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सखी री! मैं तो प्रेम दीवानी
डॉ.भरत सोलंकी की मूल गुजराती कहानी 'सखी री! मैं तो प्रेम दीवानी' का हिंदी अनुवाद

"परभु मेरई... ओ परभु मे...र...ई" गुलेल से पत्थर फेंका जाए उस प्रकार पुकारी जाने वाली मेरे नाम की आवाज मेरे कानों में सुनाई दी। मेटी में चिपकी हुई खिचड़ी को घीसघीस कर निकालने के लिए प्रयत्न करते मेरे हाथ वैसे के वैसे ही रुक गए। धीरे-धीरे टपकता हुआ पानी का नल बंद किया। पतीले में बर्तन मांजने का मार्जक वैसे का वैसा ही रख कर पहने हुए पैजामे में उल्टे-सीधे हाथ पोछ कर मैं बाहर आया। देखा तो हनुमान चौक का सवजी गले में गमछा डाले खड़ा था। उसने मुझे देखते ही कहा, "रायचंद मेरई आज करीब बारह बजे परलोक... शाम के पांच बजे आपको..." बाकी का कहा ना कहा और उल्टा मूड कर चलने लगा। मेरे ठुठुरते हुए हाथ धीरे-धीरे एक होकर कोई सहारा ढूंढनें लगे। "बिचारे रायचंद मेरई..." कहते कहते तो मैं एकदम से बेचैन हो गया।

हिम्मत जुटा कर मैं घर के अंदर गया। काले अंधकार ने आंखों को घेर लिया। बर्तन मांजने और दोपहर का खाना बनाने का मन नहीं हुआ। रायचंद मेरई के विचारों में ही मन गोल गोल घूमने लगा। उनसे मिले अभी चार-पांच दिन ही हुए थे, बहुत थके हुए लग रहे थे। मैंने उनके हालचाल के बारे में पूछा तो कहने लगे "अब थक चुका हूँ। जिंदगी का बोझ अब और नहीं सहा जाता, अकेले-अकेले कैसे जी सकता हूँ?" इतना कहते कहते तो उनकी सांस भर आई और फिर वह निकल गए।

अभी तो स्नान भी बाकी था। अब तो साथ ही साथ स्नान भी हो जायेगा। हाथ अलमारी में सफेद कपड़े ढूंढने लगे। गमछा तो एक कील पर ही लटक रहा था। मन में हुआ, "समाज के जाने पहचाने व्यक्ति थे, इसीलिए जल्दी जाना चाहिए, और वैसे भी उनका परिवार में और इस गाँव में था ही कौन?" घर की जाली बंद करके मैं निकल पड़ा। बहुत जोरों की भूख लगी हुई थी। चाय पीने की इच्छा हुई और फिर चली भी गई। पैर कभी तेजी से तो कभी धीरे-धीरे से आगे बढ़ रहे थे। आखिर हनुमान चौक आ ही गया। चौक की दाहिनी तरफ कच्ची मिट्टी से बना हुआ दो मंजिला मकान था। नीचे रायचंद मेरई की कपड़े सीने की दुकान और ऊपर घर। उन्होंने अपनी पूरी जिंदगी कपड़े सीने में ही बिताई थी। पिछले चार-पांच सालों से सिलाई काम बंद करके भगवान की और समाज की सेवा-पूजा करने में अपना समय बिताते थे।

धीरे-धीरे बेचैन होकर मैं अपने धड़कते हुए दिल के साथ उनके पास गया। उनके सीने की धड़कने हमेशा के लिए बंध हो चुकी थी। हनुमान चौक के चार पांच युवान रामचंद मेरई को ले जाने के लिए झटपट सभी तैयारियां कर रहे थे। मैं उनके काम में बाधारुप बन रहा था ऐसा मुझे प्रतीत हुआ। मन हुआ कि बाहर निकल कर बाकी सभी लोगों के साथ जुड़ जाऊ। रायचंद मेरई के पैरों के तरफ नमन करके ऊपर देखा। सामने की दीवार पर रायचंद मेरई की तस्वीर के पास लगी हुई कमलाभाभी की तस्वीर में वह खिलखिलाती हुई हँस रही हो ऐसा लगा, बरसों बाद उनकी ये जुदाई आज खत्म होगी उसका कैसा आनंद होगा! मुझे कुछ धुंधला सा याद आने लगा, कमलाभाभी ब्याह करके यहाँ आई तभी से ही खो खो खो कर खांसी खाती ही रहती थी। उनका शरीर मानों कबूतर का घोंसला। मुश्किल से उन्होंने दस साल तक जीवन साथ में बिताया होगा। उस समय में न तो कमलाभाभी की गोद भरी और ना ही रायचंद मेरई का आंगन बसा और चूड़ी-बिंदी के साथ जाने की तैयारी कर रही कमलाभाभी एक दिन सुबह सुबह रायचंद मेरई को अकेले छोड़कर दूर के पंथ पर जाने के लिए निकल पड़ी। तब से अकेलेपन में जिंदगी बिता रहे और जिंदगी‌ के साथ आंखमिचौनी खेल रहे रायचंद मेरई भी आज कोई ढूंढ ही ना पाए ऐसे स्थान पर छुपने के लिए निकल पड़े थे।

घर में शोर बढा और रायचंद मेरई चार पांच युवान के कंधे पर सवार होकर निकल पड़े। मैंने भी अन्य पांच-पच्चीस लोगों के साथ चलना शुरू किया। जवान दौड़ रहे हो ऐसा मुझे लग रहा था। मैं उस स्थान पर पहुँचा तब तक तो रायचंद मेरई अग्नि की ज्वाला में छिप गए। बाकी के सब दो-तीन दो-तीन के समूह में यहाँ वहाँ बैठक पर बैठे हुए थे। मैं अकेला ही एक बैठक पर बैठा था, किसी के साथ बात करने का मन ही नहीं हो रहा था। लेकिन कानों को कहाँ मन की जरुरत होती ही है? इच्छा-अनिच्छा जैसा कहाँ होता है? पास की बैठक पर बैठे दो व्यक्ति बातचीत कर रहे थे तो मेरे कान उस दिशा में बढे। पहला दूसरे को बता रहा था "यह तो बस कहने के लिए है कि रायचंद मेरई आज दोपहर को... बाकी तो बीते हुए कल मे हो या... ये तो जब डाकिया रजिस्टर लेकर आया और दरवाजा खटखटाने के बाद भी नहीं खुला तो सब इकट्ठा हुए। पुजारीजी तो बोले भी थे 'कहीं रायचंद मेरई मर तो नहीं गए?' और फिर सभी ने मिलकर दरवाजा तोड़ा... अंदर जाकर देखा तो सचमुच रायचंद मेरई..." इतना सुनते ही मेरा शरीर कांपने लगा और मैं वहाँ से खड़ेहोकर दूसरी जगह पर बैठा।

घर वापस आते समय सूर्यास्त शायद हो चुका था। घर जाने चुभने को दौड़ रहा हो ऐसा लग रहा था। बार-बार रायचंद मेरई के आज के वर्तमान में परभु मेरई का भविष्य दिख रहा था। मेरी फड़फड़ाहट बढ़ती ही जा रही थी। बार-बार ऐसा लगता कि अकेले जिंदगी जीना तो थोड़ा बेहतर है, लेकिन अकेले मरना तो कितना कठिन! तो क्या अब मैं...? नहीं नहीं ये क्या कोई उमर है घोड़ी चढ़ने की? सारे बाल सफेद हो गए हैं और मुछे भी... और हाँ मूछ तो आइ ही कहाँ है? स्कूल में पढ़ते थे तब दोस्त थोड़ी थोड़ी सी उगी हुई मूछों पर उंगलियां घुमाते घुमाते मुस्कुराते तब में छुपते-छुपाते शर्माता। स्कूल की दीवार के पीछे छुट्टी के समय में सभी दोस्त किसकी पेशाब की धार ज्यादा दूर तक जाती है ऐसी प्रतियोगिता और शर्त लगाते तब मैं केवल दर्शक बनकर देखता रहता। फिर दोस्त ना पूछने वाले सवाल भी पूछते और सब मिलकर चिढ़ाते। और एक दिन तो हरामि चंदुने निर्लज्ज बनके आँख भी मारी। बस उसी दिन से मैंने घर आकर थैले को एक कोने में हमेशा के लिए फेंक दिया।

बाबूजी 'राजकुमार लेडीझ टेलर' नामक दुकान अकेले ही संभालते। मेरे इस फैसले से वे खुश हुए। वे यही चाहते थे कि मैं घर का कारोबार संभालु। धीरे-धीरे में मशीन पर बैठने लगा। उल्टे सीधे प्रयत्न करते-करते थोड़ा-थोड़ा हाथ बैठ गया तो बाबूजी ने हाथों में कैंची पकड़ा दी। ब्लाउझ सीलने में हमारी दुकान पिछले तीन पीढीओ से मशहूर थी। बाबूजी ब्लाउझ काटने की बैठक के पास मुझे बिठाकर हाथों में कैंची पकड़ाते और ब्लाउझ की पीठ, बाह, कटोरी कागज पर बनाकर उसे काट कर कपड़े पर ठीक तरह से रख कर देते। साथ ही साथ हिम्मत भी देते "मोर के अंडों को रंगना नहीं पड़ता" और जब मैं कैंची चलाना सीख गया तो उन्होंने नाप लेना सिखाया। कोई लड़की नाप देते वक्त अपने हाथ उंचे करके शर्माती तो उससे ज्यादा मैं शर्माता। बाबूजी मन ही मन हँसते और फिर सीख भी देते, "देख परभु इसमें शर्माना नहीं, यह तो हमारा व्यवसाय है" और मैं ना ना करते हुए भी शर्माने लगता।

धीरे धीरे ब्लाउझ पर पकड़ आने लगी। एक बार मैं दोपहर को खाना खाने बैठा था तभी बाबूजीने माँ से कहाँ, "अब परभु को ब्लाउज सिलना आ गया है, अब पहननेवाली भी..." इतना सुनते ही मैं चौंक गया, फिर जरा उदास हुआ और फिर गुस्से से बोला, "नहीं नहीं मुझे कोई शादी-बादी नहीं करनी" यह सुनकर माँ बाबूजी के दिल को चोट तो लगी लेकिन इसमें मैं क्या कर सकता हूँ! मेरी रामायण मैं जानता हूँ ना। कभी कभार खाना-पीना करके रात्रि में गाँव के कोने में आया हुआ "प्यासा पान हाउस" पर पान खाने जाता तब पुराने मित्र मिलते और मजाक उड़ाते। "व्यवसाय करो तो परभु की तरह लेडीझ टेलर का। नाप का नाप हो जाए और हाथ धीरे धीरे सभी तरफ घूमते घूमते मन भी भर जाए।" यह सुनते ही मुझे गुस्सा, शर्म और उदासी के बादल घेर लेते। उनकी बात तो सही थी। कई बार बाबूजी खाना खाने और आराम करने के लीए घर जाते। कोई विचित्र स्त्री ब्लाउझ सिलवाने के लिए आती, मुझे अकेला देख कर दुकान में कोई कोना ढूंढ कर बैठती और दोनों हाथ ऊपर करके छाती का नाप लेने को कहती और बोलती, "जिस तरह से नाप लेना हो उस तरह से लो, जितनी बार लेना पड़े उतने बार लो, मगर फीटिंग ठीक तरह से आना चाहिए।" और मैं नापपट्टी हाथ में लिए उनके आसपास अजगर की तरह फिरता गोल गोल घुमता, फटने जैसी होती रहती उसकी छाती को एक ही नजर से घूरता रहता और मन घूम घूम कर वापस वही के वही, आग भी ठंडी, चाहे जितनी फूंक मारो फिर भी आग लगती ही नहीं और फीर चिंगारी लग कर भी बुझ जाती।

माँ बाबूजी ने भी तेल बिना के तिल को पहचान लिया और शादी करने की बात को वापस मोड़ दिया। और उनके जाने के बाद खाना खाने के लिए मुझे औरों के घर पर जाकर घूमना न पड़े इसलिए माँ ने मुझे खाना बनाना सिखा दिया। और वह भी सीख जाने के बाद मानों कि उनकी सभी जिम्मेदारियां पूर्ण हो गई हो उस प्रकार वह दोनों ऐक के बाद ऐक मुझे इस संसार में अकेला छोड़ कर खुद ही चले गए। हाला कि जाते-जाते माँ एक दूर के मामाजी को उनके जाने के बाद मुझे किसी योग्य जगह परे लगाने की सिफारिश करती गई। करीब डेढ़ माह पहले ही वह आए थे और मुझे एक से दो होने के लिए समझा रहे थे। "देख परभु इस प्रकार अकेले-अकेले पूरी जिंदगी नहीं कटेंगी। कभी तबीयत खराब हुई या और कोई परेशानी हुई तो घर का व्यक्ति ही काम आता है। और सभी स्त्रीओ को काया की माया और काया की भूख हो ये जरूरी नहीं, अभी आज के समय में भी संसार में मिरा जैसी स्त्री मिल जाएगी और एक स्त्री पहचान में भी है, लड़की भोली है, तुम्हें जिंदगी का साथी मिल जाएगा, अगर तुम्हारी हा हो तो..." लेकिन उस वक्त तो मैंने तुरंत ही मना कर दिया था, आधी से ज्यादा जिंदगी तो गुजर गई और अब बहुत थोड़ी सी बची, इसमें क्या झंझट खड़ी करनी, और अगर आनेवाली को आगे चलकर शरीर की भूख हुई और कहीं कुछ उल्टा सीधा कर बैठे तो हमारे पूर्वजोकी बरसों से कमाई हुई इज्जत पर पानी फिर जाएगा। और फिर मामा इस बात पर विचार करने के लिए कह कर निकल गए।

आज घूम-घूम कर मामाजी की बातें सच्ची लगने लगी। रायचंद मेरई के जीवन की अंतिम क्षणे कितनी कठिन रही होगी, शरीर की नाडिया टूटती होगी, आँखों के सामने अंधेरा छा गया होगा, कितनी सारी बातें किसी को कहनी होगी, जुबान मुँह में अटक गई होगी, पानी पीना होगा, लेकिन काल का पंजा शैतान बनकर उनके ऊपर सवार हुआ होगा, और अंत में वह तड़पते हुए नीचे जमीन पर गिरे होंगे। क्या मुझे भी ऐसे रास्ते पर इसी प्रकार आगे बढ़ना पड़ेगा। यह सोचते ही मैं अचानक से बैठ गया, बिस्तर कांटो की तरह चुभने लगा, दरवाजे की सिंकडी खोल दी। उलझन और बढ़ने लगी। अंत में मैंने तय किया, "कल ही मामा से मिलकर सब पक्का कर दूंगा। गाँव वालों को जो कहना हो वह कहें और लोग तो बोलेंगे ही, 'बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम।' लेकिन मुझे इससे क्या! अब तो मामा से मिलकर उस मीरा को घर लाने के बाद ही शांति मिलेगी। हाला की मामा के साथ मिलकर सब कुछ तय कर दूंगा फिर तो कोई सवाल ही पैदा नहीं होगा। फिर तो वह मीरा और मैं कान्हा, मैं कान्हा? नहीं नहीं वह मीरा और मैं राधा, और कान्हा तो गिरधर गोपाल। साथ मिलकर खाएंगे-पिएंगे और भजन करेंगें और गाएंगे:
"सखीरी! मैं तो प्रेम दीवानी मेरो दर्द न जाने कोई!"

('કાકડો' વાર્તાસંગ્રહ, મૂળ લેખક -ડૉ. ભરત સોલંકી, પ્રણવ પ્રકાશન અમદાવાદ, પ્રથમ આવૃત્તિ ૨૦૧૭, મૂલ્ય ૧૦૦ રૂપિયા)

अनुवादक:

प्रजापति मेहुलकुमार सोमाभाई, स्नातकोत्तर, गुजराती विभाग, श्री और श्रीमती पी.के कोटावाला आर्ट्स कॉलेज पाटन

यादव आचलबेन विजयप्रताप, स्नातक, अंग्रेजी विभाग, श्री और श्रीमती पी.के कोटावाला आर्ट्स कॉलेज पाटन