जयशंकर प्रसाद का कला-चिन्तन : भारतीय काव्य-परम्परा का पुनर्नवन
समस्त छायावादी कवियों में प्रसाद संभवतः एकमात्र ऐसे कवि हैं जो अपने बाद की पीढ़ी को चुनौती-सी देते हैं। भारतीय ज्ञान-परंपरा और सामाजिक व स्वाधीनता की चेतना धारा को मथ लेना और फिर अपनी प्रतिभा-शक्ति द्वारा उसे काव्य रूप में प्रस्तुत कर देना सचमुच छायावादी युग में विलक्षण प्रतिभा का उदाहरण है। प्रसाद की इसी प्रतिभा की बुनियादी समझ और उनकी रचना-प्रक्रिया को गहरे आँकते हुए रमेशचंद्र शाह ने लिखा है –
"यह ठीक है कि प्रसाद उन थोड़े-से कवियों में हैं जो गीति और स्फीति दोनों को समान गरिमा के साथ निबाह सकते हैं किन्तु इसके साथ एक दूसरा तथ्य यह भी है कि वे ऐसे कवि (भी) हैं जिनके रचना-क्रम में शुरू से आखिर तक एक खास किस्म की एकता, एक बुनियादी पर्युत्सुकता का 'पैटर्न' दिखाई देता है, मानों सृष्टि और अस्तित्व की मूलभूत चुनौतियों से निपटने के लिए, उनको अपनी जीवनानुभूति और वेदनतंत्र द्वारा सिद्ध और हल करने के लिए ही इन्हें कवित्व दिया गया हो : मानों इनकी कविता और इनकी यह पर्युत्सुकता सहजात हों, परस्पराश्रित हों।"[1]
प्रसाद की जीवन-दृष्टि और उसे काव्य रूप में ढालने के बीच उत्पन्न तनाव से निष्पन्न धैर्यपूर्ण विवेक उनकी कविताओं में शब्द और अर्थ तथा जीवन को समझने का दृष्टिकोण उत्पन्न करता है। इस जीवन-दृष्टि में प्रसाद के व्यक्तित्व की झलक तो है परन्तु व्यक्ति और समाज, वर्ग-चेतना और सामाजिक दायित्वबोध का उथलापन नहीं है जो उनकी कविताओं राजनैतिक दस्तावेज़ होने से बचाता है। प्रसाद की कविता और कवि की निर्वैयक्तिकता के अंतःसंबंधों पर आलोकपात करते हुए रमेशचंद्र शाह पुनः लिखते हैं -
"यह कवि अपने मानसिक संघर्ष को, भावनाओं के झंझावात को सीधे अभिव्यक्ति देने को प्रेरित नहीं होता; बल्कि उसे अनवरत चिंतन-मंथन में से छानकर ही अपनी कविता प्राप्त करता है। व्यक्तित्व का सीधा प्रकाशन उसे 'भोंडा' लगता है।"[2]
व्यक्तित्व का सीधा प्रकाशन यथार्थवादी दृष्टिकोण का परिचायक है। प्रसाद का दृष्टिकोण यथार्थ के उस दृष्टिकोण से सर्वथा भिन्न है जिसे मार्क्सवादी यथार्थवादी दृष्टिकोण कहा जाता है। कितना विस्मयकारी है कि जिन मुक्तिबोध ने अपनी कामायनी-संबंधी आलोचना में प्रसाद को पश्चगामी मानसिकता से ग्रसित कहा, उन्होंने ही उस प्रसादीय यथार्थ क्रमानुगतता को स्वीकार किया। दूसरी बात यह है कि जिन मार्क्सवादी यथार्थवादी प्रतिमानों के आधार पर उन्होंने प्रसाद को राष्ट्रवादी-श्रद्धावादी- व्यवस्था का उद्घोषक सिद्ध किया, उसी मार्क्सवादी यथार्थवादी प्रगतिवाद प्रतिमानों को मुक्तिबोध ने स्थूल, अंधसिद्धान्तवादी-अहंकारसम्पन्न और कला-विवेक-विहीन भी माना।[3] आधुनिक हिंदी कविता के इतिहास में मार्क्सवादी दृष्टिकोण और सोवियत शासन व्यवस्था व उसकी अनुप्रयुक्ति को कला के स्तर पर मूर्तिबद्ध व आकार प्रदान करनेवाली 'प्रगतिवादी' दृष्टि को पीछे छोड़कर मुक्तिबोध ने प्रसादयुगीन छायावादी दृष्टिकोण से कला-प्रेरणा और अपनी कविता के लिए कला विधान का सत्व ग्रहण किया। यह प्रसाद के काव्य-विधान की निरंतरता का प्रमाण है।
जीवन को कलात्मक रूप में प्रस्तुत करने में प्रसाद सिद्धस्थ हैं। उनका कवि मन भावावेगों को ज्ञानात्मक अनुभूति में ढालते चला गया। बाह्य विश्व, ऐन्द्रिय संवेदना का जगत् कवि-कल्पना के लिए कलात्मक विलास उपकरण जुटाने के बजाये उसे एकाग्र संवेदन की प्रेरणा देता है -
“समरस थे जड़ या चेतन
सुन्दर साकार बना था,
चेतनता एक विलसती
आनंद अखंड घना था।”[4]
इस आलेख के अंतर्गत प्रसाद के अंतरंग जीवन, उनके प्रकृति-बोध, जीवन-जगत के आभ्यंतरीकरण की प्रक्रिया एवं उसका क्रमिक विकास तथा प्राप्त अनुभूति को भावना या कल्पना के सहारे दर्शन रूप में प्रस्तुत करने की अपार सम्भावनाओं का संधान किया गया है। प्रसाद की अंतःप्रेरणा के ज्ञात व अज्ञात स्रोतों का अन्वेषण भी एक जटिलतर कार्य ही है।
काव्य और दर्शन का अंतस्संबंध
प्रसाद के नाटक अपनी ऐतिहासिक भव्यता, नवजागरणकाीन विभव एवं राष्ट्रीय चेतना के लिए प्रसिद्ध हैं। इतिहास एवं संस्कृति का सन्निवेश उनकी रचनात्मक स्वतंत्रता का द्योतक है। इस रचनात्मक स्वातंत्र्य को अर्जित करने के लिए उन्होंने परंपरा कि बहुविध प्रणालियों का अवगाहन किया था। इसका प्रतिफल उनके नाटकों की भूमिका के रूप में लिखे गए दीर्घ आलोचनात्मक निबंध हैं जो उनके अनुसंधित्सु मन एवं रचनाकार मन के अन्तर्सम्बन्ध को दर्शाते हैं।
अब प्रश्न यह उठता है कि प्रसाद ने स्रष्टा और द्रष्टा मन के इस संवलित विवेक को कैसे प्राप्त किया? उनकी रचनाओं में काव्य और दर्शन का निबंधन क्या इसी संवलन का परिणाम तो नहीं है?
जयशंकर प्रसाद के यहां काव्य और दर्शन का पार्थक्य नहीं मिलता। इसका कारण यह है कि भारत में रहस्यवाद की सुदीर्घ परम्परा रही है। वैदिक ऋषियों ने जहाँ ज्ञान प्राप्ति की प्रक्रिया के अनन्तर रहस्यवाद को अपनाया, वहीं वर्तमान में मनुष्य ने अपने मूल भावों को रहस्य के आवरण में आवृत्त करने का उपक्रम किया जिसे आचार्य रामचंद्र शुक्ल ने सभ्यता का आवरण कहा है। वैदिक ऋषियों को मंत्रद्रष्टा और मंत्र स्रष्टा कहा जाता है। उपनिषदों में ज्ञान का प्रकाश स्रष्टा और द्रष्टा दोनों का समवेत फल है। स्रष्टा और द्रष्टा का यह रूप उसी प्रकार अभेद है जैसे प्रज्ञा के स्तर पर पहुंचे हुए मनुष्य में ज्ञान और सूचना का होता है। यही कारण है कि उपनिषद्कालीन ऋषियों ने ज्ञान को चिंतनप्रसूत माना है। श्वेताश्वतरोपनिषद के पहले ही अध्याय का तीसरा श्लोक है -
“ते ध्यानयोगानुगता अपश्यन्देवात्मशक्ति स्वगुणैर्निगूढाम्।।
यः कारणानि निखिलानि तानि कालात्मयुक्तान्यधितिष्ठत्ये कः।।”[5]
अर्थात ऋषियों ने ध्यानयोग का आलम्बन लिया जिससे उन्हें अपने गुणों से आच्छादित ब्रह्मस्वरूप आत्मशक्ति का साक्षात्कार हुआ, जो काल, स्वाभाव आदि से लेकर आत्मा तक सभी कारणों का एकमात्र अधिष्ठाता है।
स्पष्ट है कि वैदिक ऋषियों ने जिस ज्ञानकाण्ड का सूत्रपात किया था वहाँ स्वयंप्रसूत ज्ञान के लिए मंत्रद्रष्टा अर्थ ग्रहण किया जाता है जबकि प्रयत्नसाध्य ज्ञान-प्रक्रिया मंत्रस्रष्टा ऋषिओं द्वारा अपनायी गई थी। सिर्फ बौद्धिक चिंतन द्वारा ब्रह्म का साक्षात्कार संभव नहीं, ध्यान के अंतर्गत आत्म चेतन द्वारा ही गुणों के आवरण को भेदकर उस परम तत्त्व का अनुभव किया जा सकता है। चूंकि प्रसाद काव्य को उस गुरुत्व से आप्लावित करना चाहते थे जो शास्त्र और धर्मशास्त्र को सहज ही प्राप्त है, इसलिए उन्होंने भारतीय काव्यशास्त्र के पुनर्नवन का उपक्रम किया। अपने 'रस' शीर्षक निबंध में उन्होंने लिखा है-
"काव्य की धारा लोकपक्ष से मिलकर अपनी आनन्द-साधना में लगी रही। यद्यपि शास्त्रों की परम्परा ने आध्यात्मिक विचार का महत्त्व उस से छीन लेने का प्रयत्न किया, फिर भी अपने निषेधों की भयानकता के कारण, हृदय के समीप न हो कर वह अपने शासन का रूप ही प्रकट कर सकी। अनुभूतियां काव्य परम्परा में अभिव्यक्ति होती रहीं।"[6]
चूंकि प्रसाद ने काव्य को आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति माना है, अतः उन्होंने कविता को काव्यमय श्रुतियों के सातत्य में देखा है। काव्य की आनन्दवादी धारा की प्रतिष्ठा के लिए उन्होंने प्रत्यभिज्ञा दर्शन को चुना। काव्य को परिभाषित करते हुए वे कहते हैं-
"काव्य आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति है जिसका संबंध विश्लेषण, विकल्प या विज्ञान से नहीं है।"[7]
संकल्प आत्मक अवस्था की श्रेणी कभी अर्जित की जा सकती है जब काव्य को विकल्प आत्मक विधि से पृथक रखा जाए। बीसवीं शताब्दी के आरंभ में जब ज्ञान के लगभग सभी अनुशासनों पर विज्ञान का यथेष्ठ दबाव था, ऐसे समय में प्रसाद ने काव्य को संकल्पात्मक अनुभूति से जोड़ कर देखा।
वस्तुतः विश्लेषण और विकल्प से तात्पर्य तर्क-वितर्क से है। विकल्पात्मक बुद्धि से आगे बढ़कर ही किसी निश्चित सिद्धांत पर पहुंचा जा सकता है। प्रश्न है कि प्रसाद ने विकल्पात्मक बुद्धि से परहेज क्यों किया? उनके अनुसार काव्य और विचारधारा का संबंध कैसा होना चाहिए?
ख्यातिलब्ध मार्क्सवादी दार्शनिक अंर्स्ट फिशर ने अपनी विचारोत्तेजक पुस्तक 'Art Against Ideology' (कला: विचारधारा के विरुद्ध) में कला और विचारधारा के अंतस्संबंधों पर गंभीर चिंतन किया है। उन्होंने कला के सत्य को विचारधारा की परिधि से मुक्त माना है। उनका कहना है कि विचारधारा सदैव इस प्रयास में रहती है कि अपने उद्देश्यों की पूर्ति के लिए कला की स्वतंत्रता को हस्तगत किया जा सके। [8]
कलाकार स्वायत्त नहीं होता। वह अपने समय के आधिपत्य, प्रभावी विचारों, पूर्वाग्रहों, मूल्य संहिताओं यथा विचारधारा अथवा प्रत्ययधारा से निरपेक्ष नहीं रह सकता। उसका समय उसे बदलता है, निर्मित करता है लेकिन कलाकार उस समय का अनुभव विचारधारा के द्वारा नहीं करता। यह अनुभव वह किसी छलना द्वारा सत्य के मूल्य पर नहीं करता। यथार्थ का आभ्यंतरीकरण वह किसी विचारधारा के उपनेत्र द्वारा नहीं अपितु अपनी कवित्त्व शक्ति के माध्यम से करता है।
रूढ़िवादी अधिरचनावादी विद्वानों का मानना है कि कला का रूप तत्त्व विचारधारा द्वारा अभिप्रेरित होता है और अधिरचना के बदलने के साथ-साथ तीव्र अथवा मद्धिम गति से बदलता है। परन्तु अंर्स्ट फिशर का मानना है कि सिर्फ आधार ही अधिरचना का नियामक नहीं होता अपितु अधिरचना भी आधार को प्रभावित करती है।[9] उदाहरण के लिए स्वयं मुक्तिबोध ने अपनी कविता का रूप विधान, दार्शनिक प्रविधि और बाह्य के आभ्यंतरीकरण एवं उसमें स्वानुभूत उद्देश्यों को अन्तर्गुम्फित करके थीसिस रूप में प्रस्तुत करने की टेकनीक प्रसाद से ग्रहण की। इस क्रम में न सिर्फ उन्होंने प्रगतिवाद की कला-रुक्षता की भर्त्सना की अपितु उसके प्रवक्ताओं को निःसंज्ञ अक्षमता और जड़-बधिर-अंध-पंगु प्रतिभा से संपन्न भी कहा।
यहां मुक्तिबोध का उदाहरण इसलिए दिया गया है क्योंकि उन्होंने बीस वर्षों तक कामायनी का अध्ययन किया था और उसकी सभ्यता-समीक्षा प्रस्तुत की। उनकी साहित्यिक समीक्षा में जगह-जगह प्रसाद और कामायनी का, कामायनीकार द्वारा प्रसूत दर्शन का, दर्शन की काव्य-रूप में परिणति का और काव्य में प्रयुक्त रचना-विधान, फैंटेसी आदि का उल्लेख मिलता है।
प्रसाद ने वैदिक ऋषियों के स्वानुभूत दर्शन को महत्व दिया और आत्मा की संकल्पात्मक अनुभूति का सम्बन्ध उससे जोड़ा। इस प्रकार उन्होंने काव्य और दर्शन के समवाय संबंध पर आलोकपात किया जिसका प्रभाव स्वयं उनकी रचनाओं पर दिखाई पड़ता है।
इतिहास-प्रेरणा और रचनात्मक स्वातंत्र्य
प्रसाद जिस समय रचना-कर्म में प्रवृत्त हए थे उस समय साहित्य में संक्रांति काल की प्रतिध्वनि गुंजायमान थी। स्वछंदतावाद, छायावाद, नई शिल्प-प्रविधि, नूतन भाषिक परिवेश और सांस्कृतिक संघट्टन(collision) के दौर में उन्होंने देश और समाज को दिशा देने का कार्य किया।
जयशंकर प्रसाद सिर्फ इसलिए प्रतिक्रियावादी नहीं हो जाते हैं कि उन्होंने राष्ट्रवाद का उद्घोष अपने नाटकों के माध्यम से किया है, समाज और श्रम की बदलती स्थिति को चित्रित किया, इड़ा के मुकाबले श्रद्धा को जगत की मंगलकामना माना और वैदिक संस्कृति एवं भारतीय इतिहास से प्रेरणा ग्रहण कर उज्जवल चरित्रों को सामने रखा। उन्हें इसलिए भी प्रतिक्रियावादी कहना सर्वथा अनुचित होगा कि उन्होंने रहस्यवाद का आश्रय लिया, गहन अनुभूत भाव-प्रवणता का वहन किया और साम्यवादी दर्शन के मूलाधार द्वंद्वात्मकता का अहनद नाद में पर्यवसान दिखाकर समरसता और सामंजस्य को उन्मेषित किया। 'ले चल मुझे भुलावा देकर' लिख देने से अथवा मनु को हिमालय में तपस्यारत दिखा देने से प्रसाद पलायनवादी नहीं हो जाते। प्रसाद की आत्यंतिक प्रवृत्ति को पहचाने बिना अपनी विचारधारा अथवा विश्वदृष्टि को प्रसाद-साहित्य पर थोपना अवश्य एक प्रतिक्रियावादी आलोचना-कर्म हो सकता है।
प्रसाद की दार्शनिक पृष्ठभूमि पर विचार करते हुए डॉ.. रामविलास शर्मा ने कहा है-
"प्रसादजी सबसे पहले एक बहुत बड़े विचारक थे, उसके बाद कवि, नाटककार तथा कथाकार। किसी भी छयावादी कवि का दार्शनिक पक्ष इतना सुलझा हुआ नहीं है, जितना प्रसाद का। इंग्लैण्ड के रोमांटिक कवियों के दार्शनिक विचार भी उनकी तुलना में उलझे हुए हैं। गद्य के सिवा उनके दार्शनिक विचार उनके काव्य, नाटकों आदि में बिखरे हुए मिलते हैं।"[10]
प्रसाद में अपने नाटकों का सृजन इतिहास की भूमि पर किया। उनके इतिहास सम्बन्धी विद्वतापूर्ण एवं गहन अनुसंधानात्मक निबंध नाटकों और कामायनी की भूमिका के तौर पर लिखा है। उनकी इतिहास सम्बन्धी समझ का निर्माण स्वाधीनता की चेतना से हुआ था। इसलिए इसमें प्राचीन और अर्वाचीन का संगम दिखाई पड़ता है। अपने 'अजातशत्रु' नामक नाटक की भूमिका में इतिहास और मानव विकास के अंतःसंबंधों पर आलोकपात करते हुए प्रसाद कहते हैं -
"इतिहास में घटनाओं की प्रायः पुनरावृत्ति होते देखी जाती है। इसका तात्पर्य यह नहीं है कि उसमें कोई नई घटना होती ही नहीं। किन्तु असाधारण नई घटना भी भविष्यत् में फिर होने की आशा रखती है। मानव-समाज की कल्पना का भण्डार अक्षय है, क्योंकि वह इच्छा-शक्ति का विकास है। इन कल्पनाओं का, इच्छाओं का मूल-सूत्र बहुत ही सूक्ष्म और अपरिस्फुट होता है। जब वह इच्छा-शक्ति किसी व्यक्ति या जाति में केन्द्रीभूत होकर अपना सफल या विकसित रूप धारण करती है, तभी इतिहास की सृष्टि होती है।"[11]
प्रसाद का इतिहास-बोध काल की चक्रीय गति को धारण किये हुए है। यह पश्चिम के रेखीय इतिहास-बोध से भिन्न है। रेखीय इतिहास-बोध में जहाँ एक की समाप्ति के बाद दूसरे की शुरुआत और उसकी भी समाप्ति और तीसरे की शुरुआत; यह क्रम चलता जाता है। परन्तु भारतीय कालबोध की परिककल्पना इस से भिन्न है। भारतीय कालबोध में कुछ भी समाप्त नहीं होता। सबकुछ आवर्तित होता रहता है। काल की यह वैज्ञानिक अवधारणा बहुआयामी है। इतिहास की पुनरावृत्ति द्वारा प्रसाद ने यही दिखाना चाहा है। इस सम्बन्ध में अज्ञेय ने अपने उच्चकोटि के अनुसंधानात्मक निबंध 'काल का डमरू-नाद' में काल की गतिकी और भारतीय इतिहास-बोध की धुरी को पकड़ते हुए लिखा है-
"भारतीय आख्यान-साहित्य मूलत: आवर्ती रहा है। आवर्ती कथा ही विश्व के आख्यान-साहित्य को भारत की विशिष्ट देन है। बल्कि संसार में प्रचलित प्राय: सभी आवर्ती कथाओं के प्रारूप अथवा मूल अभिप्रायों का उत्स भारत ही रहा है। ईसप के दृष्टान्त, अलिफ लैला, डेकामेरॉन, सभी के प्रारूप भारतीय हैं। इसके विपरीत पश्चिम की काल परिकल्पना मूलत: ऋजु रेखानुसारी है; उसके उत्तर उदाहरण हमें उस साहित्य में मिलते हैं जिसमें हम सीधी गति की अप्रतिवर्तनीयता बिजली की कौंध-सी हमें चौंका जाती है-अर्थात शार्ट स्टोरी में।"[12]
अज्ञेय ने उदाहरणस्वरूप डमरू को ध्यान में रखकर भारतीय इतिहास-बोध की संकल्पना को प्रकट किया है।
प्रसाद ने इतिहास की जीवन-शक्ति एवं गतिकी के लिए कल्पना को आवश्यक माना है। इस कल्पना शक्ति का स्रोत मनुष्य की इच्छाशक्ति है जो समाज और इतिहास की धारा मोड़ने का माद्दा रखती है। इतिहास के विकास क्रम को द्वंद्वात्मक मानते हुए भी प्रसाद ने उसकी नियामक अथवा नियंत्रण शक्ति को किसी बाहरी सत्ता में संचित न मानकर मनुष्य की इच्छाशक्ति में पूंजीभूत माना है-
"विश्व में जब तक कल्पना इयत्ता को नहीं प्राप्त होती, तब तक वह रूप-परिवर्तन करती हुई, पुनरावृत्ति करती ही जाती है। समाज की अभिलाषा अनन्त स्रोतवाली है। पूर्व कल्पना के पूर्ण होते-होते एक नई कल्पना उसका विरोध करने लगती है, और पूर्व कल्पना कुछ काल तक ठहरकर, फिर होने के लिए अपना क्षेत्र प्रस्तुत करती है। इधर इतिहास का नवीन अध्याय खुलने लगता है। मानव-समाज के इतिहास का इसी प्रकार संकलन होता है।"[13]
'पूर्व कल्पना' और 'नई कल्पना' के परस्पर संघट्टन द्वारा प्रसाद ने द्वंद्वात्मकता को भी स्वीकार किया है जहाँ कोई भी नवीन विचार अपने पूर्ववर्ती विचारों में निहित अंतर्विरोध का प्रतिफलन होता है।
प्रसाद की विश्वदृष्टि उनकी इतिहास-दृष्टि से अनुप्राणित है। उन्होंने इतिहास को आवर्ती रूप में ग्रहण किया है इसीलिए उनके साहित्य में इतिहास और मिथक की विभेदक-रेखा धुँधली पड़ गयी है। इतिहास-बोध के लिए तर्क-विश्लेषणात्मक बुद्धि अपरिहार्य होती है, यह उन्हें ज्ञात था। चूँकि उन्होंने इतिहास को बहुआयामी रूप में ग्रहण किया था, इसलिए वे उसे भारतीय पौराणिक व मिथकीय परिदृश्य से असम्बद्ध करके न देख सकें -
"प्रायः लोग गाथा और इतिहास में मिथ्या और सत्य का व्यवधान मानते हैं। किन्तु सत्य मिथ्या से अधिक विचित्र होता है। आदिम युग के मनुष्यों के प्रत्येक दल ने ज्ञानोन्मेष के अरुणोदय में जो भावपूर्ण इतिवृत्त संगृहीत किये थे, उन्हें आज गाथा और पौराणिक आख्यान कहकर अलग कर दिया जाता है; क्योंकि उन चरित्रों के साथ भावनाओं का भी बीच-बीच में सम्बन्ध लगा हुआ-सा दीखता है।"[14]
प्रसाद की इतिहास-दृष्टि का निर्माण स्वधीनताकालीन चेतना से हुआ था जिसका सबसे सशक्त स्वर उनके नाटकों में गीतों के रूप में प्रकट हुआ है। 'चन्द्रगुप्त' नाटक में अलका द्वारा गाया गया यह गीत इस बात का साक्षी है -
“हिमाद्रि तुंग शृंग से
प्रबुद्ध शुद्ध भारती
स्वयंप्रभा समुज्ज्वला
स्वतंत्रता पुकारती
अर्मत्य वीर पुत्र हो
दृढ़ प्रतिज्ञ सोच लो
प्रशस्त पुण्य पंथ है
बढ़े चलो बढ़े चलो!”[15]
परन्तु उनकी इतिहास-दृष्टि को प्रश्नांकित करते हुए मुक्तिबोध यह मानते है कि उनके पास ऐतिहासिक बुद्धि होते हुए भी वैज्ञानिकता का अभाव था। उनका मानना है कि "प्रसादजी ने अतीत की भावुक गौरव-छायाओं से ग्रस्त, वेदोपनिषिदिक आर्य वातावरण से अनुप्राणित, समाजादर्श से प्रेरित होकर अपनी विश्व-दृष्टि तैयार की है।"[16]
मुक्तिबोध के अनुसार प्रसाद ने जिस समाजादर्श को चुना था वह वेदोपनिषदकालीन समाजादर्श था। इस वेदोपनिषदकालीन समाजादर्श के सम्बन्ध में प्रसिद्ध मार्क्सवादी आलोचक डॉ.. रामविलास शर्मा ने लिखा है-
"ऋग्वेद के ऋषि अनेक प्रकार के शारीरिक श्रम करते हैं। किसी भी तरह का श्रम हो, उससे घृणा नहीं है। इस शारीरिक श्रम के साथ वे काव्य भी रचते हैं, यज्ञ भी करते हैं, देवताओं के लिए स्तुतियाँ भी बनाते हैं। ऋग्वेद की सबसे बड़ी विशेषता है कि यहाँ शारीरिक श्रम और मानसिक श्रम का भेद मिट गया है।"[17]
जाहिर है, प्रसाद ने आधुनिक मनुष्य की समस्याओं का निवारण समरसता में दिया जहाँ इच्छा-ज्ञान-क्रिया की एकता विद्यमान है। यह एकता तभी संभव है जब जड़ और चेतन में समरसता का भाव आ जाये। इच्छा, ज्ञान और क्रिया की यही एकता उनके दर्शन का आधार है।
प्रसाद के नाटकों के पात्र अनन्तस्रोतोंवाली सामाजिक अभिलाषा का दायित्वबोध अपनी इच्छाशक्ति पर वहन करते हैं। यह इच्छाशक्ति एक तरफ तो वैयक्तिक सुख की परिधि से बाहर निकलती है और दूसरी तरफ मनुष्य की चेतना को वृहत्तर कर्त्तव्य से जोड़ देती है। 'स्कंदगुप्त' नाटक का प्रमुख पात्र स्कंदगुप्त भी देश और मानवता की रक्षा के लिए अपने निजी सुख को न्योछावर कर देता है -
"इस संसार का कोई उद्देश्य है। इसी पृथ्वी को स्वर्ग होना है, इसी पर देवताओं का निवास होगा; विश्व-नियंता का ऐसा ही उद्देश्य मुझे विदित होता है।.... मैं कुछ नहीं हूँ, उसका अस्त्र हूँ - परमात्मा का अमोघ अस्त्र हूँ। मुझे उसके संकेत पर केवल अत्याचारियों के प्रति प्रेरित होना है। किसी से मेरी शत्रुता नहीं, क्योंकि मेरी निज की कोई इच्छा नहीं। देशव्यापी हलचल के भीतर कोई शक्ति कार्य कर रही है, पवित्र प्राकृतिक नियम अपनी रक्षा करने के लिए स्वयं सन्नद्ध है।"[18]
प्रसाद ने अपने निबंध 'काव्य और कला' में काव्य को सांस्कृतिक प्रक्रिया के रूप में ग्रहण किया है इसलिए वे दर्शन और इतिहास को संस्कृति का अंग मानकर चलते हैं। इस सम्बन्ध में आचार्य नंददुलारे वाजपेयी ने कहा है कि "प्रसादजी ने इतिहास के अस्थिपंजर को कार्य-कारण-युक्त दार्शनिक सजीवता प्रदान की है।"[19]
प्रसाद ऐसे कवि चिंतक हैं जिन्होंने भारतीय रूचि-भेद को ध्यान में रखकर काव्य के सांस्कृतिक इतिहास का मंथन किया। यदि मुक्तिबोध के लिए प्रसाद अन्तर्मुख कवि हैं तो इसलिए नहीं कि वे जीवन-जगत के साथ वायवीय सम्बन्ध रखते है बल्कि इसलिए कि "वे अपने अंतर्जगत में उपस्थित भावों को, उनके भेद और अभेद को, रूपों और गुणों को बहुत अच्छी तरह पहचानते थे।"[20]
प्रसाद ने जीवन की लयात्मकता को प्रकृति की लयात्मकता के सामानांतर रखकर देखा है। उनके नाटकों में यह स्वर गीतों के माध्यम से मुखरित हुआ है। 'स्कंदगुप्त' नाटक में देवसेना इसका प्रतिनिधित्व करती है। प्रकृति की लय से एकाकार होने का सन्देश देते हुए देवसेना कहती है -
"प्रत्येक परमाणु के मिलने में एक सम है, प्रत्येक हरी-हरी पत्ती के हिलने में एक लय है। मनुष्य ने अपना स्वर विकृत कर रखा है, इसी से तो उसका स्वर विश्व-वीणा में शीघ्र नहीं मिलता। पांडित्य के मारे जब देखो, बेताल-बेसुरा बोलेगा। पक्षियों को देखो, उनकी 'चह-चह' 'कल-कल' 'छलछल' में, काकली में, रागिनी है।"[21]
'विश्व-वीणा' का स्वर प्रियंवद की वीणा का स्मरण करता है जिसे उसने अपनी तपस्या, निर्वैयक्तिता और विनयशीलता से साधा था। प्रकृति में पुनर्लयन की प्रक्रिया प्रसाद की विश्वदृष्टि की ही द्योतक है जो पुनः अपने स्रोत में मिलने के लिए व्याकुल है -
“शैल निर्झर न बना हतभाग्य,
गल नहीं सका जो कि हिम-खंड।
दौड़ कर मिला न जलनिधि-अंक
आह वैसा ही हूँ पाषंड।”[22]
प्रसाद के प्रकृति-बोध एवं उसके आभ्यंतरीकरण एवं अभिव्यक्तिकरण पर विचार व्यक्त करते हुए मुक्तिबोध का कहना है कि प्रसाद प्रकृति के रूप सौंदर्य का आत्मसातीकरण मानव-प्रसंगों के बीच उद्भूत भावनाओं को रूपायित करने के लिए करते हैं।
अंतर्मन की इसी गहन भाव-जटिलता का परिणाम है कि "प्रसादजी की बहुत-सी कविताओं के लिए (निःसंदेह कुछ को छोड़) साहित्य-विशेषज्ञों की सहायता लेना आवश्यक है। इसीलिए आजकल, शायद, यूनिवर्सिटियों में प्रसाद को ज्यादा महत्व दिया जा रहा है।"[23] इसी बात का आधार लेकर अज्ञेय ने प्रसाद को विश्वविद्यालयों का कवि कहा था।
प्रसाद की रचनाएं परम्पराप्रसूत हैं। निर्मल वर्मा ने अपनी निबंध कला और सृजन में परंपरा की अभिनवता को परिभाषित करते हुए लिखा है-
"पश्चिम का आधुनिक समाज अतीत के प्रतीकों पर जीवित रहता है जिससे वह इतिहास का नाम देता है, किंतु जो समाज सहज रूप से परंपरागत होता है उसे अतीत की कोई आवश्यकता नहीं है।"[24]
स्पष्ट है कि परंपरा कोई अतीत की वस्तु नहीं है। वह हमारे वर्तमान का अभिन्न अंग है। यही कारण है कि जयशंकर प्रसाद जिस स्रोत से अपनी कलात्मक ऊर्जा और सामग्री ग्रहण करते हैं वह एक तरफ अतीत का बीता हुआ ऐसा होने पर भी दूसरी तरफ हमारी जीवन श्रेणी को अनुशासित करता रहता है इसीलिए वह अतीत का होने पर भी उस से मुक्त है और रचना के रूप में वह समूचे कालखंड का पुनर्नवन है।
पारसी रंगमंच और साहित्यिक नाटक
वर्तमान में प्रसाद के नाटकों की लोकप्रियता का मानदंड उनकी ऐतिहासिक भव्यता है ऐसे समय में जब कहानी का रंगमंच असंगत नाटक राजनैतिक और सामाजिक परिवर्तन की गूंज से पटे प्रगतिशील नाटक यथार्थवादी मंचन शैली के नाटक आदि दर्शकों के लिए पर्याप्त संख्या एवं बहुविध कलियों में उपलब्ध हो तब भी चंद्रगुप्त स्कंदगुप्त ध्रुवस्वामिनी जैसे चरित्र अपने क्लासिकल पाठ टेक्स्ट के कारण लोकप्रिय बने हुए हैं
प्रसाद के समय दो तरह के नाटक प्रचलन में थे। एक तो विशुद्ध साहित्य-क्षेत्र के नाटक एवं दूसरे पारसी रंगमंच द्वारा प्रस्तुत नाटक। सुसंस्कृत नाटक अपनी रचना के लिए मंचन पर आश्रित नहीं थे ठीक वैसे ही पारसी रंगमंडल या मंचन के लिए पाठ से बंधी हुई ना थी उस समय के छायावादी रचनाकारों पर लोकप्रियता का दबाव साफ देखा जा सकता है प्रसाद जब पारसी रंगमंच की सीमाओं का अंकन करते हैं तो उसके समाज पर पड़ने वाले दुष्प्रभावों को गिराना नहीं भूलते नवजागरण कालीन नाट्य परिवेश पर तनाव की यह छाया स्पष्ट था छाई हुई थी बांग्ला नवजागरण के संदर्भ में ऐसा नहीं था इसका प्रमुख कारणआरंभिक बांग्ला रंग मंच द्वारा पाश्चात्य प्रभाव का सहज अधिग्रहण रहा है उदाहरण के लिए माइकल मधुसूदन दत्त अथवा द्विजेंद्र लाल राय के नाटकों पर शेक्सपियर का प्रभाव देखा जा सकता है। अभिग्रहण की यह प्रवृत्ति सिर्फ मंचन क्षेत्र में ही घटित नहीं हुई थी अपितु नाटकों की रचना क्रम में भी पश्चिम की सांस्कृतिक चेतना का रोपण किया गया।
प्रसाद युगीन सृजनात्मकता ने पारसी रंगमंच की बाजारों प्रवृत्ति के बरअक्स अपनी जीवंतता को बनाए रखा, अथवा यह भी कहा जा सकता है कि लोकप्रियता और सृजनशीलता के तनाव को सहते हुए हिंदी की नाट्य परंपरा का विकास हुआ।
नाट्य सर्जना की विकास को समझने के लिए नाटकों में विन्यस्त संस्कृति के पैटर्न को समझना होगा। डॉ निर्मल वर्मा ने अपने प्रसिद्ध निबंध 'संस्कृति के आत्मबिम्ब' में यूरोप के सांस्कृतिक विकास और भारतीय संस्कृति-बोध से उसके पार्थक्य पर विचारोत्तेजक टिप्पणी की है। उनका कहना है-
"यूरोपीय परंपरा में संस्कृति मनुष्य को प्रकृति से स्वतंत्र बनाती है ताकि वह अपने कृतित्व में प्रकृति की ही तरह शाश्वत हो सके। गैर-यूरोपीय परंपराओं में विशेषकर भारतीय परंपरा में प्रकृति स्वयं मनुष्य के कृतित्व में दाखिल होकर उसे दैविक शक्ति प्रदान करती है। एक में मनुष्य स्वयं अपनी सृजनात्मक शक्ति का स्रोत है दूसरे में 'मनुष्य' केवल एक माध्यम है, जिसका अवलंबन लेकर एक गैर मानवीय शक्ति अपने को विभिन्न कलाओं में सृजित करती है।"[25]
प्रसाद ने स्पष्ट कहा था कि उनकी नाटक ठेलेवालों, खोमचे वालों के लिए नहीं है। सतही तौर पर यह लगता है कि ऐसा कहकर प्रसाद ने जनवादी नाट्य आलोचना की परम्परा से अपने नाटकों को अलग कर लिया है। नॉर्वेजियन थिएटर की सफलता से अभिभूत "आलोचकों का कहना है वर्तमान युग की रंगमंच की प्रवृत्ति के अनुसार भाषा सरल हो और वास्तविकता भी हो।... भाषा की सरलता की पुकार भी कुछ ऐसी ही है ऐसे दर्शकों और सामाजिक ओं का अभाव नहीं किंतु प्रचुरता है जो पारसी स्टेज पर गाई गई गजलों से अपरिचित रहने पर तीन बार तालियां पीटते हैं।"[26]
प्रसाद के इस कथन के दो निहितार्थ हैं-
1. क्योंकि उस समय प्रचलित पारसी रंगमंच की दर्शक मंडली में अधिकतर यही ठेले वाले खोमचे वाले आए थे इसलिए प्रसाद ने ऐसे रुचि संपन्न वर्ग से स्वयं के नाटकों को दूर ही रखा।
2. दूसरा प्रश्न यह उठता है कि जब प्रसाद इस वर्ग के लिए नहीं लिख रहे थे तो उनके नाटकों का दर्शक कौन था? क्या यह उभरता हुआ मध्यवर्ग तो नहीं था जिसकी भूमिका का निर्धारण प्रसाद कर रहे थे? क्या यही कारण तो नहीं है कि मुक्तिबोध ने अपनी मध्यवर्गीय वृत्तियों की अभिव्यक्ति के लिए प्रसाद को चुना?
पारसी रंगमंच ने जिस चलन को जन्म दिया था (यहां 'संस्कृति' शब्द का प्रयोग व्यर्थ होगा) वह भौंडा और मिश्रित चलन था जिसे किसी जनवादी या प्रगतिशील धारा से भी जोड़ना निरर्थक है।
उपरोक्त विवेचन के आधार पर यह कहा जा सकता है कि प्रसाद ने अपनी रचना-भूमि के लिए बीजतत्त्व भारतीय इतिहास-पुराण और तत्कालीन स्वाधीनता आंदोलन से ग्रहण किया है। देश को परतंत्रता के बंधन से मुक्त कराना उनका परम ध्येय था। जनता में राष्ट्रीय चेतना के उद्बोधन के लिए उन्होंने इतिहास के गौरवमय क्षणों को चुना और चन्द्रगुप्त, स्कन्दगुप्त, अजातशत्रु, अग्निमित्र जैसे जननायकों को पुनर्जीवित करने का कार्य किया। सामाजिक रूढ़ियों का खंडन और राष्ट्रीय चेतना का जागरण, दोनों ही प्रक्रियाएं उनके साहित्य में समानांतर गतिशील रही हैं। कुल मिलाकर उन्होंने विदेशी दासता के दौर में भी राष्ट्रीय स्वाभिमान की लौ को जलाये रखा।
संदर्भ ग्रंथ-सूची :
अक्षय भास्कर बाजपेयी, शोधार्थी, हिन्दी विभाग,काशी हिन्दू विश्वविद्यालय,वाराणसी। ई-मेल: akshaybajpei2015@gmail.com