में और कहीं कुछ कमी नहीं है/ रोशनी का रैला देखते हुए मैंने सोचा कि मैं बाज़ार में नहीं/ एक मेले में आया था।[4]

कवि अरुण कमल की कविता हाट की निम्न पंक्तियों में भी समाज में जीनेवाले आम आदमी का चित्रण मिलती हैं, जो बाज़ार से मनपसंद सामान खरीदने के लिए असमर्थ है, इसलिए वह आदमी, खुद को उस ग्लोबल संसार से अलग रहने की स्थिति में पाता है।
बाजार में बहुत सन्नाटा था/ सारा संसार काँच के पार/और मैं शीशे से नाक सटाये-/

भूमंडलीकरण के दौर में सूचना-संचार की सुविधाएँ बढ़ीं।इससे क्या हुआ कि स्वदेश छोड़कर धन कमाने के लिए दूर देश जाकर प्रवासी बनकर रहनेवालों की संख्या दिन –व दिन आसमान छूने लगे। ऐसे लोग विदेश में रहते हुए भी अपने आपको वहाँ मिसफिट की दुविधा झेलने के लिए मज़बूर हैं। कवि कुमार अंबुज की कविता तबादला की पंक्तियाँ हैं।
एक जगह का छूटना सिर्फ जगह का छूटना नहीं होता
जगह के साथ छूट जाते हैं कुछ दोस्त[5]

सांस्कृतिक विस्थापन की पीड़ा से ज्यादा लोग मानसिक और बौद्धिक विस्थापन का शिकार हो रहे हैं।बाजारवाद के ज़माने में जनसंचार माध्यम टी.वी, विज्ञापन, मोबाइल फोन और इंटरनेट आदि के ज़रिए भारतीयों में बहुराष्ट्रीय कंपनी प्रोडक्ट खरीदने की ललक उत्पन्न करवाते हैं। स्वातंत्र्योत्तर भारत में जनता जाने-अनजाने पश्चिमी जीवन शैली का अंधानुकरण करते हैं।खतरा इस बात से है कि हम स्वदेश में रहते हुए भी स्वदेशी नहीं रह पाते हैं।हम उन चीज़ों के पीछे भागते हैं जो हमारी संस्कृति के अनुकूल नहीं है। कवि लीलाधर जगूड़ी की कविता दिल्ली में हैं तो क्या हुआ की पंक्तियाँ हैं।
भीतर की सारी खुशियाँ बाहर के दाना –पानी में हैं
हमें अपने में होते हुए अपने से दूर भी होना है।[6]

आलोचक शंभुनाथ के अनुसार वैश्वीकरण के नतीजे के रूप में दुनिया के कोने कोने में अनगिनत डायसपोरा बन रहे हैं, जो नवऔपनिवेशिक निर्मितियाँ हैं।कवि कुमार अंबुज की कविता प्रक्रिया की पंक्तियाँ हैं।
एक उजड़ती हुई चमकदार दुनिया है निराला
जिसमें भाग्य को रौंद रहे हैं हम
फिर भी वश नहीं है हमारा हम पर
हम परम प्रसन्न असहाय देख रहे हैं हमारा ही विस्थापन
और एक ऐसी विराट पण्यशाला
जहाँ मिल रही हैं वस्तुएँ
छूट रहे हैं लोग [7]

पश्चिमी संस्कृति के उपभोग लिप्सा ने मानव को वस्तुओं की ओर आकर्षित किया है। यहाँ कवि ने वर्तमान दौर के सबसे घातक विस्थापन की ओर इशारा किया है, वह है- मानव के मन का विस्थापन यानी मानसिक विस्थापन।

स्त्रियों का विस्थापन भी आजकल चर्चा का विषय है। पितृसत्तात्मक समाज में स्त्री अपने दायित्व से मूँह नहीं मोड़ा है।वह चाहे पत्नी के हो चाहे माँ की हो या फिर बहू का और बेटी के रूप में अपने दायित्वों को पूरी निष्ठा से करती हैं। वह सम्मान की अधिकारी है। लेकिन क्या स्त्री की जिन्दगी सिर्फ घर की चारदीवारी में ही रहना है, क्या उसकी खुद की पहचान होनी ज़रूरी नहीं है।इस सवाल का जवाब ढूँढ़ती है समकालीन हिन्दी कवयित्री अनामिका की कविता घरेलू नौकर में-
वे लगातार दौड़ते हैं
एक विचार से दूसरे विचार तक
बहुत दिनों तक उनका
कोई विचार नहीं बनता
किसी के बारे में
.........और दौड़ते –दौड़ते
जब वे थक जाते हैं/तो दो विचारों के बीच के किसी शून्य में/
टाँग देते हैं रस्सी/........./फिर उनमें जमने लगती है बरफ –सी ।
बैठे-बैठे वे सो जाते हैं/और सपनों में ही/भाँजते हैं तलवार/आल्हा-ऊदल की।[8]

यहाँ कवयित्री अनामिका ने स्त्री की मानसिक विस्थापन की ओर इशारा किया है। स्त्री कभी भी खुद के बारे में सोचती नहीं हैं।स्त्री की मानसिक विस्थापन का जिम्मेदार आखिर कौन है, इस सवाल का जवाब कवयित्री अनामिका की निम्न पंक्तियों में देखा जा सकता है।
जगह जगह क्या होती है
यह, वैसे, जान लिया था हमने
अपनी पहली कक्षा में ही।
याद था हमें एक –एक अक्षर /आरंभिक पाठों का-
राम, पाठशाला जा।
राधा, खाना पका।/ राम, आ बताशा खा ।/
राधा, झाडू लगा ।/ भैया अब सोएगा,/
जाकर बिस्तर बिछा ।/अहा, नया घर है ।/
राम, देख, यह तेरा कमरा है।/ और मेरा /
ओ पगली,/लड़कियाँ हवा, धूप, मिट्टी होती हैं/
उनका कोई घर नहीं होता । [9]

बचपन से ही लड़कियों को लड़की होने के गुणों को सिखाया जाता है।लड़की वह सीख भी जाती है।कवयित्री ने अपनी कविता बेजगह में पितृसत्तात्मक समाज के दोयम दर्जे के व्यवहार का पर्दाफाश किया है। यह भी स्त्री की मानसिक विस्थापन की एक अलग स्थिति है।जिसे पितृसत्तात्मक समाज द्वारा उसपर थोपी जाते हैं।

कवयित्री निर्मला पुतुल ने भी अपनी कविता अपने घर की तलाश में एक स्त्री की मानसिकता को भली –भाँति दर्शायी है।
अन्दर समेटे पूरा का पूरा घर
मैं बिखरी हूँ पूरे घर में
पर यह घर मेरा नहीं है[10]

वह स्त्री अलगाव महसूस करती है। परंपरागत सोच से बाहर आने की तड़प उसकी वाणी में है। वह अपने अस्तित्व की लड़ाई या कहें अपने को अपने से विस्थापित होने से बचाने की लड़ाई लड़ रही है।
धरती के इस छोर से उस छोर तक
मुट्ठी भर सवाल लिये मैं
दौड़ती –हाँफती-भागती
तलाश रही हूँ सदियों से निरंतर
अपनी जमीन, अपना घर
अपने होने का अर्थ [11]

इक्कीसवीं सदी में सिर्फ स्त्रियों का ही नहीं बल्कि पुरुषों का भी मानसिक विस्थापन की ओर समकालीन हिन्दी कवि ने लेखनी चलायी है। पहले, समकालीन हिन्दी कवयित्री किसप्रकार अपनी कविताओं में पुरुषों के मानसिक विस्थापन पर लिखती है, ये देखें-उदा – कवयित्री अनामिका की कविता स्त्रियाँ की निम्न पंक्तियाँ देखिए।
पढ़ा गया हमको /जैसे पढ़ा जाता है कागज़/
बच्चों की फटी कॉपियों का / चनाजोरगम के लिफाफे बनाने के पहले/
देखा गया हमको /जैसे कि कुफ्त हो उनींदे
देखी जाती है कलाई घड़ी/ अलस्सुबह अलार्म बजने के बाद/
सुना गया हमको /यों ही उड़ते मन से /जैसे सुने जाते हैं फिल्मी गाने ।
........................../हमें कायदे से पढ़ो एक-एक अक्षर/ जैसे पढ़ा होगा बीए के बाद/ नौकरी का पहला विज्ञापन/ [12]

स्त्री के प्रति पुरुष की मानसिकता में आये बदलाव से यह व्यक्त होता है कि कवयित्री अनामिका जी की निम्न पंक्तियाँ पुरुष की मानसिक विस्थापन की सच्चाई दास्तां है। स्त्री और पुरुष एक के सिक्के के दो पहलु हैं। इसलिए पुरुष का मानसिक विस्थापन या पत्नी के प्रति पति के प्रेम में आये हुए कमी को स्त्री कभी भी सहन न कर पाती हैं। पति से पत्नी अपने लिए प्यार और सम्मान की उम्मीद रखती है।

वहीं दूसरी तरफ ऐसे भी पुरुष के मानसिक विस्थापन के चित्र को समकालीन हिन्दी कवि चन्द्रकांत देवताले ने खींचने की कोशिश की है जो इस उपभोग संस्कृति में फँस चुके हैं।वे खुद को घर में सारी सुविधाएँ जुटानेवाली मशीन समझते हैं।यह एक तरह से पुरुष अपने ही घर में अनुभव कर रहे अलगाव की स्थिति है।कवि देवताले जी की कविता घबराया –डरा आदमी की निम्नपंक्तियाँ देखिए-
मुझे लगता है मैं पति नहीं पिता नहीं / एक जानवर हूँ नोट हड़पने वाला/ एक मशीन सुविधाएँ जुटानेवाली / मुझे अपने घर से डर लगता है [13]

भारत के मूल निवासी आदिवासियों पर जो संकट आ गया है। मूलतः यह भारत का संकट है।यह सांस्कृतिक विस्थापन है। इसको पहचान लेना अनिवार्य है। आदिवासियों का विस्थापन। विकास के नाम पर जो परियोजनाएँ चल रहे हैं उसका सीधा असर पड़ते हैं आदिवासी इलाकों में रहनेवालों पर । वैश्वीकृत समाज में आदिवासियों पर कहर आया है। उन्हें अपनी मिट्टी से बेदखल होना पड़ा है। सभ्यता के नाम पर या फिर देश की प्रगति के लिए बहुराष्ट्रीय कंपनियाँ खड़ा करने के लिए भोल-भाले आदिम मानव के घरों को उजाड़ने के विरोध में खड़े हैं आदिवासी कवि हरिराम मीणा ।
सभ्यता के नाम पर/आखिर कर ही दिये जाओगे बेदखल/
हज़ारों सालों की तुम्हारी पुश्तैनी भौम से /.......फिर कैसे करोगे साबित
सभ्यता की इस अदालत में /कि यह भौम तुम्हारी थी [14]

दलित समाज में रहनेवालों को अछूत या निम्न जाति के विस्थापन पर समकालीन हिन्दी कवि कलम चलाये हैं । भारत एक प्रजातंत्र राज्य है। लेकिन वहाँ जाति के नाम पर किसी वर्ग या समाज को अलग रखा जा रहा है। अपने देश में ऐसे विस्थापित और पीड़ित समाज के स्थान को कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि ने अपनी कविता पेड़ में पेड़-पत्ते प्रतीकों के माध्यमों से व्यक्त किया है।
पेड़
तुम उस वक्त तक पेड़ हो
जब तक ये पत्ते तुम्हारे साथ हैं
पत्ते झरते ही
पेड़ नहीं
ठूँठ कहलावोगे
जीते जी मर जाओगे [15]

पेड़ हमारे देश की लोकतंत्र व्यवस्था के प्रतीक हैं। तो पत्ते विस्थापित दलित समाज के प्रतीक हैं।पत्ते जब पेड़ से गिरते हैं तो पेड़ जीते जी मर जाते हैं। कवि ने पेड़ –पत्ते के माध्यम से इस बात पर ज़ोर दिया है कि दलितों के बिना, पेड़ यानी लोकतंत्र राष्ट्र का कोई अस्तित्व नहीं है।दलितों का विस्थापन अर्थात् लोकतंत्र का विस्थापन या लोकतंत्र व्यवस्था की हार की ओर कवि वाल्मीकिजी ने इशारा किया है।

इस तरह समकालीन हिन्दी कवि विभिन्न प्रकार के विस्थापन पर कलम चलाये हैं। उत्तराधुनिक दौर में मानव को ही पता नहीं कि मानव खुद विस्थापित हो रहे हैं। तब समकालीन हिन्दी कवि का दायित्व है कि मानव को जागरूक बनाएँ और समय के खिलाफ प्रतिरोध खड़ा कर दें।निसंदेह हम कह सकते हैं कि समकालीन हिन्दी कवियों ने अपनी कविताओं के माध्यम से अपने दायित्व को निभाने की कोशिश की है।

संदर्भ

  1. ज्ञानेंद्रपति, संशयात्मता, राधाकृष्ण प्रकाशन, पहला संस्करण 2004, पृ.115
  2. डॉ. कुलदीप सुंबली,कविता कोश से
  3. ओम भारती, कविता की आँख कविता से
  4. कुमार अंबुज, क्रूरता, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्र. सं 1996,पृ.28
  5. कुमार अंबुज, अनंतिम, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1998, पृ.89
  6. लीलाधर जगूड़ी, अनुभव के आकाश में चाँद, राजकमल प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1994, पृ.34-35
  7. कुमार अंबुज, अनंतिम, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम संस्करण 1998, पृ.45-46
  8. अनामिका, खुरदुरी हथेलियाँ, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2005, पृ.62-63
  9. अनामिका, खुरदुरी हथेलियाँ, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2005, पृ.15
  10. निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, प्र.सं.2005, पृ.30
  11. निर्मला पुतुल, नगाड़े की तरह बजते शब्द, भारतीय ज्ञानपीठ, प्र.सं.2005, पृ.30
  12. अनामिका, खुरदुरी हथेलियाँ, राधाकृष्ण प्रकाशन, प्रथम संस्करण 2005, पृ.13-14
  13. चन्द्रकांत देवताले, उजाड़ में संग्रहालय, राजकमल प्रकाशन, प्र.सं. 2003, पृ .41
  14. हरिराम मीणा, हाँ, चाँद मेरा है, शिल्पायन, प्र. सं. 2000, पृ .22
  15. ओमप्रकाश वाल्मीकि, बस्स बहुत हो चुका, वाणी प्रकाशन, प्र. सं 1997,पृ.22

अन्जु.जे.ए, शोध छात्रा, हिन्दी विभाग, केरल विश्वविद्यालय. ई मेल –janju852963@gmail.com