सर्वेश्वरदयाल सक्सेना का साहित्य, पत्रकारिता और राजनीतिक चेतना
हिंदी कविता व नाटक की व्यापक जनवादी चेतना के संदर्भ में सर्वेश्वरदयाल सक्सेना एक ऐसे साहित्यकार और पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हैं जिनकी रचनाएं पाठकों से जीवंत रिश्ता बनाए हुए हैं। वे लीक व दायरों से बाहर के साहित्यकार थे। उनके साहित्य व पत्रकारिता में लोकोन्मुखता और व्यंग्यात्मक्ता सहजता से परिलक्षित हुई है। सर्वेश्वरदयाल हिंदी साहित्य के महत्त्वपूर्ण कवि – नाटककार, कहानीकार एवं हिंदी पत्रकारिता के ज्योतिस्तंभ पत्रकार के रूप में प्रतिष्ठित हुए। एक कवि और नाटककार के रूप में उन्होंने देश और समाज की ज़िंदगी के यथार्थ का बड़ा ही बेबाकी से चित्रण किया है तो एक पत्रकार के रूप में उन्होंने तत्कालीन राजनीतिक गतिविधियों की खुलकर आलोचना की।
सर्वेश्वरदयाल सक्सेना की कविताओं,कहानियों व नाटकों में मानव जीवन का बहुरंगी यथार्थ, राजनीतिक चहल-पहल, प्रकृति-प्रेम आदि का सुंदर एवं सहज भाषा में चित्रण हुआ है। उनकी कविताओं, नाटकों और कहानियों को पढ़ना एक भरे-पूरे मनुष्य की दुनिया से गुज़रना है। एक तरफ जनता की निष्क्रियता के प्रति उनमें क्षोभ है तो दूसरी ओर उनकी शक्ति में उन्हें गहरी आस्था है। इसलिए ही वे कहते हैं कि –
“नहीं नहीं प्रभु तुमसे शक्ति नहीं माँगूँगा,
अर्जित करूँगा उसे मर कर बिखर कर”[1]
ऐसी अनेकों कविताएं और नाटक सक्सेना जी ने लिखे हैं, जिनमें वे जनता की सामूहिक शक्ति को जगाने का प्रयास करते हैं। वे आलोचनात्मक विवेक संपन्न कवि थे। ‘देशगान’ और ‘कालाधन’ जैसी कविताएं और 'बकरी' जैसा नाटक उन्हीं के जैसा व्यक्ति लिख सकता था। वह 'दिनमान' पत्रिका से जुड़े एक महत्त्वपूर्ण पत्रकार थे। उनका 'चरचे और चरखे' स्तंभ 'दिनमान' की पहचान रहा। उनकी पत्रकारिता व्यंग्यात्मक्ता व साहसपूर्ण पत्रकारिता का श्रेष्ठ उदाहरण है।
'काठ की घंटियां', 'बांस का पुल', 'एक सूनी नांव', 'गर्म हवाएं', 'कुआनो नदी', 'जंगल का दर्द', 'खूंटियों पर टंगे लोग' आदि उनके महत्त्वपूर्ण कविता संग्रह हैं। उन्होंने 'पागल कुत्तों का मसीहा', 'उड़े हुए रंग', 'सोया हुआ जल', जैसे लघु उपन्यास की रचना कर हिंदी उपन्यास साहित्य को नई जमीन दी। 'बकरी', 'लड़ाई', 'अब गरीबी हटाओ', 'कल भात आएगा' तथा 'हवालात' जैसे नाटक और 'अंधेरे पर अंधेरा' आदि कहनी संग्रह लिखकर आज़ादी के बाद सामाजिक एवं राजनीतिक यथार्थ यथा आर्थिक विपन्नताका बड़ा ही विश्वसनीय चित्रण किया है। उनकी भाषा आम बोलचाल की भाषा है, यही कारण है कि लोग सहजता से उनके साहित्य से जुड़ जाते हैं।
सक्सेना जी ने अपने समय की राजनीति पर तीखी टिप्पणियां लिखी हैं । समाजवादी, लोहियावादी विचारों की भावभूमि ने उनके लेखन को अतिरिक्त धार दी है । वे समूची राजनीतिक व्यवस्था के खिलाफ आक्रोश से भरे दिखते हैं । आम आदमी के जीवन से जुड़ी विसंगतियों, उसके संत्रासों के खिलाफ वे राजनीति से नैतिक अपेक्षाएं पालते हैं । ऐसा न होता देख वे समूची राजनीतिक सत्ता को कटघरे में खड़ा करके आरोपित करते हैं । राजनीतिक क्षेत्र में बढ़ रही मूल्यहीनता, गैरजिम्मेदारी एवं जनता के प्रति अन्याय एवं दमन पर वे हल्ला बोलते नज़र आते हैं । श्रीमती इंदिरा गांधी पर व्यंग्य करते वे कहते हैं -
" बीबी इंदिरा रे
तू तो लोकतंत्र की रानी ×××
गोली नाचे, डंडा नाचे
नाचे आँसू गोला
दीन दुखी की चीखें नाचे ×××
नंगी हो महंगाई नाचे ×××
गिट पिट गिट अंग्रेजी नाचे ×××
संविधान के पन्ने नाचे "[2]
तो इस अन्य उदाहरण में वे चुनाव और इंदिरा गांधी पर व्यंग्य करते कहते हैं कि-
"चुनाव लड़ने वालों !
तुम किसी भी पार्टी में क्यों न हो
ले जाओ नया नारा
इतना लगाओ, इतना लगाओ
कि फट जाए आसमान सारा
'इंदिरा गांधी ज़िंदाबद
बाकी दुनिया मुर्दाबाद।' "[3]
राजनीति से सामाजिक बदलाव की अपेक्षा पालते हुए सक्सेना जी कभी निराश नहीं दिखते । उन्हें लगता है कि लोग खड़े होंगे और परिवर्तन आएगा । राजनीतिक तंत्र के प्रति गहरी निराशा के बावजूद उनमें एक आशावाद भरा है । यही आशावाद उनके लेखन की जीवंतता है । वे समाज के प्रत्येक वर्ग से यह आशा पालते हैं कि वह राजनीतिक दुरावस्था के विरुद्ध चल रहे प्रतिरोधों का हिस्सेदार बने । आम आदमी के प्रति लगाव के कारण सक्सेना जी की पत्रकारिता एक जनधर्मी रुझान की पत्रकारिता कही जा सकती है। उनकी राजनीतिक टिप्पणियां इसीलिए बहुत तीखी हो जाती हैं । शब्दों से हथियार का काम लेना वे बखूबी जानते हैं, पर इन सबके बीच वह लेखक की मर्यादा का विचार भी करते हैं । उनकी इच्छा बदलाव के लिए लड़ रहे लोगों को हौसला देने की रही है । इसीलिए बहुत छोटे पैमाने पर गांव-कस्बों में चलाए जा रहे जनसंगठनों के प्रतिरोध उनमें एक आशा का संचार करते हैं । सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था को सक्सेना जी ने अपने साहित्य और पत्रकारिता के माध्यम से बहुत फटकारा है । ऐसे प्रसंगों के सीमित प्रभाव के बावजूद वे उसे महत्त्वपूर्ण मानते हुए अपनी पत्रिका एवं रचनाओं में जगह देते थे । सत्य के प्रति उनका आग्रह जबरदस्त था । वे सामंतवादी, सत्तावादी संस्कारों से परे एक आम आदमी की पीड़ा के वाहक थे । उनकी समूची सृजन यात्रा इसी भाव में रची-बसी है । राजनीतिक पत्रकारिता उनके लिए सत्ता-प्रतिष्ठानों की सत्तावादी राजनीतिक शैली का आईना मात्र न थी, वे सरकार एवं जनता के अंतर्संम्बधों की विवेचना करते, और पत्रकारिता उनके लिए सामाजिक व राजनीतिक परिवर्तन का हथियार थी । इन अर्थों में सक्सेना जी अपने सामाजिक व राजनीतिक उत्तरदायित्व के भाव से न कभी कटे न विलग हुए । उनकी यह पत्रकारीय सोच आज के समय में चल रही राजनीतिक पत्रकारिता की सोच के बिल्कुल उलटी थी । उनकी राजनीतिक पत्रकारिता लोगों में अव्यवस्था के विरुद्ध की लड़ाई में सहायक बनने के लिए थी । उनकी राजनीतिक पत्रकारिता लोगों में सामाजिक-राजनीतिक चेतना जगाने एवं उन्हें बदलाव के लिए खड़ा करने को प्रयासरत थी। इन अर्थों में वे एक सच्चे लोकमत निर्माता साहित्यकार व पत्रकार थे ।
सक्सेना जी आज़ादी के बाद गांधी और गांधीवाद के हुए व्यापक दुरुपयोग पर बहुत दुःखी थे । आज़ादी के बाद गांधी के सपनों की उनके शिष्यों ने जैसी दुर्दशा बनाई वह सक्सेना जी के लिए असहनीय पीड़ा का विषय था । वे वर्तमान शासन एवं गांधीवाद के आदर्शों की तुलना करते हुए ‘चरखे और चरखे’ के आलेख ‘गांधीवाद इस देश की चेतना में जहरवाद की तरह फैल गया है’ में सपनों का हवाला देते हुए वर्तमान सत्ता को गांधीवादी विचारों का हत्यारा बताते हैं । अपने इस आलेख में सपनों के तार-तार होकर बिखर जाने की व्यथा को अभिव्यक्त करने के लिए वे अपनी एक कविता का हवाला देते हैं –
“मैं जानता हूँ
क्या हुआ तुम्हारी लंगोटी का ?
उत्सवों में अधिकारियों के
बिल्ले बनाने के काम आ गई ।
भीड़ से बचकर
एक सम्मानित विशेष द्वार से
आखिर वे उसी के सहारे तो जा सकते थे ।
और तुम्हारी लाठी ?
उसी को टेककर चल रही है
एक बिगड़ी-दिमाग डगमगाती सत्ता-”[4]
सक्सेना जी, गांधी के नाम का घृणास्पद इस्तेमाल देखकर अपने आपको रोक नहीं पाते, वे लिखते हैं – “गांधी और गांधीवाद के नाम पर हर एक का रोजगार चमक रहा है । उनकी समाधि पर फूल चढ़ाकर, सब अपनी फूलों की सेज सजाते रहे हैं । इस पर ज्यादा कहना कोई मायने नहीं रखता । इस देश के नेताओं का काम गांधी के बिना नहीं चलता । यद्यपि गांधी से किसी को कोई सरोकार नहीं है । बल्कि गांधी के सिद्धांत के विपरीत जो कुछ है उसे ही गरिमा प्रदान करने की घटिया कोशिश की जा रही है ।”[5] यह टिप्पणी बताती है कि सक्सेना जी का लेखन किसी को नहीं छोड़ता, वे सत्य के आग्रही थे, और उसके लिए कुछ भी करने की आकांक्षा से उनकी लेखनी भरी-पूरी है ।
सक्सेना जी की पत्रकारिता में व्यंग्य का गहरा पुट है । वे अपनी राजनीतिक टिप्पणियों में व्यंग्य करते दिखते हैं । ‘भारतीय राजनीति स्पष्टीकरण कोश’ आलेख में सक्सेना जी व्यंग्यात्मक लहजे में राजनीतिक क्षेत्र में मचे अंधेर को बेनकाब करते हैं । राजनेताओं के बदलते बयानों, उनके दलबदल एवं अस्थिर एवं गैर विचारधारात्मक गतिविधियों को रेखांकित करते हुए सक्सेना जी इस पूरी धमाचौकड़ी पर अपना क्षोभ व्यक्त करते हैं । एक स्थान पर नेताओं पर व्यंग्य करते वे कहते हैं –
"अमरीका में डांस करें
औ' रूस में मारे कुश्ती,
देखो अपने नेताओं की
यारों धींगा मुश्ती।"[6]
एक अन्य उदाहरण देखिए-
"पाँच देव सम पाँच दल, लगी ढोंग की रेस
जिनके कारण हो गया देश आज परदेश।"[7]
सक्सेना जी जनता में एक राजनीतिक चेतना का विकास देखना चाहते थे । वे चाहते थे लोग आगे आएं और अपनी समस्याओं के समाधान के लिए तत्परता दिखाएं । वे मतदाता की उदासीनता के खिलाफ थे । वे चाहते थे कि मतदाता अपने नेताओं से सवाल करें । वे उन पर एक जनदबाव बनाएं ताकि वे जनकल्याण के कार्य में समय दें । सक्सेना जी जनता और राजनेताओं के ठंडे रिश्ते एवं दूरियों में एक संवाद बनाना चाहते थे । उनका मानना था कि संवाद के बिना उत्तरदायित्व एवं भागीदारी के भाव नहीं पनप सकते । वे अपने लेखन में लोगों का आह्वान करते हैं कि वे अपने नेताओं से जवाब मांगें । उनके वादों पर अमल के लिए उन पर दबाव बनाएं, तभी अराजकता मिटेगी और राजनीति में उत्तरदायित्व के भाव आएंगे ।
सक्सेना जी की पत्रकारिता केवल समस्याएं नहीं उठाती, वर्ण अपने पाठकों को समस्या के व्यावहारिक समाधान बताती चलती है । वह अंधेरों से मुक्ति के रास्ते बताती है । वह बताती है अन्याय, शोषण एवं दमन के खिलाफ लोग कैसे प्रतिरोध करें । वे जनता को एक सामाजिक दण्ड शक्ति के रूप में बदलते देखना चाहते थे । जनता से वे अपेक्षा पालते हैं कि वह राजनीतिक दांवपेंच करने वालों से जवाब मांगें । वे साफ लिखते हैं – “बहुत छूट मिल गई है इस देश में नेताओं को । न वह कुछ करना चाहते हैं और न हम उन्हें कुछ करने के लिए मजबूर करना चाहते हैं । इस चुनाव के बाद यह नहीं चलना चाहिए । लोक प्रतिनिधियों से टकराना होगा और उन्हें बताना होगा कि अब वे बिना घोषणापत्र के अनुरूप काम किए समाज में वापस नहीं लौट सकते, न स्वीकार किए जा सकते हैं । उन्हें काम करने के लिए मजबूर करने से ही लोक-कर्म की शुरुआत होगी जिधर से होकर क्रांति का रास्ता है ।”[8]
सक्सेना जी ने राजनीतिक सवालों पर तीखे व्यंग्य लिखे और लोगों को झकझोरा । वे सवाल खड़े करते थे और उनके पास इसके जवाब थे । उनकी आँखों में बदलाव का सपना पल रहा था । वे ‘दाढ़ी की राजनीति’, ‘लोकतंत्र का लड्डू’, ‘जूते का तर्क’, ‘लोकतंत्र और प्याज’, ‘टिकटार्थी’, ‘संजय अखाड़ा’, ‘अखिल भारतीय बकरा यूनियन’, ‘बाबा जी का टेप’, ‘असली जगजीवन राम की खोज’ जैसे व्यंगपरक आलेखों में अपनी भाषा के जौहर दिखाते हैं । संवाद की चुटीली शैली उनके लेखन को समादृत करती है । एक रास्ता दिखाती है । लोग क्या चाहते हैं यह बताती है । सवाल खड़े करना उनकी आदत में शुमार है । साथ ही वे जनता को विकल्प भी देते हैं कि वह इन सवालों से जूझे । जैसेकि उन्होंने अपने नाटक ‘बकरी’, ‘अब गरीबी हटाओ’ और ‘भों भों खो खो’ में कई प्रश्न खड़े किये हैं, और अंत में जनक्रांति के माध्यम से विकल्प भी दिया है ।
भ्रष्ट राजनीतिज्ञ एवं सड़ांध मारती राजनीतिक व्यवस्था सक्सेना जी के निशाने पर रहे हैं । वे बराबर उनकी अपनी व्यंग्यात्मक टिप्पणियों में लानत-मलानत करते रहे थे । ‘जानवर और चुनाव चिन्ह’ आलेख में उन्होंने ने पशुओं को केन्द्र में रखकर मजेदार सवाल खड़े किए हैं । नाटकीय शैली में लिखे गए इस आलेख में सक्सेना जी जानवरों से संवाद करते हैं । जानवरों के मुख से वे हमारी राजनीतिक व्यवस्था पर तीखी टिप्पणियां करवाते हैं । इसमें जानवरों ने चुनाव-चिन्ह के रूप में अपने इस्तेमाल पर कड़ी आपत्ति जताई है । इसमें मुर्गा कहता है – “हम आवाज लगाते हैं तो सूरज उगता है । आदमी जाग उठता है और आपके ये राजनीतिज्ञ आवाज लगाते हैं तो देश सो जाता है । अंधेरा छा जाता है ।”[9]
सक्सेना जी के साहित्य और पत्रकारिता का बड़प्पन यही है कि वे आम लोगों की समस्याओं से संवाद कराते है । सक्सेना जी का साहित्य और पत्रकारिता अपने राजनीतिक सरोकारों के चलते ज़्यादा ग्राह्य एवं स्वीकार्य है । सक्सेना जी ने आम आदमी के दर्द को जिस संवेदनशीलता से अपने साहित्य और पत्रकारिता में जगह दी है वह महत्त्वपूर्ण है । वह उपदेशक की मानसिकता से नहीं, लोगों के साथ चलने वाले, खड़े रहने वाले साहित्यकार व पत्रकार की भूमिका में हमारे सामने आते हैं । सक्सेना जी के इस योगदान को समझना एवं पहचानना उनके साहित्य व पत्रकारिता के प्रदेय को समझना है । उन्होंने स्वयं कहा है कि - "जो मैं कवि होकर नहीं कह पाता, वह पत्रकार रूप में कहता हूँ, और जो पत्रकार होकर नहीं कह पाता वह कवि रूप में कहता हूँ ।"[10]
सन्दर्भिका
डॉ.संजय चावड़ा, असिस्टेंट प्रोफ़ेसर, गवर्मेंट आर्ट्स एण्ड कॉमर्स कॉलेज तालाला (गीर) - गुजरात sanjay10520@gmail.com