साहित्य और समाज
साहित्य समाज का दर्पण है, समाज का प्रतिबिम्ब है, समाज का मार्गदर्शक है तथा समाज का लेखा-जोखा है। किसी भी राष्ट्र या सभ्यता की जानकारी उसके साहित्य से प्राप्त होती है। साहित्य लोकजीवन का अभिन्न अंग है। किसी भी काल के साहित्य से उस समय की परिस्थितियों, जनमानस के रहन-सहन, खान-पान व अन्य गतिविधियों का पता चलता है। समाज साहित्य को प्रभावित करता है और साहित्य समाज पर प्रभाव डालता है। दोनों एक सिक्के के दो पहेलु हैं। साहित्य का समाज से वही संबंध है, जो संबंध आत्मा का शरीर से होता है। साहित्य समाज रुपी शरीर की आत्मा है। साहित्य अजर-अमर है। महान विद्वान योननागोची के अनुसार समाज नष्ट हो सकता है, राष्ट्र भी नष्ट हो सकता है, किन्तु साहित्य का नाश कभी नहिं हो सकता।
साहित्य संस्कृत के 'सहित' शब्द से बना है। संस्कृत के विद्वानों के अनुसार साहित्य का अर्थ है - "हितेन सह सहित तस्य भव:" अर्थात कल्याणकारी भाव। कहा जा सकता है कि साहित्य लोककल्याण के लिए ही सृजित किया जाता है। साहित्य का उद्देश्य मनोरंजन करना मात्र नहीं है, अपितु उद्देश्य समाज का मार्गदर्शन करना भी है। राष्ट्रकवि मैथिलीशरण गुप्त के शब्दों में-
केवल मनोरंजन न कवि का कर्म होना चाहिए
उसमें उचित उपदेश का भी मर्म होना चाहिए
महान साहित्यकारों ने साहित्य को लेकर अपने विचार व्यक्त लिए हैं। बींसवी शताब्दी के हिन्दी के प्रमुख साहित्यकार आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने साहित्य को 'जनता की चित्तवृत्ति का संचित प्रतिबिंब माना है। आचार्य महावीरप्रसाद द्विवेदीने साहित्य को 'ज्ञानराशि का संचित कोश' कहा है। पंडित बाल कृष्ण भट्ट साहित्य को 'जन समूह के हृदय का विकास' मानते है।
प्राचीन काल में भारतीय सभ्यता अति समृद्ध थी। हमारी सभ्यता इतनी उन्नत थी कि हम आज भी उस पर गर्व करते हैं। किसी भाषा काई वाचिक और लिखित सामग्री को साहित्य कह सकते हैं। विश्व में प्राचीन वाचिक साहित्य आदिवासी भाषाओं में प्राप्त होता हैं। भारतीय संस्कृत साहित्य ऋग्वेद से प्रारंभ होता है। व्यास, वाल्मीकि जैसे पौराणिक ऋषियों ने महाभारत एवं रामायण जैसे महाकाव्यों की रचना की। भास, कालिदास एवं अन्य कवियों ने संस्कृत में नाटक लिखे, साहित्य की अमूल्य धरोहर है। भक्त साहित्य में अवधी में गोस्वामी तुलसीदास, वृज भाषा में सूरदास, मारवाडी में मीरा बाई, खडीबोली में कबीर, रसखान, मैथिली में विद्यापति आदि प्रमुख है। जिस राष्ट्र और समाज का साहित्य जितना अधिक समृद्ध होगा। वह राष्ट्र और समाज भी उतना ही समृद्ध होगा। किसी राष्ट्र और समाज की स्थिति जाननी हो, तो उसका साहित्य देखना चाहिए।
मानव सभ्यता के विकास में साहित्य का महत्वपूर्ण योगदान रहा है। विचारों ने साहित्य को जन्म दिया तथा साहित्य ने मानव की विचारधारा को गतिशीलता प्रदान की, उसे सभ्य बनाने का कार्य किया। मानव की विचारधारा में परिवर्तन लाने का कार्य साहित्य द्वारा ही किया जाता है। इतिहास साक्षी है कि किसी भी राष्ट्र या समाज में आज तक जितने भी परिवर्तन आए, वे सब साहित्य के माध्यम से ही आए। साहित्यकार समाज में फैली कुरीतियों, विकतियों, अभावों, विसमताओं, असमानताओं आदी के बारे में लिखता है। इनके प्रति जनमानस को जागरुक करने का कार्य करता है। साहित्य जनहित के लिए होता है। जब सामाजिक जीवन में नैतिक मूल्यों का पतन होने लगता है, तो साहित्य जनमानस मार्गदर्शन करता है।
मानव को जन्म से लेकर मृत्यु तक जीवन के हर क्षेत्र में समाज की आवश्यकता पड़ती है। मानव समाज का एक अभिन्न अंग है। जीवन में मानव के साथ क्या घटीत होता है, उसे साहित्यकार शब्दों में रचकर साहित्य की रचना करता है। अर्थात साहित्यकार जो देखता है, अनुभव करता है, चिंतन करता है, विश्लेषण करता है, उसे लिख देता है। साहित्य सृजन के लिए विषयवस्तु समाज के ही विभिन्न पक्षों से ली जाती है। साहित्यकार साहित्य की रचना करते समय अपने विचारों और कल्पना को भी सम्मिलित करता है।
वर्तमान में मीडिया समाज के लिए मजबूर कडी़ साबित हो रहा है। समाचार-पत्रों की प्रासंगिकता सदैव रही है और भविष्य में भी रहेगी। मीडिया में परिवर्तन युगानुकूल है, जो स्वाभाविक है, लेकिन भाषा की दृष्टि से समाचार-पत्रों में गिरावट देखने को मिल रही है। इसका बड़ा कारण यही लगत है कि आज के परिवेश में समाचार-पत्रों में गिरावट देखने को मिल रही है। इसका बड़ा कारण यही लगता है कि आज के परिवेश में समाचार-पत्रों से साहित्य लुप्त हो रहा है, जबकि साहित्य को समृद्ध करने में समाचार-पत्रों की महती भूमिका रही है, परंतु आज समाचार-पत्रों ने ही स्वयं को साहित्य से दूर कर लिया है, जो अच्छा संकेत नहीं है। आज आवश्यकता है कि समाचार-पत्रों में साहित्य का समावेश हो और वे अपनी परंपरा को समृद्ध बनाएं। वास्तव में पहले के संपादक समाचार-पत्र को साहित्य से दूर नहीं मानते थे, बल्कि त्वरित साहित्य का दर्जा देते थे। अब न उस तरह के संपादक रहे, न समाचार-पत्रों में साहित्य के लिए स्थान। साहित्य मात्र साप्ताहिक छपने वाले सप्लीमेंट्स में सिमट गया है। समाचार-पत्रों से साहित्य के लुप्त होने का एक बड़ा कारण यह भी है कि अब समाचार-पत्रों में संपादक का दायित्व ऐसे लोग निभा रहे है, जिनका साहित्य से कभी कोइ सरोकार नहीं रहा। समाचार-पत्रों के मालिकों को ऐसे संपादक चाहिएं, जो उन्हे मोटी धनराशि कमाकर दे सकें। समाचार-पत्रों को अधिक से अधिक विज्ञापन दिला सकें, राजनीतिक गलियारे में उनकी पहुंच बढ़ सके।
इस सबके बीच कुछ समाचार पत्र ऐसे भी हैं, जो साहित्य को संजोए हुए हैं। साहित्य की अनेक पत्रिकाएं भी प्रकाशित हो रही है, परंतु उनके पास पर्याप्त संसाधन न होने के कारण उन्हें आर्थिक समस्याओं का सामना करना पड़ता है। साहित्य ने सदैव राष्ट्र और समाज को नई दिशा देने का कार्य किया है। साहित्य जनमानस को सकारात्मक सोच तथा लोककल्याण के कार्यों के लिए प्रेरणा देने का कार्य करता है। साहित्य के विकास की कहानी मानव सभ्यता के विकास की गाथा है। इसलिए यह अति आवश्यक है कि साहित्य लेखन निरंतर जारी रहना चाहिए, अन्यथा सभ्यता का विकास अवरुद्ध हो जाएगा।
भारतीय साहित्य संकुचितता का नहीं, पूरी मानवता का साहित्य है। एक देश का नही, पूरे विश्व का साहित्य है। यह बन्धन का नही, मुक्ति का साहित्य है । घृणा का नही, आत्मीयता का साहित्य है।
साहित्य में ही समाज निर्माण की शक्ति होती हैं । कोई भी विचार शब्द में बंधकर भी स्थाई होता है । पीढियों तक पहुंचता है । भावी पीढ़ी की विगत श्रेष्ठताओं के प्रकाश में अपना मार्ग बनाती है । यह निरंतरता ही उसे परम्परा का आकार देती है । श्रेष्ठता सांस्कृतिक का अधिष्ठान बनती है । संस्कृति, साहित्य के अभाव में स्मृति के बियाबान में खो जाती है । कभी कभी विनष्ट भी हो जाती है । जिस देश का साहित्य नष्ट हो जाता है, उसकी संस्कृति स्वत: नष्ट हो जाती है ।
साहित्य और समाज का अन्योन्याश्रित सम्बन्ध होता है । एक ओर साहित्य का हित और सहित भाव समाज के लिए कल्याणकारी होता है, वही समाज का पारम्परिक आचरण साहित्य को शास्त्र की गरिमा प्रदान करता है । साहित्य को तात्कालिक सामाजिक संक्रमण प्रभावित तो करते हैं, परन्तु, सर्जक जो समय और शास्त्र दोनों का ज्ञाता और दृष्टा होता है, वह हंस के नीर क्षीर विवेक की भांति सांस्कृतिक एवं असांस्कृतिक में से सांस्कृतिक को चुनता है और शब्द के बल पर समाज को देता है । वैदिक साहित्य के बाद का सृजित साहित्य इसका प्रमाण है ।
उन्नीसवीं एवं बीसवीं शताब्दी तो भारतीय साहित्य की सांस्कृतिक समाज निर्माण की शताब्दी कही जा सकती है । इस शताब्दी ने स्वतन्त्रता के साथ-साथ समाज सुधार को भी संघर्ष का विषय बनाया । इस काल के साहित्य ने समाज जागरण के लिए कभी अपनी पुरातन संस्कृति को निष्ठा के साथ स्मरण किया है, तो कभी तात्कालिक स्थितियों पर चिन्ता भी गहराई के साथ व्यक्त की है ।
आठवें दशक के बाद से आज तक के काल का साहित्य, जिसे वर्तमान साहित्य कहना अधिक उचित होगा, फिर से अपनी सांस्कृतिक जड़ों से जुड़, समाज निर्माण की भूमिका को वरियता के साथ पूरा करने में जुटा है । साहित्य होने के फलितार्थ को चरितार्थ करने में लग गया है ।
मुक्तिबोध की 'अंधेरे में' कविता को, जिनने इतना उछाला, उनके लिए भी शिशु, कमल, भैरव, खोह, टूटी चप्पल और चश्में जैसे प्रतीक आज भी समझ से परे है । उस साहित्य को मरना ही था, जो कृष्ण को लम्पट बताये, राम का चरित्र हनन करे । 'हाथी घोड़ा पालकी' चुपास मारो दुलहिन' जैसी कविताएँ भारत की मनीषा को कब रास आने वाली थी । उपन्यासों का नग्न काम यथार्थ जुगुप्सा जगाने लगा था । आश्चर्य उन समीक्षकों पर है, उन पत्रिकाओं पर हैम जो ऐसे गर्हित साहित्य को उछालने में शब्दों और बुद्धी का अपव्यय कर रहे थे ।
वर्तमान साहित्य मानव को श्रेष्ठ बनाने का संकल्प लेकर चला है । व्यापक मानवीय एवं राष्ट्रीय हित इसमे निहित है । साहित्यकारों में राष्ट्रीय स्तर पर हितावय एवं भयावह में अंतर करने की क्षमता ही नही, दृष्टि की स्पष्टता भी जगी है । सृजन आदर्शधारित हो, उद्देश्य पूर्णता एवं उपयोगिता की ओर मुड़ा है । मनुष्य का खंडश: नहीं, समग्र चिन्तन होने लगा है । असत का विरोध तथा सत की प्रतिष्ठा होने लगी है । शाश्वत मूल्य फिर से स्थान पाने लगे है । दु:खान्त की नहीं, सुखान्त की प्रतिष्ठा बढ़ रही है । लगने लगा है कि यह भारतीय साहित्य है । भारतीयता इसमें प्रतिबिम्बित होने लगी है। वर्तमान के ये सभी साहित्यकार धन्यवाद के पात्र है । आवश्यकता यही है, गति त्वरित हो । साथ ही इसे समाज के सामने लाने के, प्रकाशन से लेकर समीक्षा तक के प्रयत्नों में तेजी तथा सार्थकता आये । पत्र पत्रिकाओं का प्रभाव क्षेत्रे बढ़े ।
साहित्यिक कर्म रचना-कर्म है यह मानने में तो किसी को कठिनाई नहीं होगी । कम-से-कम यह सोचने के लिए तो कोई नहीं रुकेगा कि वह रचना-कर्म है कि नहीं, मान लेगा कि सोचने का काम पहले हो चुका है और सिद्धांत सामने है । लेकिन क्या साहित्यिक कर्म सांस्कृतिक कर्म भी है ? यह सवाल पूछने पर साहित्यकार और आलोचक और सिद्धांतो के प्रतिपादक लोगचौकन्ने होते हैं । न केवल इस रूप में प्रश्न प्रायरू रखा नहीं जाता, वरन् जिससे पूछा जाता है उसे यह संदेह होता है कि कहीं इसमें कोइ पेच तो नहीं है, 'हाँ' कह देने पर कहीं मैंने अनजाने अपने को ऐसा बाँध तो नहीं लिया होगा कि आगे तर्क में मेरा पक्ष गिर जाए ? इसलिए इस सवाल का जवाब कई खंडों या सीढीयों में तैयार करना पड़ता है । दोनों कल्पना का सहारा लेते हैं, और कल्पना सर्जन का आधार है। दोनों समाज से जुड़े है, दोनों का स्वरूप समाज पर निर्भर करता है और दोनों समाज को अभिव्यक्ति देते हैं - समाज के इतिहास को भी, उसकी वर्तमान स्थिति को भी और उसकी आकांक्षा को भी । ऐसा है तो दोनों लगातार उसके द्वारा बदले भी जाते है और स्वयं उसमें बदलाव लाने का भी आधार बनते है । प्राचीन इतिहास और वर्तमान वास्तविकता की अभिव्यक्ति होने के कारण दोनों में एक अनिवार्य गंभीरता भी होती है, लेकिन दोनों में कल्पना का महत्त्वपूर्ण योग होने के कारण उनमें एक लीला अथवा क्रीड़ा-भाव भी बना रहता है । बल्कि दोनों की सर्जक सत्ता अनिवार्यतया लीला-भाव से भी जुड़ी हुई है । जिन संस्कृतियों में लीला-भाव नहीं रहता वे उस हद तक बंध्य और स्थितिशील हो जाती हैं, भले ही गंभीरता उनमें बनी रहे । बल्कि उनकी यह गंभीरता भी परम्परा के आग्रह का रूप ले लेती है । और जिन साहित्यों में लीला-भाव नहीं रहता वे भी स्थितिशील हो जाते है और उनकी गंभीरता भी रीति और परम्परा के आग्रह का रूप ले लेती है, प्रयोग से कतराती है । फिर उनमें भी गंभीरता भले ही बनी रहे और वह वास्तविकता को देखने के, जिम्मेदार होने के दावे में भले ही परिणत हो जाए । विमर्श की इतनी सारी सीढ़ियाँ चढकर-या अनिच्छा को ध्यान में रखते हुए कहें कि उतरकर-लोग मान लेते है कि 'हाँ, साहित्यिक कर्म भी सांस्कृतिक कर्म है, साहित्य रचना भी एक तरह से संस्कृति की रचना है और साहित्य के सांस्कृतिक परिवेश की उपेक्षा नहीं की जा सकती, लेकिन- 'यह 'लेकिन' यथार्थ स्थिति का एक विचरणीय तथ्य है । इस 'लेकिन' के बाद कोई तर्क प्रस्तुत किए जाएँ या न किए जाएँ, इतना तो इससे स्पष्ट हो ही जाता है कि मन में कहीं एक गाँठ है । इस बात को स्वीकार करने में अनिच्छा की एक बाधा है कि साहित्य से संस्कृति बनती है जैसे कि संस्कृति से साहित्य बनता है । संस्कृति, समाज, साहित्य और ऐसी अन्य अवधारणाओं में परस्परता और अन्योन्याश्रय का गहरा सम्बन्ध है । इनमें से किन्हीं भी दो को उठाकर उनके सन्बन्धों का विचार हो सकता है और वह विचार उपयोगी भी हो सकता है, लेकिन तभी जब इस बात को कभी न भुलाया जाए कि एसी भी जोड़ी का एक व्यापकतर सन्दर्भ है और केवल विचार ही नहीं, ये संज्ञाएं भी उस सन्दर्भ से जुड़ी रहती ही अर्थवान है । साथ ही यह भी ध्यान में रखने की आवश्यकता है कि किन्ही भी दो संज्ञाओं को चुनकर विचार करते समय हम प्रत्येक पर अपने पूर्वग्रहों का आरोप कर देते हैं । यह नहीं कि दूसरी सब मान्यताओं का हम एकान्त रूप से खंडन कर देते होंय इतना ही कि हमारी दृष्टि कुछ पहलुओं पर केन्द्रित हो जाती है जिसके कारण परिदृश्य बदल जाता है । उदाहरण के लिए, संस्कृति की चर्चा में कहीं यह अलक्ष्य या अघोषित पूर्वग्रह हो सकता है कि वह परम्परा का, सामूहिक अनुभव के नित्य पक्ष का भंडार होती है । यह बात गलत नहीं है, लेकिन जिसका आग्रह इसी पक्ष पर होगा वह संस्कृति को केवल एक आस्था के रूप में नहीं, एक स्थितिशील आस्था जे रूप में देखता हुआ चलेगा । अब संस्कृति को स्थायित्व देती है, यह असन्दिग्ध है, लेकिन फिर भी संस्कृति न निरी स्थिति है, न निरी स्थितिशीलता है । वह एक गत्यात्मक प्रक्रिया भी है । इसी तरह वह अंतर्दृष्टि भी है, एसी अंतर्दृष्टि जो सत्यों को-ध्रुव सत्यों को भी और नए सत्यों को भी-आलोकित कर जाती है, हमें उनमें आस्था भी दे देती है । लेकिन इसके साथ ही संस्कृति लीला भी है, निरा खिलवाड़ भी है, अटकल भी है, साहस-कर्म भी है । अनुमान और रुपकमयी भाषा में वह स्वप्न-महल भी खड़े करती है, जिन्हें वह एक साथ ही सच मानने को और छूकर ढहा देने को सदैव प्रस्तुत भी है । बिना इसके संस्कृति जी नहीं सकती, पनप नहीं सकती । हम कहें कि पुराण और परम्परा के नाम पर जिन बहुत-सी चीजों का संचय और परिग्रह हम किये रहते है, उसमें से बहुत-सी इसी तरह जी हैं - साहसपूर्ण कल्पना की ऐसी सृष्टि जिसे हम शब्दशरु सत्य नहीं मानते क्योंकि हम बराबर जानते हैं कि वह हमारी सृष्टि है, हमारी कल्पना-सृष्टि है, हममें से उपजी होने के कारण शून्य में से नहीं उपजी है जैसे कि हम भी शून्य में से नहीं उपजे हैं। इतना ही नहीं, वह हमारे सामूहिक और सामाजिक स्वास्थ्य का एक आधार है, हमारी अस्मिता की पहचान का एक अंग है । उसे हम एकान्त मिथ्या तभी मान सकते हैं जब अपने को भी एकान्त मिथ्या मान लें ।
पूर्वाग्रहों के व्यापक प्रभाव की इतने विस्तार से चर्चा का कारण हैय जैसे कि संस्कृति की चर्चा का भी कारण है । संस्कृति के बारे में जो कुछ कहा गया है सब साहित्य पर भी पूरी तरह से लागु है । साहित्य भी यथार्थ और कल्पना की सीमा-रेखा पर साहसपूर्वक बढ़ता है और उसी सन्धि-भूमि पर उसका सर्जकत्व क्रियाशील होता है । साहित्य भी अस्मिता की पहचान कराता है - सामूहिक, सामाजिक, व्यक्तिगत और आस्तित्विक अस्मित की । साहित्य भी स्थितिबोध जगाता है, जड़ों की पहचान कराता है, उनके द्वारा अपनी मिट्टी से रस खींचने की प्रेरणा देता है, प्रक्रिया सिखाता है, दक्षता बढ़ाता है । साहित्य भी बदलाव की पहचान कराता है, कल्पना के महल खड़े करता है (और गिराता है), अटकल लगाता है, भूल करता है, भूल करने का साहस करता है और भूल को काटकर अलग कर देने का निर्ममत्व भी रखता है ।
संस्कृति के विचार की तरह साहित्य के विचार में भी हम उसे किसी दूसरी एक संज्ञा के साथ जोड़ ले सकते है । और वैसा विचार, जरूरी नहीं है कि सिर्फ इसलिए अर्थहिन हो जाए कि उसमें भी पूर्वाग्रह काम कर रहे होंगे । मंशा यही है कि हम पूर्वागह की सम्भावना और व्याप्ति को पहचानते रहें और इस बात को भी न भूलें कि विचार के लिए जो भी जोड़ा हमने चुना है वह विचार की सुविधा के लिए ही चुना है । इसलिए नहीं कि व्यापकतर सन्दर्भ से इन दो संज्ञाओं को किसी तरह भी अलग किया जा सकता है । दूसरे शब्दों में कहें कि कोई भी जोड़ा चुनना अपने-आपमें एक पूर्वाग्रह की अभिव्यक्ति है । साहित्य और सामाजिक परिवर्तन भी इसी तरह का एक जोड़ा है - यहाँ तक कि साहित्य और साहित्यकार भी एक जोड़ा है जो पूर्वाग्रह से मुक्त नहीं होता और जो सन्दर्भ से कटकर अर्थहीन हो जाएगा ।
संदर्भ ग्रंथ
डॉ. हिरेन जे. बारोट, आसी. प्रोफेसर, श्री एन्ड श्रीमती पी. के. कोटावाला आर्ट्स कॉलेज, पाटन (उ.गु.)