भारतीय भाषाओं में उपन्यास का उद्भव प्रेस, मध्यवर्गीय शौकिया पाठक वर्ग का विकास और साक्षरता से जुड़ा हुआ है । ऐसा नहीं है कि इससे पूर्व भारतीय उपमहाद्वीप में मध्यवर्ग नहीं रहा होगा, किन्तु वह पुस्तकों की क्रमशक्ति और साक्षरता के साथ-साथ पुस्तकों का बाजार में उपलब्धता जैसे अनुकूल वातावरण उसके लिए उपलब्ध नहीं था । आधुनिक काल की शुरूवात सन् अठारह सौ सत्तावन के आसप-पास से मानी जाती है । मध्ययुगीन सामन्ती वातावरण, विचारों, भावनओं से निकलकर न केवल विधाओं के स्तर पर अपितु कहन शैली, विषय-वस्तु आदि सभी स्तरों पर साहित्य फिर से जनता की बात जनता की ज़ुबान में करने का प्रयास कर रहा था । सामाजिक-सांस्कृतिक ही नहीं, राजनीतिक दृष्टि से भी कई प्रवृत्तियाँ इस समय में दिखाई देती हैं, जिसका स्वाभाविक प्रतिफलन साहित्य में भी है । एक ओर कम्पनी शासन की विजयी यात्रा थी तो दूसरी ओर किसान-मज़दूरों का दयनीय-शोचनीय जीवन, भारतीय व्यापारियों-सामन्तों की लूट खसोस किसानों को दरिद्र बना रही थी तो दूसरी ओर औपनिवेशिक शासन इनका भी शोषण कर रहा था । भारतीय राष्ट्रीयता का जन्म भी इसी समय हो रहा था, जिसमें कई विचारधाराओं का मेल दिखाई देता है । मध्यकालीन अवशेषों के रूप में रीतिकालीन राजभक्ति अभी भी साहित्य में मौजूद थी, जो अब देशी राजा-रजवाड़ों-नवाबों से परिवर्तित होकर ब्रिटिश राज की चाकरी करने का प्रयास कर रही थी । इसी युग में उपन्यास, कहानी का आरंभ होता है, हिन्दी-मराठी नाटक एवं रंगमंच का सफल पुनरुज्जीवित किया जाता और गाहे बगाहे यह सारी विधाएँ भी अपने युग की खामियों-खुबियों से परिपूर्ण हैं । सन 1857 के बाद राजनीतिक-सांस्कृतिक स्तर पर कई बदलाव हुए । कम्पनी शासन की समाप्ति होकर ब्रिटिश संसद-राजघराने की सत्ता स्थापित हुई तथा भारतीय समाज विदेशी शिक्षा व्यवस्था एवं आचार व्यवस्था से अपने आप को बदलने का प्रयास करने लगा, जिसे नवजागरण के नाम से जाना जाता है ।
नवजागरण की यह श्रृंखला सांस्कृतिक-सामाजिक परिदृश्य से होते हुए 1891 के आस-पास तिलक के रूप में और 1920 के आस-पास गाँधी जी के रूप में राजनीतिक आन्दोलन का रूप लेती है, जिसके क्रम में कई तरह के आन्दोलन-जनआन्दोल हुए, इसी को बाद के इतिहासकारों ने स्वतंत्रता संग्राम का नाम दिया । भारतीय स्वतंत्रता संग्राम की सबसे बड़ी विशेषता उसका अधिनायकवादी न होना थी । इस आन्दोलन की अगुआयी करनेवाली भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस में ही कई प्रकार के मतभेद थे, प्रायः अहिंसा पर कुछ विवादों के बावजूद सबका विश्वास था । उसी समय क्रान्तिकारी विचारधारा को आज़ादी का मार्ग माननेवाले विचारों का प्रसार भी बड़ी तेज़ी से भारत में हुआ । आजादी की उम्मीदों के साथ ही विभाजनवादी-अलगाववादी विचारों का भी प्रसार बढ़ने लगा, जिसका आरोप अंग्रेजों की ‘फूट डालो राज करो’ की नीति को दिया जाता है । जब आजादी मिली तो देश को तीन टुकडे कर साम्प्रदायिक ताकतों के हाथों । कई लोगों ने इसे अधूरी आज़ादी कहा । देश का एक बहुत बड़ा तबका अंग्रेजों की शिक्षा नीति से सहमत नहीं था, लेकिन हजारों वर्षों से पददलित दलित समाज के लिए इसका ठीक यही अर्थ नहीं था । ग्रामीण एवं दलित समाज के लिए आजादी अभी आनी बाकी थी । सामन्तवाद, मनुवाद, जातिवाद, पुरुषवाद से आज़ादी के लिए पहले से ही प्रेमचन्द, मंटो, उग्र का कथा साहित्य संघर्ष कर रहा था । भारतेन्दु से लेकर निराला-प्रसाद तक के कवि-नाटककार भी इस क्षेत्र में लेखनरत थे । चाहे प्रेमचन्द हो या मंटो, भारतेन्दु हो या जयशंकर प्रसाद, निराला हो या बालकृष्ण भट्ट, इन स्ततंत्रतापूर्व रचनाकारों को किसी खास विचारधारा के तहत विभाजित नहीं किया जा सकता है, इसका कारण उन्होंने कई मोर्चों पर अपनी लड़ाई साहित्य के माध्यम से लड़ी, जिसमें किसी राजकीय-सांस्कृतिक नेता की नहीं, जनता की आवाज़ सुनाई देती है । इन वर्षों में लिखित उपन्यास साहित्य भी इन्हीं अन्तर्विरोधों के साथ अपना विकास कर रहा था, जिसको परिणति तक उग्र-प्रेमचन्द ने पहुँचाया । इस समय के उपन्यासों ने साम्प्रदायिकता, मध्यकालीन मानसिकता, पुरुषवाद, राष्ट्रवाद, औपनिवेशिक शासन, जातिवाद, सामन्तवाद से अधिकांश संघर्ष किया तो कई बार समझौता भी किया । कभी साहित्य को सामाजिक बदलाव का साधन माना तो कभी मनोरंजन का साधन मानकर तिलिस्मी अय्यारी साहित्य को प्रश्रय दिया । कभी गौरवशाली इतिहास को प्रस्तुत कर सामान्य जन को गौरवशाली अतीत की याद दिलाई तो कई बार इतिहास को विकृत रूप में प्रस्तुत किया । इस काल के उपन्यासों में आए मुस्लिम जीवन को इस घटनाक्रम में देखना अत्यन्त रोचक होगा |
सन 1882 में लाला श्रीनिवास दास कृत ‘परीक्षागुरु’ प्रकाशित हुआ, किन्तु सन 1881 में ही राधाकृष्ण दास का ‘निस्सहाय हिन्दू’ प्रकाशित हो चुका था । ‘परीक्षागुरु’ को ‘अंग्रेजी ढंग नॉवेल’ (नामवर सिंह, 02-12-2019) होने कारण हिन्दी का पहला उपन्यास माना जाता है । यह दोनों उपन्यास अपने युगीन साहित्यिक प्रवृत्तियों और नवजागरण की चेतना को अभिव्यक्त करनेवाली कृतियाँ हैं, भले ही इनमें उपन्यास के तत्वों की मौजूदगी को लेकर विद्वत्जनों में मतभेद हो । एक सम्पूर्ण सद्भावना से युक्त समाज की निर्मित, जिसमें सभी जातियों-लिंगों के शान्तिपूर्ण सह-अस्तिव के निर्माण में यह उपन्यास अपना योग देते दिखाई देते हैं । ‘निस्सहाय हिन्दू’ में अति-संवेदनशील गोवध-निवारण के मुद्दे को उठाया गया है । प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के बाद हिन्दू-मुस्लिम फूट के लिए अंग्रेज इस मुद्दे का जमकर प्रयोग कर रहे थे । धार्मिक सद्भाव कायम कर अंग्रेजों की कुनीतियों को असफल करने की दृष्टि से यह एक महत्त्वपूर्ण उपन्यास है । इसमें चित्रित दो मुस्लिम पात्रों हाजी अताउल्लाह एवं मोलवी अब्दुल अजीज के माध्यम से उसने इसे चरितार्थ कर दिखाया है । हाजी अताउल्लाह कट्टरपंथी, अभिजातवर्गीय नेता है, जो बकरीद ईद पर गो-हत्या का समर्थन करते हुए लोगों को भड़काता है, तो अब्दुल अजीज हिन्दूओं की भावनाओं की रक्षा करते हुए गोवध रोकने के प्रयत्नों के तहत सरकार के पास अर्जियाँ भेजता है,गोहितकारिणी सभा का सभापति चुना जाता है, उसके लिए चन्दा इकठ्ठा करता है,गोशाला खोलता है और कुरआन से गोहत्या के विरुद्ध प्रमाण देता है, परिणातः हाजी अताउल्लाह उसके विरुद्ध मुस्लिम समुदाय को भड़काकर दंगे में उसकी हत्या तक करा देता है । कट्टरतावाद बनाम सह-अस्तित्व के लिए समन्वयवाद इस उपन्यास का मुख्य मुद्दा है, जिसे इन दो पात्रों के माध्यम से उपन्यासकार ने दर्शाने का प्रयास कर अपनी दृष्टि में आदर्श मुसलमान की एक छवि देने का प्रयास किया है । ‘परीक्षागुरु’ “उपन्यास में एक मुस्लिम पात्र हकीम अहदम हुसैन भी है, जो पुरानी चाल का डरपोक, हाँ में हाँ मिलानेवाला । निस्सहाय हिन्दू (1890) क मौलवी अब्दुल अजीज की तरह जिसके चरित्र में कोई वैशिष्ट्य नहीं है ।” (गोपालराय, 2009: 56) यह उपन्यास तत्कालीन भारतीय समाज का एक हद तक यथार्थ चित्रण है । “वकील, व्यापारी, हाकिम, दलाल, वेश्याएँ, ठेकेदार और सम्पादक आदि विभिन्न पेशे और धंधों के लोगों से बसी यह एक यथार्थ और वास्तविक दुनिया है । इसी प्रकार हिन्दू, मुसलमान और अंग्रेज आदि सभी धर्म और सम्प्रदायों के पात्रों के कारण यह उपन्यास उन्नीसवीं शताब्दी के भारतीय समाज का एक प्रतिनिधि चित्र बन जाता है ।” (मधुरेश, 2014:14)
इसी बीच तिलिस्मी-अय्यारी उपन्यासों की परम्परा का सूत्रपात भी होता है, जिसका पूनर्मूल्यांकन करने का प्रयास राजेन्द्र यादव ने किया । राजेन्द्र यादव ने ‘चन्द्रकान्ता’ (1888) को समझने-समझाने के क्रम में उसे अपने समय का दस्तावेज़ कहा था, लेकिन उन्होंने इस बात का उल्लेख नहीं किया कि देवकीनन्दन खत्री की मुसलमानों के प्रति भावना में कलुषता या प्रतिकूलता के क्या कारण हैं ? क्या यह उस काल की सामान्य हिन्दी मानसिकता थी ? कदापि नहीं, क्योंकि कुछ ही समय पहले सन 1857 में धार्मिक एवं जातीय भेद भूलकर दोनों धर्मों के लोगों विदेशी शासकों के खिलाफ संघर्ष किया था । मिल-जुलकर सज़ाएँ भुगती थी । भारतेन्दु हरिश्चन्द्र मुहम्मद पैगंबर और अकबर पर निबन्ध लिखते हैं, बलिया वाले व्याख्यान में साम्प्रदायिक एकता की प्रशंसा करते हुए ‘हाथों में हाथ’ थामने के लिए कहते हैं । इन स्थितियों में देवकीनन्दन खत्री अपने तिलिस्मी उपन्यासों में मुस्लिम पात्रों को चुन-चुनकर धोखेबाज़, दग़ाबाज़, चरित्रभ्रष्ट और षड्यंत्रकारी रूप में चित्रित करते हैं, उन्हें जरायमपेशा, प्यादे, गोहर आदि पात्रों के रूप में प्रस्तुत करते हैं, मुसलमान सैनिकों पर राजा-सेनापति विश्वास नहीं करते हैं । इतना ही नहीं मुसलमान लड़की से प्रेम हो जाने पर अफसोस जाहिर करते हैं । ऐसे में क्या इसे ‘दयनीय महानता की दिलचस्प दास्ताँ’ माना जाए, अथवा लेखक का सम्प्रयास किसी खास वर्ग-धर्म विशेष के लोगों के प्रति कलुषित दृष्टिकोण? “अपवादस्वरूप एक पात्र है, शेरअली खाँ, जो नेक, मजहबपरस्त और चरित्रवान है । यह कदाचित् इसलिए कि शेरअली ‘सन्तति’ के अन्तिम हिस्से में आता है । कदाचित् तब तक खत्री जी के दृष्टिकोण में परिवर्तन हो चुका था या उन्हें इस बात का पता चल गया था कि उनके पाठकों में मुसलमान भी हैं ।” (गोपालराय, 2009: 75)
किसी लम्बी लकीर को छोटी करने की दो पद्धतियाँ हो सकती हैं । एक तो उस लकीर को छोटी लकीर की अपेक्षा मिटाकर बहुत छोटी कर दो या फिर उसके बगल में और बड़ी लकीर खींच दो । अपने ऐतिहासिक उपन्यास लिखते हुए किशोरीलाल गोस्वामी ने दूसरी पद्धति अपनाने के फेर में पहली पद्धति अपनायी ली । गोस्वामी जी को हिन्दी में ऐतिहासिक उपन्यासों का आरंभकर्ता माना जाता है । उन्होंने अपने समय में प्रचलित नवजागरण की विचारधारा को न केवल गलत ढंग से ग्रहण किया, अपितु उसे कलुषित करके अपने उपन्यासों में प्रयुक्त भी किया । भारतीय सांस्कृतिक एवं राजनीतिक नवजागरण की चेतना अपने मूल में मानवीय एकता का उद्घोष करती है, किन्तु गोस्वामी जी ने उसके विपरित विषय-वस्तु का प्रतिपादन अपने उपन्यासों में किया है । तारा, सुलताना रजिया बेगम वा रंगमहल में हलाहल (1904-5) लखनऊ की कब्र वा शाही महलसरा (1906-18), चित्तौर चातकिनी आदि सभी ऐतिहासिक उपन्यासों में गोस्वामी जी ने ऐतिहासिक कथा-वस्तु के प्रस्तुतीकरण में मुस्लिम पात्रों का उपयोग किया, क्योंकि उनके लगभग सारे उपन्यास भारतीय इतिहास के मध्यकाल से संबंधित हैं ।
भारतीय इतिहास का तेरहवीं शताब्दी से अठरहवीं शताब्दी के उत्तरार्द्ध तक का मध्यकाल विभिन्न मुस्लिम घरानों एवं राजपुत परिवारों के शासन का काल है । ब्रिटिशों ने सामान्य तौर पर भारतीय हिन्दू-मुसलमानों में फूट डालने के लिए इस समय के इतिहास का जमकर साम्पदायीकरण किया, जिसका शिकार तत्कालीन निम-शिक्षित वर्ग हुआ । गोस्वामी जी की इतिहास दृष्टि और उपन्यासों में उसका रचनात्मक प्रयोग प्रायः इसी साम्प्रदायिक दृष्टिकोण से प्रेरित है । यह सही है कि राजा-नवाबों के मातहत इतिहासकार और दरबारी लेखक इतिहास का एक पक्ष सही नहीं लिखते हैं, जिन पर विश्वास नहीं किया जाना चाहिए । गोस्वामी जी इस कारण मध्यकालीन किसी भी इतिहास पर विश्वास नहीं कर सही करते हैं, किन्तु वे अंग्रेजों द्वारा प्रस्तुत इतिहास को पूरा सच मान लेने की भूल करते हैं । इसी कारण उन्होंने अपनी विषय-वस्तु को प्रस्तुत करते समय पूर्वाग्रहयुक्त दृष्टि अपनायी । उदाहरणार्थ ‘लवंगलता’ उपन्यास में उन्होंने सिराजुद्दौला को हिन्दुओं पर अत्याचारकरनेवाले एक व्याभिचारी शासक के रूप में प्रस्तुत किया है । सिराजुद्दौल के सम्बन्ध में इस धारणा को अंग्रेजी इतिहासकारों की फैलाया था और गोस्वामी जैसे तत्कालीन अधिकतर पढ़े लिखे लोग इसे सच मान बैठे थे । यह भी सच है कि “उन्होंने ऐतिहासिक घटनाओं की व्याख्या ‘हिन्दू-दृष्टिकोण’ से ही अधिक की है,जिसमें यहाँ-वहाँ मुसलमानों से बदला लेने की उनकी इच्छा और प्रवृत्ति को भी देखा जा सकता है । वे हिन्दुओं पर मुसलमानों के अत्याचारों से उद्वेलित होकर उन घटनाओं का वर्णन करते हैं । वे राजपुती शौर्य और स्त्री की गरिमा को मुसलमानों के अत्याचारों और नृशंसता के विरोध में भी खड़ा करते हैं ।” (मधुरेश, 2014:26-27)
इस दौर में बँग्ला से हिन्दी में अनूदित उपन्यासों की धूम मची हुई थी, जिनमें बंकिम के उपन्यास प्रमुख थे । बंकिम के राष्ट्रवाद में प्रायः यह बातें सम्मिलित थीं, जिन्हें गोस्वामी जी अपने स्तर पर ग्रहण कर उपन्यासों में अभिव्यक्त कर रहे थे । गोपालराय के अनुसार, “उनके इस मुस्लिम विरोधी दृष्टिकोण के निर्माण में बंकिमचन्द्र के ऐतिहासिक उपन्यासों की भूमिका को भी अस्वीकार नहीं किया जा सकता है ।” (गोपालराय, 2009: 27) इसका अर्थ यह है कि बाँग्ला नवजागरण की चेतना में जो अन्तर्विरोध थे, हिन्दी नवजागरण उसे भी स्वीकार कर रहा था । राष्ट्रवाद, धर्म, सम्प्रदाय, इतिहास आदि सम्बन्धी अवधारणाओं एवं चिन्तन के साथ बांग्ला नवजागरण की अन्य धार्मिक समुदायों एवं वर्गों को देखने सम्बन्धी दृष्टि भी इन अनुवादों के माध्यम से हिन्दी प्रदेश में प्रवेश कर रही थी । इसी दृष्टि का अत्याधिक प्रभाव गोस्वामी जी के उपन्यासों पर देखा जा सकता है । चूँकि हिन्दी में उपन्यास मनोरंजन के लिए पढ़ने का प्रचलन भी था, गोस्वामी जी ने इन्हीं लोकप्रिय माध्यमों का प्रयोग कर इतिहास को प्रस्तुत किया । उन्होंने अपने उपन्यासों में प्रयुक्त इतिहास में प्रेम कहानी, चटपटी-रसिले किस्से, चमत्कारिक कथाओं, तिलिस्मी अय्यारी प्रसंगों, विरह वर्णनों, ऋतु वर्णनों और कई बार अश्लील प्रसंगों का भी प्रयोग किया है । उन्होंने ‘सुलताना रजिया बेगम वा रंगमहल में हलाहल’रजिया की प्रशासनिक क्षमताओं और दूसरे गुणों के प्रति उदासीन बने रहकर वे उसके चरित्र एवं व्यक्तित्व से जुड़ी चटपटी और रोचक प्रेम कहानी को ही अपना मुख्य रचानात्मक सरोकार मानते दिखाई देते हैं ।
गोस्वामी जी की दृष्टि का सबसे बड़ा दोष था कि वे सामन्तवाद और राजा-रजवाड़ों को भी धर्म की दृष्टि से देखते हैं । उन्होंने इस मूलभूत बात को भी नहीं समझा था कि राजा या सामन्त धन को छोड़कर किसी का नहीं होता । धन से सामने उसकी पारिवारिक संवेदनाएँ तक कुंद हो जाती हैं, फिर धर्म की क्या बिसात ? ऐसे में हिन्दू सामन्त या राजा या मुस्लिम नवाब या राजा में फर्क करना बेईमानी है । हिन्दू गौरव का बखान कहिए या बांग्ला से अनूदित उपन्यासों का वैचारिक प्रभाव, उन्होंने अपने उपन्यासों में यह चित्रण किया है, जिसके अनुसार, अपनी पराजय की अवस्था में भी हिन्दू राजाओं का गौरव लुप्त नहीं हुआ था, नैतिक दृष्टि से वे मुसलमान राजाओं से अधिक सदृढ़ थे । यहाँ गोस्वामी जी नैतिकता से धर्म विशेष से जोड़कर देखते हैं । वे न केवल अंग्रेज इतिहासकारों की दृष्टि से प्रभावित हुए, अपितु उन्होंने उसे अतिरंजित रूप में प्रस्तुत किया, जिसकी परिणती बाद के उपन्यासकारों में भी देखी जा सकती है । बाद के शोधों से पता चला कि दाराशिकोह अपनी धार्मिक दृष्टि में अत्यन्त उदार था, जिसे गोस्वामी जी के समकालीन इतिहासकार भी मानते थे, किन्तु इसे गोस्वामी जी केवल इसलिए नहीं मानते हैं कि वह मुसलमान था । ‘तारा’ उपन्यास की कथानक इसी कथ्य के इर्द-गिर्द बुनी गई है, जिसका स्पष्टीकरण इस उपन्यास की भूमिका से हो जाता है । उनके प्रायः सभी ऐतिहासिक उपन्यासों में आनेवाले “मुसलमान राजाओं और नवाबों के महल, हरम और राजदरबार, भाँति-भाँति के षड्यंत्रों,विलासिता और उद्दाम काम-क्रीडाओं के आवास के अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं । भद्रता और नैतिकता से उनका कुछ लेना-देना ही जैसे नहीं है । दूतियों और कुटनियों के द्वारा भले ही घर की स्त्रियों को उड़ाना और फँसाना ही इन राजाओं और नवाबों का मुख्य काम है ।” (गोपालराय, 2009: 27) उनकी राष्ट्रीयता के अनुसार ब्रिटिश शासकों को मुसलमान शासकों से हर क्षेत्र में बेहतर बताया गया है । इतना ही नहीं, उन्होंने किस प्रकार का मुस्लिम शासक ब्रिटिश शासक से बेहतर हो सकता है, इसके लिए भी उन्होंने एक प्रतिकृति तैयार की थी, जिसे उनके रजिया बेगम उपन्यास में दिखाया गया है । उनके अनुसार वही मुस्लिम शासक ब्रिटिशों से भी बेहतर हो सकते हैं, जो ब्राह्मणों की प्रत्येक बात को राज-काज एवं निजी जीवन में अपनाए । ‘रजिया’ उपन्यास की रजिया की तारिफ करते वे इसलिए नहीं थकते क्योंकि वह स्वामी ब्रह्मानन्द की बात मानकर मन्दिर को गिराने से रोकती है, वह उन मुसलमानों को सजा देती है जो मन्दिर को गिरानकर हिन्दुओं की हत्या कर देना चाहिते थे । यहाँ यह सही होता कि दोनों धर्मों की साम्प्रदायिक दृष्टियों रचनाकार आलोचना करता, लेकिन कैसे, वह तो अपने आदर्शों से परिचालित था । मुसलमान मन्दिर की गोशाला से जो गाएँ खोल ले जाते हैं, जिन्हें रजिया वापिस लौटान का आदेश देती हैं । वह मन्दिरों और मूर्तियों के लिए दान-दक्षिणा देती है, कहने की आवश्यकता नहीं कि वह आदर्श क्यों है । अब ऐसी कठपुतली रजिया बेगम को ब्रिटिश शासन की तुलना में रजिया की शासन-न्याय व्यवस्था को श्रेष्ठ बताया जाए तो, किम् आश्चर्यम् ।
गोस्वामी जी के उपन्यासों की तद्युगीन प्रवृत्तियों से मेल कराने से पता चलता है कि वे हिन्दी से अधिक बांग्ला साहित्य के करीब पड़ते हैं, उसमें भी विशेष तौर पर बंकिम के । हिन्दी की जासूसी-अय्यारी और अधिकांश रीतिकालीन काव्य की प्रवृत्तियों का उन्होंने हिन्दी उपन्यास लेखन में प्रयोग किया । उन्होंने न केवल राजनीतिक इतिहास को तोड़ मरोड़कर प्रस्तुत किया, वरन् सामाजिक इतिहास की भी उन्होंने उतनी ही हानी की । उनके उपन्यासों में आनेवाले राजा, नवाबों, सामन्तों के अतिरिक्त सामाधारण जन-जीवन के पात्रों में धर्मानुसार पात्र व्यभिचारी, क्रूर, अत्याचारी, स्वार्थी, कपटी, ऐय्याश और नफ्शपरस्त रूप में चित्रित किए गये हैं । उनका बस इतना ही काम था, कि स्त्रियों-लड़कियों को फँसाना, इस कार्य के लिए कुटनियों और जासूसों को नियुक्त करना, भेद खुलने पर उनकी हत्या करा देना तथा अनेक उपायों से गर्भपात कराना, वे न किसान हैं और न मज़दूर । इसके बरअक्स उनके उपन्यासों में अधिकतर हिन्दू पात्र राजपूत कुल से सम्बन्ध हैं जो आदर्श प्रेमियों के रूप में प्रस्तुत किए गए हैं । वे जिसे प्यार में जान देते हैं । “वे परायी स्त्री को माँ बेटी की तरह मानते हैं । धर्म उन्हें प्राणों से अधिक प्रिय है । वीरता उनके चरित्र का अंग है । गोस्वामी जी ने कुछ देशद्रोही और स्वार्थी हिन्दू राजाओं का भी चित्रण किया है, पर उनकी संख्या कम है, और अऩ्त में ऐसे पात्रों को अपने दुष्कर्मों का कठोर दण्ड मिलता है ।” (गोपालराय, 2009: 84) इससे बढ़कर विचार किया जाए तो गोस्वामी के उपन्यासों में न घटनाओं में कार्य कारण सम्बन्ध और न विश्वसनीयता । चमत्कार प्रदर्शन की रीतिकालीन काव्य प्रवृत्तियों की तरह घटनाओं में चमत्कारिक कथाओं के अतिरिक्त शब्दजाल बिछाए गए हैं । ऐतिहासिक उपन्यासों में ऐयारी-तिलिस्म और अपराधप्रधान घटनाओं की भी योजना की है । ऐसे लेखक से ऐतिहासिकता की रक्षा और सामाजिक एकता की चिन्ता की अपेक्षा ही कैसे की जा सकती है,सबसे बढ़कर इन्हें उपन्यास ही क्योंकर माना जाए ?
किशोरीला गोस्वामी अपने समय के पाठकों को कितना प्रभावित कर पाए इसे जानने का शायद ही कोई प्रामाणिक साधन मिले, किन्तु अपने समय के कुछ रचनाकारों को वे अवश्य प्रभावित कर पाए, भले ही ऐसे रचनाकारों की न संख्या अधिक है और न ही हिन्दी उपन्यास साहित्य के इतिहास में बिसात । ऐसे रचनाकारों की किशोरीलाल गोस्वामी से इतर कोई पहचना भी नहीं बन पायी । इन्हें गोस्वामी स्कूल के के रचनाकार कहना अधिक तर्कसंगत होगा । ऐसे उपन्यासकारों में गंगा प्रसाद गुप्त ने गोस्वामी जी की राह पर चलते हुए कामव्यापार एवं अश्लील कुरुचिपूर्ण वर्णनों से अपने ऐतिहासिक उपन्यासों को सजाने का प्रयास किया । इन उपन्यासों में उन्होंने गोस्वामी जी की राह को महामार्ग बनाते हुए इतिहास की हत्या करने का प्रयास किया । मुसलमान पात्रों को इन्होंने उसी पद्धति पर क्रूर, कपटी, विश्वासघाती और दुराचारी रूप में प्रस्तुत किया, किन्तु अधिकांश हिन्दू पात्रों को चारित्रिक रूप में सज्जन, उज्ज्वल एवं गुणों की खान बनाकर प्रस्तुत किया । अपने ढेलाफेक लेखन शैली में उन्होंने दो वर्षों में छः सात उपन्यास लिख मारे, जिनमें मुसलमनों के सम्बन्ध में गोस्वामी छाप दृष्टि अपनायी गई है । गोस्वामी स्कूल के जयरामदास गुप्त और हरिचरण सिंह चौहान वही दृष्टि अपनायी,जिसके तहत धार्मिक सौहर्द के लिए प्रसिद्ध अकबर भी दुष्ट, काइयाँ और क्रूर था और औरंगजेब भी । जयरामदास गुप्त ने सात और हरिचरण सिंह चौहान ने चौदह उपन्यास लिखे,जिनमें मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रह साफ झलकते हैं ।
ऐसा नहीं है कि देवकीनन्दन खत्री, किशोरीलाल गोस्वामी और उनके स्कूल के रचनाकार मुसलमानों के प्रति ज़हर उगल रहे थे और तत्कालीन अन्य रचाकार आलोचक चुप थे । अन्याय के प्रति चुप रहना हिन्दी की प्रकृति में आरंभ से ही नहीं रहा है, इसका यह और एक प्रमाण है कि काशी प्रसाद जायसवाल आलोचना के स्तर पर और ब्रजनन्दन सहाय रचनात्मक स्तर पर इस प्रवृत्ति से लड़ रहे थे । ज्ञानचन्द्र जैन ने प्रेमचन्द पूर्व के हिन्दी उपन्यासों ‘हिन्दी प्रदीप’ के जनवरी, 1899 अंक में प्रकाशित काशी प्रसाद जायस्वाल के लेख ‘हिन्दी उपन्यास लेखकों को उलाहना’ का उद्धरण प्रस्तुत किया है, जो उस समय के हिन्दी उपन्यास की स्थिति को समझने मे सहायक हो सकता है । अपने लेख में का.प्र. ने इस बात पर विशेष जोर दिया है कि “दो चार को छोड़कर प्रायः सभी बंग भाष के अनुवादित उपन्यासों में एकप्रायिक या सामान्य दोष है और उसी दोष के लिए हमारा उलाहना है । वह महादोष यह है, मुस्लमानों के चरित्र का ऐसा चित्र खींचना कि जिस्से यह भाव होने लगे कि संसार के मनुष्य जाति भर में सबसे नीच, दुष्ट, मायाचारी, विश्वासघातक ये ही होते हैं । सभी अवगुण और पापों के मुस्लमान अवतार हैं । पृथ्वी तल पर किसी विशेष जाति व सम्प्रदाय के जनमात्र दुष्ट या पापी नहीं हो सकते । सभों में अच्छे और बुरे होते हैं । हिन्दू मुस्लमानों में मेल करना तो दूर रहा, इस प्रकार दिन दिन दोनों में परस्पर घृणा और द्वेष बढ़ाया जा रहा है । देश का अहित करनेवाले उपन्यासों में यों उपन्यास लेखकों का भी साझा है । लेख के अन्त में उपन्यास लेखकों से विनती की गयी थी, “हमारे देशहितैषी उपन्यास-लेखकों ! आपसे यह हाथ जोड़कर प्रार्थन है कि ऐसी चेष्टा कीजिए जिस्में हिन्दू-मुस्लमान दोनों दिल से मिल जाए । आपकी लेखनी में बड़ी शक्ति है ।” (गोपालराय, 2009: 80)
काशी प्रसाद जी ने अपनी बात नब्बे के दशक के उपन्यासों के सन्दर्भ में कही है । देवकीनन्दन खत्री, किशोरीलाल गोस्वामी आदि के उपन्यासों में मुसलमान पात्रों को दुष्ट, दग़ाबाज़, चरित्रहीन आदि रूपों में प्रस्तुत किया गया है । बँगला से हिन्दी में अनूदित उपन्यासों में तो आम तौर पर मुस्लिम पात्रों को इस रूप प्रस्तुत किया गया है, जिसका प्रभाव हिन्दी उपन्यास साहित्य पर पड़ रह था । ध्यान रहे कि यह हिन्दी पट्टी में राष्ट्रवाद के उदय का भी समय माना जाता है और नवजागरण का भी । काशी प्रसाद जी ने अपने समय की इस प्रवृत्ति का जोरदार खण्डन किया । वे न केवल समता के पक्षधर थे अपितु ब्रिटिशों की फूट डालो राज करो की योजना को भी निरस्त करने का प्रयास किया । काशी प्रसाद जायसवाल अपने युग में लिखित उपन्यासों में विशिष्ट वर्ग या धर्म के पात्रों के प्रति बर्ताव को लेकर मुखर विरोध दर्ज करा उपन्यासकारों के प्रति उलाहना भेज रह थे, उसी समय रचनात्मक क्षेत्र में भी ब्रजनन्दन सहाय गोस्वामी स्कूल से भिन्न दृष्टि लेकर सामने आए, जो एक रचनात्मक प्रत्युत्तर माना जा सकता है । इनके उपन्यास सही अर्थों में ऐतिहासिक उपन्यास कहे जा सकते हैं और इन्हें यदि हिन्दी का पहला ऐतिहासिक उपन्यासकार माना जाए तो गलत न होगा । कहा जाता है कि गुलेरी और गोस्वामी स्कूल के उपन्यासकारों ने नवजागरण की हिन्दू गौरव की चेतना और हिन्दू पाठकों को ध्यान में रखकर मुस्लिम पात्रों के प्रति पूर्वाग्रहयुक्त दृष्टि से चित्रण किया । यह धारणा गलत है कि हिन्दी नवजागरण में हिन्दू गौरव का अर्थ मुसलमानों से नफरत रहा है । वास्तव में एक खास वर्ग विशेष के दृष्टिकोण को सम्पूर्ण समाज की दृष्टि मान लेना गलता है । उसी समय में दूसरी दृष्टि मौजूद थी, जिसकी अभिव्यक्ति निस्सहाय हिन्दू के बाद ब्रजनन्दन सहाय जी के उपन्यासों में हो रही थी । सहाय जी की रचनात्मकता हिन्दू पाठकों की रूचि या हिन्दू गौरव के बलि नहीं गयी । उन्होंने हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यास को लेखन को रोमांस, जादूटोना, इश्क वर्णन, अश्लीलता, ऋतु वर्णन, चाटुकारिता आदि मध्यकालीन प्रवृत्तियों से निकालकर बाहर किया ही, किन्तु मुस्लिमों के प्रति पूर्वाग्रहयुक्त दृष्टि को न अपनाकर औपनिवेशिक शासन की कुटनीतियों को भी असफल कर दिया । सन् 1890 से 1895 के बीच ‘हिन्दी प्रदीप’ में प्रकाशित ‘सौ अजान एक सुजान’ हिन्दी का पहला चरित्रप्रधान उपन्यास से “जिसमें चरित्रचित्रण को कथा या उद्देश्य की तुलना में प्राथमिकता दी गई है ।” इसमें एक भी मुस्लिम पात्र नहीं है, क्योंकि यह “तत्कालीन वणिक समाज का जीवन्त दस्तावेज है ।” (गोपालराय, 2009: 107) इसी प्रकार सन 1893 में लिखित “भुवनेश्वर मिश्र द्वारा लिखित ‘घराऊ घटना’ (1893) “हिन्दी का पहला उपन्यास है जिसमें मध्य वर्ग के एक सामान्य गृहस्थ जीवन के दैनन्दिन जीवन का, उसके सूक्ष्म ब्यौरों के साथ, विश्वसनीय और रोचक चित्रण किया गया है । यह हिन्दी का पहला उपन्यास है जिसमे आँचलिकता का इतना गाढ़ा रंग है । हिन्दी का पहला रीति रिवाज का उपन्यास (नॉवल ऑफ मैनर्स) कहा जा सकता है ।” (गोपालराय, 2009: 108) स्पष्ट शब्दों में कहा जाए तो यह हिन्दी का पहला हिन्दू मध्यवर्ग के रीति रिवाज का उपन्यास है ।
प्रेमचन्द को हिन्दी का उपन्यास सम्राट कहा जाता है और यह बात उनके पूर्ववर्ती एवं समकालीन उपन्यास लेखन को ध्यान में रखते हुए शत-प्रतिशत सही भी है । जहाँ पूर्ववर्ती अधिकांश उपन्यासकारों ने या तो अपने पात्रों को अपने आदर्शों के पुतले बना दिया या फिर उनका की प्रकार के पूर्वाग्रहों से युक्त चित्रण किया । प्रेमचन्द और उग्र के उपन्यासों की विशेषता यह है कि उनके पात्र मनुष्य पहले हैं, हिन्दू, दलित, स्त्री-पुरुष या अन्य किसी कोटी में बाद में आते हैं । इस समय के अधिकांश हिन्दी के उपन्यासकार पहले उर्दू में लिखते थे और वे विभिन्न कारणों से हिन्दी में लेखन करने लगे । प्रेमचन्द के आरंभिक उर्दू उपन्यास ‘असरारे मआबिद उर्फ देवस्थान रहस्य’ के सभी पात्र हिन्दू समाज से संबद्ध है । इस उपन्यास में उन्होंने खुलकर हिन्दू समाज में प्रचलित कई रूढ़ियों, प्रथाओं और अंधश्रद्धाओं की खुलकर आलोचना की है । “उन्होंने इस उपन्यास में मुस्लिम समाज का स्पर्ष तक नहीं किया, कदाचित् उसका नजदीकी अनुभव न होने के कारण य कोई बखेड़ा पैदा न हो, इस शंका से ।” (गोपालराय, 2009: 127) वास्तविक अर्थों में प्रेमचन्द के उपन्यासों में हिन्दी नवजागरण की वास्तविक चेतना की अभिव्यक्ति हो रही थी, जिसमें मनुष्य-मनुष्य में जाति अथवा धर्म का भेद नहीं था । ‘कर्मभूमि’ में इस विचारधारा की चरम परिणति देखने को मिलती है । कर्मभूमि उपन्यास में मुख्य पात्रों के रूप में मुस्लिम पात्रों को लिया गया है, जिनमें बुढ़िया पठानिन, सकीना, सलीम और उसके पिता प्रमुख हैं । उपन्यास के नायक अमरनाथ और नायिका सुखदा के समान ही और कभी उनसे बढ़कर भी यह सभी पात्र आन्दोलनों में हिस्सा लेते हैं, सामाजिक न्याय के लिए लड़ते हैं, मनुष्य-मनुष्य में समानता का सपना देखते हैं, दलित अधिकारों के लिए बलिदान देने के लिए उद्यत होते हैं, औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध आवाज उठाते हैं । उपन्यास का नायक अमरनाथ सकीना से प्रेम करता है और विवाह भी करना चाहता है । यह सही है कि प्रेमचन्द के आदर्शवाद ने उनके उपन्यासों के अन्त को कुछ-कुछ अयथार्थ-सा बना दिया है, किन्तु इसे एक रचनाकार की फैन्टसी माना जा सकता है, फिर भी पूर्ववर्ती गोस्वामी आदि रचनाकारों की रचनाओं से तुलना की जाए तो, चरित्र चित्रण एवं उनकी स्वाभाविकता में प्रेमचन्द अद्वितीय हैं ।
प्रेमचन्द के समय को ध्यान में रखकर उनके मुस्लिम पात्रों के प्रति बर्ताव को ध्यान में रखा जाए तो उनका महत्व और अधिक बढ़ जाता है । उनका समय घोर साम्प्रदायिकता, औपनिवेशिक शासन के विरुद्ध कई प्रकार के संघर्षों समय था । दंगे होना या गोलियाँ चलना आम बात रही होगी । हमारे कई विभेदों और अंग्रेजी चालों के चलते सन 1920 के आस-पास भारत के कई भागों में दंगे शुरु हुए । प्रेमचन्द ने अपने उपन्यासों में इस उभरती हुई सभ्यता की जमकर समीक्षा कर इसके विरुद्ध प्रतिरोध दर्ज कराया । विशेष उल्लेखनीय बात यह है कि उन्होंने साम्प्रदायिकता का विरोध करते समय हिन्दू-मुसलमानों में से न किसी विशेष जाति-धर्म को न जिम्मेदार माना, न किसी एक की आलोचना की और न किसी एक का पक्ष लिया । “इसके साथ ही उनके उपन्यासों में ऐसे पात्र होते हैं जो हिन्दू और मुसलमान होने के पहले मनुष्य होते हैं और संघर्ष को रोकने के लिए अपने प्राणों की बाजी लगा देते हैं । ‘कायाकल्प’ का चक्रधर ऐसा ही पात्र है । कायाकल्प का दूसरा पात्र ख्वाजा महमूद अपने हिन्दू मित्र के बेटी के लिए अपने बेटे तक को माफ नहीं करता है ।” (गोपालराय, 2009:138)
प्रेमचन्द ने अपने तमाम कथा साहित्य में समाज के विरोधों-विरोधाभासों का चित्रण किया है । इसके लिए उन्होंने समाज के विभिन्न वर्गों के पात्रों और उनकी स्थितियों के चुनाव को माध्यम बनाया है । उनके इस वर्गीय स्थितियों के चुनाव में यह पात्र कई बार अपनी धार्मिक और जातीय पहचान कायम नहीं रख पाते हैं । यही कारण है कि उनके द्वारा ग्रामीण अथवा शहरी, किसी भी वातावरण या किसी भी वर्ग के पात्रों की अक्सर धार्मिक पहचान अधिक मायने नहीं रखती है । उनके द्वारा चित्रित पात्रों में किसान, जमींदार के कारिन्दे, छोटे मोटे कर्मचारी, अदालती अमले, उँचे अधिकारी, उद्योगपति, अफसर, अभिजात वर्ग के अफसर, मुल्ला-मौलवी आदि का धर्म उतने मायने नहीं रखता है, क्योंकि वे अपने धार्मिक चरित्र से अधिक वर्गीय चरित्र के अनुसार व्यवहार करते दिखाए गए हैं । इन्सान या उसका धर्म बूरा नहीं होता है, मनुष्य की परिस्थितियाँ एवं तद्जनित प्रवृत्तियाँ बुरी होती हैं, इस मान्यता के अनुसार प्रेमचन्द ने अपने पात्र गढ़े हैं । इसमें से ग्रामीण समुदाय में हिन्दू हो मुसलमान, दोनों में साम्प्रदायिक भावना से शून्य दिखलाना, कई बार मुस्लिम पात्रों का शराबी होना आदि कहीं भी नहीं खटकता । उन्होंने मुस्लिम पात्रों को न सहानुभूति दी है और न उन पर धर्म विशेष के होने के कारण पूर्वाग्रहों से युक्त दृष्टि से चित्रित किया है । मानवीय रचना-दृष्टि प्रेमचन्द की अभूतपूर्व विशेषता है ।
पाण्डेय बेचन शर्मा “उग्र’ प्रेमचन्द के समकालीनों में एक ऐसे लेखक के रूप में सामने आते हैं,जिन्होंने अपने समकालीन उपन्यासों में हिन्दू-मुस्लिम सम्बन्धों वाले कथानकों को चुना है तथा सीधे साम्प्रदायिकता की समस्या से टकराए हैं ।” (मिश्र, 2015:97) प्रेमचन्द और उग्र का समय ही ऐसा था, जब साम्प्रदायिक सौहार्द की अत्यन्त आवश्यकता थी, जिसे रचनात्मक स्तर पर पूरा करने का कार्य तत्कालीन अधिकांश रचनाकार कर रहे थे । साम्प्रदायिकता पर उग्र की दृष्टि प्रायः वही थी, जो प्रेमचन्द की थी, किन्तु उनका कथा एवं पात्रों को प्रति रवैया बिल्कुल भिन्न एवं खुला हुआ था । उग्र की अपनी उग्र शैली थी । ‘खुदाराम’ और ‘चन्द हसीनों के खुतूत’ में वे सीधे साम्प्रदायिकता की समस्या से भिड़ जाते हैं । किशोरीलाल गोस्वामी ने जिस दृष्टि से चुन-चुन कर मुस्लिम राजाओं-नवाबों को खल पात्रों के रूप में प्रस्तुत किया था, उसके विपरित, किन्तु बदले की भावना न रखते हुए ‘सरदार तुम्हारी आँखें’ में एक हिन्दू राजा को लम्पट एवं अय्याश दिखाया गया है । विशेष बात यह है कि ऐसा उन्होंने किसी धर्म के प्रति पूर्वाग्रह से युक्त दृष्टि से नहीं किया । उनके कथानक का समय ही ऐसा है, जहाँ उन्हें राजा को हिन्दू दिखाना ही पड़ा । यहाँ यदि वह मुस्लिम भी होता तो उसकी प्रवृत्तियों के अनुसार कथ्य में बहुत अधिक अन्तर नहीं पड़ता । ‘चन्द हसीनों के खुतूत’ उपन्यास का सबसे बड़ा पक्ष है एक हिन्दू युवक और मुस्लिम युवती की प्रेम कथा तथा उनकी त्रासदीय परिणति । यह त्रासदी उतनी गहरी इसलिए नहीं होती है, क्योंकि उग्र इसे प्रगतिशील मुस्लिम युवती की कहानी के रूप में प्रस्तुत करते हैं । उपन्यास की नायिका नर्गिस अपने युग से कहीं आगे प्रगतिशील विचारों की प्रतिमूर्ति है । केवल धार्मिक नैतिकता से बढ़कर मानवीय मूल्यों में उसकी गहरी आस्था है । उसका परम्परा, धार्मिक पाखण्ड और सार्वजनिक जीवन के प्रति रवैया उसे सज्जाद जहीर द्वारा लगभग इसी समय में सम्पादित कहानी संग्रह ‘अंगारे’ की कहानियों की मुस्लिम स्त्री पात्रों के करीब ला देता है । सन 1932 में सज्जाद जहीर द्वारा सम्पादित ‘अंगारे’ कहानी-संग्रह भारतीय गद्य साहित्य में मील का पत्थर साबित हुआ । इसमें सज्जाद जहीर (1905-73) की पाँच, अहमद अली (1910) की दो, रशीद जहाँ (1905-1952) की एक, महमूदुज़्ज़फ़र को एक और रशीदजहाँ का एक नाटक संग्रहित थे । इस संग्रह के प्रकाशन से उर्दू जगत् में जबरदस्त हंगामा खड़ा हो गया और मुल्लाओं तथा कट्टरपंथी मुस्लिमों ने इसके खिलाफ ऐसा आन्दोलन छेड़ा कि 1934 में सरकार को इसे प्रतिबंधित कर देना पड़ा । इन कहानियों में मुस्लिम समाज के अन्तर्विरोधों, सामाजिक विषमता, स्त्रियों की स्थिति आदि का ऐसा चित्रण प्रस्तुत किया गया था कि कट्टरपंथी की बर्दाश्त से बाहर था । इस समय उर्दू तथा अन्य भारतीय भाषाओं में मुस्लिमों द्वारा किए गए प्रगतिशील लेखन के कारण उग्र आदि रचनाकारों में भी मुस्लिम समाज के अन्तर्विरोधों-अंधश्रद्धाओं का आदि का चित्रण करने का साहस निर्माण हुआ । प्रेमचन्द ‘देवस्थान रहस्य’ में इससे बचकर निकलने का प्रयास करते हैं, वहीं कुछ ही समय बाद उग्र नर्गिस जैसा पात्र खड़ा करते हैं । नर्गिस न केवल साम्प्रदायिकता के विरोध में खड़ी होती है, बल्कि जीवन के प्रत्येक क्षेत्र में प्रगतिशील विचारों को अपनाने का प्रयास करती है ।
इस दृष्टि से उग्र का ‘सरदार तुम्हारी आँखें’ उपन्यास कम चर्चित होने के बावजूद अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है । इसके द्वारा औपनिवेशिक शासन की दंगों की गंदी राजनीति को दो टूक शैली में उजागर किया है । राजनीति, कला और अय्याश राजा के माध्यम से उग्र ने तत्कालीन समाज में फैली साम्प्रदायिकता को चुनौती देने का कार्य किया है । जहाँ पूर्ववर्ती अधिकांश उपन्यासों में अय्याश और लम्पट राजाओं को रूप में मुसलमानों को प्रस्तुत किया गया है, वहीं इस उपन्यास में धर्मपुर का राजा हिन्दू है । वैसे उसके धर्म विशेष का होने से कोई फर्क नहीं पड़ता, क्योंकि उग्र ने यहाँ भी भिन्न दृष्टि अपनाते हुए उसकी चारित्रिक कमजोरियों का कारण उसका धर्म नहीं माना । इसी प्रकार दंगा करवाने की कोशिश करनेवाला मुसलमान पात्र भी अपने धर्म के कारण ऐसा नहीं करता, बल्कि प्रवृत्तियों के कारण करता है । यही वजह है कि उग्र अपने पूर्ववर्ती ही नहीं, समकालीन उपन्यासकारों में विशिष्ट थे । “साम्प्रदायिकता की विषय वस्तु को लेकर इधर ढ़ेरों कहानियाँ और उपन्यास लिखे गए हैं; किन्तु उग्र ने जिस समय ‘खुदाराम’ तथा ‘चन्द हसीनों के खुतूत’ की रचना की थी, उस समय के लिए क्या साम्प्रदायिकता विरोधी आज के तमाम लेखन के लिए उग्र की ये दोनों रचनाएँ मिसाल हैं; और मिसाल है उग्र की प्रशस्त मानवीय संवेदना, उनकी नितान्त धर्म-निरपेक्ष मानसिकता, जिसके लिए इन्सान ही सबसे प्रमुख है - हिन्दू-मुसलमान नहीं ।” (मिश्र, 2015:66) उग्र ने अपनी रचनात्मकता के माध्यम से न केवल साम्प्रदायिकता का विरोध किया, बल्कि हिन्दी उपन्यास लेखन में परिव्याप्त इस पूर्वाग्रह को दूर करने का भी प्रयास किया कि किसी धर्म विशेष के कारण व्यक्ति के चरित्र में गिरावट आती है । उन्होंने हिन्दू-मुस्लिम की उस भेद नीति का विरोध किया जिसके तहत लम्पटों, दंगाइयों, अय्याशों, खल पात्रों का धर्म विशेष से सम्बन्ध होता है । उन्होंने यह बताया है कि लम्पटों का कोई धर्म, कोई दीन और कोई ईमान नहीं होता ।
इसी समय लिख रहे उपन्यासकार परिपूर्णानन्द वर्मानेसन 1932 प्रकाशित उपन्यास ‘मेरी आह’ में हिन्दू-मुस्लिम दंगे को विषय बनाकर साम्प्रदायिकता का तटस्थ चित्रण किया है । जयशंकर प्रसाद ने ‘कंकाल’ में हिन्दू धर्म के अतिरिक्त मुस्लिम और इसाई समाज में भी धार्मिक व्याभिचार की व्याप्ति को अंकित किया है । प्रसाद का ‘तितली’ अपने युग से पीछे की भारतेन्दुयुगीन मानसिकता की रचना है, जिसमें किशोरीलाल गोस्वामी के विचारों की झलक मिलती है । गोस्वामी जी से इसका मात्र इतना अन्तर है कि अपने नाटकों में प्रायः इतिहास की गर्त में जानेवाले प्रसाद ने इस उपन्यास में अपने समय की कथा को चुना है । दृष्टि, आदर्शवाद, भारतीय मूल्यों के नाम पर हिन्दू गौरव गाथा, पात्रों को प्रति रवैया, कथा में भटकाल आदि में यह गोस्वामी स्कूल का ही उपन्यास कहा जा सकता है । उपन्यास में अपने मूल्यों की स्थापना एवं गौरव-गान की लक्ष्य प्राप्ति के लिए मुस्लिम एवं इसाई समाज की स्त्री पात्र को व्याभिचारिणी और कलही चित्रित किया गया है । अपने द्वारा आरोपित मूल्यों की स्थापना के लिए उन्होंने नाहक इन पात्रों की बलि चढ़ा दी । अत्यन्त दुःख के साथ कहना पड़ता है कि प्रसाद अपने इन दोनों उपन्यासों से हिन्दी उपन्यास के विकास में शायद ही कुछ जोड़ पाए ।
वृन्दावन लाल वर्मा ने अपने उपन्यासों में ऐतिहासिक कथा-वस्तु का चयन किया है, किन्तु किसी भी कीमत पर वे इतिहास को विकृत कर प्रस्तुत नहीं करते और न ही मुस्लिम पात्रों के प्रति पूर्वाग्रह युक्त दृष्टि अपनाते हैं । इतिहास और किसी धर्म विशेष के प्रति पूर्वग्रहमुक्त दृष्टि अपनाना अत्यन्त कठिन कार्य है, किन्तु इस असाध्य को साधने का प्रयास वृन्दावन लाल वर्मा ने रचनात्मक स्तर पर किया है । एक ओर वे स्वाधीनता आन्दोलन में मुसलमानों की निर्णायक भूमिका को स्वीकार करते हैं तो दूसरी ओर मध्यकालीन इतिहास में उनके उनमें से कुछ द्वारा किये गए धार्मिक कट्टरता के कार्यों को भी रेखांकित करते हैं । उनकी विशेषता यह है कि वे कुछ लोगों के कार्यों का सम्पूर्ण समाज या धर्म विशेष के लोगों पर साधारणीकरण नहीं करते हैं । एक तरफ वे मुस्लिम शासकों के हिन्दू विरोधी अभियानों को प्रस्तुत करते हैं तो दूसरी तरफ मुस्लिम समाज से ही अधिकांश ऐसे पात्रों को प्रस्तुत करते हैं, जो धार्मिक सौहार्द की प्रतिमूर्ति बनते हैं । यह पात्र अधिकांशतः काल्पनिक होते हैं, जिसके माध्यम से रचनाकार अपनी रचनात्मक जिम्मेदारी निभाहता है । ‘गढ़ कुण्डार’ में मुसलमानों के धार्मिक कट्टरता का खुलकर वर्णन किया गया है ।‘मृगनयनी’ (1950) और ‘विराट की पद्मिनी’ (1936) में सिकंदर लोदी और अली मर्दान मन्दिरों और मूर्तियों को ध्वंस करने का वर्णन है । इन्हीं उपन्यासों का दूसरा पक्ष यह है कि ‘मृगनयनी’ उपन्यास का महमूद घर्रा दादा अहमदशाह, गुजरात का प्रथम सुल्तान न्यायप्रिय है । हत्या का अपराध सिद्ध होने पर अपने दामाद को भी मृत्युदण्ड देता है, लेकिन दूसरी ओर वह धार्मिक कट्टरता की नीति भी अपनाता है । रचनाकार ग्यासुद्दीन और धर्रा की धार्मिक कट्टरता की आलोचना करना नहीं भूलता और दूसरी ओर मानसिंह अपनी लड़ाई सुल्तानों से मानता है, मुसलमान प्रजा से नहीं । ‘झाँसी की रानी’ (1946) उपन्यास के हिन्दू-मुसलमान दोनों पात्रों में रानी के प्रति निष्ठा में कोई किसी से कम नहीं हैं । तोपची गुलाम गौस खाँ, खुदाबख़्श और मोती बाई के अतिरिक्त अनेक पठान सिपाही हैं, जो समान भाव से रानी के लिए लड़ते हैं । “वृन्दावन लाल वर्मा जी इतिहास की कीमत पर जातीय सौहार्द के पक्षधर लेखक नहीं हैं । धर्म उनके यहाँ कैसे भी बाह्य कर्मकाण्ड से अधिक आन्तरिक आस्था और जातीय स्वाभिमान का ही एक अंग है । वृन्दावन लाल वर्मा हिन्दुओं के धर्म परिवर्तन में यदि मुस्लिम सुल्तानों की मजहबी कट्टरता का उल्लेख करते हैं तो वहीं वे हिन्दू समाज की संकिर्णता और जातिवाद से पैदा हुई विकृतियों के प्रति भी उदासीन नहीं हैं । वर्मा के उपन्यास इस जातिवाद के दुष्परिणामों को विस्तारपूर्वक ढंग से इतिहास में इसकी निषेधात्मक भूमिका का उल्लेख करते हैं ।” (मधुरेश, 2014:162)
इस प्रकार अपने समय के साथ तो कभी वैचारिक स्तर पर समय से पीछे रहते हुए भी हिन्दी उपन्यास ने अपना विकास किया है । इसमें अंग्रेजी - बांग्ला का प्रभाव कई बार सकारात्मक रहा, किन्तु हमारी दृष्टि से मुस्लिम जीवन के चित्रण को लेकर बांग्ला का प्रभाव नकारात्मक ही अधिक रहा, विशेष तौर पर बंकिम का । बंकिम का राष्ट्रवाद अन्ततः हिन्दू राष्ट्रवाद की गोद में जा बैठता है, जिसका परिणाम किशोरी लाल गोस्वामी और उन जैसे उपन्यासकारों की दृष्टि है । प्रसाद का उपन्यास लेखन भी अपने समय से बहुत पीछे की भारतीय नैतिकता, जिसे हिन्दू मध्यवर्गीय बनिया नैतिकता कहा जाना चाहिए, को स्थापित करने के लिए अन्य वर्ग-धर्म-जाति के पात्रों को केवल नीचा-चरित्रहीन, दुष्ट और कट्टरतावादी दिखाता है । सारा विदेशी बूरा, नीतिहीन होता है और सारा का सारा भारतीय हिन्दू मध्यवर्गीय अच्छा ही होता है, इस देवकीनन्दन खत्री किशोरी लाल गोस्वामी, प्रसाद की दृष्टि प्रेमचन्द, पाण्डेय बेचन शर्मा ‘उग्र’ वृन्दावन लाल वर्मा आदि उपन्यासकारों ने ठुकराकर आलोचनात्मक दृष्टिकोण से सम्पूर्ण सभ्यता की समीक्षा करनी की । सबसे पहले उन्होंने साम्प्रदायिक-धार्मिक दृष्टिकोण से पात्रों एवं घटनाओं के देखने के पूर्वाग्रह का त्याग किया । कट्टरता, साम्प्रदायिकता, नीचता, मूल्यहीनता किसी धर्म विशेष से ही जोड़ने की पूर्ववर्ती प्रवृत्ति को उन्होंने सीरे से नकार दिया । इस तरह उपन्यास साहित्य का विकास रूप को स्वीकर कर उसे परिमार्जित करने तक ही नहीं, भारतीय समरसतावादी मूल्यों में उसे ढ़ालने से शुरु होता है ।
संदर्भ-