रेत का इंसान
अजय सोनी की मूल गुजराती कहानी 'रेतीनो माणस' का हिंदी अनुवाद
ऊठ पग सडे, पीपर पन खिरे, न पंखो होलो, न वुई से नाय...
रतीमाँ कहते कहते रूक गए। आसमान में लटकते हुए चंद्रमा को बेचैन होकर देखने लगे। बच्चे गोलाकार में बैठकर ध्यानपूर्वक रतीमाँ की बातें सुन रहे थे। रतीमाँ बार-बार चुप हो जाते थे। उनकी नजरें अंतहीन मैदान की ओर जाकर सूख जाती थी। कुए की तरह गहरी हो चुकी आँखों के नेत्रपट में सूखे हुए तालाब के तले जैसी दरारे पड़ गई थी। उनमें दिखने वाला अनजाना डर उनकी आवाज को दबा रहा था। एक बच्चे ने उनका हाथ खिंचा तब वह गहरी गुफा में से वापस बाहर निकली हो उस प्रकार चित्तभ्रम की तरह पैर मोड कर बैठे हुए ऊंट को देखने लगी। सुबह होते ही उसकी पीठ पर सामान लदने वाला था।
"माई, कहानी सुनाओ ना..." एक बच्चे ने फिर से रतीमाँ को कहा।
ऊठ पग सडे, पीपर पन खिरे, न पंखो होलो, न वुई से नाय...
"सांड के पैर सड़ने लगेंगे, पीपल के पेड़ में एक भी पत्ता नहीं रहेगा, उड़ते हुए कपोतक के पंख झर जाएंगे, बहती हुई नदी सूख जाएगी। दूर मैदान के छोर से रेत का इंसान इस तरफ आ रहा है। उसकी फूंकी हुई हवा बहने लगी है। वह हमारे जैसे नजाने कितने काफिलो को निगल चुका है। उसकी महाकाय परछाई इस तरफ आ रही है। उसके आते ही रेत का भयंकर तांडव शुरू हो जाता है।"
उनकी आवाज रूक गई। फिर अनागत की तरह कहने लगे: "क्योंकि सब को जीना है।"
रतीमाँ फिर से कहते कहते रूक गए। चारों तरफ फैले हुए अंधकार को देखने लगे। उनके मुँह से गहरी सांस निकलकर बढती हुई हवा में धूल गई।
"माई, रेत का इंसान आएगा तब हम सब मिलकर उसे मारेंगे। मैं बहुत सारे पत्थर ले आऊंगा। फिर वह हम से डर कर बहुत दूर भाग जाएगा।" बच्चे उत्साह में आ गए।
"हवा के साथ कैसे लड़ सकते हैं? वह हवा के साथ आता है। हम उसे नहीं देख सकते हैं। वह अपने साथ रेत खींच लाता है इसलिए सब उसे रेत का इंसान कहते हैं। उससे सामना करने वाले सब रेत में मिल गए है।"
"वह हम सब को भी खा जाएगा?" बच्चे डर के कारण सवाल पूछ रहे थे। जवाब देने में रतीमाँ की जुबान अटक रही थी।
रतीमाँ ने वांढ की तरफ नजर घुमाई। दशको से आँखों में सहेजा हुआ दृश्य धुंधला होता जा रहा था। सबेरे यहाँ सिर्फ खाली छावनियां ही रह जाएंगी। हवा उसका जोर दिखाती रहेगी। रेत के इंसान के अपशगुनी पैरों से पल भर में सब कुछ नष्ट हो जाएगा। छावनी के शिखर पर बैठकर बोलते हुए कपोतक की आवाज उड़ती हुई रेत के साथ टकराकर खत्म हो जाएगी लेकिन उसे सुनने वाला कोई नहीं होगा। रतीमाँ को हुआ "रेत का इंसान आता है तो आए, कही नहीं जाना। यहीं बैठकर उड़ती हुई रेत को देखती रहूंगी। चाहे खुद ही क्यों न रेत में दफन हो जाऊं। आखरी सांस लेने के लिए मुँह खुले और उसमें भी रेत आए और फिर..."
रतीमाँ तंद्रा मुक्त हुए। बच्चो के चेहरे भय से थरथरा रहे थे। यह देखकर रतीमाँ के चेहरे की शिकन और ज्यादा गहरी हो गई। वह बच्चों को आने वाले दिनों का संकेत देना चाहते थे। रेत में ही पले-बढ़े हुए यु इस प्रकार रेत के इंसान से डरने वाले नहीं थे यह बात रतीमाँ जानते थे।
"रतीमाँ, आने दीजिए उसे। हम सब साथ मिलकर उसे मारेंगे।" एक बच्चे ने कहा।
रतीमाँ अनिच्छा से हँस पड़ी। जंग पर जा रहे हो उस प्रकार बच्चे उत्साहित होकर खड़े हुए। रतीमाँ लगातार उनके चेहरों को देख रहे थे। आने वाले दिनों से अनजान इन चेहरों पर चंद्रमा का तेज चमक रहा था। लेकिन वह तो केवल पल भर के लिए। सुबह होते ही सूरज सब कुछ उड़ा ले जाएगा। फिर यहाँ रह जायेगी केवल रेगिस्तान की गरम हवा।
"रतीमाँ, सरदार ने याद किया है। विसंग ने कहा। रतीमाँ ने उनके सामने देखे बिना ही कदम बढ़ाए। विसंग आगे चल रहा था। उसके पैरों की छाप के ऊपर रतीमाँ के पैर पड़ रहे थे। पीछे उड़ने वाली रेत दोनों के कदमों की छाप मिटा देती थी।
पत्थर के ऊपर उल्टा घूम कर बैठे हुए सरदार की चट्टान जैसी पीठ झुकी हुई लग रही थी। उसकी नजरें दक्षिण दिशा की ओर थी। जहाँ आगे जाने पर पर्वत आते थे।
"रतीमाँ, अब क्या करेंगे? उत्तर की तरफ आए हुई बोरावांढ भी रेत में ढल गई। हमें रास्ता बदलना पड़ेगा। सरदार के चेहरे पर कभी ना दिखे हुए भाव दिख रहे थे। आँखें कहीं दूर जाकर स्थिर होने का प्रयत्न कर रही थी।
"तुम अभी धरती के संकेत समझ नहीं रहे हो सरदार"
विसंग से रहा न गया! वह बीच में ही बोल पड़ा।
"इस विरानपट में बसने वाले आधे से ज्यादा वांढ अपनी हयाती खो चुके हैं। रेत का महाकाय राक्षस सब कुछ निगल चुका है। हम रोज उसके नजदीक आने की आहट सुन रहे हैं। सब जानने के बावजूद भी कुछ न करें...? रेत के राक्षस का इंतजार करें...? किस लिए? रेत में दफन होने के लिए?"
विसंग एक ही सांस में कह कर रुक गया। रतीमाँ ने गहरी आवाज़ में कहा:
"वह रेत का राक्षस नहीं है। हमारी ही तरह रेत का इंसान है। उससे डर कर कब तक भागेंगे? वह कोई एक दिशा में से नहीं बल्कि चारों दिशाओं में से आ रहा है। भाग कर जाएंगे कहाँ?"
सरदार की आवाज धीमी हो गई।
"रतीमाँ, मैं वांढ का सरदार हूँ। वांढ के लोगों को मरते हुए कैसे देख सकता हूँ? पानी के बिना बरसो बिताए हैं। बहुत दिनों तक रेत का तांडव सहन किया है। लेकिन कभी भी वांढ छोड़ने का विचार नहीं आया। कोई दुश्मन हो तो उससे लड़ भी ले, मगर इस रेत के इंसान के साथ किस प्रकार लड़ा जाए?
कुछ पल गरम हवा के झोंके सुनने में बीत गई। रात के अंधकार में हवा की बढ़ती हुई गति रेत के इंसान के नजदीक आने का संकेत दे रही थी।
"सरदार, सुबह वांढ खाली हो जाएगा। हमें तत्काल निर्णय लेना पड़ेगा।" विसंग ने उतावला होकर कहा।
सरदार ने उल्टा घूम कर वांढ की ओर देखा। रात के अंधकार में छावनी के आकार दिखाई दे रहे थे।
"रतीमाँ, अब आप ही रास्ता दिखाइए। आप हम सबसे बड़ी है।"
रतीमाँ कुछ कहे बिना ही चुपचाप खड़े रहे। उनकी नजरें मैदान की ओर थी। आगे जाने पर उस दिशा में पहाड़ आते थे। उन पहाड़ों के पीछे शोर था। रतीमाँ ने उस तरफ हाथ लंबे किए। फिर गहरी सोच में डूबकर कह रहे हो उस प्रकार कहने लगे:
"सभी दिशाएं खो चुकी है सरदार। अब कुदरत को जो मंजूर होगा वही होगा।"
इतना कहते ही रतीमाँ का हाथ झटके के साथ नीचे गिर पड़ा। सरदार के जवाब की राह देखे बिना ही वे अपनी अंतिम रात बिताने के लिए अपनी छावनी में चले गए।
सरदार अपनी आँखों के सामने फैले हुए वीरानपट में जहाँ उसकी नजरें पहुँच सके वहाँ तक देखता रहा। उसे इस वीरानपट में समुद्र की लहरें उछलती हुई दिख रही थी। हवा के झोंको में समुद्र की लहरों की आवाजें सुनाई दे रही थी। रेत देखने वाली आँखों में समुद्र की लहरें टिमटिमाने लगी।
"विसंग, क्या तुम्हें पता है इस दिशा में आगे की तरफ पहाड़ है, और उनके पीछे समुद्र..."
सरदार ने पीछे देखा। बढ़ती हुई रात का गहरा काला अंधकार वांढ के ऊपर फेला हुआ था। सिर्फ विसंग की छावनी में दीया टिमटिमा रहा था। पूरा दिन घूप में तपने के बाद रात का विरानपट धीरे-धीरे ठंडा हो रहा था। सरदार वहीं बैठ गया। ठंडी रेत में लेटने लगा। रेत उसके अंगअंग में समाने लगी। जलते हुए शरीर को राहत मिल रही थी। वह वांढ को अलग नजरों से देखता रहा। कल इस छावनी में कोई नहीं होगा। धरती को चीरने वाली गरम हवा चलती रहेगी। यहाँ एक वांढ भी थी इस बात की एक भी निशानी नहीं बचेंगी। उसने सोचा: "खाली छावनी का सरदार बनकर यहीं पर रुक जाता हूँ।"
सरदार पूरी रात ठंडी रेत में पड़ा रहा। सुबह वांढ में हल्का शोर सुनाई दिया। ऊंटो के उपर सभी सामान लाद दिया गया था। रतीमाँ सबसे आगे वाले ऊंट पर बैठे थे। सरदार ने विसंग को इशारा किया। विसंग ने ऊंची आवाज में आदेश दिया। एक साथ सभी ऊंट खड़े होकर चलने लगे। जहाँ पूरा जीवन बिताया हो उस वांढ को रेत में मिलता हुआ छोड़ कर जाना था। किसी के भी चेहरे पर चमक नहीं थी। किसी ने भी पीछे मुड़कर नहीं देखा। कहाँ जाना है, इस बात का किसी को कुछ पता नहीं था। बस यहा से कहीं दूर जाना था।
विरानपट पर ऊंटो की लंबी कतार चल रही थी। दूर से देखने पर ऐसा लगता मानों जैसे रेत के कण सरक रहे हो, लेकिन वह रेत के कण नहीं बल्कि रेत में जीने वाले मनुष्य थे। सब चलते चलते थक गए तो सरदार ने आराम करने को कहा। सारे बच्चे फिर से रतीमाँ के पास चले गए। उनके कोमल चेहरों पर जरा सी गंभीरता दिख रही थी। उनके चेहरे देखकर रतीमाँ ने कहा:
"कहा गए तुम्हारे पत्थर? पास ही है ना? आगे जाने पर रेत का इंसान सामने मिल गया तो...?" रतीमाँ जरा सा हँस पडे।
बच्चों के चेहरों पर खोफ स्पष्ट दिखाई दे रहा था। यह देखकर रतीमाँ जोर जोर से हँसने लगे। फिर क्षितिज की ओर देखते हुए कहने लगे:
ऊठ पग सडे, पीपर पन खिरे, न पंखो होलो, न वुई से नाय...
रतीमाँ की आवाज़ धीमी होते-होते एकदम बंद हो गई। आँखों के नेत्रपट पर झलकता हुआ भीनापन आँखों के पलकों तले दब गया। बंद पलकों के पीछे दृश्य घूम रहे थे। रेत के इंसान के कदम पडते ही छावनी की दीवारे रेत में समाती जा रही है। रेत के स्तर पर स्तर बनते जा रहे हैं। खाली पड़े हुए वांढ में गरम हवा के झोंको के साथ कपोतक के आवाज सुनाई दे रहे हैं।
ऊंट के बलबलाने की आवाज आते ही रतीमाँ अचानक जग गए। पूरी दोपहर गर्मी में तपे थे। गरम रेत साथ लेकर दौड़ती हुई गरम हवा कोड़ो की तरह सब पर प्रहार कर रही थी। विसंग ने इशारा किया और सब फिर से उठ कर चलने लगे। पसीने से भिने हो चुके बदन पर गर्म रेत आकर चिपकती तब अंगार के जैसी जलन होती। मगर किसी के भी चेहरे पर शिकायत नहीं थी।
पूरा दिन चलने के बाद ढलती हुई दोपहर को विसंग दौड़ता हुआ सरदार के पास आया।
"सरदार, उन पहाड़ों के पीछे समुद्र दिखाई दे रहा है।"
सरदार ने रतीमाँ की ओर देखा। दोनों की आँखें मिली। सरदार के चेहरे पर राहत दिखाई दे रही थी। मगर रतीमाँ मानों जैसे किसी अनदेखी चीज को देख रहे हो उस प्रकार उस दिशा में देखते रहे। उन्होंने उस दिशा में हाथ लंबा करके आगे बढ़ने का इशारा किया।
पहाड़ पर पहुँच कर सब वहाँ बैठे। ऊंट की पीठ पर लादा हुआ सरसामान छोड़कर नई वसाहत के बारे में सोचने लगे। चेहरे पर हल्का सा तेज और उत्साह दिख रहा था। पूरी जिंदगी रेत देखने वालों ने पहली बार हरे-भरे पहाड़ और अखुट पानी देखा था। विसंग और सरदार पहाड़ के चारों ओर चक्कर लगाकर आए। अपनी नई वसाहत कहाँ बसाई जाए वेसा सोच रहे थे। पहाड़ों की ढलान से उतरने पर नीचे की ओर जंगल था। सरदार के आदेश पर कुछ पुरुष जंगल में लकड़ियां काटने और जंगली घास-बेल लेने के लिए गए। महिलाएं वसाहत की जगह साफ करके जमीन समतल बनाकर गड्ढे खोद रही थी। चारों ओर चहल-पहल दिखाई दे रही थी।
शाम हो चुकी थी। ठंडी ठंडी हवा चल रही थी। पेड़ की हरी परछाई के नीचे बैठी हुई रतीमाँ आश्चर्यचकित होकर चारों ओर देख रहे थे। आँखों के सामने दिखाई दे रही हरियाली बस कुछ पल की ही हो उस प्रकार चुभने लगी। उनके सामने बैठे हुए बच्चे हँसते मुस्कुराते हुए बातें कर रहे थे।
"रतीमाँ, रेत का इंसान हमसे डर कर कहाँ भाग गया...?" एक बच्चे ने ऊंची आवाज में कहा।
रतीमाँ कुछ कहे बिना ही बच्चों के भोले चहेरो की तरफ देखते रहे।
"वह कहाँ हम सबसे अलग है जो दूर जाएगा।" उनके होठो पर जरा सी मुस्कराहट आई। उन्होंने दूर आकाश की ओर नजर घुमाई। आसमानी होता हुआ आकाश वांढ की याद दिला रहा था।
"यहाँ कितना मजा आ रहा है नहीं...? ठंडी ठंडी हवा और उस तरफ इतना सारा पानी। जितना पीना चाहो उतना..."
बच्चों की बातें सुनते ही रतीमाँ बीच में कहने लगे:
"वह भ्रम है। यह ठंडी हवा न जाने कब धोखा दे दे कुछ कहा नहीं जा सकता। समुद्र का पानी कब रेत बन जाए कोई भरोसा नहीं। ऊपर से बरसेगा बस वही पानी हमारी प्यास छिपाएगा। और इस प्रकार पीने से प्यास नहीं छिपेगी।"
रतीमाँ को लगा "यह समुद्र पर से आने वाली हवा अपने साथ रेत खींच लाई है क्या?" वे बदन पर हाथ घुमाते है। चमड़ी पर से रेत छूट रही हो ऐसा उन्हें प्रतीत हो रहा था।
बच्चे बड़े उत्साह से जंगल में जाकर शिकार करने की, समुद्र में नाव तैराने की और मछलियां पकड़ने की बातें कर रहे थे। उतने में जंगल में गए हुए पुरुष उत्साहित होकर वापस लौटे। सभी के हाथों में अलग-अलग चीजें थी। लकड़िया, जंगली बेल, घास, फल, शिकार। सभी आपस में बातें कर रहे थे। जंगल की, समुद्र की, पानी की, नई वसाहत की...
परछाइयां लंबी होकर अदृश्य हो गई थी। पहाड़ पर घोर अंधकार फैलने लगा। कान लगाकर सुनने पर निशाचरो की आवाजें सुनाई देती थी। गरम हवा के झोंको के बदले समुद्र की लहरों की आवाजें सुनाई दे रही थी। ठंडी हवा झाड़ियों में अटक कर सिसकारी बजा रही थी। बदला हुआ मौसम रेत के इंसान की याद दिला रहा था।
सरदार गहरी सोच में डूबा हुआ था। जिन्हें छावनी की आदत हो उनके लिए खुले में रात बिताना मुश्किल था। खुला मैदान, ठंडी हवा के झोंके, चांदी जैसा चंद्रमा और शांति। यहाँ उनमें से कुछ भी नहीं था। विसंगने अलाव जलाया। सब गोलाकार में बैठे। शिकार को अलाव के ऊपर पकाने के लिए रखा। सब जंगल में से लाई हुई चीजें खाने लगे। बच्चे उत्साह में यहाँ-वहाँ दौड़ रहे थे।
रतीमाँ थोड़े दूर चारपाई पर बैठे हुए थे। सबके चेहरों पर हिलते-डुलते हुए प्रकाश को अस्थिर मन से देख रहे थे। आग की ज्वाला में घुल चुके हुए चेहरे पहचान में नहीं आ रहे थे। पास की सुखी झाड़ियों में से किसी जीव की आक्रन्द, दबी हुई चीख जैसी आवाज आ रही थी। रतीमाँ को हुआ "लगता है अपना घर भूल गया है।"
विसंग ने मोरचंग के सुर बजाए। कोई ढोलक लेकर आया। सरदार ने काफी गाना शुरू किया। कुछ ही पल में वातावरण बदल गया। सभी स्त्री-पुरुष अलाव के आसपास नाचने लगे। तरह-तरह की आवाज से पहाड़ की अंधकारमय रात्रि में उजाला छा गया। सभी यह बात भूल गए की यह रेगिस्तान नहीं है। इस लंबी यात्रा की थकावट भी किसी के पैरों को रोक नहीं पाई। सबको जी भर कर नाचना था। सरदार अपनी धुन में नाच रहा था।
रतीमाँ निरंतर इन नाचते-कूदते हुए काफ़िलावासियों को देख रहे थे। हवा का तीव्र झोंका आने से रतीमाँ की आँखो में तिनका गिरा। कुछ क्षणों के लिए बंद हुई आँखें जल्द खुल नहीं पा रही थी। आँखों में से पानी निकल आया। आँख रगड़ते रगड़ते अलाव की ज्वाला को देख रहे थे। उन्हें अलाव की ज्वाला रेत उगल रही हो ऐसा लग रहा था। आग में दिखते हुए चेहरों पर रेत चिपक रही थी।
रतीमाँ ने फिर से आँखों को रगड़ा और अलाव के आसपास नाचने वाले लोगो को देखते रहे। कानों में सांप सूंग गया हो उस प्रकार आवाज सुनाई देना बंद हो गया। चारों ओर रेत उड़ती हुई दिखाई दे रही थी। वह फटी हुई आँखों से देखते रहे। "उस महिला का हाथ क्यों गिर पड़ा?" रतीमाँ को अपनी आँखों पर यकीन नहीं हुआ। एक बच्चा नाचते-नाचते जमीन पर गिर पड़ा। उसके पैर बिखर गए। फिर भी वह ढोलक के ताल पर हाथ हिला रहा था। "उस पुरुष की छाती क्यों बिखरती जा रही है?" रतीमाँ की आँखें बाहर निकल आई। सिर्फ पैर-सिर ही अलाव के आसपास नाच रहे थे।
"अरे! सरदार" रतीमाँ के गले में खराश बैठ गई। "तुम्हारा सिर कहाँ गया? तुम भी क्या रेत के बने हुए हो? इस प्रकार क्यों बिखरते जा रहे हो।"
रतीमाँ को चारों ओर रेत उड़ती हुई दिखाई दे रही थी। आनंद में नाचते हुए स्त्री-पुरुष-बच्चों के चेहरों पर का तेज पहले की तरह ही बरकरार था। सब रेत के बने हुए हो उस प्रकार धीरे-धीरे बिखरने लगे। किसी के हाथ, किसी के पैर, पेट, सिर, गर्दन... रतीमाँ को अलाव के आसपास नाचते हुए आधे-अधूरे मानवअंग दिख रहे थे। हवा का एक तेज झोंका आता और किसी का सिर बिखर जाता। दुबारा एक झोंका और किसी के हाथ-पैर उड़कर हवा में घूल जाते। सब धीरे-धीरे रेत बनकर उड़ने लगे। पहाड़ की पत्थरभरी जमीन पर रेत बिछने लगी। विसंग का सिर रेत के ढेर में गिरा और रेत के साथ रेत होने लगा।
रतीमाँ की आँखें पलकें झपकाना भूल गई। जिनके साथ पूरा जीवन बिताया हो उन्हें इस प्रकार रेत होता हुआ देखकर उन्हें आघात लग रहा था। उन्हें विचार आया "क्या सब रेत के बने हुए थे?"
एकाएक चित्त में बिजली सी चमक हुई और रतीमाँ ने काफ़िलावासियों की तरफ हाथ बढ़ाया। गले में से निकलने के लिए प्रयत्न करती हुई आवाज जम गई। वह अपने हाथ की उंगलियो को देखते रहे। उनमें से रेत निकल रही थी। धीरे-धीरे पूरा हाथ बिखर गया और चारपाई में रेत का ढेर बन गया। उन्होंने दूसरे हाथ की हथेली को आँखों के सामने रखा। हस्तरेखाएं देखकर वह चीख पड़ी। गुस्से में मुट्ठी बंद करके अपनी छाती पर मुक्के मारने लगी। पूरा हाथ छाती में समा गया। छाती में से रेत गीरने लगी। चारपाई पर लटकते हुए पैर बिखरकर नीचे गिर पड़े। उनके झुर्रियों वाले चेहरे में से रेत के कण उडने लगे।
जोर से हवा का झोंका आया और रतीमाँ का सिर रेत हो गया। हवा में उड़ती हुई रेत पहाड़ों पर फैलती जा रही थी। अलाव अविरत जल रहा था लेकिन उसे देखने वाला कोई भी नहीं था।
(રેતીનો માણસ, વાર્તાસંગ્રહ, લે- અજય સોની, પ્રકાશન: ડિવાઈન પબ્લિકેશન અમદાવાદ, પ્રથમ આવૃત્તિ ૨૦૧૭, મૂલ્ય-૧૪૦)
अनुवादक :
प्रजापति मेहुलकुमार सोमाभाई, स्नातकोत्तर
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