कालिदास का अभीष्ट शिव-उपासना
भगवती सरस्वतीके वरद पुत्र महाकवि कालिदास भारतीय साहित्य की श्रेष्ठ विभूति हैं| भारतीय संस्कृति के वे अनन्य उपासक और भारतवर्ष की उज्वल कीर्ति के अमर अनुगायक एवं समुन्नायक हैं | भारतीय संस्कृति की कतिपय अद्वितीय विशेषताएँ हैं,जिनके कारन विश्व संस्कृति में उसका अपना स्थान हैं |
भारत सदा धर्मं परायण देश रहा है, भारतीय धर्मं का आधार है सर्वशक्तिमान भगवान की सत्ता में अटूट विश्वास | भारतीय संस्कृति में प्राणिमात्र के सुख और कल्याण की कमाना सर्वोपरि है | भारतीय चिंतन में तो अखिल ब्रह्मांड के जीवनधारियों के कल्याण की मंगलकामना का भाव निहित है |
सर्वे भवन्तु सुखिनः सर्वे सन्तु निरामया: |
सर्वे भद्राणि पश्यन्तु मा कश्चिद् दु:ख भाग्भावेत ||
महाकवि कालिदास की कृतियों में प्राणिमात्र के प्रति इसप्रकार की शुभभावना व्यक्त मिलती है | साथ ही उनकी रचनाओं में प्रकृति के कण कण के प्रति भी आत्मीयता का भाव मुखरित दिखता है | कालिदास की कृतियों में अभिव्यक्त यही सर्वव्यापक मंगलकामना उनकी अभीष्ट शिव उपासना है | कालिदास के अपने आराध्य भगवान शिव उन्हें परम प्रिय हैं | उनके लगभग सभी ग्रंथों का प्रारम्भ मंगल एवं आनन्दमूर्ति भगवान शिव की स्तुति होता है | उनकी शिव भक्ति उनके काव्यों और नाटकों के मंगलाचरण एवं काव्यगत विभिन्न स्थलों के अंतर्भाव से स्पष्ट है | महाकाव्यों में ‘रघुवंश’ उनकी सर्व श्रेष्ट रचना है | इस कृति में महाकवि ने प्रति रघुवंशी राजाओं की धवल कीर्ति का गुण गान किया है, किन्तु एस महाकाव्य में कवि ने सर्वप्रथम अपनी प्रणामांजलि भगवान शिव तथा जगतजननी माता पार्वती के चरणों में ही अर्पित की है –
वागर्थाविव संपृक्तौ वगर्थाप्रतिपत्तये |
जगतः पितरौ वन्दे पार्वतीपरमेश्वरौ ||
विशुद्ध शब्दार्थ के परिज्ञ|न के लिए शब्द एवं अर्थ की तरह परस्पर संश्लिष्ट संपूर्ण विश्व के माता पिता अर्धनारीश्वर शिव पार्वती की मैं वंदना करता हूँ | इससे महाकवि कालिदास का भगवान शिव के प्रति अनन्य भक्ति का संकेत मिलाता है | उनकी कृति का वर्ण्य विषय चाहे ऐतिहासिक हो या पौराणीक, वह रामायण से गृहीत हो या महाभारत से, किन्तु कृति का प्रारंभ वे भगवान शिव की स्तुति से ही करते हैं | उनका द्वितीय महाकाव्य कुमारसंभव तप भगवान शिव की महिमासे ओतप्रोत है| संपूर्ण कुमारसंभव शिवजी के महिमामय श्लोकों से परिपूर्ण है | इस महाकाव्य में गर्वस्फीत ‘काम’ की दयनीय पराजय का वर्णन मिलाता है | यहाँ कविनेमदन के गर्व को तो ध्वस्त किया है, साथ ही इस तथ्य को भी रेखांकित कि नारी की शारीरिक सुन्दरता उसकी सर्वोच्च संपत्ति है | उससे सच्चे प्रेम की उपलब्धि संभव नहीं है | कालिदास पुरुषार्थचतुष्टय के प्रतिपादक अवश्य हैं किन्तु अर्थ एवं कम को आवश्यकता से अधिक महत्त्व प्रदान करने के वे कभी पक्षधर नहीं है | कवि ने इस तथ्य को भी उजागर किया है किबिना तपस्या के प्रेम कभी परिनिष्ठित नहीं होता | कुमारसंभव के पंचमसर्ग में पार्वतीकी कठोर तपस्या का अत्यंत उदात्त वर्णन है | उसी तप के बलपर ही पार्वती को शिव की प्राप्ति हुई | बिना अपना शरीर तपाये धर्म की भावना उत्पन्न नहीं होती | जगज्जननी पार्वती भी घोर तपस्या करके ही अपना अभीष्ट प्राप्त किया | समग्र लोकके कल्याणका भाव इसी ताप में समाहित है |
महाकवि कालिदास कृत मेघदूत का गीतिकाव्यके रूप में भारतीयसाहित्य में विशिष्ट स्थान है | यह गीतिकाव्य धनपति कुबेर के द्वारा दण्डित अपने भृत्य एक यक्ष के वर्षभर के लिए निर्वासित जीवन का अभिलेख मात्र नहीं है,प्रत्युत यह तो भगवान चंद्रशेखर की महिमा से ओतप्रोत गीतिमाय काव्य रचना है | इस गीतिकाव्य में महाकवि ने भगवान शिव की महिमा का बहुत गान किया है और इस प्रकार उनके प्रति अपन परनाती भाव व्यक्त किया है |
मेघदूत में मेघ के माध्यम से कालिदास ने भगवान शिव के चरणों में अपनी सम्पूर्ण श्रध्धा अर्पित कर दिया है | उज्जयिनी में भगवान महाकाल की संध्या अर्चना के समय अपनी सेवांजलि अर्पित कराने का वे मेघ से अनुरोध करते हैं | यहाँ मेघ के माध्यम से भगवन शिव के प्रति कालिदास ने अपना ही श्रध्धान्वित भक्तिभाव व्यक्त किया है |
भगवान त्रिलोचन का वहां वृषभ है अर्थात वे वृष को अपने वश में करके उसपर आसीन होते हैं | वृष काम का प्रतिक है |इसके द्वारा कवी का संकेत है कि काम भगवान शिव के वशीभूत है | इसलिए मेघदूत में काम शिव के प्रदेश में प्रवेश करने का सहस भी नहीं करता | वह वहाँ चाप चढाने भी डरता है, जैसे उत्तरमेघ ने कहा है–
मत्वा देवं धनपतिसखं यत्र साक्षाद् वसंतम् |
प्रायश्चापं न वहति भयान्मन्मथः षट्पदज्यम् ||
मेघ इच्छाचारी है | आकाश में स्वेच्छा से विचरण करता है इसलिए कालिदास ने मेघ को कामरूप प्रकृति पुरुष कहा है –
जानामि त्वां प्रक्रुतिपुरुषं कामरूपं मघोनः ||
अतः कामरूप मेघ से उस अलका नगरी को जाने का अनुरोध करता है,जिससे महल उस नगरी के बाहरी उद्यान में विराजमान भगवान चंद्रमौली के मस्तकपर सुशोभित चन्द्र की विच्छुरत चन्द्रिका से धवलित हैं | यहाँ महाकवि का संकेत है कि काम तत्त्व को अपने कल्याण के लिए शिव के सान्नीध्य में निगृहितभाव से रहना ही श्रेयस्कर है |
मेघदूतकाव्य शिवात्मक चैतन्य की प्राप्ति का संकेत देता है | इस प्रकार महाकविने मेघदूत के समग्र परिवेश को भगवान शिव की महिमा से संपृक्त निरुपित किया है | अभिज्ञानशाकुन्तल नाटक में महाकवि कालिदास ने वासना जन्य प्रेम को नकारा है और केवल उसी प्रेमा को स्वीकृति प्रदान किया है जो अनुताप की अग्नि में निरंतर तपकर अन्तमें कुन्दनाकी भांतिपवित्र और दिव्य प्रमाणित होता है | कालिदास ने स्वकीय सर्वोत्कृष्ट अभिज्ञानशकुन्तला नाटक के सर्वप्रथम मांगलिक श्लोक से आरंभ में ही शिवजी की आठभौतिकमूर्तियों द्वारा विश्वमें प्रत्यक्षतया अवभासित किया है, जिनकी सत्ता की पुष्टि के लिए अन्य किसी अनुमान या शब्द आदि प्रमाण की अवश्यकता नहीं है | वे शिव जी आप लोगों की रक्षा करें | मगंलाचरण का शब्द विन्यास इस प्रकार है-
या सृष्टि: स्रष्टुराद्या वहति विधिहुतं या हविर्य चहोत्री
ये द्वे कालं विधत्तः श्रुतिविषयगुणा या स्थिता व्याप्य विश्वम् |
यामाहुः सर्वबीजप्रकृतिरिति यया प्राणिनः प्राणवन्तः
प्रत्यक्षाभिः प्रसन्नस्तनुभिरवतु वस्तभिरष्टाभिरीशः ||
इस श्लोक में कालिदास ने शिवजी की विभिन्न मूर्तियों का नामतः उल्लेख नहीं करते,अपितु उस उस भौतिकतत्त्वों की विशेषताओंका वर्णन करते हुए उस मूर्ति विशेष को ध्वनित करते हैं | शिवजी की प्रथममूर्ति वह है जो स्रष्टा की सर्वप्रथम सृष्टि है (जल), द्वितीयमूर्ति वह है जो विधिपूर्वक हवन की गई हवि को देवताओं के पास ले जाती है (अग्नि), तृतीयमूर्ति वह है जो इस हवी को यज्ञाग्नि में डालती है (यजमान), चतुर्थ और पञ्चम मूर्ति वे हैं जो समय का निर्धारण एवं नियमन करती हैं (सूर्य और चन्द्र) षष्ठ वह है जो समस्त विश्व को व्याप्त किया हुआ है और जिसका गुण शब्द है (आकाश), सप्तम मूर्ति समस्त प्राणियों की उद्गम स्थली है (भूमि), और अंतिम अष्टमूर्ति वह है जिससे विश्व के प्राणी प्राणवान रहते हैं(वायु), कालिदास ने इन अष्टमूर्तियों केलिए प्रत्याक्षाभिः यह पद प्रयुक्त किया है अर्थात् ये आठ मूर्तियाँ संसार में प्रत्यक्ष दृष्टीगोचर होती हैं | इससे कालिदास का संकेत है कि प्रत्यक्षमूर्तियों को धारण करनेवाला इस जगत के नियामक की सत्ता संदेह से परे है | अपितु सत्य तो यह है कि विश्वका प्रत्येक कण उनकी सत्ता को व्यक्त करता है |
संस्कृत के महाकवियों में कालिदास ही ऐसे कवि हैं,जिन्हें शिवजी का अष्टमूर्ति विशेषण विशेष प्रिय है,अपने काव्यग्रंथों में कई स्थानों पर इसका प्रयोग किया है, रघुवंश में नंदिनी द्वारा उद्भावित मायासिंह दिलीप को अपना परिचय देता हुआ कहता है–
कैलास गौरं वृषमारुरुक्षो: पादार्पणानुग्रह पूतपृष्ठम् |
अवेहि मां किन्करमष्टमूर्ते: कुम्भोदरं नाम निकुम्भ मित्रम् ||
यहाँ कालिदास रचित काव्यों के यशस्वी टीकाकार कोलाचलमल्लिनाथ यदवकोश से उदाहरण देते हुए इस शब्दकी व्याख्या में कहते हैं कि पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि, आकाश, सूर्य, चंद्रमा तथा सोमयागका अनुष्ठान करनेवाला यजमान ये शिव जी के आठमूर्तियाँ हैं –
पृथिवी सलिलं तेजो वायुराकाश मेव च |
सूर्यचंद्रमसौ सोम्याजी चेत्यष्ट मूर्तयः ||
कालिदास ने कुमारसंभव में शिवजी को विश्वमूर्ति कहा है –
न विश्वमूर्तेरवधार्यते वपु: ||
महाकवि कालिदास तत्त्वज्ञ होने के कारण भगवान शिव से कभी अर्थ-कम की लालसा नहीं की, अपितु शिवसायुज्य या कैवल्य की ही कामना करते रहे | वे भगवान नीललोहित से किसी सांसारिक वस्तुकी याचना न करते हुए उनसे जन्म-मरण के चक्र से मुक्ति प्रदान करने हेतु विनय करते हैं –
ममापि च क्षपयतु नीललोहितः पुनर्भवं परिगतशक्तिरात्मभू: ||
मालविकाग्निमित्र नाटक की नान्दी में उन्होंने सामाजिकों केलिए भगवान से प्रार्थना की है कि वे उनकी तामसी वृत्ति का शमन करें ताकि उन सबकी सन्मार्ग में प्रवृत्ति हों|
सन्मार्ग लोकानाय क्षपयतु स वस्तामसी वृत्तिमीशः ||
इसी प्रकार विक्रमोर्वशीय नाटक की नान्दी में उन्होंने स्थिर भक्तियोग से सुलभ भगवान शंकर से सभीको निःश्रेयस प्रदान करने की प्रार्थना किया है –
स स्थाणु: स्थिरभक्तियोगसुलभो निःश्रेयसायास्तु वः ||
महाकवि कालिदास की यह विशेषता है कि उनकी उपासनासे व्यापक लोकमंगल की कामना निहित रहती है | वे भगवान शिव से सदा जनकल्याण की ही याचना करते रहे और यही उनके शिवके स्वरूपका यथार्थ ज्ञान तथा उनकी यथार्थ शिव-उपासना है| यही भारतीय धर्मं और दर्शन का अंतिम लक्ष्य है |
संदर्भग्रन्थसूची
डॉ कपिलदेव हरेकृष्ण शास्त्री, परंपरागत संस्कृत विभाग, ध महाराजा सायजीराव विश्वविद्यालय, वडोदरा, गुजरात