कोमल गांधार : स्त्री की व्यथा कथा का यथार्थ
‘आधी दुनिया’ विशेषण से संबोधित की जाने वाली नारी के सन्दर्भ में मृणाल पाण्डे अपने लेख ‘निज मन मुकुर सुधारि’ (धर्मयुग में प्रकाशित 19-25 अप्रैल,1987) में लिखती हैं “जिस प्रकार हाथी के चार भिन्न अंगों को छूकर चार अंधों ने हाथी के विषय में एक ‘सम्पूर्ण’ मानस-चित्र बनाया और उसकी ‘प्रमाणिकता’ को लेकर वे हठपूर्वक आपस में लड़ते रहे, ठीक उसी प्रकार सदियों से दार्शनिक, विचारक, साहित्यकार आदि अपनी दृष्टि-विशेष से नारी के एक पक्ष को सम्पूर्ण नारी समझने-समझाने की भूल करते रहे हैं | यही कारण है कि नारी एक साथ देवी और भोग्या, माया और शक्ति, श्रद्धा और ताड़न की अधिकारी समझी जाती रही है |”[1] पुरुषप्रधान समाज ने अपनी सुविधानुसार स्त्री की स्थिति सुनिश्चित की | पुरुषों ने कभी अपनी स्वेच्छा से, तो कभी दबाव से, कभी स्वार्थ वश और कभी अपना वर्चस्व स्थापित करने हेतु स्त्री की नियति स्थापित करनी चाही | नारी का सदा से ही यह दुर्भाग्य रहा है कि उसे एक ओर देवी बनाकर पूजा गया तो दूसरी ओर सेविका बनाकर शोषित किया गया | किन्तु वास्तविकता तो यह है कि नारी न तो देवी है और न ही राक्षसी या दानवी बल्कि वह भी एक मानव है जिसमें दया, माया, ममता, विश्वास, क्रूरता, कठोरता, घृणा, प्रेम, कलह सब विद्यमान है | यदि वह संसार का निर्माण करना जानती है तो उसका विनाश करने की क्षमता भी रखती है | यद्यपि ‘मनु स्मृति’ में नारी का विवेचन करते हुए मनु ने कहा है “यत्र नार्यस्तु पूज्यन्ते रमन्ते तत्र देवता”[2] अर्थात जहाँ स्त्रियों की पूजा होती है वहाँ देवता निवास करते हैं; परन्तु समाज में उसे कभी भी पुरुष की भांति समान अधिकार या स्थान प्राप्त नहीं हुआ, जबकि वह समाज के निर्माण हेतु पुरुष की ही भांति महत्वपूर्ण धुरी है |
स्त्री की स्थिति को व्यक्त करता यह कथन “समाज में स्त्रीत्व की मूल अवधारणा नकारात्मक है | लगभग सभी धार्मिक और दार्शनिक दायरे स्त्री को पुरुष के सन्दर्भ में एक अपूर्ण और सापेक्ष जीवन के रूप में देखा गया है |”[3] सिद्ध करता है कि सबल सदैव निर्बल को अपने वश में रखता है तभी तो समय के साथ-साथ पुरुष के प्रबल से प्रबलतर होते चले जाने के कारण नारी की स्वतंत्र सत्ता मात्र पूरुषों की अनुगूँज बनकर रह गई और ये वर्ग महिलाओं का जीवननियंता व भाग्यविधाता बन बैठा | प्राचीन काल से ही यह नियम स्त्री हेतु बनाया गया कि बचपन में वह पिता के, युवावस्था में पति और वृद्धावस्था में पुत्र के संरक्षण में रहे | समाज द्वारा बनाए गए ऐसे नियमों की बेड़ी में जकड़ी नारी अपनी पहचान व अस्तित्व ही खोती चली गई| उसे मनुष्य की अपेक्षा हाड-मास का बना पंजर या देह मात्र समझा जाने लगा, जो समाज द्वारा स्वयं पर होने वाले शोषण, यातना, पीड़ा, लांछन आदि को अपनी नियति मानकर स्वीकारती गई| इसका सशक्त उदाहरण महाभारत कालीन नारियों के रूप में दृष्टिगत होता है, जिनमें अंबा, अंबिका, अंबालिका, गांधारी, कुंती, द्रौपदी उल्लेखनीय हैं|
सन 1980 में प्रकाशित नाटक ‘कोमल गांधार’ के माध्यम से नाटककार ‘शंकर शेष’ ने कौरवों और पांडवों की कथा द्वारा महाभारत के विभिन्न प्रसंगों - प्रेम, ईर्ष्या, प्रतिशोध तथा सता-संघर्ष व अपने अहंकार की संतुष्टि हेतु सत्ता और राजनीती के दुरुपयोग के साथ-साथ महिलाओं की पीड़ा, संघर्ष तथा सशक्तिकरण को चित्रित किया है | माता सत्यवती के पुत्रों हेतु अपने राज्याधिकार को त्यागकर आजीवन ब्रह्मचर्यंत्व का वरण करने वाले देवव्रत ( भीष्म पितामह) के लिए सदैव उसी माता की संतुष्टि और कुरुवंश ही महत्वपूर्ण व सर्वोपरि रहे | कुल व राज्य का हित तथा उत्तराधिकारी की चिंता ने भीष्म को एक बार पुनः आकुल कर दिया जिसके चलते वह शीघ्र ही धृतराष्ट्र का विवाह करवाना अनिवार्य समझते हैं | भीष्म पितामह हेतु विवाह सम्बन्ध कोई पारिवारिक, व्यकितगत, धार्मिक, सामाजिक या भावात्मक सम्बन्ध न होकर केवल एक राजनीतिक समझौता है जिसकी श्रृंखला में अम्बा, अम्बिका, अंबालिका के साथ एक नई कड़ी के रूप में गांधार की राजकुमारी गांधारी जुड़ जाती है | संजय के कथनानुसार “अंबा का शाप, अंबिका, अंबालिका की चीख-पुकार ...ये सब आपको आज भी डराते नहीं क्या ![4] ... फिर भावना को राजनीति की दृष्टि! राजनीति से बाहर कुछ नहीं ?”[5] राजनीतिक आवश्यकता हेतु या कहा जाए कुरुवंश की परम्परा की वृद्धि हेतु नारी की इच्छा-अनिच्छ को महत्त्व न देते हुए तथा उसके सम्पूर्ण अस्तित्व को नकार कर केवल हस्तिनापुर के राजकुमारों का विवाह किसी राजकन्या से करवाना उनके लिए अनिवार्य था | शापित व नारकीय जीवन व्यतीत कर रही कुरुवंश की कुलवधुओं को देखते हुए तथा पिछली घटनाओं की उपेक्षा कर गांधारी को भी उसी अग्नि कुण्ड में झोंका जाता है | कुरुवंश के उत्तराधाकारी के अभाव तथा धृतराष्ट्र का एक दासी की ओर आकृष्ट होने व भविष्य में किसी दासी पुत्र का स्वयं को उत्तराधिकारी घोषित कर राज्याधिकार स्थापित करने की चिंता से आतुर पितामह इस समस्या को पुनः राजनीतिक समस्या मान इसका समाधान गांधारी के रूप में देखते हैं और अंततः गांधारी का विवाह जन्मांध कौरव राजकुमार धृतराष्ट्र से करवाया जाता है | भीष्म का संजय के प्रश्न का उत्तर देते हुए यह कहना “अगर व्याख्या ज़रुरी ही है तो इसे राजनीति कहो | इस विवाह में न तो महत्व है इस लड़की का और न ही धृतराष्ट्र का ...|[6] सिद्ध करता है कि उनकी आकांक्षा केवल राजकुल को योग्य तथा सुरक्षित हाथों में देखना था,जिसके लिए उन्हें पूर्व की ही भांति एक राजकन्या, राजवधू के रूप में चाहिए थी |
विवाह पूर्व अपनी दासी द्वारा यह ज्ञात होने पर कि उसका भावी पति नेत्रहीन है, गांधारी स्वयं को ठगा-सा जान तथा पिता और ससुराल द्वारा विश्वासघात किए जाने के कारण क्षुब्द हो जाती है | परिवार द्वारा रचे षड्यंत्र और धोके की बात गांधारी के मन में गहरी कचोट व दुःख उत्पन्न करती है | उसका यही दुःख क्रोध में, क्रोध घृणा में, घृणा विद्रोह में, विद्रोह दृढ़ता में और अंततः दृढ़ता प्रतिशोध में परिवर्तित हो जाती है | स्वयं के प्रति हुए इस अन्याय व स्वयंवर के माध्यम से अपना पति चुनने के अधिकार से वंचित गांधारी पूछती है “स्वयंवर के मामले में मुझे ही अपवाद बनाने की क्या ज़रूरत पड़ गई, संजय?...मुझसे मेरा अधिकार क्यों छीना गया |”[7] पुरुष प्रधान समाज द्वारा अपने व्यकितत्व, अभिलाषा, अस्तित्व की अवहेलना किए जाने के कारण उसके आक्रोश को व्यक्त करता यह कथन “मेरी सहमति का कोई अर्थ नहीं है क्या ? क्यों नकार दिया गया मेरे अस्तित्व को पूरी तरह ?”[8] अपने अधिकारों के प्रति उसकी सजगता को दर्शाता है | वह विवाह मंडप से भाग जाना चाहती है, किन्तु संस्कार, मर्यादा, पारंपरिक मान्यताओं में जकड़ी गांधारी ऐसा करने में स्वयं को असमर्थ पाती है; परन्तु कुरुवंश और राजकीय आडम्बरों के प्रति घृणा, क्षोभ तथा अपने स्वत्व की निंदा, नारीत्व के अपमान, अस्तित्व के खंडन को गांधारी सम्पूर्ण नारी जाति का अपमान मानकर घृणा, कटुता तथा प्रतिशोध की अग्नि में इस प्रकार जल उठती है कि विवाह मंडप पर आजीवन अपनी आँखों पर पट्टी बाँध रखने की प्रतिज्ञा करती है | यह प्रतिज्ञा जहाँ एक ओर उन्हें (गांधारी) महासती तथा पतिव्रता का गौरव प्रदान करती है तो वहीं दूसरी ओर यही प्रतिज्ञा उनके लिए अभिशाप भी बन जाती है | महासती की असाधारण प्रतिज्ञा साधारण जनता के लिए आदर्श रूप बनकर उभरी पर कुरुवंश के अन्य लोगों को अपने कर्म के अपराधबोध का अहसास करवा गई | गांधारी का यह कथन इस बात को स्पष्ट करता है “ये लोग समझते क्या हैं? मैं स्त्री हूँ, इसलिए मुझ पर अन्याय करने का इन्हें एक नैसर्गिक अधिकार प्राप्त है ? मैं इस परम्परा को तो तोड़ ही सकती हूँ | इन्हें अनुभव करा सकती हूँ कि स्त्री पर अन्याय करने का नैसर्गिक अधिकार इन्हें प्राप्त नहीं है| इन सबको अपने अपराध की आग में तो जला ही सकती हूँ |”[9] सम्पूर्ण कुरुकुल को अपराध बोध करवाने हेतु उठाया गया उनका यह कदम उनके जीवन की विडम्बना मात्र ही बनकर रह गया |
गांधारी का विवाह पश्चात् धृतराष्ट्र के साथ एक नए जीवन को आरम्भ करने का उत्साह, आतुरता, स्वप्न आदि सब झूठ की नींव पर आधारित होने के कारण बिखर जाते हैं, जो उसे अंदर-ही-अंदर इतना अशांत कर देते हैं की उसके अंतर में बने अग्निकुंड में उसका तथा उसके सवजानों का व्यक्तित्व ही जलने लगता है | झूठ और अविश्वास की नींव पर खड़ा दाम्पत्य जीवन, ओढ़े हुए अंधत्व तथा अहंकार व दंभ, बाहरी स्तर पर त्याग की मूर्ति बनकर सामाजिक मर्यादाओं और पत्नीधर्म का पालन करने के कारण वह पत्नीत्व एवं मातृत्व से भी दूर होती चली जाती है | वहीं पांडु जो रोग से उत्पीड़ित थे का विवाह पहले कुंती तथा बाद में माद्री से करवाकर उनकी इच्छाओं व नारी को जीवन की मधुरता से वंचित कर देना गांधारी को और विचलित कर देता है | गांधारी का यह कहना “इसके आगे कोई परम्परा भी है क्या आपके यहाँ ? भीष्म के सपने बेचकर सत्यवती खरीदी गई, काशिराज की लड़कियाँ लूट के सामान की तरह ली गईं ... इसमें नई कड़ी है वह बेचारी माद्री |”[10] इस ओर इंगित करता है कि राजनीति और भावनाओं के भंवर में घिरा कुरुवंश सत्य-असत्य, कर्तव्य तथा भावी उत्तराधिकारी को पाने की आकांक्षा में इस प्रकार उलझकर रह गया कि सब कुछ बिखरता ही चला गया |
यह गांधारी के जीवन की विडम्बना थी कि समस्त कुरुवंश से प्रतिशोध लेने हेतु आँखों पर बाँधी गई पट्टी के कारण वह जीवन के कई पड़ावों पर चाहकर भी उससे मुक्ति न पा सकीं| महाराज धृतराष्ट्र द्वारा आँखों से पट्टी खोलकर अपने व्यक्तिगत जीवन को नए रूप से आरम्भ करने का आग्रहपूर्ण अनुरोध किया जाना उन्हें स्वयं की ही दृष्टि में एक अविश्वसनीय स्त्री बन जाने जैसा लगता था | गांधारी की इसी हठ के चलते उसकी जड़ महानता व महासती के व्रत की अपेक्षा कुंती की ममतापूर्ण भूमिका व दृढ़ स्त्रीत्व की प्रशंसा होती रही | कुंती तथा गांधारी दोनों ही के साथ छल हुआ था परन्तु जहाँ एक ओर कुंती इस सत्य का ज्ञान होने पर कि उसका पति रोगी है टूटी नहीं, बल्कि उसने अपने दुःख और निराशा में भी जीवन को एक सार्थक रूप दिया तथा पति की मृत्यु पश्चात् दीन-हीन व लाचारी का जीवन या औरों पर निर्भर न रहकर अपने पुत्रों को जीवन की प्रत्येक परिस्थिति का सामना करने की शक्ति देते हुए “स्त्री की भूमिका से वह पुरुष की भूमिका में फैल गई |”[11] किन्तु गांधारी अपने दुःख और क्षोभ में जीवन की गतिशीलता को नकारती चली गई | वह अपने जीवन के प्रति उदासीन हो आजन्म कड़वाहट उगलती रही | कुंती से की जाने वाली तुलना के कारण गांधारी की मानसिक कुंठाओं ने उसे संकीर्ण बना दिया |
गांधारी द्वारा विरोध में बाँधी गई उस पट्टी और महासतीत्व के गौरव का उस समय कोई अर्थ नहीं रह गया जब भरी सभा में द्रौपदी के वस्त्रहरण कर उसे अपमानित किया गया | धृतराष्ट्र के इस कथन “लेकिन तुम तो स्त्री हो, तुम तो द्रौपदी की पीड़ा समझ सकती थी ...विद्रोह कर सकती थी ... द्रौपदी को जब नंगा किया जा रहा था तो तुमने चीखकर अपनी पट्टी खोलकर ...सबको रोका क्यों नहीं ?”[12] से स्पष्ट होता है कि यदि वह चाहती तो स्वयं एक अन्यायभोक्ता स्त्री होने के कारण भरी सभा में आँखों से पट्टी उतारकर महासतित्व की शक्ति का प्रयोग कर अन्य असहाय स्त्री का चीरहरण होने से रोकने का प्रयास कर सकती थी | यदि वह ऐसा करती तो किसी में द्रौपदी को अपमानित करने का साहस न होता किन्तु अंधत्व का आवरण ओढ़ने के कारण वह ऐसा करने में असमर्थ रह जाती है |
ओढ़े हुए थोथे अंधत्व की अनदेखी दीवार में जकड़ी गांधारी जाने-अनजाने अपनी संतान से भी दूरी बना लेती है, जिसके चलते वे दिशाहीन हो जाते हैं | ममता व वात्सल्य हेतु तरसते कौरवों को अपना जीवन अधूरा प्रतीत होने लगता है | उन्हें इस बात का दुःख है कि उनकी माँ सदा असाधारण स्त्री बनकर रही, कभी माँ बनने का प्रयास नहीं किया | अपने मातृत्व को अनदेखा करने के कारण ही उनकी सम्पूर्ण पीढ़ी ध्वंस हो गई, जिसकी अग्न पीड़ा में उन्हें आजीवन जलना पड़ा | गांधारी अपनी संतान के लिए कुछ न कर पाने की अपराध भावना से भी ग्रस्त है, तभी तो वह दुर्योधन के प्रश्नों का उत्तर देने में स्वयं को असमर्थ पाती है | यह उसकी ममता ही थी जिसके चलते वह विवश हो एक बार अपनी आँखों पर बाँधी पट्टी खोलकर दुर्योधन को देखती है किन्तु ममता के समक्ष महासत्तीत्व का प्रण इतना विशालकाय एवं महत्त्वपूर्ण बन जाता है कि वह वीरगति को प्राप्त हुए 99 पुत्रों तथा मृतप्राय पुत्र को अंतिम बार न देख पाने की पीड़ा भी सहन कर जाती है | मरनासन्न दुर्योधन का यह कहना “अंधापन ओढ़कर तुम हमारे लिए कुछ करने के लायक नहीं रही |”[13] उसकी ग्लानि को और बढ़ा देता है | यह कहना असंगत न होगा कि कुरुवंश के पुरुषों ने कभी स्त्रियों को पहचाना ही नहीं; न ही उनके अस्तित्व व ममता का ही कोई मूल्य आँका | स्वार्थ हेतु पहले तो राजवधुओं की इच्छाओं, आशाओं, अस्तित्व को कुचला गया, तो वहीं माताओं के रूप में उनसे उनके पुत्र (गांधारी से सौ पुत्रों, कुंती से कर्ण, द्रौपदी से पाँच पुत्रों तथा सुभद्रा से अभिमन्यु) छिन जाने के कारण उनकी वेदना व पीड़ा और बढ़ गई |
एकाएक संतानहीन हो चुकी गांधारी को पांडवों की सज्जनता, सौहार्द्र, निश्छलता दिखावटी लगती हैं | अपने पुत्रों के हत्यारों के आश्रय में रहना व अपने प्रति उनकी सहानुभूति उनके लिए असहनीय हो जाती है, जिसके चलते वे राजमहल छोड़कर आश्रम जाने का निर्णय करती है | सवजनों द्वारा किए गए अन्याय के कारण घृणा, कड़वाहट, प्रतिशोध, प्रतिस्पर्धा, विरोध में जकड़ी ममता, सहिष्णुता, विश्वास जैसी भावनाओं से दूर हो मात्र स्वयं में सिमट कर रह जाती है |
निष्कर्षत: कहा जा सकता है कि नारी जीवन को मुखरित करता यह नाटक गांधारी का अन्याय के विरुद्ध विरोध करने से आरम्भ हो मात्र ओढ़े अंधत्व के आवरण में उलझकर रह जाने वाली स्त्री की व्यथा-कथा व पीड़ा को प्रस्तुत करता है | राजनीतिक हितों की पूर्ति और व्यक्तिगत स्वार्थ के चलते कुरुक्षेत्र में हुए महाभारत युद्ध ने मानवीय संवेदन जन्य कोमल भावों को ही जला कर राख कर डाला|
सन्दर्भ सूचि –