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आचार्य-कवि केशवदास : पाठक और आलोचक की कसौटी पर

किसी वस्तु, तथ्य, घटना आदि का सत्-असत् की कसौटी पर भलीभाँति जाँचना-परखना, व्याख्यायित करना आदि विवेचन कहा जाएगा । इस तरह काव्यार्थ विवेचन से आशय है— काव्य के अर्थ का विवेचन । अब प्रश्न यह उठता है कि काव्य से हमारा क्या तात्पर्य है ? काव्य क्या है या काव्य किसे कहते हैं ? इससे आगे, काव्य के अर्थ की प्राप्ति किससे और किसे होती है ? वह कौन सा कारण या तत्व है जिसकी वजह से रचना साहित्य की श्रेणी में आती है अथवा उसके अभाव में साहित्य की श्रेणी में नहीं आती ? यानी कविता का प्राण-तत्व क्या है ? ऐसे तमाम विषयों को लेकर भारतीय दर्शन एवं काव्यशास्त्र में विवेचना की लम्बी एवं स्वस्थ परंपरा रही है । भारतीय काव्यशास्त्र का मूलाधार संस्कृत भाषा एवं साहित्य है । आचार्य भरतमुनि से लेकर पण्डितराज जगन्नाथ तक लगभग दो हजार वर्षों में छः मुख्य सम्प्रदायों— रस, अलंकार, रीति, वक्रोक्ति, ध्वनि और औचित्य का आविर्भाव हुआ । इनमें परस्पर आदान-प्रदान, नवीन उद्भावनाएँ, खण्डन-मण्डन की प्रक्रियाएँ आदि चलती रहीं । संस्कृत की यही विरासत हिन्दी-काव्यशास्त्र के मूल में है, हालाँकि बदलती परिस्थितियाँ, सामयिक दबाव, नवीन मान्यताओं और पश्चिमी-साहित्य चिन्तन आदि के कारण उसका अपना अलग अस्तित्व एवं महत्व है ।

हिन्दी के मध्यकालीन आचार्य-कवि केशवदास पर कुछ कहने से पहले यह आवश्यक है कि बुनियादी महत्वपूर्ण कुछ बिन्दुओं एवं काव्य की महत्वपूर्ण कुछ परिभाषाओं पर ध्यान-अवस्थित किया जाए । संस्कृत काव्यशास्त्र का आरम्भ भरतमुनि एवं उनके नाट्यशास्त्र से मानना आधारपूर्ण एवं तर्कसंगत है हालाँकि आचार्य राजशेखर ने भरत से पहले की भी बात कही है । आचार्य भरत के एकमात्र 'नाट्यशास्त्र' को काव्यशास्त्र का ही नहीं, प्रत्युत समस्त भारतीय संस्कृति एवं सांस्कृतिक साहित्य का विश्वकोष (इनसाइक्लोपीडिया) भी माना जाता है[1] । भरतमुनि रस सिद्धांत के प्रवर्तक हैं । शंकुक, लोल्लट, भट्टनायक और अभिनवगुप्त आदि कई आचार्यों ने भरत के रस-शास्त्र की गहन चर्चा करके नवीन व्याख्याएँ प्रस्तुत की और रस सिद्धांत को आगे बढ़ाने में अपनी महती भूमिका निभायी । रस सम्प्रदाय के समर्थकों ने रस को कविता का प्राण-तत्व माना है । जैसे-‘शब्दार्थी ते शरीरं रस आत्मा’–(राजशेखर), ‘वाक्यं रसात्मकं काव्यम्’- (विश्वनाथ), ‘रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम्’-(जगन्नाथ) आदि । आचार्य भामह अलंकार सम्प्रदाय के प्रवर्तक माने जाते हैं । इन्होंने अपने ग्रंथ 'काव्यालंकार' में स्पष्ट कहा कि ‘न कान्तमपि निर्भूषं विभाति वनिता मुखम्’ अर्थात् कोई स्त्री कितनी ही सुंदर क्यों न हो, यदि अलंकार विहीन है तो शोभा नहीं देती । लेकिन ध्यान देनेवाली बात यह है कि उन्होंने काव्य-लक्षण को परिभाषित करते हुए कहा है—‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’— अर्थात् शब्द और अर्थ का सहित भाव काव्य है । भामह का यह लक्षण अतिव्याप्ति दोष से भले दूषित हो लेकिन यहाँ ‘सहित’ शब्द अत्यन्त महत्वपूर्ण है क्योंकि प्रायः माना जाता है कि कालांतर में इसी‘सहित’ से साहित्य शब्द बना । आचार्य विश्वनाथ ने ‘साहित्य दर्पण’ शीर्षक से ग्रंथ लिखकर ‘सहित’ और ‘साहित्य’ को विशिष्ट गरिमा प्रदान की । आचार्य कुंतक का कहना है कि शब्द और अर्थ के बीच सुंदरता के लिए स्पर्धा होती है तब साहित्य की सृष्टि होती है । इस स्पर्धा में कभी शब्द अर्थ से आगे निकलने का प्रयास करता है तो कभी अर्थ शब्द से आगे निकल जाने का प्रयास करता है । ऐसी स्थिति में यह कह पाना कठिन है कि दोनों में से अधिक सुंदर कौन है । शब्द और अर्थ की यही स्पर्धा सहित भाव है । आचार्य कुंतक ने काव्य-लक्षण बताते हुए कहा है— "शब्दार्थौ सहितौ वक्रकविव्यापारशालिनी । बन्धे व्यवस्थितौ काव्यं तद्विदाह्लादि कारिणी" ।। ऐसा प्रतीत होता है कि यहाँ प्रयुक्त ‘शब्दार्थौ सहितौ’ अलग महत्व रखते हुए भी आचार्य भामह के ‘शब्दार्थौ सहितौ काव्यम्’ से प्रभावित है ।

‘आचार्य-कवि केशवदास : पाठक और आलोचक की कसौटी पर’– विषय पर कुछ कहना है । प्रत्येक युग का अपना विशिष्ट महत्व होता है । आलोचना के मानदण्ड समय के साथ विकसित एवं परिवर्तित-परिमार्जित होते रहे हैं । प्रायः देखा जाता है कि पाठक और आलोचक पूर्ववर्ती या किसी काल के साहित्य का मूल्यांकन तत्कालीन परिवेश, परिस्थितियाँ और दबाव को समझे बिना अपने समय के अनुरूप अपने फ्रेम में फिट बैठाने के लिए करता है, और प्रायः जब फिट नहीं बैठता है तो अपने युग के औजारों से पड़ताल करते हुए पूर्ववर्ती या काल-विशेष के साहित्य एवं रचनाकार को कटघरे में ला खड़ा करता है । आलोचकों का अपना साम्राज्य और शासन होता है, सर्वविदित है कि आचार्य शुक्ल से पहले जायसी को कोई विशेष महत्व नहीं दिया जाता था किन्तु केशव की कविताई विख्यात थी, वे तब तक कठिन काव्य के प्रेत या हृदयहीन करार नहीं दिए गए थे । आचार्य रामचन्द्र शुक्ल और पीतांबरदत्त बड़थ्वाल प्रभृति विद्वानों ने जब केशव के दोषों को गिनाना शुरू किया तो उनके अनुयायी और पिछलगुओं ने केशव को बिना पढ़े ही मुँह बिचकाना शुरू कर दिया । खैर, आचार्य शुक्ल की लौह-लेखनी के आघात से केशव की प्रतिष्ठा का पादप फिर नहीं पनप सका[2] ।

प्रतिभाशाली आचार्य-कवि केशवदास में शास्त्रज्ञान प्रबल था इसीलिए उनमें पांडित्य, बौद्धिकता एवं चमत्कार की प्रधानता से कोई इन्कार नहीं कर सकता । लेकिन, आचार्य शुक्ल ने केशवदास पर हृदयहीनता का दोषारोपण कर दिया तो पूरी जमात खड़ी हो गयी यह कहने के लिए कि केशव छंदो के अजायबघर वाले चमत्कारी कठिन काव्य के प्रेत हैं । इस संदर्भ में विजयपाल सिंह का मानना उचित है कि—“मध्यकाल में आलोचना के मानदण्ड संस्कृत साहित्य के थे, अतः मध्यकाल आलोचना और मान्यता के लिए संस्कृत साहित्यशास्त्र का परिशीलन करता था । आज आलोचना के मानदण्ड बहुत बदल गए हैं । अतः आज का आलोचक उन शास्त्रीय मान्यताओं की उपेक्षा कर स्वयं ही अध्ययन करता है । वह करता केवल इसलिए है कि उसे मध्यकालीन साहित्य की आलोचना करनी है । किन्तु उसका गंभीर अध्ययन न होने के कारण उसकी आलोचना उथली रह जाती है”[3] ।

श्री रामरतन भटनागर अपने शोधकार्य एवं पुस्तक 'केशवदास : एक अध्ययन' में आचार्य शुक्ल को उद्धृत करते हुए कहते हैं—“रीति-ग्रंथकारों के सम्बन्ध में श्री रामचन्द्र शुक्ल ने सत्य ही कहा है—“इन रीति ग्रंथों के कर्ता भावुक, सहृदय और निपुण कवि थे । उनका उद्देश्य कविता करना था, न कि काव्यांगों का शास्त्रीय पद्धति पर निरूपण करना । अतः इनके द्वारा बड़ा भारी कार्य यह हुआ कि रसों (विशेषतः श्रृंगार रस) और अलंकार के बहुत ही सरस उदाहरण संस्कृत के सारे लक्षण ग्रंथों से चुनकर इकट्टे करें तो भी उनकी इतनी अधिक संख्या न होगी”[4] और आखिर में कहते हैं कि “केशव के संबंध में भी यही बात लागू है[5] ”— ध्यान रहे यह आचार्य शुक्ल का कथन नहीं है । लेकिन वे इससे पहले केशवदास को लक्षित करते हुए कह आए हैं—“राज्याश्रय में रहनेवाले अधिकांश कवियों की भक्ति ऐसी ही थी, भक्त न होते हुए वे भक्त बनते थे,पंडित न होते हुए उन्हें पंडित बनना पड़ता था । उनमें से अधिकांश में रसिकता की मात्रा तो विशेष थी, परंतु कवि सुलभ सहृदयता की मात्रा अधिक नहीं थी । उन्होंने मस्तिष्क को नवीन नवीन भावों के लिए अधिक उकसाया, हृदय पर उनका अधिक भरोसा नहीं था ”[6] । इससे पहले वे केशव के लिए यह भी कह आए हैं कि— “वे संस्कृत के विविध शास्त्रों के इतने बड़े पंडित और आचार्य नहीं थे, जितने अपने समय में प्रतिष्ठित थे, और बाद में प्रसिद्ध हुए । उनका क्षेत्र छोटा था — ओरछा दरबार”[7] ।

आचार्य शुक्ल केशव को रीतिकाल का प्रवर्तक नहीं मानते और उन्हें ‘भक्तिकाल की फुटकल रचनाओं’ में रखते हुए यह स्पष्टतः करते हैं कि ‘केशव के 50 या 60 वर्ष पीछे हिन्दी में लक्षण-ग्रंथों की जो परंपरा चली वह केशव के मार्ग पर नहीं चली’[8] तो यह भी विचारणीय है कि जहाँ एक ओर भक्तिकालीन तुलसीदास अपने समय के किसी मनुष्य को कविता का विषय बनाना सरस्वती का अपमान समझ कर –‘कीन्हें प्राकृत जन गुन गाना । सिर धुनि गिरा लागि पछिताना’ कह रहे थे तो दूसरी ओर बादशाह अकबर के बुलावे पर फतहपुर सीकरी जाकर सम्मानित हुए कुंभनदास सिर धुन रहे थे – खेद प्रकट कर रहे थे— संतन को कहा सीकरी सो काम[9] ? ऐसे समय में जब पूरा रीतिकाल एक तरह से ‘प्राकृत जन गुन गाना’ कर रहा था तो वह अपने समय और अपने समाज की चिंता करता दीखता है तो केशव को समझने की इच्छा पुनः जाग उठती है । केशव ने अपने जीवन का बड़ा एवं महत्वपूर्ण भाग इन्द्रजीत सिंह के आश्रय में बिताया, उन्हीं की प्रेरणा से ‘रसिकप्रिया’ की रचना की और रायप्रवीन तथा अन्य सभी के लिए कवि शिक्षा हेतु 'कविप्रिया' लिखी । उन्होंने महाराज वीरसिंह की प्रेरणा से 'विज्ञानगीता' तथा इसके अलावा उन्होंने चरित काव्य यथा 'वीरसिंह चरित','जहाँगीर जस चन्द्रिका' का भी प्रणयन किया । केशव-साहित्य में अंतर्निहित तत्कालीन दबाव,पीड़ा,आक्रोश की ओर बहुत कम ध्यान गया है । 'कविप्रया' में जिस तरह अलंकारों और कविशिक्षा का विवेचन किया गया तथा 'रसिकप्रिया' में रस का विवेचन हुआ, उसे देखकर इतना तो अवश्य समझना चाहिए कि हिन्दी साहित्य में रीतिग्रंथ का जिस तरह से प्रणयन हो रहा था उसमें केशव की ये रचनाएँ महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं, आचार्य-प्रवर भले ही रीति काल के प्रवर्तक का तमगा उन्हें न दें ।

केशव को महाकवि या कविरत्न न माननेवाले और रामचंद्रिका को छंदों का अजायबघर[10] कहनेवाले पीतांबरदत्त बड़थ्वाल इतना तो स्पष्ट मानते हैं कि केशव “हिंदी-साहित्य के इतिहास में प्रथम दिग्गज आचार्य थे । उन्होंने ही पहले-पहल हिंदी में साहित्य-शास्त्र के अध्ययन का विस्तीर्ण तथा अप्रतिबद्ध मार्ग खोला”[11] और “साहित्य-शास्त्र की गंभीर चर्चा के द्वारा उन्होंने हिन्दी के साहित्यक्षेत्र में एक नवीन ही मार्ग खोल दिया, जिसकी ओर उनसे पहले लोगों का बहुत कम ध्यान गया था”[12] । इस प्रकार प्रायः यह माना जाता रहा है कि ‘कविप्रिया तथा रसिकप्रिया, आचार्यत्व की दृष्टि से केशवदास को कोई ऊँचा स्थान नहीं देतीं । काव्य की दृष्टि से इनका महत्व अवश्य है’[13] ।

पीतांबरदत्त बड़थ्वाल का आरोप है कि केशव माधुर्य और प्रसाद से तो जैसे खार खाये बैठे थे[14] । (ना.प्रा.प.भाग-10, संवत् 1986, पृ.368) वास्तव में, ‘रसिकप्रिया’ और ‘कविप्रिया’ के अधिकांश छंदों में माधुर्य और प्रसाद गुणों की प्रधानता है । इतना ही नहीं, श्रृगार के दोनों भेदों— संयोग और वियोग वर्णित छंदों में माधुर्य-प्रसाद गुण के साथ नायक-नायिका भेद, अलंकार, शब्द-योजना आदि की सुंदर-सहज-सरस अभिव्यक्ति केशव पर लगे कठिन काव्य के प्रेत या हृदयहीनता जैसे आरोपों को बहुत हद तक गलत साबित करती है । उदाहरण के तौर पर, रसिकप्रिया के द्वितीय प्रभाव में साधारण नायक वर्णन है । कवि ने नायक के चार भेद— अनुकूल, दक्षिण, शठ, और धृष्ट बताया है । अनुकूल नायक आधृत सवैया में अज्ञात यौवना – स्वकीया नायिका, माधुर्य गुण और प्रथम विभावना अलंकार की शोभा देखते बनती है—
मेरे तो नाहिन चंचल लोचन, नाहिन केसव बानी सुधाई ।
जानौं न भूषन-भेद के भावनि भूलिहूँ मैं नहिं भौंह चढ़ाई ।
भोरेहूँ ना चितयो हरि ओर त्यों घैर करैं इहिं भाँति लुगाई ।
रंचक तौ चतुराई न चित्तहि कान्ह भए बस काहे तें माई[15] ।।

केशव ने नायक-नायिका के लीला, ललित, विलास आदि विभिन्न हावों का अत्यन्त सुंदर, सजीव एवं रोचक वर्णन किया है । प्रस्तुत सवैया छंद में सांगरूपक सहज रूप से समाया हुआ है—
चपला पट मोर किरीट लसै,मघवा-धनु सोभ बढ़ावत हैं ।
मृदु गावत आवत बेनु बजावत मित्र-मयूर नचावत हैं ।
उठि देखि भटू भरि लोचन चातक-चित्त की ताप बुझावत हैं ।
घनश्याम घनाघन बेष धरे जु बने बन तें ब्रज आवत हैं[16] ।

प्रेम में मिलन की उत्कंठा विचित्र-सी होती है । उद्भ्रांत मन को खाना, खेलना, सोना-ओढ़ना आदि कुछ भी अच्छा नहीं लगता । मात्र प्रेमी से संबंधित चीज-वस्तुएँ ही प्रिय लगती हैं । केशव के नायक की दशा कुछ ऐसी ही है—
खेलत न खेल कछू हाँसी न हँसति हरि,
सुनत न गान कान तान बान सी बहै ।
ओढ़त न अंबरन डोलत दिगंबर सो,
शम्बर ज्यों शंबरारि-दुख देह को दहै ।
भूलिहूँ न सूँघै फूल फूल तूल कुम्हिलात,
गात, खात बीरा हूँ न बात काहू सो कहै ।
जानि जानि चन्द-मुख केसव चकोर सम,
चन्द्रमुखी ! चन्द ही के बिम्ब त्यों चितै रहै[17] ।

आचार्य भरत मुनि के अनुसार इस जगत की समस्त वस्तुएँ जो पवित्र, उज्ज्वल-उत्तम एवं दर्शनीय हैं,श्रृंगार रस के अंतर्गत आती हैं—'यत्किञ्चिल्लोके शुचिमेध्यमुज्जवलं दर्शनीयं वा तत्छङ्गारेणोपमीयते' । यद्यपि कुछ आचार्यों ने करुण और वीर रस को सभी रसों का मूल माना है तथापि अधिकांश आचार्यों ने श्रृंगार को ही रसराज माना है । सभी संचारी भावों का निर्वहन करने में सक्षम श्रृंगार रस अधिक व्यापक और अन्य रसों को अपने में समाहित करनेवाला है । आचार्य कवि केशवदास ने अन्य आठों रसो को श्रृंगार के अंतर्गत दिखलाया है—
नवहू रस को भाव बहु तिनके भिन्न बिचार ।
सबको केशवदास हरि नायक है सृंगार ।। ( रसिकप्रिया)

केशवदास ने रस-विवेचन मुख्यतः रसिकप्रिया में तथा प्रकीर्णतः अन्य रचनाओं में किया है । संस्कृत काव्य-परंपरा का अनुकरण ही सही लेकिन बतौर आचार्य-कवि रस-विषयक सूक्ष्म-दृष्टि जैसी केशव में है, पूर्ववर्ती कवियों में नहीं दीखती। “उन्होंने रस-संख्या, रस-विशेष के स्वरूप, रसराजत्व, रसांगों, रस-वृत्तियों और रस-दोषों का जैसा विस्तृत प्रतिपादन किया है, वैसा उनके पूर्ववर्ती भक्तिकालीन कवियों में उपलब्ध नहीं है”[18] । रस को परिभाषित करते हुए उन्होंने रस को विभाव,अनुभाव और व्यभिचारी भाव के संयोग से उत्पन्न नहीं अपितु उससे व्यंजित होनेवाला माना है—
मिल विभाव अनुभाव पुनि संचारी सु अनूप ।
व्यंग्य करै थिर भाव जो, सोई रस सुख रूप ।।

श्रृंगार रस के दो भेदों – संयोग और वियोग को कवि ने दो उपभेदों- प्रच्छन्न और प्रकाश में विभाजित किया है । कवि के अनुसार ‘अपने अपने चित्त में जानै सिगरे लोग’– प्रकाश है और ‘जानें पिउ प्रिया कि सखि होहि जु तिनहिं समान’[19] — प्रच्छन्न है । रस-संख्या को लेकर केशव दुविधा में दिखते हैं—कहीं उन्होंने रसों की संख्या आठ मानी है तो कहीं नौ—
रति हाँसी अरु सोक पुनि क्रोध उछाह सुजान ।
भय निंदा बिस्मय सदा, थाई भाव प्रमान ।।[20]

प्रथम सिंगार, सुहास्य रस, करुना रुद्र सु बीर ।
भय बीभत्स बखानिये, अद्भुत सांत सुधीर ।।[21]

कवि ने रसिकप्रिया के आरम्भ में ही अत्यन्त सरल-सहज रूप से स्वीकार किया है कि जिस प्रकार दृष्टि के बिना विशाल और चंचल नेत्र भी शोभा नहीं देते उसी प्रकार रसपूर्ण उक्ति के बिना कोई कवि शोभित नहीं होता—
ज्यों बिनु दीठि न सोभिजै, लोचन लोल विशाल ।
त्यों ही केसव सकल कबि, बिन बानी न रसाल ।।

लेकिन केशव को सामान्यतः समीक्षकों-ऐतिहासिकों ने अलंकारवादी माना है । आचार्य शुक्ल का मानना है कि वादों के लिए हिन्दी के रीतिक्षेत्र में रास्ता ही नहीं निकला । केशव को ही अलंकार आवश्यक मानने के कारण अलंकारवादी कह सकते हैं । इसका एक कारण केशव की स्वीकृति भी है वे कहते हैं—
जदपि सुजाति सुलच्छनी, सुबरन सरस सुवृत्त ।
भूषन बिनु न बिराजई , कविता बनिता मित्त[22] ।।

जिस तरह रस,वृत्ति और नायिकाभेद का वर्णन ‘रसिकप्रिया’ में; काव्य-रीति, अलंकार और काव्य-दोष का विवेचन ‘कविप्रिया’ में और पिंगलशास्त्र का विवेचन ‘छन्दमाला’ में हुआ है; उसके आधार पर यह स्पष्ट होता है कि केशवदास की रुचि सिद्धांत-प्रतिपादन में थी । कविता की भावाभिव्यक्ति में केशव का दरबारी जीव साहित्य की गली – कूँचों से भले न विहरा हो लेकिन वे कवि-संवेदना के स्तर पर एकदम हृदयहीन तो नहीं थे । कृष्णचन्द्र वर्मा का कथन इस संदर्भ में उपयुक्त है—“भावना की अभिव्यक्ति, मार्मिक भावों का चित्रण, आत्मानुभूति प्रकाशन तथा भक्ति के उद्रेक की दृष्टि से केशव सूर और तुलसी से अवश्य पीछे रह जाते हैं, पर अलंकार विधान, छन्द वैविध्य, भाषा-कौशल आदि दृष्टियों से केशव सूर-तुलसी से ऊँचे ठहरते हैं और इसी कारण वे नक्षत्र उपमित हैं जो साहित्य गगन के सूर्य और चन्द्र से भी ऊँचे प्रदेशों के अधिवासी हैं”[23] ।

उपर्युक्त संक्षिप्त विवेचन से इतना स्पष्ट कहा जा सकता है कि केशव दरबारी थे, अलंकार-प्रेमी और पंडिताई में निपुण थे परंतु इसके साथ-साथ उन्होंने ऐसा बहुत कुछ लिखा है— भले ही यह सामग्री किसी एक ही ग्रंथ में न हो लेकिन उसे अनदेखा नहीं किया जा सकता । साथ ही, मध्यकालीन समग्र परिवेश और केशव का जीवन समझे बिना उन पर आरोप लगाना या कटघरे में खड़ा करना उचित नहीं ।

|| सन्दर्भ ||

  1. डॉ.सच्चिदानंद चौधरी, हिन्दी काव्य-शास्त्र में रस-सिद्धान्त, पृ.22 अनुसन्धान प्रकाशन, कानपुर, 1965
  2. डॉ. विजयपालसिंह, केशव और उनका साहित्य, पृ.159 राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, तीसरा संस्करण 1975
  3. डॉ. विजयपालसिंह, केशव और उनका साहित्य, पृ.159 राजपाल एण्ड सन्ज़, दिल्ली, तीसरा संस्करण 1975
  4. वही, पृ.67
  5. रामरतन भटनागर, केशवदास : एक अध्ययन, पृ.96 किताब महल, 56-ए, जीरो रोड, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1947
  6. रामरतन भटनागर, केशवदास : एक अध्ययन, पृ.9 किताब महल, 56-ए, जीरो रोड, इलाहाबाद, प्रथम संस्करण 1947
  7. वही, पृ.4
  8. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिंदीसाहित्य का इतिहास, पृ. 208, नागरी प्रचारिणी सभा.काशी, संसोधित-परिवर्धित संस्करण सं. 1997
  9. आचार्य रामचन्द्र शुक्ल, हिंदीसाहित्य का इतिहास, पृ. 178, नागरी प्रचारिणी सभा.काशी, संसोधित-परिवर्धित संस्करण सं. 1997
  10. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल, संक्षिप्त रामचंद्रिका, पृ.16
  11. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल, संक्षिप्त रामचंद्रिका, पृ.4
  12. पीतांबरदत्त बड़थ्वाल, संक्षिप्त रामचंद्रिका, पृ.41, संकलनकर्ता- लाला भगवानदीन, इंडियन प्रेस लि. प्रयाग, चतुर्थ संस्करण – संवत् 1997.
  13. पं. कृष्णशंकर शुक्ल, केशव की काव्यकला पृ. 178, सुलभ पुस्तकमाला-कार्यालय, बड़ागणेश, बनारस, 1990
  14. उद्धृत. केशवदास : जीवनी, कला और कृतित्व, किरणचन्द्र शर्मा, भारती साहित्य मंदिर, फव्वारा-दिल्ली, 1961
  15. केशवदास, रसिकप्रिया,पृ. 13, छंद-6, प्रकाशक- कल्याणदास ऐंड ब्रदर्स, वाराणसी, प्रथम संस्करण सं. 2015 वि.
  16. केशवदास, रसिकप्रिया, प्रकाशक- कल्याणदास ऐंड ब्रदर्स, वाराणसी, प्रथम संस्करण सं. 2015 वि.
  17. केशवदास, कविप्रिया, प्रकाश-14, छंद 20, मातृभाषा मंदिर, मालवीय नगर, प्रयाग 1966
  18. सुरेशचन्द्र गुप्त, हिन्दी काव्यशास्त्र : कवियों की अवधारणाएँ, पृ. 152, ग्रंथ अकादमी, 1686 पुराना दरियागंज, नई दिल्ली, प्रथम प्रकाशन 1991.
  19. रसिकप्रिया, प्रथम प्रभाव, छंद सं.19
  20. रसिकप्रिया, पृ.
  21. रसिकप्रिया, प्रथम प्रभाव, छंद सं.15
  22. केशवदास, कविप्रिया, प्रकाश-5, छंद 1, पृ.43, मातृभाषा मंदिर, मालवीय नगर, प्रयाग 1966
  23. कृष्णचन्द्र वर्मा,आचार्य-कवि केशवदास, पृ.40, साहित्य प्रकाशन, मालीवाडा , दिल्ली,1956


डॉ.ओमप्रकाश शुक्ल, एसो.प्रोफेसर, सरकारी विनयन कॉलेज, धानपुर,दाहोद. ohshukla@yahoo.in Mob. 9426868095