Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
नजदीकी इतिहास के आईने में नासिरा शर्मा की कहानियाँ

समकालीन हिन्दी कहानी में नासिरा शर्मा एक सशक्त हस्ताक्षर मानी जाती हैं । सन् 1886 में ‘पत्थर गली’ कहानी संग्रह से चर्चा में आने वाली नासिरा शर्मा का रचनात्मक फलक बहुत व्यापक रहा है । परवर्ती काल में भी उनके ‘संग सार’, ‘इब्ने मरियम’, ‘शामी कागज़’, ‘सबीना के चालीस चोर’, ‘खुदा की वापसी’, ‘इन्सानी नस्ल’, ‘दूसरा ताजमहल’ और ‘बुतखाना’ जैसे कहानी-संग्रह प्रकाशित हुए हैं । नासिराजी की कहानियाँ आम आदमी के रोजमर्रा के प्रश्नों से जूझती प्रतीत होती हैं । अपने व्यापक जीवन अनुभव को कहानी का जामा पहनाकर लेखिका इस तरह प्रस्तुत करती हैं कि पाठक सहज ही उनके रचनात्मक कौशल से प्रभावित हुए बिना नहीं रह सकता । नासिरा शर्मा का व्यापक कहानी लेखन स्वयं अपने समय का सच्चा सामाजिक-मानवीय इतिहास है, फिर भी उनके ‘इब्ने मरियम’ कहानी संग्रह की कुछ कहानियों का नजदीकी इतिहास के आईने में विश्लेषण उस इतिहास के कई अनबुझे पहलुओं का परिचय कराता प्रतीत होता है ।

कहानी संग्रह का शीर्षक जिस कहानी के आधार पर दिया गया है वह ‘इब्ने मरियम’ कहानी 1984 में घटित भोपाल गैस त्रासदी पर आधारित है । यह सर्व विदित है कि 3, दिसम्बर 1984 की रात भोपाल स्थित युनाइटेड कार्बाइड नामक अमरिकी कंपनी के टैंक से मिथाइल आइसोसाइनाइड जैसी ज़हरीली गैस का रिसाव हुआ और इस घटना ने पूरे भोपाल शहर को तहस-नहस कर दिया । इस हादसे में हजारों लोग मारे गए, बड़ी तादाद में हमेशा के लिए अपाहिज हो गए और इस तरह कभी न खत्म होने वाले दर्द में मुब्तिला हो गए । इस घटना के 33 साल बाद आज भी भोपाल गैस हादसे के उन पीडितों को न्याय का इन्तजार है । इसी पृष्ठभूमि पर लिखी गई ‘इब्ने मरियम’ कहानी भोपाल गैस हादसे की उस सच्चाई से रूबरू कराती है, जिसे कह पाना शायद इतिहास के बस की बात नहीं है ।

‘इब्ने मरियम’ कहानी का मुख्य पात्र ताहिर बटुए वाला पागल है, जो पीतल के पम्प वाला स्टोव हाथ में लिए भोपाल की गली-गली भटकता रहता है । दरअसल गैस हादसा तो ताहिर झेल गया था परन्तु इस हादसे के बहाने बेटी सुगरा को ससुराल द्वारा ठुकरा दिए जाने को वह झेल नहीं पाया और पागल हो गया । ताहिर ने अपनी छोटी बेटी सुगरा की शादी अपने खास दोस्त इफ्तखार के बेटे फारूख से की थी । लेकिन उस भयंकर हादसे के बाद दोस्त ने यह कहते हुए उनकी सालों की दोस्ती की नींव हिला दी- “कल जो यह पैदा करेगी वह इन्सान की औलाद न होकर....... अरे । जी भरकर ज़हरीली गैस अन्दर गई होगी । जब आँखों और सीने का यह हाल है तो क्या कोख अछूती बची होगी ?”[1] ताहिर अपनी टोपी इफ्तखार के कदमों पर रखकर गिडगिडाया था । लेकिन इफ्तखार यह कहकर सुगरा को आखिर ठुकरा ही देता है- “लूली-लंगडी, कानी-कुतरी औलादें पैदा हुई तो सिवाय भीख माँगने के उनसे और कौन-सा काम हो पायेगा ?”[2] इतिहास ने यह बताया है कि उस हादसे के समय जो औरतें गर्भवती थीं उनकी औलादें शारीरिक-मानसिक रूप से अपाहिज पैदा हुई । परन्तु यहाँ तो अपाहिज नस्ल पैदा होने की आशंका में सुगरा जैसी कई लड़कियों के बाग़ उजाड़ दिए गए, बिना किसी गुनाह के उन्हें सज़ा दे दी गई । उनसे उनकी गृहस्थी का सुख छीन लिया गया । घर में पाले हुए पशु पक्षियों के दूध-अंडे ज़हरीले नहीं बने परन्तु घर की बहुओं की कोख को ज़हर की खान घोषित कर दिया गया । यह ऐसा दर्द था जो भोपाल के घर घर ने बिना किसी जाति या मजहब के भेदभाव से झेला था । ताहिर इसीलिए अपने खास दोस्त रामधन से कहता भी है – “रामधन भैया, मैं हमेशा तुमसे कहता था कि पेट न काला होता है न गोरा, भूख हिन्दू होती है न मुसलमान, रोटी छोटी होती है न बड़ी, आज मैंने यह भी जान लिया कि ग़म की शक्ल भी अलग-अलग नहीं होती हैं.... । आज मैं भी तुम्हारी तरह लूट गया ।”[3] मुसीबत के उस समय में सरकार से इन्हें कम मदद मिली इससे भोपाल गैस हादसे के पीडित नहीं टूटे जितने अपनों के खून में इस तरह जंग लग जाने से टूटे हैं । भोपाल गैस हादसे के किसी भी दस्तावेजीकरण में मनुष्य की इस गहरी पीड़ा का उल्लेख मिल पाना मुश्किल है ।

‘इब्ने मरियम’ कहानी का एक दिलचस्प पहलू यह भी है कि भोपाल गैस हादसे के बाद जब पूरे शहर का वजूद चलती-फिरती लाश में बदल गया, लोगों की आँखें धुँधली और कलेजा छलनी हो गया, उनके सीने वीरान हो गए, छोटे-छोटे कारखानेदार और गरीब मजदूर रोटी से तरसने लगे तब कुछ लोग ताहिर जैसे पागल इन्सान का उपयोग करके रोजी-रोटी कमाने का जुगाड़ करने लगे । रऊफ गैस से पहले मील में नौकर था । गैस लीक होने के बाद मजदूरों के जुलूस में शामिल होने के कारण उसकी नौकरी छूट गई । रोज़ कुआँ खोदकर पानी पीने वाले रऊफ पर एक बड़े परिवार की जिम्मेदारी थी । ऐसे में भोपाल गैस कांड पर फिल्म बनाने वाले कुछ लोगों के संपर्क में आकर ताहिर जैसे पागल इन्सान के सहारे वह अपनी गरीबी के जख्मों पर मरहम लगाने की कोशिश करता नज़र आता है । “जब भूख ने आँखों की जलन और सीने की सुलगन पर काबू पाना शुरू कर दिया तो पेट की सोजिश ने बताया कि सबसे बड़ी खबर रोटी है, जो जिन्दगी की वाहिद हकीकत है । जब रोजी-रोटी में सितमज़दा लोग जूझने लगे, उस वक्त पता चला कि कौन टूटा और कौन छूटा... थके हारे लोग हँसने का बहाना ढूँढने लगे और एक वक्त ऐसा आया जब अपने जख्मों को ताहिर की सुई से सीने लगे ।”[4] दरअसल किसी पागल इन्सान का तमाशा बनाकर पैसे कमाना गुनाह है, उस पर जुल्म है । लेकिन यहाँ भूख की वाहिद हकीकत के सामने इन्सानी विवेक ने हार मान ली है । कहानीकार के तौर पर नासिरा शर्मा की जीवन और जगत के सच को उकेरने की यही वह गहरी पैंठ है, जो उन्हें किसी भी इतिहासकार से बहुत आगे ले जाती है ।

इस्लामी मिथकों के प्रयोग द्वारा इतिहास की उस घटना को बहुआयामी बनाने में ‘इब्ने मरियम’ कहानी की लेखिका सफल हुई है । कहानी का मुख्य पात्र ताहिर बटुए वाला पागल होने के बाद अपनी बेटियों कुबरा और सुगरा को पहचानता तक नहीं । वे दोनों बार-बार पिता के सामने जाकर उन्हें घर ले आने की कोशिश करती हैं परन्तु ताहिर उन्हें याजुज-माजुज कहते हुए पहचानने से इन्कार कर देता है । इस्लामी परंपरा में याजुज और माजुज दो ऐसे विशालकाय पौराणिक चरित्र हैं जो पूरी दुनिया को खा पी जाते थे । उनसे तंग आकर लोगों ने खुदा के पास जाकर इस मुसीबत से छुड़ाने की गुजारिश की तो खुदा ने उन्हें दो पहाडों के बीच लोहे की 200 गज ऊँची दीवारों के बीच बंद कर दिया था । तब से रोज़ रात को याजुज-माजुज उस दीवार को चाट-चाटकर मिटाते रहते हैं और सुबह उस दीवार को खुदा फिर से ज्यों की त्यों बना देता है । ताहिर की बेटियों की स्थिति भी कुछ ऐसी ही है । गैस हादसे ने उनके और उनके पिता के बीच जो दीवार खड़ी कर दी है उसको मिटाने की वे दोनों भरसक कोशिश करती रहती हैं लेकिन पागल ताहिर एक झटके में उस दीवार को फिर से खड़ी कर देता है । कुबरा सोचती है- “उस पुरानी कौम की तरह मैं और सुगरा अब लाख चाहने पर भी अपने और अब्बा के बीच खड़ी इस दीवार को गिरा नहीं सकती है । माना कि हमारी यह जिन्दगी कुरान में लिखी रिवायत न सही मगर याजुज-माजुज की उस पुरानी हकीकत का अक्स जरूर है ।”[5] भोपाल गैस हादसे ने इन्सानी रिश्तों को किस हद तक प्रभावित किया है कि बेटियाँ अपने बाप के लिए याजुज-माजुज बन गई हैं । कहानी में इन मिथकीय चरित्रों का सार्थक प्रयोग स्थिति की भयावहता को उजागर करके गैस हादसे के इतिहास के नए अध्याय से परिचय कराता है ।

पूरी कहानी में पागल ताहिर बटुए वाला पीतल का पुराना स्टव लिए हुए किसीके आने का इन्तज़ार करता रहता है । “सब्र करो, थोड़ा सब्र, अब वह आने ही वाला है, किसी लम्हे, किसी पल, तुम सब जिन्दा हो जाओगे... यक़ीन करो, वह आएगा....बस अब वह आने वाला है ।”[6] कुरान में लिखी रिवायत के अनुसार जब सृष्टि का अन्त करीब आएगा यानी कि कयामत नजदीक आएगी तब ईसा यानी कि इब्ने मरियम एक इन्साफवर हाकिम के रूप में फिर से जन्म लेकर दुनिया से अन्याय को खत्म कर देंगे । इसी संदर्भ में गालिब का एक शेर भी है- ‘इब्ने मरियम हुआ करें कोई, मेरे दुख की दवा करें कोई ।’ ‘इब्ने मरियम तुम कहाँ हो ?’ के प्रश्न के साथ खत्म होती यह कहानी भोपाल गैस हादसे के बाद आम आदमी की इन्साफ की पुकार को और अधिक मार्मिक बना देती है । लगभग दो साल पहले दिल्ली के जन्तर-मन्तर पर भोपाल गैस पीडितों द्वारा इन्साफ के लिए किया गया धरना प्रदर्शन इब्ने मरियम के आने की आस लिए बैठे उसी आम आदमी की जद्दोजहद का परिणाम है ।

नासिरा शर्मा के इस संग्रह की एक और कहानी है ‘आमोख्ता’ । आमोख्ता अर्थात बार बार पढ़ा जाने वाला पाठ । भारत विभाजन और पंजाब के आतंकवाद की पृष्ठभूमि में लिखी गई यह कहानी उस नजदीकी इतिहास के अनकहे सच को सामने लाती है । इतिहास के लिए दो मुल्कों का बँटवारा एक घटना मात्र है, जिसमें लाखों मनुष्य भारत से पाकिस्तान गए और पाकिस्तान से भारत आए । उस अमानवीय घटना को भोगने वाले मनुष्य के भीतर की टूटन, वतन से छूटने की तड़प और पीड़ा को व्यक्त करने का सामर्थ्य इतिहास में नहीं होता है । अपनी जड़ों से टूटने की मनुष्य की व्यथा या भीतर के विस्थापन को जानने-समझने के लिए हमें विभाजन पर केन्द्रित साहित्य के पास ही जाना पड़ता है । भारत विभाजन की पृष्ठभूमि में पंजाब के आतंकवाद से ‘आमोख्ता’ कहानी को जोड़कर कहानीकार ने बखूबी यह सिद्ध किया है कि हमने अतीत की घटनाओं से कोई सबक न लेते हुए कभी मजहब, कभी जाति, कभी देश तो कभी प्रदेश के नाम पर पीढ़ी-दर-पीढ़ी दूसरों को बेघर बनाने का सिलसिला जारी रखा है । यह सिलसिला आखिर कब तक जारी रहेगा इसका कोई माकूल उत्तर कहानीकार के पास नहीं है । इसीलिए यह कहानी मात्र विभाजन की व्यथा-कथा नहीं कहती बल्कि बस्तियाँ जला देने का शौक पालने वाली मनुष्य जाति की हिंसक वृत्ति के इतिहास की मर्मान्तक गाथा प्रस्तुत करती प्रतीत होती है ।

‘आमोख्ता’ कहानी का नायक विभाजन से पहले लाहौर में रहता था । उसे अपने वतन, अपने शहर, अपने पुश्तैनी घर से बेहद लगाव था । लेकिन विभाजन ने एक दिन में सबकुछ बदल दिया । अपने पराये कर दिये और पराये अपने । जिन्दगी ने चेहरा बदलकर एतबार के दामन को चाक कर दिया । खून में डूबी नंगी तलवारों, इज्जत लूटी विधवाओं की सिसकियों और मार-काट के हंगामे के बीच वह जैसे-तैसे वीर जी के सहारे अपनी जान बचाकर अमृतसर में बस जाने में कामियाब हो गया । बरसों बाद भी वह अपने जेहन से पुश्तैनी घर को मिटा नहीं पाया । “क्योंकि वह जगह मेरी पहचान थी, मेरी पैदाइश की निशानी थी, जो नये-पुराने वतन की सरहदों से परे, हर सियासी बँटवारे से दूर, मेरा अधिकार थी ।”[7] लेकिन वतन और घर को देखने की चाह में जब वह वीज़ा लेकर पाकिस्तान गया तो उसने देखा कि उसकी पुश्तैनी निशानी मिट चुकी है । अपने आपको दिलासा देते हुए उसने बचपन की उस याद से मुक्त होकर हिन्दू होने के बावजूद दिल्ली छोड़कर पंजाब के अमृतसर की आबोहवा में फलने-फूलने का मन बना लिया । पंजाब के लोगों से उसे इतना प्यार मिला कि कभी अपने याद नहीं आए । सफेद पगड़ियों और सफेद दाढ़ियों ने उसे अपनी छाया में इस तरह छुपा लिया कि वह गरीब से अमीर होता हुआ एक पोते का दादा भी बन गया । ठीक उसी वक्त आतंकवाद और उग्रवाद की गर्म हवा पंजाब को झुलसाने लगी । इन्हीं आग के शोलों में एक बार फिर उसे जलना पड़ता है । “जब तक मैं अमृतसर पहुँचता मेरा जहाज़नुमा मकान जलकर कोयला हो गया था । मेरी पत्नी सावित्री, इकलौता बेटा अमन, बहू मनजीत कौर और छोटी बेटियाँ- पिंकी और डोली- की लाशें मकान के विभिन्न कमरों में जली पड़ी थीं । इस कोयले की खान में दाखिल होता हूँ, मेरे आँसू दीवारों की कालिख धोने के लिए मेरी आँखों में हाथ-पैर मारते हैं ।”[8] इस हादसे में उसका एक मात्र पोता बबलू किसी तरह बच जाता है । वह अपनी नई जिन्दगी पोते के साथ तीसरी बार शुरू करता है । परन्तु अब गहरी चिंता यही है कि क्या भविष्य में यह सबकुछ बबलू के साथ भी दोहराया जाएगा ? सांप्रदायिकता, जातिवाद और प्रदेशवाद की जिस दीमक ने उसे खोखला कर दिया है वही दीमक जब उसे अपने पोते की तरफ बढ़ती नज़र आती है तो वह सिहर उठता है । “मुझे खौफ है कि मेरे पोते की, जो आज की इन्सानी भाषा में हिन्दू-सिख खून की मिलावट से बना है, कल क्या सियासी पहचान होगी इस मुल्क में ? यह मकान उससे किस इलज़ाम में छीना जाएगा और उसको किस नए नाम की उपाधि से सुशोभित किया जाएगा ?”[9] इस अमानवीयता का नंगा नाच हम कब तक खेलते रहेंगे ? शायद यही वह मूल प्रश्न है जिसे इस कहानी में लेखिका इतिहास को आधार बनाकर उठाती हैं । इसका उत्तर न तो लेखिका के पास है और न ही हमारे पास ।

इतिहास और कला (मेरा तात्पर्य साहित्य कला से है) का पारस्परिक सम्बन्ध नया नहीं है । परन्तु किसी भी रचनाकार का आशय मात्र उस इतिहास को दोहराना नहीं होता बल्कि उसे आधार बनाकर वह उससे बहुत आगे निकल जाने की कोशिश करता है । नासिरा शर्मा मूलतः तो वर्तमान की उलझनों से रूबरू कराने वाली कहानियाँ लिखती है लेकिन उनकी कुछ कहानियों में समकालीन इतिहास को आधार बनाकर एक नया इतिहास रचने की जद्दोजहद साफ दिखाई देती है । ‘इब्ने मरियम’, ’आमोख्ता’, ’तीसरा मोर्चा’ आदि ऐसी ही कहानियाँ हैं ।

संदर्भः-

  1. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 149
  2. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 148
  3. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 151
  4. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 139
  5. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 147
  6. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 159
  7. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 12
  8. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 16
  9. इब्ने मरियम(कहानी संग्रह)- नासिरा शर्मा- पृष्ठ- 18


डॉ. नियाज़ ए. पठान, एसोसिएट प्रोफेसर, हिन्दी,सरकारी आर्टस एण्ड कॉमर्स कॉलेज, समी, ज़िला- पाटन ।