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समकालीन हिन्दी कविता और मानवाधिकार के विभिन्न आयाम

द्वितीय विश्व युद्ध के बाद संयुक्त राष्ट्र की स्थापना 1945 में हुई और इसके सदस्य राष्ट्रों की आम सहमति से 10 दिसंबर 1948 को मानवाधिकार की सार्वभौमिक घोषणा हुई जिसमें प्रस्तावना के अतिरिक्त 30 अनुच्छेद हैं। उनमें कुछ नागरिक स्वतंत्रताएँ हैं-

अनुच्छेद 1 के अनुसार – सभी मनुष्य जन्म से स्वतंत्र एवं समान गरिमा व अधिकारों से युक्त है। उनमें विवेक और अन्तःकरण होता है तथा उन्हें एवं दूसरे के साथ बंधुत्व की भावना से व्यवहार करना चाहिए।

अनुच्छेद 2 के अनुसार- नस्ल,लिंग,रंग,भाषा,धर्म,राजनैतिक एवं अन्य विचार राष्ट्रीय व सामाजिक मूल संपत्ति ,जन्म आदि किसी प्रकार के भेदभाव के बिना प्रत्येक मनुष्य इन घोषणा में वर्णित अधिकारों व स्वतंत्रता की अधिकारी है।

अनुच्छेद 4 के अनुसार- किसीको दास बनाकर नहीं रखा जाएगा।

अनुच्छेद 5 के अनुसार – किसीको भी अमानवीय एवं अपमानजनक यातना नहीं दी जाएगी।

अनुच्छेद 6,7 के अनुसार- कानून की दृष्टि से सभी समान है,तथा उन्हें एक व्यक्ति के रूप में मान्यता दी जाएगी।

अनुच्छेद 10 के अनुसार- हर व्यक्ति को सामाजिक सुरक्षा का अधिकार है।

अनुच्छेद 12 के अनुसार- किसीकी निजता,घर ,परिवार और पत्र व्यवहार में मनमाना हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा।

अनुच्छेद 21 (ए) के अनुसार -हर व्यक्ति को शिक्षा पाने का अधिकार है। प्राथमिक शिक्षा निःशुल्क एवं अनिवार्य होगी। तकनीकी एवं व्यवसायी शिक्षा सामान्य रूप से उपलब्ध होगी तथा प्रतिभा के आधार पर सबकी उच्च शिक्षा पाने की समान सुविधा होगी।

व्यक्ति समाज में सम्मानूपूर्ण ,समानता और स्वातंत्र्य के साथ जीने की माँग रखते हैं । तो एक ही राज्य में रहनेवाले लोगों को दलित,आदिवासी आदि कहकर उन्हें निम्नश्रेणी में क्यों रखे जा रहे हैं।क्या उन्हें सभ्य समाज में हमेशा ही शोषित,घृणित और अपमानित होकर ही जीना है।

लिंग असमानता

भारत में आज भी स्त्री –पुरुष के बीच भेद –भाव करने की प्रवृत्ति चल रही है।यह भारत जैसे प्रजातंत्र देश के लिए हितकारी नहीं है।इस प्रवृत्ति के कारण स्त्री के अधिकार का हनन हो रहे हैं।समकालीन हिन्दी कवयित्री अनामिका की कविता बेजगह की निम्न पंक्तियाँ इस तथ्य की ओर प्रकाश डालती हैं।
राम पाठशाला जा/ राधा खाना पका,/राम,आ बताशा खा/राधा झाडू लगा/
भैया अब सोएगा,/जाकर बिस्तर बिछा (1)
दलित जाति का मानवाधिकार का हनन

चौदह साल तक बच्चों को निशुल्क शिक्षा देने का प्रावधान संविधान ने पारित किया है। किसी भी जाति के बच्चे को स्कूल में पढ़ाई करने का अवसर प्राप्त है। दलित समाज जो निम्न जाति के होने पर सभ्य समाज द्वारा पीड़ा भोग रहे हैं।उनके बच्चों केलिए स्कूल में जाकर पढ़ना कठिन है।कवि जयप्रकाश कर्दम ने अपनी कविता गूँगा नहीं था मैं में दलित छात्र के प्रति सवर्ण बालकों का दुव्यवहार को चित्रित किया है। ये घटनाएँ अनुच्छेद 4 के अनुसार- किसीको दास बनाकर नहीं रखा जाएगा।अनुच्छेद 5 के अनुसार – किसीको भी अमानवीय एवं अपमानजनक यातना नहीं दी जाएगी और अनुच्छेद 6,7 के अनुसार- कानून की दृष्टि से सभी समान है,तथा उन्हें एक व्यक्ति के रूप में मान्यता दी जाएगी।इन सब अनुच्छेदों के खिलाफ है प्रस्तुत कविता की जीती जगती तस्वीर की सच्चाई। बचपन से ही बच्चों के मन में फल फूल रहे जाति के भेद –भाव का बीज मानवाधिकार के हनन का प्रमुख कारण है। इस दृष्टि से भी प्रस्तुत कविता की पंक्तियाँ महत्वपूर्ण हैं।

गूँगा नहीं था मैं /कि बोल नहीं सकता था/जब मेरे स्कूल के /मुझसे कई क्लास छोटे /बेढंगे से एक जाट के लड़के ने /मुझसे कहा था-/अरै ओ मोरिया /ज्यादै बिगडे मत,/कमीज़ कू पैन्ट में दबा कै/ मत चल ।/और मैंने चुपचाप अपनी कमीज़ /पैन्ट से बाहर निकाल ली थी।(2)

बच्चों के अधिकार पर प्रहार- बालश्रम

कवि राजेश जोशी ने अपनी कविता बच्चे काम पर जा रहे हैं में वर्तमान दौर की भीषण स्थिति के रूप में बालश्रम को दिखाया है।बालकों को बन्धुआ मज़दूर बनाना उनके शिक्षा पाने के अधिकार का खण्डन करना है।
बच्चे काम पर जा रहे हैं/
हमारे समय की सबसे भयानक पंक्ति है यह
भयानक है इसे विवरण की तरह लिखा जाना
लिखा जाना चाहिए इसे सवाल की तरह (3)

आदिवासी और मानवाधिकार

आदिवासियों को हमेशा से पृथ्वी के मूल निवासी कहा जाता है। लेकिन क्या कभी भी हमने सोचा है कि आदिवासी कैसे जीते हैं,उनकी ज़रूरतें क्या हैं।यहाँ समझने की बात यह है कि वे भी हमारे जैसा ही आम आदमी हैं। वे भी भारत जैसे प्रजातंत्र राष्ट्र के अटूट हिस्सा हैं। उन्हें भी अपने जीवन को जीने की पूरी आज़ादी है। लेकिन वर्तमान समय में आदिवासियों को अपना हक क्या मिल पा रहा है। इस गंभीर विषय पर आदिवासी कवयित्री निर्मला पुतुल लिखती है।

दिल्ली की गणतंत्र झाँकियों में/अपनी टोली के साथ नुमाइश बनकर कई कई बार/पेश किये गये तुम/ पर गणतंत्र नाम की कोई चिडिया /कभी आकर बैठी तुम्हारे घर की मुँडेर पर (4)

भूमंडलीकरण के दौर में आदिवासियाँ अपने इलाके से विस्थापित हो रहे हैं। विकास के नाम पर हो रहे परियोजनाएँ आदिवासियों के घर को छीन रहे हैं। यह प्रवृत्ति अनुच्छेद 12 के अनुसार- किसीकी निजता,घर ,परिवार में मनमाना हस्तक्षेप नहीं किया जाएगा, इस अधिकार के खिलाफ है।इसपर समकालीन हिन्दी कवि हरिराम मीणा प्रकाश डालते हैं।
सभ्यता के नाम पर/ आखिर कर ही दिये जाओगे बेदखल/
हज़ारों सालों की तुम्हारी / पुश्तैनी भौम से/ ......../ (5)

धर्म पर अधिकार या सांप्रदायिक दंगे

भारत में लोगों को किसी भी धर्म चुनने का अधिकार है तो क्यों लोगों में सांप्रदायिकता का भाव उत्पन्न होता है।प्रशासनिक अपने फायदे के लिए साधारण मानव के दिल में विष फैला रहे हैं।यह हमारे मानवाधिकार के विरोध में खड़ा है। सन् 1992 में बाबरी मस्जिद के विध्वंस,बंबई अहमदाबाद ,मेरठ के दंगे और गोधरा हत्याकांड में कितने लोग मारे गये।गणतंत्र राज्य के लिए ऐसी घटनाएँ कदापि उचित नहीं हैं। कवि राजेश जोशी ने अपनी कविता मेरठ 87 में मेरठ से जान बचाकर भागनेवालों का चित्र खींचा है।यहाँ कवि ने एक और अधिकार के हनन पर भी सूचित किया है – अपने राज्य में जनता को किसी भी भय के बिना जीवन बिताने का अधिकार का हनन।

जब जब किसी स्टेशन पर रुकती है रेलगाड़ी/
खिड़कियों से झरती हैं आवाज़ें और/ कौंधती हैं बत्तियाँ/
खिड़की से दूर बैठा बूढ़ा पूछती है /खिड़की के बैठे लड़के से/
कौन सा टेशन है भैया / खिड़की से बाहर झोंकता है लड़का /
पढ़ता है स्टेशन का बोर्ड / कहता है -/ मेरठ (6)

सन् 1947 के बाद भी भारतीयों की आज़ादी पर ग्रहण- नवउपनिवेशवाद

वैश्वीकरण के दौर में आज़ादी का मतलब क्या है ,इसका उत्तर ढूँढ़ रहे हैं कवि ज्ञानेंद्रपति। भारत को सन् 1947 में स्वतंत्रता मिली।सन् 1950 के बाद लोग संविधान द्वारा पारित अपने अधिकारों का प्रयोग करते थे। वे जहाँ चाहे घूम सकते थे। उन्हें अपने पसंद की भाषा और धर्म चुनने की आज़ादी प्राप्त थे। लेकिन अस्सी के आसपास से लोगों को फिर से नवउपनिवेशवाद का शिकार होना पड़ा।सूचना –क्रांति के फलस्वरूप भारत फिर से विदेशियों के गुलाम हो रहे हैं। यह गुलामी बौद्धिक है। मुक्त बाज़ार की प्रणाली में लगभग भारतीय फँस चुके हैं। मानव अपने अधिकार को जाने –अनजाने पश्चिमी राष्ट्रों के हाथ में थमा रहे हैं। ज्ञानेन्द्रपति की कविता आज़ादी उर्फ गुलामी की निम्नपंक्तियाँ देखिए।

आज़ादी का मतलब है/ बाज़ार से अपनी पसंद की चीज़ चुनने की आज़ादी/और आपकी पसंद / वे तय करते हैं/ जिनके पास उपकरणों का कायाबल/ विज्ञापनों का मायाबल/ आपकी आज़ादी पसंद है उन्हें /चीज़ों का गुलाम बनने की आज़ादी (7)

स्वतंत्रता की लड़ाई-चुप्पी तोडो

अपने अधिकार के खिलाफ हो रहे अन्याय सहना भी अन्याय है। स्त्री जिसे समाज ने द्वयं दर्जे का नागरिक माना । समाज को यह याद करने के लिए स्त्री, कविता लिखती है कि स्त्री और पुरुष एक साथ चलने के लिए है। न कि एक दूसरे को नीचा दिखाने का है।कवयित्री ने जिस नारी को प्रस्तुत किया है ,उस स्त्री की आवाज़ में संघर्ष,तनाव और क्रांति है। कवयित्री अनामिका ने अपनी कविता टूटी –बिखरी और पिटी हुई में पुरुष से प्रताड़ित नारी की दशा को दर्शाया है-
पीठी नीला,/चेहरा पीला,/ लाल आँखें और /जख्म हरे-/ (8)

इंसान की सबसे बड़ी खूबी है - इंसानियत । क्या यह मानव अधिकार या इंसानियत का उल्लंघन नहीं है। उल्लंघन है तो इसपर कार्यवाही होनी चाहिए। लेकिन अक्सर क्या होता है कि स्त्री चुप्प रहती है। वे अपने खिलाफ हो रहे अन्याय को चुपचाप स्वीकार करती हैं।इस बात की पुष्टि की है कवि राजेश जोशी की कविता एक लड़की से बातचीत की निम्न पंक्तियाँ-
जानते हो ,लड़की ने कहा एक सुनार से गहने गढ़वाने के लिए
परियों ने अपने उड़नेवाले जूते गिरवी रख दिए हैं और
तितलियों ने फूलों के रस के लिए अपने पंख बेच डाले हैं ।
मैं सिर्फ दूसरों के सपनों में भटक रही हूँ। (9)

ऐसे समय में समकालीन हिन्दी कवयित्री अनामिका,कात्यायनी और निर्मला पुतुल आदि की कविताएँ स्त्री की प्रेरणा बनी हैं। स्त्री की लड़ाई पहले अपने आप से और फिर अपने लोगों से हैं जैसे कि अपने परिवारवालों से ,अपने पति से । खुद की अस्तित्व को बनाए रखने के लिए संघर्ष झेलती है स्त्री । समकालीन हिन्दी कवयित्री अनामिका ने अपनी कविता स्त्रियाँ में स्त्री की चेतना को जगाया है। पुरुष से स्त्री की माँग है कि-
एक दिन हमने कहा/ हम भी इंसान हैं-/ हमें कायदे से पढ़ो एक –एक अक्षर/ जैसे पढ़ा होगा बीए के बाद/नौकरी का पहला विज्ञापन/देखो तो ऐसे /जैसे कि ठिठुरते हुए देखी जाती है/बहुत दूर जलती हुई आग (10)

स्त्री ,अल्पसंख्यक वर्ग ,कृषक और मज़दूर वर्ग आदि जब तक अपने खिलाफ हो रहे अत्याचार को चुपचाप ज़हर मानकर पीते रहेंगे ,तब तक उन्हें कैसे न्याय मिलेगा। अपने अधिकार की लड़ाई करनी है।क्या वे मनुष्य नहीं हैं ,मनुष्य हैं तो उन्हें मानव होने के अधिकारों से क्यों वंचित रखे जा रहे हैं,इसलिए कि वे दलित वर्ग से हैं।इस सवाल का जवाब पूछते हैं कवि कर्दमजी।

एक कैदी व्यक्ति के मानव –अधिकार

एक पूरी कौम के मानव-अधिकारों से / ज्यादा महत्वपूर्ण है,क्यों /
क्या दलित मनुष्य नहीं है (11)

संविधान द्वारा दलित या अनुसूचित जनजाति को आरक्षण देने का प्रावधान किया है। यह आरक्षण सामाजिक,आर्थिक ,राजनैतिक ,शैक्षिक और स्वास्थ्य के क्षेत्र में दलितों को मुख्य समाज के साथ –साथ कदम से कदम मिलाने के नाम पर दिये जा रहे हैं। संविधान शिल्पी नाम से प्रसिद्ध डॉ.अम्बेडकर ने दलितों के उन्नमन के लिए महत्वपूर्ण योगदान दिये हैं।लेकिन अकसर क्या होता है कि दलितों को दिये जानेवाले आरक्षण पर सवाल उठाये जाते हैं। इसलिए कवि जयप्रकाश कर्दम लिखते हैं-
तुम्हारा आरक्षण उचित है/ और मेरा आरक्षण अनुचित/
अब हर क्षेत्र में होगी समान रूप से हिस्सेदारी /
झाडू लगाने तक के काम में भी /बाँटनी होगी समानता (12)

दलितों को आरक्षण और समत्व का अधिकार प्राप्त होना है।अपने अधिकार को पाने के लिए कमर बाँधने के लिए अपने दलित भाईयों को सतर्क किया है कवि जयप्रकाश कर्दम जी।
एक दिन / तुम्हारी संतानें तुमसे पूछेगी/
तुमने हमें क्यों पैदा किया /यदि नहीं लड़ सकते थे तुम/
अपने अधिकारों की लड़ाई (13)

कवि डॉ.एन सिंह ने अपने काव्य संग्रह सतह से उठते हुए में दलित जाति के प्रति ममता के साथ –साथ अपने समाज की भविष्य के लिए समता का साम्राज्य स्थापित करने के लिए क्रांति का आह्वान किया है।
विषमता के विशाल जंगल में/ तिनका तिनका सुलगती आग है/
जिन्दगी जेहाद है/ज़ारी रखना है जिसे/ उदित होने तक/ क्रांति का सूर्य/
स्थापित होने तक समता का साम्राज्य (14)

कवयित्री सुशीला टाकभौरे के काव्य संग्रह हमारे हिस्से का सूरज की निम्न पंक्तियाँ दलित जाति के लोगों को अपने अधिकार पाने की ओर सजग कर रही हैं।
अपमानित है दलित शोषित जन
उठाओ उनके हाथ में /कलम हथियार की तरह (15)

कवयित्री जानती है कि व्यक्ति जब तक अज्ञानता के अंधेरे में रहेंगे तब तक वे अपने अधिकारों को पहचान नहीं पाएँगे । यहाँ कलम शब्द ज्ञान,शिक्षा का प्रतीक या स्वतंत्रता का प्रतीक है।

कवि ओमप्रकाश वाल्मीकि की कविता चुप्प रहना की पंक्तियाँ इस ओर इशारा करती हैं कि चुप्प रहना कितना घातक है।
मैं जानता हूँ/चुप्प रहना/कितना महँगा पड़ा है। (16)

प्रकृति और मानव अधिकार का दुरुपयोग

हमेशा से साहित्यकारों ने मनुष्य और प्रकृति के बीच बेटा और माँ के रिश्ते पर खूब कलम चलाये हैं।आजकल मनुष्य मशीनी सभ्यता के अनुकूल जीवन बिता रहे हैं। उसे मुनाफा कमाना है। भारत में जहाँ एक जनसमूह अब भी अपने अधिकारों की लड़ाई कर रहे हैं वहाँ एक विभाग लोग अपने अधिकारों का दुरुपयोग कर रहे हैं। पृथ्वी पर केवल मानव का ही हक नहीं बल्कि जीव-जंतु,पशु-पक्षियाँ,नदी और पेड़-पहाड़ आदि सभी को हक है।इसपर समकालीन हिन्दी कवि ज्ञानेंद्रपति ने लिखा है-
मैं पूछता हूँ/यह पृथ्वी क्या केवल तुम्हारी है (17)

समकालीन हिन्दी कवि अरुण कमल ने अपनी कविता सुख में पृथ्वी में सुख से जीने का अधिकार किसको है,इसपर रोशनी डाली है।

जहाँ तुम्हारा शयनकक्ष है वहीं /ठीक उसके नीचे याद करो/कोई वृक्ष था जामुन का/ नींव पड़ने के पहले/ छोटी गुठली वाले काले जामुनों का वृक्ष /वही वृक्ष तुम्हें हिला रहा है/एक पक्षी अभी भी ढूँढ़ता है वही अपना नीड़/ वे चीटियाँ खोजती हैं अपना वाल्मीक/इस ब्रह्मांड में सबका अधिकार है देवि / और उधर जो दीवार है बायीं ओर/उसके नीचे कुआँ था पति से पूछना/खूब बड़ा पुराना कुआँ जिसका जल/हल्का और मीठा था/ एक उद्गार था पृथ्वी का तुमने उसे भी /घोंट दिया (18)

मुनाफा को केंद्र में रखकर देखनेवाले आदमी की निगाहों में प्रकृति के जीव सिर्फ धन कमाने का साधन है। कवि ज्ञानेंद्रपति की कविता टेडी बियर में बचे हुए भालू में जंगल या बर्फानी प्रदेशों से विलुप्त भालू की प्रजाति पर लिखी है।वह दिन दूर नहीं कि बच्चों के लिए भालू अपरिचित होंगे।

नहीं,नहीं जान सकेंगी बच्चियाँ इसे
और न जान पाएँगे उनके प्यारे पापा
और पीढ़ी-दर –पीढ़ी
जंगली प्रदेशों से और बर्फानी प्रदेशों से अंततः मिट गए भालू
टेडी बियर बनकर दुकानों के शो केसों में बैठ रहेंगे अतीतातीत (19)

कवि ज्ञानेंद्रपति ने अपनी कविता झारखंड के पहाड़ों का अरण्यरोदन में जंगल का नाश,पेड़-पौधों की कटाई,पहाड़ों का उत्खनन,मिटती वनस्पति और खनिजों के कारण की खोज की है। यह पाया है कि इन सबकी दोषी मानव के लालच हैं।यहाँ सोचना की बात यह है कि मानव को अपने अधिकारों का दुरुपयोग नहीं करना चाहिए।क्योंकि ऐसे अपने अधिकारों के दुरुपयोग करने से मानव को ही प्रकृति का प्रकोप झेलना पड़ता है।

ये वही पुरखे पहाड़ है जिनके हाड़ / आज लालची मानव –गिद्दों का भोजन भर/पूरब में/ डबडबा आया है भुरुकवा / कि जैसे वह छोटानागपुर के छीजते
जंगलों ,मिटती वनस्पतियों,खँखुरते खनिजों की /आँख हो/कि क्या धरा है भू में/इन भूधरों की छाँह के गुजर जाने के बाद /बस आतप और विपत (20)

समकालीन हिन्दी कवियों ने पाठक के मन को जगाने की कोशिश की है। कवि कुमार अंबुज की कविता जंज़ीरें की पंक्तियों में असंख्य जंज़ीरों में जकड़े जनता की मानसिक संघर्ष देखने को मिलता है।यह जंज़ीर आखिर क्या है मानव के अनियंत्रित अभिलाषाएँ,जिनकी पूर्ति के लिए वे किसी भी हद पार करने के लिए तैयार हैं। ऐसी तृष्णाओं को बाहर करने के लिए मानव को खुद अपने जंज़ीरों को तोड़ना है।मानव को अपनी रूढ़ियों और अंधविश्वासों को तोड़ना होगा।जाति –पांति,छुआछूत,टोना –टोटका और किसी स्त्री को चुडैल मानकर समाज में उसकी अवहेलना करना आदि अमानवीय प्रवृत्तियों को दूर कराना होगा।मानव जिन जंज़ीरों को संस्कार मानकर अपनी त्वचा से चिपकी थी,उन्हें काटकर फेंकना है।बाज़ारी उपभोक्ता संस्कृति में जकड़े मानव अपने आपको परातंत्र समझते हैं।इसलिए कवि कुमार अंबुज जनता में नयी जान फूँकने की कोशिश करते हैं।

जो विचार नहीं थे मगर स्वीकृत थे विचारों की तरह उसी शाश्वत जनता में
जो जंजीरों को उनके अलौकिक नामों से जानती थी
और उनमें जकड़ी हुई हँसती – रोती थी
उसके हँसने –रोने की आवाज़ों में दब जाती थीं जंज़ीरों की आवाज़ें
जो घंटियों,चीखों,अंतिम पुकारों ,हकलाहटों ,प्रार्थनाओं की तरह सुनाई देती थीं(21)

लेकिन समय निकट है कि मानव अपनी आरियाँ लेकर जंज़ीरों को तोड़ने निकले।कवि कुमार अंबुज लोगों को सही अर्थ में आज़ादी की ओर मुड़ने की प्रेरणा देनेवाला है। सही आज़ादी का मतलब जानने केलिए हमें स्वदेश की ओर मुड़ना होगा और फिर विदेशी चीज़ों का परित्याग करना होगा।हमारे राष्ट्रपिता महात्मा गाँधी के विचारों को अपनाना होगा । रास्ता आसान नहीं ,पर नामुमकिन नहीं।
और उनमें छिपे आर्तनाद से व्यथित कुछ लोग आखिर
अपनी-अपनी आरियाँ लेकर जुट जाते थे जंज़ीरों को काटने में
और बार-बार अपने लिए बनाते थे ऐसी आज़ाद जगहें
जहाँ रह सकते थे ऐसे कई लोग और भी / जिन्हें पूरी उम्र काटते ही जाना था हर रोज़ काई की तरह फैलती हुई जंज़ीरों को (22)

इक्कीसवीं सदी में कवि अरुण कमल ने अपनी कविता हमारे युग का नायक के ज़रिए देशवासियों में उम्मीद रूपी दीये को जलाया है –
खत्म नहीं होंगे आदिम आदर्श/ खत्म नहीं होगा स्वतन्त्रता समानता का स्वप्न (23)

समकालीन हिन्दी कवियों ने मानवाधिकार के विभिन्न आयामों पर विचार-विमर्श किया है। उन्होंने अपनी कविताओं के माध्यम से मानव को अपने अधिकारों के प्रति सतर्क करने के साथ-साथ अपने अधिकारों के दुरुपयोग पर रोक लगाने की आवश्यकता पर भी ज़ोर दिया है।

संदर्भ ग्रंथ सूची

  1. अनामिका ,खुरदुरी हथेलियाँ,राधाकृष्ण प्रकाशन,प्र सं 2005 ,पृ.15
  2. जयप्रकाश कर्दम ,गूँगा नहीं था मैं ,आतिश प्रकाशन,प्र.सं. 1997,पृ.36
  3. राजेश जोशी,नेपथ्य में हँसी ,राजकमल प्रकाशन,प्र.सं.1994,पृ.23
  4. निर्मला पुतुल,नगाड़े की तरह बजते शब्द ,भारतीय ज्ञानपीठ ,पहला संस्करण 2005,पृ.20
  5. हरिराम मीणा ,हाँ,चाँद मेरा है,शिल्पायन,प्र. सं. 2000,पृ.22,
  6. राजेश जोशी,नेपथ्य में हँसी,राजकमल प्रकाशन,प्रथम संस्करण 1994,पृ.41
  7. ज्ञानेंद्रपति,संशयात्मा ,राधाकृष्ण प्रकाशन,प्र. सं 2005 ,पृ.123
  8. अनामिका ,खुरदुरी हथेलियाँ,राधाकृष्ण प्रकाशन,प्र सं 2005,पृ.46
  9. राजेश जोशी,नेपथ्य में हँसी,राजकमल प्रकाशन,प्रथम संस्करण 1994,पृ.72
  10. अनामिका ,खुरदुरी हथेलियाँ,राधाकृष्ण प्रकाशन,प्र सं 2005,पृ.14,
  11. जयप्रकाश कर्दम,तिनका तिनका आग,सम्यक प्रकाशन,प्र.सं.2004,पृ.12
  12. जयप्रकाश कर्दम,गूँगा नहीं था मैं ,आतिश प्रकाशन,प्र.सं.1997,पृ.16
  13. जयप्रकाश कर्दम ,तिनका तिनका आग ,सम्यक प्रकाशन,प्र सं 2004,पृ.34
  14. डॉ.एन सिंह ,सतह से उठते हुए ,राज पब्लिशिंग हाऊस प्रकाशन,प्र.सं 1991,पृ.15
  15. सुशील टाकभौरे,हमारे हिस्से का सूरज,वाणी प्रकाशन,प्र.सं.2005,पृ.20
  16. ओमप्रकाश वाल्मीकि,बस्स बहुत हो चुका,वाणी प्रकाशन,प्रथम संस्करण 1997,पृ.71
  17. ज्ञानेंद्रपति,संशयात्मा ,राधाकृष्ण प्रकाशन,प्र. सं 2005 ,पृ.138
  18. नये इलाके में,नवोदय सेल्सल,प्रथम संस्करण 1996,पृ.60-61
  19. ज्ञानेंद्रपति,संशयात्मा ,राधाकृष्ण प्रकाशन,प्र. सं 2005 ,पृ.152
  20. ज्ञानेंद्रपति,संशयात्मा ,राधाकृष्ण प्रकाशन,पहला संस्करण 2004,पृ.24
  21. कुमार अंबुज,अनंतिम,राधाकृष्ण प्रकाशन,प्र.सं.1998,पृ.19
  22. कुमार अंबुज,अनंतिम,राधाकृष्ण प्रकाशन,प्र.सं.1998, पृ.19
  23. अरुण कमल,नये इलाके में,नवोदय सेल्स,प्र.सं. 1996, पृ.88


अन्जु.जे.ए, शोध छात्रा,हिन्दी विभाग, केरल विश्वविद्यालय, ई मेल- anjuja479@gmail.com