नासिरा शर्मा के ‘शाल्मली’ उपन्यास में चित्रित दाम्पत्य जीवन
परिवार की निरंतरता को बनाये रखने के लिए वैवाहिक संस्था का महत्वपूर्ण योगदान है I विवाह के द्वारा दो अजनबी जीवन भर एक साथ जीने हेतु उद्धत हो जाते हैं I भिन्न परिस्तिथियों में जन्म लेकर, भिन्न संस्कार में पलकर, दो भिन्न व्यक्तित्व के स्त्री-पुरुष का वैवाहिक सूत्र में बंधकर आजीवन एक दूसरे का साथ निभाना कोई आसान काम नहीं I उनका दाम्पत्य जीवन कठोर तपस्या से कम नहीं I पारिवारिक और दाम्पत्य मूल्यों को अपनाकर दम्पति सुखमय जीवन के लिए जिंदगी भर संघर्षरत हैं I परस्पर स्नेह, विश्वास, समझौता, सहनशीलता, एक दूसरे के प्रति सम्मान और आदर की भावना, कर्तव्यनिष्ठता, वैचारिक एकता, आत्मीयता, भावनाओं का कदर, तटस्थता, प्रेरणादायी आदि मूल्यों को अपनाकर दम्पति आगे बढेंगे तो दाम्पत्य जीवन सुखमय बनेगा I किन्तु आधुनिक संदर्भ में शिक्षा, नगरीकरण, वैश्वीकरण, पारिवारिक मूल्यों में आये परिवर्तन के कारण आजकल इस पवित्र सम्बंध में परिवर्तन देखा जा सकता है I लेखिका नासिरा शर्मा ने परिवेश में आये बदलाव से प्रभावित दाम्पत्य जीवन के एक पक्ष को शाल्मली उपन्यास के द्वारा समाज के सामने प्रस्तुत किया है I ‘शाल्मली’ नामक यह उपन्यास 1987 में लिखा गया है I सर्वगुण सम्पन्न, शिक्षित, सुसंस्कार, नौकरीपेशा नारी शाल्मली और रुढ़िवादी पति नरेश के दाम्पत्य जीवन का चित्रण इस उपन्यास में किया गया है I तैंतीस सालों के बाद भी यह उपन्यास आधुनिक संदर्भ के लिए प्रासंगिक है I शाल्मली जैसी भारतीय नारी आज भी पारिवारिक व्यवस्था को सुशिक्षित रखने में सहयोगी है I शाल्मली दाम्पत्य जीवन में आये सुखद और दुखद अनुभवों को आत्मसात करते हुए जीवन में आगे बढती रही I
विवाह के पश्चात् शिक्षित नारी कई आकांक्षाओं और अपेक्षाओं के साथ ससुराल में कदम रखती है I वह पति को परम्परागत रूप से ना देखकर, एक दोस्त की तरह उनसे व्यवहार कर, अपने मन की बात को उन तक पहुँचाने और उनके व्यक्तित्व को जानने की पूरी कोशिश करती है I पर परम्परागत और रूढ़िवादी पुरुष सखा बनकर नहीं, अपितु स्वामी बनकर उस पर हुकुमत करना शुरू करता है I अपने को श्रेष्ठ समझनेवाला पति, पत्नी को दासी मानकर पग पग पर अपमानित करता रहता है I पति के मानसिक धरातल तक पहुँचने का उसका हर प्रयत्न असफल सिद्ध होता है I पति का संवेदनहीन व्यवहार दोनों के बीच अंतराल पैदा करती है I दाम्पत्य जीवन के इन सभी संदर्भों का उल्लेख ‘शाल्मली’ उपन्यास में लेखिका ने किया है। उपन्यास की शाल्मली सुशिक्षित और सुसंस्कारी नारी है I कर्तव्यनिष्ठ होकर पति की सेवा कर उनके मन मस्तिष्क पर जगह पाना चाहती है I दुर्भाग्यवश उसका पति नरेश परंपरागत पुरुष का वह साकार रूप है जो पत्नी को सहधर्मिणी न मानकर उस पर हुकुम जताना चाहता है I इसका उल्लेख शाल्मली ने इस प्रकार चित्रित किया है –
विवाह के बाद कुछ दिनों बाद से ही उसे लगने लगा कि उनके बीच कुछ टूटा था, जिससे एक ही ध्वनि गूंजी थी कि नरेश पति है और वह पत्नी I स्वामी और दासी का यह संबंध एक काली छाया बन उसके और नरेश के बीच एक मजबूत दीवार का रूप धरने लगी थी I उसने आरंभ में बहुत हाथ-पैर मारे I मानवीय संबंधों की गहराई को परंपरागत चले आए पति-पत्नी के रिश्तों से अलग हटकर एक पारस्परिक समझ और बराबरी के स्तर पर उसे समझाने की कोशिश की थी, मगर बात उससे बिगड़ी थी, वह घबराकर पहली कहीं बात को विस्तार से समझाने की अधिक कोशिश करती, मगर फिर उससे बात न बन सकी, बल्कि बिगड़ती ही चली गई I (10)
दाम्पत्य जीवन को सुदृढ़ बनाने वाला प्रमुख तत्व आत्मीयता ही है I इसके अभाव में दाम्पत्य जीवन की नींव डगमगा जाती है I पति पत्नी दोनों एक दूसरे को अच्छी तरह समझने और समझाने से ही आत्मीयता बढ़ेगी। जिससे वे एक दूसरे के निकट सरलता से पहुँच सकते हैं I किन्तु यह दोनों के द्वारा अपने अहम् को त्यागने पर ही यह सम्भव है I पर जहाँ दाम्पत्य सम्बंध आत्मिक न होकर भौतिक होगा वहाँ सम्बंधों में शिथिलता आ जायेगी I ऐसी परिस्थितियों में जीवन जिया नहीं जाता है बल्कि ढोया जाता है I इसी संदर्भ का उल्लेख लेखिका ने शाल्मली उपन्यास में किया है I उपन्यास की शाल्मली विवाह के बाद अपने पति नरेश को समझने के लिए हर तरह से प्रयासरत है I पर कभी भी अपने पति को समझ नहीं पाई I शाल्मली ने जब भी नरेश से भावनात्मक रूप से जुड़ने की अपेक्षा की तो नरेश ने उसे दुत्कार दिया जिससे वह भौतिक रूप से ही जुड़ी रहने को विवश रही I पत्नी का धर्म निभाने के लिए वह भौतिक रूप से उसका साथ देती है पर आत्मिक रूप से वह सदा दूर ही रहती है I इसका चित्रण उपन्यास में इस प्रकार है-
इतने दिन शादी को गुजर गए, मगर आज भी वह नरेश के व्यक्तित्व में न झांक सकी I वह खुलता ही नहीं I जब भी उसने कोशिश की, हर बार बंद दरवाजे से माथा टकराया I खाना, प्यार, सोना- जागना इससे परे भी अपने जीवन साथी से एक पहचान बनती है, उसका आरंभ शाल्मली को कहीं नजर नहीं आता, तभी वह नरेश को केवल भौतिक रूप से समर्पण कर पाती है I आत्मा और भावना उसी तरह अनछुई- खामोश पड़ी सोती रहती है I ( 26)
दाम्पत्य जीवन को सुखमय बनाने के लिए पति-पत्नी दोनों का एक दूसरे के प्रति सम्मान भाव रखना अति आवश्यक है I जहाँ पति, पत्नी को अपनी अर्द्धांगिनी न मानकर अपनी सम्पत्ति मानकर उपभोग करता है वहाँ वह पत्नी को मानव के रूप में न देखकर तुच्छ वस्तु मानता हैI आधुनिक पुरुष शिक्षित होकर, सभ्य बनकर सभी रिश्तों के प्रति अपना कर्तव्य निभाने वाला होकर भी विवाह के बाद पत्नी से उसका व्यवहार रूढ़िवादी पुरुष से कम नहीं I उसके मन मस्तिष्क में धार्मिक ग्रंथों में बताये गये रूढ़िवादी पुरुष का रूप विराजमान होने के कारण वह वैसे ही व्यवहार पत्नी के प्रति करता है I नारी उन के लिए सिर्फ भोग्या ही है I उसके संवेदनहीन व्यवहार से दाम्पत्य जीवन तनावग्रस्त बन जाता है I इस संदर्भ का उल्लेख शाल्मली उपन्यास में है I उपन्यास का नरेश शिक्षित, महानगर दिल्ली में रहनेवाला होकर भी, रूढ़िवादी विचारधारा के समर्थक है I वह अपने को पति परमेश्वर मानकर पत्नी को पाँव की धूल मानता है I नरेश नारी के प्रति अपने विचार को इस प्रकार व्यक्त करता है कि –
तुम जानना चाहोगी पुरुष की दृष्टि में औरत क्या है ? भोगने की वस्तु.... वही उसकी पहचान है I इसलिए तुम औरतों की तरह रहो, इसी में तुम्हारा उद्धार है और इस घर का कल्याण और गृहस्थी का सुख I (128)
इस प्रकार एक और संदर्भ है जहाँ भी नरेश परंपरागत रूढ़िवादी सोच के वशीभूत अपने मर्द होने के वर्चस्व में पत्नी को अपने अधिकारों से वंचित रखता है I वह शाल्मली से कहता है कि –
नियम और धर्म केवल कागज पर लिखने के लिए होते हैं या फिर तुम औरतों के लिए बनाए जाते हैं I इनसे हटकर एक और कानून होता है, जो हम मर्दो के बीच प्रचलित होता है I उसका अपना संविधान, अपना नियम, अपना धर्म होता है I मैं जो कुछ कर रहा हूँ, उसी प्रचलित संविधान के नियमों के अनुसार कर रहा हूँ समझी !(144-145)
नरेश के कठोर व्यवहार के कारण शाल्मली हर वक्त चिंताग्रस्त हालत से गुजरती है I
दाम्पत्य जीवन को सफल बनाने का एक और मंत्र है समानता का व्यवहार I जहाँ पति पत्नी दोनों एक दूसरे को समझ कर, समानता का व्यवहार करते हुए आगे बढ़ेंगे तो वहाँ संघर्ष कम ही दिखाई देगा I पर ऐसे भी पुरुष हैं कि पत्नी को गुलाम समझकर उसको मात्र एक अबला नारी के रूप में ही देखते हैं I हर बार पुरुष होने की हुकुमत जताकर वह एक प्रकार के आनंद की भी अनुभूति करता है I ऐसे लोगों का विचार है कि किसी भी काम को करने लायक अक्ल स्त्रियों के पास नहीं है I हर बात में उसकी तुलना करके अपनी पत्नी को नीचा दिखाने की कोशिश पुरुष करता रहता है तो वहाँ दाम्पत्य जीवन नरक तुल्य बन जाता है I ऐसे ही एक संदर्भ शाल्मली उपन्यास में है I उपन्यास में शाल्मली का पति हर बात में उसे स्त्री होने का एहसास दिलाकर नीचा दिखाने की कोशिश कर, उसकी क्षमता पर उँगली उठाकर, अपनी तुच्छ मानसिकता को व्यक्त करता है I हर समय शाल्मली बड़े संयम से उनको समझाने की कोशिश करती है I पर जब वह सीमा का अतिक्रमण करता है तो वह उससे कहती है –
एक तो तुमसे विनम्र निवेदन है कि बार-बार औरत कहकर मुझ पर टीका-टिप्पणी मत किया करो I दूसरे, औरत की अक्ल पर शक करना छोड़ दो I एक स्तर के बाद हम औरत-मर्द नहीं रह जाते हैं, बल्कि हमारा काम हमारी पहचान होती है, हमारी अक्ल हमारी कसौटी होती है ..(56)
और एक संदर्भ में नरेश उससे उसके अधिकारों को छीनना चाहता है I हर समय नरेश अपने पति होने का अधिकार जताते हुए शाल्मली के साथ जबरदस्ती करता है तो उसको समझाती है कि-
मुझे अधिकार देने वाला भले ही तुम अपने को समझो, मगर याद रखो, कोई भी किसी को आसानी से उसका अधिकार नहीं देता है I अधिकार लेने वाला तो लड़कर उसे प्राप्त करता है I (74)
दांपत्य जीवन को सुदृढ़ बनाने के लिए पति पत्नी को समझौता करना पड़ता है I अजनबी स्त्री पुरुष वैवाहिक संस्था के द्वारा दंपति बनकर एक दूसरे के करीब आने की आजीवन निरंतर कोशिश करते रहते हैं I वैवाहिक बंधन में बंधने के बाद अधिकतर नारियाँ ही अधिक समझौता करती हैं I खाने-पीने से लेकर जीवन के तौर तरीका तक बदल जाता हैI फिर भी दाम्पत्य जीवन को बनाये रखने के लिए नारी परिवेश और परिवार के अनुकूल अपने को ढाल देती हैI फिर भी वह अपने अस्तित्व और आत्म सम्मान को खोना नहीं चाहती I इस संदर्भ का उल्लेख शाल्मली उपन्यास में है I शाल्मली का पति नरेश किसी भी विषय पर समझौता न कर, पति होने का अधिकार जताता रहता है I शाल्मली आत्म सम्मान और अस्तित्व का ध्यान रखते हुए कर्तव्य पथ पर अग्रसर होकर साथ ही अपने अधिकार के प्रति सतर्क भी रहती है I शाल्मली पति को समझाती है कि –
बताओ, हम औरतों क्या है,? गीली मिट्टी? कितनी बार हम अपने को मिटाकर नए-नए रूप में ढले ? यानी हमारा कोई अस्तित्व नहीं, अधिकार नहीं, विवाह का अर्थ है, अपना जन्म-स्थान भुला देना और एक मनुष्य की इच्छा और रुचि का दास बन जाना ?(75)
दाम्पत्य जीवन रूपी गाड़ी को सुचारु रूप से चलाने के लिए दम्पतियों का सहयोग अति आवश्यकता हैI आधुनिक समाज में समय और आवश्यकता की मांग के आधार पर विवाह के बाद नारी भी कार्यशील है I ऐसे हालात में उसे दोहरी जिम्मेदारी निभानी पड़ती है I घर और बाहर दोनों को समान रूप से संभालना पड़ता है I इन हालातों में नारी चाहती है कि घरेलू काम में उसका पति उसका सहयोग करें I पर मनुवादी विचारधारा के पुरुष पत्नी को अपने पैरों की जूती समझते हैं I उनके अनुसार घर का काम सिर्फ औरतों को ही सम्भालना है, उसमें पुरुष कभी भी हाथ नहीं बटाते क्योंकि इससे उनके पुरुषत्व तथा अहं की हानि होती है। ऐसा एक संदर्भ शाल्मली उपन्यास में हैं I उपन्यास में नरेश हर दिन शाम को किसी न किसी दोस्त को घर बुलाकर पार्टी देता है I पर किसी भी घरेलू काम में पत्नी की सहायता नहीं करता I रात बहुत देर के बाद पार्टी खत्म होने के बाद कभी-कभी शाल्मली अपने पति से घरेलू काम में मदद माँगती है तो उस वक्त नरेश साफ इंकार कर देता है I उपन्यासकार ने दोनों के बीच के बातचीत के जरिए परंपरागत सोच विचार वाले पुरुष के मन: स्थिति को पाठक तक पहुँचाने की कोशिश जो की है वह इस प्रकार है -
“ओह नो! औरतों के कामों में मुझे कोई दिलचस्पी नहीं है I” नरेश लेटा लेटा कहता I
“औरत- मर्द क्या होता है ? यह हमारे घर का काम है I” शाल्मली उसे पकड़ती I
“घर औरत का होता है, वह जाने I कमाना मर्द का काम है, वह मैं करता हूं I अपने ऑफिस के काम में तुम्हारी सहायता लेता हूँ क्या?” (33)
“घर औरत का होता है, वह जाने I कमाना मर्द का काम है, वह मैं करता हूं I अपने ऑफिस के काम में तुम्हारी सहायता लेता हूं क्या?” (33)
पति-पत्नी की दोहरी मानसिकता के कारण दाम्पत्य जीवन में विघटन की स्तिथि आती है। आधुनिक युवा पुरुष चहते हैं कि पत्नी शिक्षित तथा सर्वगुणों से संपन्न हो I ऐसी ही एक नारी को पाकर पुरुष अपने को भाग्यवान समझता है I खासकर कमानी वाली पत्नी मिल जाती है तो सोने पर सुहागा हो जाता है और उसकी हर इच्छाएँ तथा अपेक्षाओं की पूर्ति हो जाती है I शाल्मली उपन्यास में नरेश की स्तिथि भी ऐसी ही है I शाल्मली जब बड़ी अफसर बनती है तो वह भविष्य के प्रति निश्चिंत हो जाता है I नरेश के व्यवहार को उपन्यासकार ने इस प्रकार चित्रित किया है कि नरेश अब अपने ऑफिस से अधिक शाल्मली के काम में रुचि लेने लगा था I उसे अपने भविष्य से ज्यादा शाल्मली का भविष्य उज्जवल नजर आता था I उसे जो मिलना था, सो मिल गया I अपने भाग्य के फैसले से निश्चिंत था I भले ही उसका वह ओहदा बहुत बड़ा नहीं था, तो भी शाल्मली के रूप में जो कुछ मिला है, वह कहीं ज्यादा है, इसलिए नरेश की आत्मसंतुष्टि का कोई आर-पार नहीं रह गया था I ऑफिस में बेफिक्र और मित्रों के बीच आनंदपूर्वक समय गुजारता था I (57) आर्थिक रूप से सुदृढ़ बनने के बावजूद भी रूढ़िवादी नरेश पत्नी को अपने समान दर्जा कभी नहीं दे पाता I सभी सुख-सुविधाओं का अनुभव करते हुए अपनी पत्नी से मानसिक रूप से दूर रहता है I नरेश और शाल्मली पति पत्नी होकर भी दो अजनबी की तरह दाम्पत्य जीवन व्यतित करते हैं I अपनी पत्नी की कमाई से अपनी हैसियत को बढ़ाने वाला पुरुष, कभी भी उससे भावनात्मक सम्बंध जोड़ने का प्रयास नहीं करता I हृदयहीन पति के व्यवहार से दुखी शाल्माली इस प्रकार सोचती है- नरेश अपना होकर भी कितना अजनबी लगता है ! हर बार इस के नए उगे रूप से परिचित होना, कितनी अनहोनी-सी घटना लगती है I मुझे पैसे की खान समझने वाला यह मनुष्य अपने सीने में इंसान का दिल नहीं रखता है क्या ? (101)
दांपत्य जीवन में पति-पत्नी के बीच दूरियाँ आने का प्रमुख कारण संदेह है I दांपत्य जीवन रूपी महल विश्वास की बुनियाद पर खड़ी रहती है I पर जब विश्वास रूपी बुनियाद हिल जाती है तो वहाँ महल स्वयं अपने आप ढह जाता है I किसी भी रिश्ते को मजबूत बनाने के लिए दोनों की तरफ से विश्वास की अति आवश्यकता होती है I नौकरी पेशा नारी के जीवन में ज्यादातर दांपत्य जीवन में दरारें पड़ने का प्रमुख कारण संदेश ही है I अपनी नौकरी के सिलसिले में नारी को कई पुरुषों से मिलना जुलना पड़ता है I परंपरागत सोच में ढले पति इसको सहन नहीं कर पाते I उसके मन में अपनी पत्नी को लेकर सदा एक प्रकार की शंका बनी रहती है। इसी संदेह की वजह से दाम्पत्य जीवन में दरारें पडती हैं I इस संदर्भ का चित्रण शाल्मली उपन्यास में उपन्यासकार ने चित्रित किया है I उपन्यास की शाल्मली एक बड़ी अफसर होने के नाते, अपने काम के सिलसिले में उन्हें कई पुरुषों से मिलना जुलना पड़ता है I पत्नी के चरित्र को अच्छी तरह जानते हुए भी पति को उसके प्रति संदेह पैदा होता है I जिसका चित्रण लेखिका ने इस प्रकार किया है- पत्नी के सहकर्मी, उनके साथी, वे भी पुरुष ! यह धक्का इतने दिनों तक दिल्ली में रहने के पश्चात भी वास्तविक जीवन अनुभव के स्तर पर सहना और उसे पचाना नरेश जैसे मर्द के लिए जरा कठिन काम था I कुछ कहकर वह यह भी दिखाना नहीं चाहता था कि संकीर्ण दृष्टि रखने वाला, एक रूढ़िवादी परिवार से आने वाल, पिछड़े विचार वाला पुरुष, एक ईर्ष्यालु पति है I (48) और एक संदर्भ में भी नरेश के शंकालू प्रवृत्ति को उपन्यासकार ने इस प्रकार चित्रित किया है कि “ मैं तो मरता ही हूँ इस पर और जाने कितने मरते होंगे I” एकाएक शंका का काला नाग बारिश में भीगता हुआ जाने कहाँ से आकर नरेश के मस्तिष्क में कुलबुला उठा I ( 89)
दाम्पत्य जीवन में सहनशीलता की अनिवार्यता को कोई नहीं नकार सकता है I आजकल वैवाहिक जीवन में दम्पतियों के बीच में सहनशीलता की कमी के कारण आज विवाह विच्छेद आम बात हो गई है I विवाह को सात जन्मों का बंधन मानने वाले लोग आज इस पवित्र बंधन को तोड़ने में जरा भी हिचकिचाते नहीं है I आज शिक्षा में आए बदलाव के कारण स्त्री पुरुष उन्नति के शिखर पर पहुँच चुके हैं I नई-नई रीति-रिवाजों को अपना रहे हैं I पर अपने दांपत्य जीवन को बचाने के लिए उनमें सहनशीलता की कमी आ जाती है I जहाँ एक दूसरे के प्रति सहनशक्ति की कमी आ जाती है वहाँ रिश्तो में दरारें पड़ जाती है I शाल्मली उपन्यास में शाल्मली अपने पति से आत्मिक रूप से अलग होकर भी उनसे अलग होने की बात कभी नहीं सोचती है I शाल्मली का विचार है सहिष्णु से ही रिश्ते को जोड़ना पड़ता है तोड़ने से किसी को कोई लाभ नहीं है I इसी विचार को वह इस प्रकार व्यक्त करती है कि मैं आजकल एक बात सोचती रहती हूँ कि हमारी इस शिक्षा से क्या लाभ, जो हम में सहनशक्ति समाप्त होती जा रही है I एक तरफ हम बड़ी-बड़ी डिग्रियों या मोटे-मोटे शोध ग्रंथों से दबे जा रहे हैं, दूसरी तरह मानवीय संबंध की पकड़ हमारे हाथों से छूटती जा रही है I उसके लिए समय निकालना समय का दुरुपयोग लगता है I (161-162)
शाल्मली उपन्यास में उपन्यासकार ने दाम्पत्य जीवन में आये परिवर्तन के हर पहलु को दिखाने की कोशिश की है I आजतक भारत में वैवाहिक सम्बंधों को सुचारु रूप से चलाने में नारी का योगदान महत्वपूर्ण है I अपनी आकांक्षाओं और अपेक्षाओं को त्यागकर परिवार के सुख को ही प्रमुख माननेवाली नारी के कारण ही भारत पवित्र भूमि बना है I शाल्मली अपने दाम्पत्य जीवन में आरम्भ से लेकर अंत तक संघर्षरत है I सर्वस्व पाकर भी जिंदगी में अकेलापन से जूझती, पति के एकनिष्ठ प्यार के लिए जीवन भर प्रतीक्षा करती रही I शाल्मली उपन्यास की नायिका शाल्मली ही नहीं भारत की अधिकांश नारियाँ सेमल के पेड़ के समान अपना सर्वस्व परिवार के लिए बलिदान कर तन-मन-धन से सेवारत हैं I शाल्मली जैसी नारियाँ पारिवारिक और दाम्पत्य मूल्यों को आत्मसात कर जीवन रूपी संग्राम में एक असाधारण योद्धा के समान गतिशील है I सकारात्मक दृष्टिकोण, सम्बंधों के प्रति दृढ संकल्प होकर, पगपग पर अपमानित होने पर भी समझौतापरस्त बनकर दाम्पत्य जीवन को बचाने वाली शाल्मली जैसी नारियाँ ही देश की भावी पीढ़ी के लिए प्रेरणादायी हैं I
संदर्भ-ग्रंथ
डॉ. पी. सरस्वती, सहायक प्रोफेसर, हिंदी विभाग, मद्रास विश्वविद्यालय, चेन्नई-600 005