ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा के प्रमुख उपन्यासों का विश्लेषण
वृंदावनलाल वर्मा ऐतिहासिक उपन्यासकार है, जिनका जन्म 9 जनवरी सन 1889 में मरुरानी नामक गाँव के झाँसी जिले में हुआ था । वर्माजी कि साहित्यक यात्रा काफी लम्बी है, जिसमें ऐतिहासिक उपन्यास के साथ-साथ वर्माजी ने सामाजिक उपन्यास, कहानी, निबंध-संग्रह एकांकी आत्मकथा, नाटक, जीवनी, रेखाचित्र, रिपोर्ताज आदि प्रकार की रचनाओं की सौगात हमें दी है । वर्माजी को भारत सरकार ने पद्मभूषण से सम्मानित किया था । आगरा विश्व विद्यालय ने डी.लिट् की उपाधि से सम्मानित किया था । इस प्रकार ऐतिहासिक उपन्यासकार वृंदावनलाल वर्मा के प्रमुख उपन्यासो का विश्लेषण हम निम्नलिखित प्रकार से करेंगे।
वृंदावनलाल वर्मा हिन्दी के उन शीर्षस्थ साहित्यकारों में से एक है जिन्होंने अपने जीवन का सर्वोच्च साहित्य सेवा के लिए समर्पित किया । बाल्यकाल से अपनी मातृभूमि को गौरवान्वित करने एवं अपने देश के लिए कुछ करके दिखाने का उत्साह कालान्तर में उनकी लेखनी के सतत् प्रवाह से प्रस्फुटित हुआ । लगभग अर्द्धशताब्दी तक माँ भारती के इस सपूत ने हिन्दी साहित्य भण्डार को सम्पन्न बनाने में अपना महत्वपूर्ण योगदान दिया । कहानी नाटक, शिकार कथा और उपन्यास आदि विविध साहित्य विधाओं को वर्माजी की लेखन प्रतिभा का प्रसाद मिला है । यद्यपि इस सब का अपना-अपना महत्त्व है, किन्तु उनकी साहित्यिक कीर्ति का आधार स्तम्भ मुख्यत: उपन्यास साहित्य है । १९२७ में उनका पहला उपन्यास गढ़ कुण्डार प्रकाश में आया । इस कृति की विद्वानों ने भूरि-भूरि सराहना की और इससे हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासों की वास्तविक शुरुआत मानी जाती है ।
डॉ. कृष्णा अवस्थी ने लिखा है १९३०-३१ ई. में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी के हाथों इस रचना के लिए वर्माजी को स्वर्ण पदक प्राप्त हुआ । वर्माजी ने अतीत और वर्तमान दोनों को अपने उपन्यासों का विषय बनाया है । लगन, कुण्डलीचक्र, संगम, प्रेम की भेंट, प्रत्यागत, कभी न कभी, अचल मेरा कोई, अमरबेल, उदय किरण, और आहत नामक उपन्यासों का चयन लेखक ने समकालीन समाज और परिस्थितियों से किया है । गढ़ कुण्डार, विराटा की पद्मिनी, मुसाहिबजू, झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, मृगनयनी कचनार, टूट-काँटे, माधवजी सिन्धिया, रानी दुर्गावती, अहिल्याबाई. रामगढ़ की रानी, सोती आग, देवगढ़ की मुस्कान, कीचड़ और कमल तथा ललितादित्य उनके ऐतिहासिक उपन्यास हैं । इनमें से अन्तिम तीन अभी प्रकाशित नहीं हुए हैं । ‘अब क्या हो’ मराठा इतिहास पर आधारित वर्माजी की अधूरी औपन्यासिक कृति है । ‘सोम’ नामक उपन्यास का आधार उत्तर भारत की बहुप्रचलित लोककथा है, जिसे, लेखन ने औपन्यासिक शिल्प से संवार कर एक नवीन प्रयोग किया है ।
उक्त कृतियों में से विराटा की पद्मिनी को हिन्दी के ऐतिहासिक रोमांसो में सर्वश्रेष्ठ और प्रतिनिधि कृति घोषित किया गया है । ‘झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई’ और मृगनयनी’ उनके बहुचर्चित और सर्वाधिक प्रशंसित उपन्यास है । मृगनयनी को उत्तर प्रदेश सरकार ने १९५१ में पुरस्कृत किया । इसी कृति पर उन्हें ‘डालमिया पुरस्कार’ भी प्राप्त हुआ । ‘अचल मेरा कोई’ को काशी प्रचारणी सभा तथा उत्तरप्रदेश सरकार ने साहित्यिक श्रेष्ठता के लिए पारितोषिक भेंट किया । अपने जीवन में ही वर्मा जी कृतित्व को जीतनी सराहना प्राप्त हुई उतनी हिन्दी के बहुत कम साहित्यकारों को हुई ।
१९५८ में आगरा विश्वविद्यालय ने वर्माजी को डी.लिट् की मानद् उपाधि देकर अपनी गुण ग्राहकता का परिचय दिया । अगले वर्ष अर्थात १९५९ में हिन्दी की विभिन्न पत्रिकाओं ने वर्माजी को ७०वी जयन्ती के उपलक्ष में इस यशस्वी उपन्यासकार के कृतित्व के सम्मान में विशेषांक निकाले और अभिनन्दन दिये गये । ‘साहित्य सन्देश’ मे अपने जनवरी-फरवरी-१९५१ के अंक को ऐतिहासिक उपन्यास अंक शीर्षक देते हुए भी मुख्यतः वर्माजी के कृतित्व को विभिन्न पक्षों से समीक्षात्मक विवेचन का विषय बनाया । हिन्दी के अतिरिक्त बंगला, असमिया, गुजराती, तेलगू, तामिल, मलयालम, कन्नड़ आदि प्रादेशिक भाषाओं एवं अंग्रेजी के मूर्द्धन्य, उपन्यासकारों से वर्माजी की तुलना की गई । यद्यपि यह तुलनात्मक अध्ययन बहुत विशद और गंभीर भूमिका पर आधारित नहीं है, तथापि एक समर्पित साहित्यकार की प्रतिभा को पहचाने का उल्लेखनीय प्रयास अवश्य कहा जा सकता है । १९६५ में भारत सरकार ने वर्मा जी को उनकी विशिष्ट सेवाओं के लिए पद्म-भूषण की उपाधि से अलंकृत किया ।
वर्माजी के साहित्य ने न केवल हिन्दी भाषा-भाषियों में लोकप्रियता अर्जित की आपितु इतर भाषाओं में भी उसका व्यापक प्रसार हुआ । विभिन्न भाषाओं में हुए उनके उपन्यासों के अनुवाद इस बात के स्पष्ट-स्वयं सिद्ध प्रमाण हैं । झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई उपन्यास का मराठी, कन्नड़ और सिन्धी भाषाओं में अनुवाद हो चुका है । इसी रचना का अमेरिका सांस्कृतिक अचीव टी.जी. एलन के आग्रह पर स्वयं वर्माजी ने अंग्रेजी में अनुवाद किया । लगाना का अनुवाद अंग्रेजी और कन्नड़ में हुआ । विदेशी भाओं में रुसी भाषा में वर्माजी की कृतियों के सबसे अधिक अनुवाद हुए हैं । झाँसी की रानी, मृगनयनी, और टूटे काँटे रूप से प्रशंसित हुए । इन कृतियों के अतिरिक्त १८५७ के अमरवीर एवं अन्य छोटी कहानियाँ भी रूस में काफी पसंद की गई । विदेशों में झाँसी की रानी की ख्याति सम्भव: सबसे अधिक हुई है । चेक भाषा में न केवल इस उपन्यास का अनुवाद हुआ, अपितु इसे बेले के रूप में रंगमंच पर भी प्रस्तुत करने की अनुमति वर्माजी से माँगी गई थी । १९६७ में वर्माजी भारत सरकार की और से संस्कृति प्रतिनिधि के रूप में रूस यात्रा पर गये । डॉ. कृष्ण अवस्थी ने लिखा है १९६८ में रुसी सरकार की ओर से उन्हें ‘सोवियत नेहरु पुरस्कार’ ८०००/- रुपये का चेक, पदक और प्रशस्ति पत्र सहित भेंट किया गया । हिन्दी साहित्य के मूर्द्धन्य इतिहासकारों और आलोचकों ने वर्माजी के कृतित्व पर आमने दृष्टि कोण से विचार किया है तथापि ऐतिहासिक उपन्यासों के क्षेत्र में उनकी श्रेष्ठता और वैशिष्टय को सभी ने स्वीकार किया है । आचार्य शुक्ल ने मात्र उपन्यासों के आधार पर ऐतिहासिक उपन्यासों के क्षेत्र में एक मात्र वर्माजी के अस्तित्व को मान्यता देते हुए लिखा है वर्तमान काल में ऐतिहासिक उपन्यास के क्षेत्र में केवल बाबू वृन्दावनलाल वर्मा दिखाई दे रहे हैं । उन्होंने भारतीय इतिहास के मध्ययुग के आरम्भ में बुन्देलखण्ड की स्थिति को देखकर वर्माजी उपन्यास लिखे । गढ़कुण्डार, और विराटा की पद्मिनी वर्माजी ने सुन्दर उपन्यास लिखे हैं । विराटा की पद्मिनी की तो कल्पना अत्यन्त रमणीय है । साहित्य के इतिहास में संस्मरणीय ऐतिहासिक उपन्यास लेखक केवल चार-पाँच ही है और वे है, राहुल सांकृत्यायन, भगवतशरण उपाध्याय जिनके उपन्यास से अधिक बड़ी कहानियाँ है । हजारी प्रसाद द्विवेदी, यशपाल, रांगेय राघव, चतुरसेन शास्त्री और इन सब में गुण और परिणाम दोनों दृष्टियों से सर्वाधिक और अच्छा लिखनेवाले श्रीवृन्दावनलाल वर्मा हैं । उक्त उद्धरणों से यह स्पष्ट हो जाता है की वर्माजी के ऐतिहासिक उपन्यास साहित्य में आरम्भ से ही चर्चा का विषय रहा और विद्वानों ने इस क्षेत्र में वर्माजी की अग्रगण्य माना है । किन्तु इस क्रम में प्राय: सामाजिक उपन्यासों को भुला दिया गया है, यद्यपि उनका महत्त्व भी नगण्य नहीं है । वैसे भी वर्माजी के सम्पूर्ण साहित्य सृजन की मूल प्रेरणा सामाजिक चेतना से अनुप्राणित है ।
वर्माजी लोक्सटी पर विश्वास रखनेवाले बहुदृष्टा कलाकार हैं । वे कला का महत्त्व कला के लिए स्वीकार नहीं करते, तथापि, सुधारवादी या प्रयोजनवादी के रूढ़ अर्थों की प्राचिर में घेर कर उनके साहित्य का मूल्यांकन नहीं किया जा सकता । किसी आर्थिक सामाजिक या नैतिक समस्या पर अर्थशास्त्री या समाज सुधारक का दायित्ववहन करने का दम्भ उन्होंने नहीं किया, पर मानव जीवन को अधिक सुखी, सुन्दर, उज्जवल और स्वस्थ बनाने का महत्त्व उद्देश्य उनकी दृष्टि से कही ओझल भी नहीं हुआ । इसकी सिद्धि के लिए जैसा उचित समझा वैसा माध्यम उन्होनें अपनाया । अतीत और वर्मान वर्माजी के लिए जड़ कालावधियाँ न होकर एक प्रवहमान वास्तविक जीवन क्रम के परस्पर समन्वित आयाम है । उन्होने मृगनयनी, झाँसी की रानी आदि अनेक श्रेष्ठ ऐतिहासिक उपन्यासों की रचना की है, जिनके आधार पर हिन्दी के शीर्षस्थ आलोचकों ने उनका साहित्यिक महत्त्व स्वीकार किया है । वर्माजी से पूर्व किशोरीलाल गोस्वामी, गंगाप्रसाद गुप्त, जयरामदास गुप्त, मिश्रबन्धु, ब्रजनन्दन सहाय आदि लेखक इस क्षेत्र में पर्याप्त साहित्य की रचना कर चुके थे । ऐतिहासिक कथानकों के माध्यम से मानवीय जीवन के आन्तरिक सत्यों की खोज एवं किसी युग के सांस्कृतिक निर्माण जैसे गम्भीर लक्ष्यों को ध्यान में रखकर इतिहास और कल्पना के मधुमय संयोग से उच्चकोटि के ऐतिहासिक उपन्यासों का सूत्रपात वृन्दावनलाल वर्मा द्वारा हुआ डॉ. शिवनारायण श्रीवास्तव की इस औचित्यपूर्ण स्थापना का समर्थन प्रकारान्तर से हिन्दी के अनेक आलोचकों ने किया है । उनके लिए इतिहास न तो कल्पना की विलास स्थली मात्र है और न निर्जीव तथ्यों का संग्रह बल्कि वह अतीत और वर्तमान के मध्य कार्य कारण की अविच्छिन्न श्रुंखला है । वर्माजी ने चतुरसेन के समान इतिहास-रस के निमित सत्य को मनमाने ढ़ंग से तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत करने में रूचि नहीं दिखाई, तथापि उनके साहित्य पर निरसता का आरोप नहीं लगाया जा सकता । एक सिद्ध कलाकार के समान उन्होंने इतिहास के रूखे-फीके तथ्यों को सरस प्रसंगों, मार्मिक स्थितियों एवं विवेक सम्मत कल्पनाओं से संवार कर इस ढंग से प्रस्तुत किया है कि तथ्य और कल्पना के जोड़ पहचाने नहीं जा सकते है ।
वृन्दावनलाल वर्मा के प्रसिद्ध ऐतिहासिक उपन्यास झाँसी की रानी लक्ष्मीबाई, विराटा की पद्मिनी, मृगनयनी आदि के नाम से ही स्पष्ट है की औपन्यासिक नारी पात्रो में नायिका का प्रमुख स्थान रहता है । डॉ. पी.के. इन्द्राबाई ने लिखा है । जिस प्रकार प्रेमचन्द ने पहली बार उपन्यास गोदान को ऊँचाई पर पहुँचाया था, उसी प्रकार वृन्दावनलाल वर्मा ने ऐतिहासिक उपन्यास को गरिमा प्रदान की । बुन्देलखण्ड का तो खैर कोना-कोना उनका परिचित था पर ‘अहिल्याबाई’ और माधवजी सिन्धिया के लिए उन्हें ओंकारेश्वर, महेश्वर और बनवाडी तक की यात्राएँ करनी पड़ी । यही कारण है कि माधव जी सिन्धिया को लेखन के पश्चात प्रकाश में आने के लिए आठ वर्षों की लम्बी प्रतीक्षा करनी पड़ी थी । लिखित प्रमाणों के अतिरिक्त वर्माजी ने जनश्रुतियों एवं मौखिक परम्परा में सुरक्षित मान्यताओं को अपनी स्थापनाओं का आधार बनाया है । बहुत कुछ होते हुए भी इनमें निहित श्रद्धा के सूत्र को उन्होंने विदेशी इतिहास लेखको के द्वारा विकृत, मनगढ़न्त तथ्यों से अधिक मूल्यवान माना है ।
गढ़कुण्डार, विराटा की पद्मिनी,मुसाहिबजू, मृगनयना, दुर्गावती, रामगढ़ की रानी, आदि उपन्यासों की भूमिकाओं से विदित होता है कि वर्माजी ने प्रचलित जनश्रुतियों की विवेकपूर्ण व्याख्या करके वांछित सामग्री का चयन किया है । वर्माजी रुकाट की भाँति अतीत के चित्रण मात्र की रूचि से इतिहास की ओर प्रवृत्त नहीं हुए थे । और न ही उनका उद्देश्य वर्तमान से पलायन करके अतीतोन्मुख होना था । उनहोंने तो वर्तमान को शक्तिशाली बनाने के लिए अतीत से उपजीव्य खोजने की चेष्ठा की है । इस प्रक्रिया का स्पष्टीकरण वर्मा जी के ही शब्दों में इस प्रकार है, में आप को कभी सैकड़ो वर्ष पीछे ले जाता हूँ और कभी उससे भी अधिक परन्तु इतिहास की उदासीनता में आप को फिर भी जकड़े रहता हूँ । किसी देश का इतिहास भूत और वर्तमान से अलग रह कर नहीं चलता । भूत में ग्राह्य में अग्राह्य दोनों ही हैं । भूत के ग्राह्य को लेना और अग्राह्य को छोड़ देना वर्तमान के लिए उतना ही आवश्यक है जितना भविष्य के लिए वर्तमान की सुरुचता और सुघड़ता का । में गौरव गाथा द्वारा वर्तमान को भूलता नहीं हूँ, और न पाठक को पलायनवादी बनाता हूँ । में उनको उत्तेजित करके भविष्य के लिए प्रबल बनाता हूँ ।
प्रादेशिकता और आपसी फूट आज भी विकराल समस्या के रूप में भारत में छाई हुई है । क्या प्रजा के पोषण और रक्षण में संतुलन की आवश्यकता केवल ललितादित्य, मानसिंह-मृगनयनी और अहिल्याबाई के राजतन्त्र तक ही सीमित कही जा सकती है । आज जनतन्त्र के युग में भी बैलफैयर स्टेट्स का आदर्श उससे कुछ बहुत भिन्न नहीं है । गाँधीवाद के इस युग में भारत को यह नहीं भूलना चाहिए कि शस्त्र से रक्षित देश में ही शास्त्र फल-फूल सकते है । युद्ध और शान्ति के महत्वपूर्ण प्रश्न पर हम अपने इतिहास से वांछित संकेत ग्रहण कर सकते हैं । वर्माजी की उपन्यास कला का कौशल इस बात में निहित है कि इतिहास के सर्वमान्य तथ्यों का खण्डित न करते हुए भी व भारतीय शोर्य की भग्न विरूप प्रतिभा को पुन: प्रतिष्ठित करने में सफल हुए है । उनके उपन्यास का केवल विदेशी इतिहासकारों द्वारा लगाये असमर्थता, कायरता, कर्तव्यविमुखता, संगठन की अक्षमता आदि आक्षेपों का निराधार, सिद्ध करने में समर्थ हुए है अपितु भारतीय मानस को उत्साह और आत्मविश्वास की उष्मा और ऊर्जा भी दे सके हैं ।
वर्माजी के उपन्यासों में इतिहास तथ्यों का निर्जीव पुंज नहीं अपितु अनुभूति और प्रेरणा का विषय बन कर आया है । ऐतिहासिक तथ्य ह्रदय के रस से सिक्त होकर ही उपन्यासों के कलेवर में ढले है इस विशिष्टता को लक्ष्य करके वर्माजी ने ऐतिहासिक सामाग्रियों का उपयोग अपेक्षाकृत मानवीय कोमलप्रवृतियों के सफल अंकन के लिए ही किया है । इन्होंने इतिहास की उन्ही सामाग्रियों को ग्रहण किया जिनके चयन से उपन्यास की मनोरंजनकता तो बनी ही रहे, साथ-साथ जीवन के विवध पक्षों का पारस्परिक संघर्ष और उनमें उदात्तावृत्तियों की विजय भी अंकित होती चली गई । भारतीय और विशेषकर बुन्देलखण्ड के इतिहास को उन्होंने ह्रदय और मस्तिष्क दोनों से आत्मसात किया और परम्परा और जन श्रुतियों के कोमल तन्तुओं से टूटी हुई इतिहास की कड़ीयों को जोड़कर कथात्मक कौशल सहित प्रस्तुत किया है । लगता हे वर्माजी के पास कथानकों का एक समृद्ध भंडार था जिसमें शोर्य साहस, प्रेम, स्वामिभक्ति, शत्रुता, बलिदान आदि विविध भावों के कथासूत्र संचित थे ।
युद्ध और आखेट के चित्रण में वर्माजी को अद्वितीय सफलता मिली है । बुन्देलखण्ड के वातावरण में आज न उस शोर्य की अनुगूँज शेष है । वही गढ़ कुण्डार, विराटा की पद्मिनी, झाँसी की रानी, मृगनयनी, दुर्गावती, टूटे काँटे और माधवजी सिन्धिया के अनेक युद्ध स्थलों पर बार-बार उभर उठी है । युद्ध के एक से एक सजीव चित्रण इन उपन्यासों मे भरे पड़े है । डॉ. रामदरश मिश्र ने लिखा है । इस प्रकार वर्माजी अपने क्षेत्र में बेजोड़ हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से वर्मा जी ने ऐतिहासिक उपन्यासों को समृद्ध किया ही, साहित्यिक दृष्टि को भी ऊँचाई प्रदान की । ऐतिहासिक उपन्यास साहित्य की बड़ी ही अनिवार्यता और प्रभावोत्पादक कथा है । सत्य और तथ्य के प्रति अगाध आस्था रखते हुए भी जीवन की एक सरसता से उबरने के लिए स्फूर्ति के संचार के लिए वर्मा जी रोमान्स को आवश्यक मानते है । रुकाट के समान उनके उपन्यास ऐतिहासिक पृष्ठभूमि पर आधारित होते हुए भी रोमान्स के तत्वों से ओतप्रोत है । साहस सौन्दर्य, शोर्य और प्रेम इस रोमान्स के मूल तत्व है । १८ वीं शदी में प्रचलित ‘असम्भव और अविश्वसनीय कल्पना’ के अर्थ को छोड़कर इन उपन्यासों में रोमान्स के सहारे जीवन की यथार्थ भूमि पर असाधारण और उदात्त तत्वों की सदभावना हुई है । डॉ.सत्येन्द्र ने वर्माजी को वास्तविक भारतीय रोमान्स देने वाला हिन्दी का पहला लेखक घोषित किया है । उनके प्राय: सभी उपन्यास प्रेम की महक से सुरभित है । परन्तु यह प्रेम जीवन के कर्मक्षेत्र से पलायन करना नहीं सिखाता, अपितु जीवन सग्राम में संघर्षो से जूझने की अपरिमित शक्ति प्रदान करता है । प्रथम दृष्टि विनिमय के साथ अनजाने हृदयों के आदान-प्रदान की भूमिका तैयार हो जाती है । सौन्दर्य की सुरभि किसे आकर्षित नहीं करती, तथापि रुपलिप्सा और स्थूल कामनाओं के कर्दम को अछूता यह प्रणय लौकिक होता हुआ भी दिव्य सा प्रतीत होता है । जीवन की प्रेरणा शक्ति और कर्तव्य पथ का सबल यह प्रणय किशोरीलाला के रसिक रोमान्स से नितान्त भिन्न है । इसमें देवकीनन्दन खत्री के समान तिलिस्म तोड़ने पड़ते हैं और न उदयन के समान आकाशमार्ग से गुपचुप आकर प्रिया को मुग्ध करने हेतु विविध ग्रामों में चमत्कारिक वीणा वादन करना पड़ता है । वर्माजी के उपन्यासों का रोमान्स जीवन की यथार्थ स्थितियों में साहस, उमंग, त्याग और बलिदान की अपनी विशिष्ट भंगिमा से असाधारणत्व प्राप्त करता है, न परिस्थितियाँ अविश्वसनीय होती हैं और न पात्र अपरिचित । प्रेम की इस भावना को सम्पदा के समान अत्यन्त गोपनीय रखा जाता है ।
पाश्चात्य सभ्यता का सतही अनुकरण करते हुए प्राय: यह भूल रहे है कि सभ्यता के उपकरण बाहरी होते हैं, उन्हें अपना लेना सरल हैं, संस्कृति का सम्बन्ध संस्कारों से होता है । भारतीय संस्कृति का सब कुछ बुरा या सारहीन निश्चय ही नहीं है, लेकिन सब कुछ आँख मूँदकर समेट लेने योग्य भी नहीं है हम सम्पूर्णता का दम्भ नहीं कर सकते पर नितान्त याचक बनना भी सम्मान जनक कैसे कहा जा सकता है । भारतीय संस्कृति के अमरत्व की जड़े अभी सूखी नहीं है । उसकी ग्रहणशील शक्ति अभी कुण्ठित नहीं हुई है । आज हमें ऐसे साहित्य की आवश्यकता है जो हमारी त्रुटियाँ तो बेवा की से बताये पर आस्थाओं को बिखरने से बचा ले । पिछले सम्पूर्ण विवेचन के आधार पर कहा जा सकता है कि वर्माजी के साहित्य में आधुनिकबोध दिखाई देता है और इस उत्तरदायित्व को वहन करने की पूर्ण क्षमता है निष्कर्ष यह है कि वृन्दावनलाल वर्मा एक आस्थावान कलाकार हैं, जिन्होंने बुन्देलखण्ड के इतिहास और समाज को कलात्मक रूप प्रदान करते हुए अतीत को वर्त्तमान के साथ जोड़ कर भविष्य के लिए प्रस्तुत किया है ।
संदर्भ-ग्रंथ
डॉ. प्रेमसिंह के क्षत्रिय, अध्यापक, अहमदाबाद