Included in the UGC-CARE list (Group B Sr. No 172)
हिंदी उपन्यासों में आदिवासी : समाज और संघर्ष

कुछ वर्षों से हिन्दी साहित्य में आदिवासी साहित्य की चर्चा हो रही है । प्राचीन काल से आदिवासी समुदाय समाज की मुख्य धारा से कट कर अपना जीवन यापन कर रहा है । आजादी के 65 साल बाद भी उनकी स्थिति जैसी थी वैसी ही है । आज भी वे मूलभूत सुविधाओं एवं अधिकारो से वंचित है । उसे हाशिये पर जीवन जीना पड़ रहा है । औद्योगीकरण को बढ़ावा देने के लिए आदिवासी लोगों की बलि दी जा रही है । आदिवासी समुदाय के सामने विस्थापन की समस्या अंग्रेजों के काल से चली आई है । ब्रिटिश शासन के दौरान उन्हें अपने सुविधा को बढ़ाने हेतु रेलवे लाईन बिछाने के नाम पर उजाडा गया तो आज वैश्वीकरण के नाम पर उनके जंगल छीने जा रहे हैं, और उनकी भूमि बहुराष्ट्रीय कम्पनियों को बेंची जा रही है । जंगल जो कि उनकी आजीविका के लिए उन्हें मूलभूत साधन के रूप में रोटी, कपड़ा और मकान उपलब्ध कराते है उन्हें नष्ट किया जा रहा है । जंगलो से उनका पलायन हो रहा है । नक्सलवाद कहकर सरेआम उन पर जुल्म ढाये जा रहे है । इस अत्याचार, जुल्म और अन्याय के कारण की पुष्टि करते हूए रामशरण जोशी अपने किताब ‘यादों का लाल गलियारा दंतेवाडा’ में कहते हैं कि – “आधुनिक व्यवस्था का जन्म ही हस्तक्षेप, प्रभुत्व, विस्तार और आधिपत्य से हुआ है । उपभोग, आकांक्षा, महत्त्वाकांक्षा और प्रतिस्पर्धा इसकी सारथी-प्रवृत्तिया हैं । ये प्रवृत्तियाँ किसी सरंचना की निरपेक्षता व तटस्थता को कैसे बर्दाश्त कर सकती हैं? वास्तव में एक संपुष्ट, समृद्ध और स्वतंत्र संरचना हस्तक्षेपवादी व विस्तारवादी व्यवस्था को अपनी ओर आकृष्ट करेगी ही । यह आकर्षण ही आत्मनिर्भर संरचनाओं के पतन का कारण बनता है, और आततायी व्यवस्था इनके जन को हाशिए पर ही रखती हैं । हाशिए के जन का अपराध केवल यही रहा है कि प्रकृति ने उन्हें सोना, चांदी, लोहा, बाँक्साइट, मैंगनीज़, तांबा, एल्यूमिनियम, कोयला, तेल, हीरे-जवाहरात, अनंत जल-जंगल-ज़मीन का स्वाभाविक स्वामी बना दिया ; समता, स्वतंत्रता, आत्मनिर्भरता और न्यायपूर्ण जीवन की संरचना से समृद्ध किया । इसलिए इस जन ने उसका प्रतिरोध भी ज़रूर किया । इस आत्म-रक्षात्मक प्रतिरोध का मुल्य इस जन को अपने असंख्य व अवर्णनीय दैहिक बलिदान, विस्थापन, पलायन, परतंत्रता, शोषण और उत्पीड़न के रूप में अदा करना पड़ा ।”[1] लेकिन आदिवासियों की समस्याएं और उनके संघर्षों का कोई अंत नहीं हैं आज भी आदिवासी समाज अपने अस्तित्व और अस्मिता को संकट से दूर करने के लिए लड़ रहा है । वह चाहे शस्त्र से लड़ना हो या कलम से लड़ना ये अलग-अलग हो सकता है पर लक्ष्य तो एक ही है क्योंकि अपने निजी रोटी, कपड़ा एवं मकान (जंल, जगंल और जमीन) को बचाने के लिए संघर्ष करना जरूरी है । किसी भी समाज की सभ्यता और संस्कृति का परिचय उसके साहित्य से मिलता है । उसी तरह आदिवासी समुदाय की सामूहिक चेतना, उनकी आशा-निराशा, हर्ष-विषाद् और संघर्ष की अभिव्यक्ति का चित्रण उनके साहित्य में मिलता है ।

हिन्दी में उपन्यास की शुरूआत 18 वीं सदी से मानी जाती है लेकिन हिन्दी साहित्य में आदिवासी उपन्यास लेखन आज़ादी से पहले ही आरंभ माना जाता है । हिन्दी में आदिवासी जीवन पर लिखे गये उपन्यासों में पहला उपन्यास है ‘वन विहंगनी’ । 1909 में ‘रामचीज सिंह’ ने इस उपन्यास को संथाल परगना के कोल आदिवासी युवतियों के जीवन संघर्ष को केन्द्र में रख कर लिखा है । लेकिन केदार प्रसाद मीणा अपनी किताब ‘आदिवासी समाज साहित्य और राजनीति’ में कहते है कि – “पहला आदिवासी उपन्यास 1909 में लिखे गये ‘रामचीज सिंह’ के ‘वन विंहगिनी’ को माना जाता है । यह संथाल परगना के आदिवासी जीवन के बारे में लिखा गया है । लेकिन इससे कोई परम्परा नहीं बनती है । सन् 1938 में बांग्ला में लिखे गये ‘विभूति भूषण बन्धोपाध्याय’ के उपन्यास ‘आरण्यक’ को पहला महत्वपूर्ण आदिवासी उपन्यास माना जा सकता है । यह उपन्यास झारखंड के आदिवासियों के बारे में ही लिखा गया है । रामदीन पांडे का ‘चलता पिटारा’ 1938 हिन्दी का पहला महत्वपूर्ण आदिवासी उपन्यास माना जाता है । यह उपन्यास झारखंड के उराँव आदिवासियों पर केन्द्रित है ।”[2]

वर्तमान में उपरोक्त उपन्यासों के साथ-साथ हिन्दी साहित्य में आदिवासियों के विषय को लेकर बहुत उपन्यास और रचनाएँ लिखित रूप में प्राप्त हो रही हैं । इन आदिवासी उपन्यासों के माध्यम से उपन्यासकार अपने उपन्यासों में आदिवासियों की मूल भावना को और देश के दूर-दराज के अंचलों में रहनेवाले आदिवासियों के जीवन एवं सामाजिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, राजनीतिक जीवन का चित्रण करने के साथ-साथ उनकी समस्याएँ, शोषण, अभाव, गरीबी, पिछड़ापन अशिक्षा आदि को उजागर करने का प्रयास कर रहा है । आदिवासी एक पंरपरा, प्राचीन मूल्य और आत्मनिर्भरता का ही दूसरा नाम रहा है । ऐसे प्राचीन समुदाय का संकटग्रस्त होना देश की संस्कृति के लिए भी संकट पूर्ण स्थिति खड़ी करता है । ऐसे समुदाय के बारे में जिसकी भाषा, अस्तित्व और अस्मिता खत्म होने के कगार पर है उसे बचाने के साथ-साथ उनकी परंपराओं को संरक्षित करने के लिए महत्वपूर्ण कदम उठाने चाहिए और साथ ही साथ यह भी प्रयास होना चाहिए कि उन पर किसी भी प्रकार का संकट न आने पाये ।

साहित्य देश, समाज और समाज के कल को मद्दे नजर रखकर रचा जाता है । साहित्य भले ही वर्तमान पर केन्द्रित होता है फिर भी भविष्य की चिंता निहित होती है । चाहे किसी भी दौर का साहित्य क्यों न हो उसमें अपने समय की धड़कन महसूस की जा सकती है । साहित्य के माध्यम से हम हमारे समाज को बेहतर तरीके से समझ सकते हैं । अगर आदिवासियों का जीवन और उनके संघर्ष के बारे में जानना है तो कुछ महत्वपूर्ण उपन्यासों को भी जानना जरूरी है । इन उपन्यासों में ‘गगन घटा घहरानी’, ‘काला पादरी’, ‘पठार पर कोहरा’, ‘अल्मा कबूतरी’, ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’, ‘ग्लोबल गांव के देवता’,’जहाँ बाँस फूलते है’ और ‘पार’ आदि हैं ।

मनमोहन पाठक द्वारा लिखित ‘गगन घटा घहरानी’ 1991 में लिखित आदिवासी उपन्यास है । इस उपन्यास के केन्द्र में झारखंड के पलामू क्षेत्र के उराँव आदिवासी समुदाय बंधुवा मजदूरी की समस्याओं का चित्रण किया गया है । इस उपन्यास के लेखक मनमोहन पाठक भूमिका में लिखते हैं – “मेरे इस उपन्यास की प्रेरणाभूमि पलामू और उसके आसपास के वे तमाम क्षेत्र हैं जहाँ एक लम्बे समय से आज़ादी की लड़ाई चल रही है । इस लड़ाई का इतिहास मुगलकाल से आरंभ होकर ब्रिटिश गुलामी को पार करता हुआ भारत की 45 साल की स्वतंत्रता तक खिंचा चला आया है।”[3] इसी उपन्यास के बारे में केदार मीणा अपने किताब आदिवासी : समाज, साहित्य और राजनीति में कहते है कि – “अपनी कुछ सीमाओं और भटकाओं के बाबजूद यह एक जरूरी उपन्यास माना गया है । यह आदिवासी समाज के खुछ अन्दर तक जाता है । आजादी के लगभग 45 वर्षों के बाद भी झारखंड के पलामू क्षेत्र में गरीब आदिवासी, जमींदारों की गढ़ियों पर बँधुवा मजदूर है । सामंतवादी व्यवस्था लोकतन्त्र का रस पीकर यहाँ फल-फूल रही है। उपन्यास में उराँवों के लोकजीवन का, उनकी संस्कृति का आदर्शीकरण कतई नहीं है। इसमें उराँव आदिवासियों का ऐसा यथार्थ है, जिसकी कल्पना शहरों में बैठे आदिवासी मामलों के चिन्तक नहीं कर सकते हैं। इसमें ‘घोटूल’ या ‘धुमकुरिया’ का नाच-गान नहीं जमींदार और उनके कारिन्दों द्वारा बलात् मसली गयी आदिवासी स्त्रियों की कराहे है, उरांवों की पीटी गयी पीठे हैं ।”[4]

‘काला पादरी’ (2005) उराँव आदिवासी समुदायों के धर्म परिवर्तन की समस्याओं पर तेजिंदर द्वारा लिखित आदिवासी उपन्यास है । इसके के केन्द्र में मध्य प्रदेश के जिला सरगुजा क्षेत्र के उराँव आदिवासी समूह के धर्म परिवर्तन से उपजी स्थितियों का चित्रण किया गया है । इसके प्रमुख पात्र आदित्य और जेम्स है । जेम्स एक आदिवासी रहकर भी इसाई धर्म अपनाता है । उपन्यास में आदिवासियों के धर्मांतरण संबधी प्रशनों को उठाया गया है । इसाई धर्म प्रचारक भारत में वर्षों से आदिवासियों का धर्मांतरण करने के प्रयास में सफल रहे हैं । इसकी वजह क्या है? धर्म किस तरह अस्मिताओं पर हमला करता है? कैसे अस्मिताएं खत्म करता है? आदिवासी लोग क्यों इसाई या दूसरा धर्म अपनाते है । इनके पीछे क्या वजह हो सकती है? आदि प्रश्नो का उत्तर इस उपन्यास में दिखाई देता है । जैसे सरगुजा के एक गांव बीजकुरा में एक आदिवासी परिवार भुखे रहने के कारण मर जाते है । तब जेम्स काला पादरी आदित्य नाम के व्यक्ति से कहता है कि “सुनो, बिरई लकड़ा का परिवार अगर कन्वर्ट होता तो इस तरह भूख से नहीं मरता।”[5] इससे पता चलता है की भारत में ईसाई मिशनरी गरीबी-भुखमरी का फायदा उठाकर आदिवासियों का धर्म परिवर्तन कराती है । कथन के परिप्रेक्ष्य में देखे तो इसका अर्थ यह हुआ कि अगर ईसाई धर्म को उस आदिवासी परिवार ने अपना लिया होता तो इसाई धर्म के अनुयायी होने की वजह से ईसाई मिशनरी उसे अनाज देती और परिवार भूख से नहीं मरता । ऐसी परिस्थिति में यदि कोई धर्म अपनाता है तो वह स्वैच्छिक परिवर्तन न होकर एक मजबूरी होती है ।

इसी सन्दर्भ में राकेश कुमार सिंह द्वारा लिखित ‘पठार पर कोहरा’ (२००३) उपन्यास, भारत, वृहत्तर एशिया एवं अफ्रीका में जहाँ उपनिवेशी ताकतों का कई युगों तक बोलबाला रहा, उन ताकतों द्वारा आदिवासियों पर किये गए शोषण को मार्मिक ढंग से प्रस्तुत किया है । झारखंड के पलामू जिले के मुंडा आदिवासियों के उपर ब्रिटिश काल से होने वाले अग्रेंजों, महाजनों, जमीदारों और ठेकेदारों द्वारा हुए शोषण को वह अफ्रीका और वेस्टइंडीज के आदिवासियों से व्यापक तुलना करते हुए लिखते हैं कि - “सोलहवी सदी से अठारवीं सदी तक का इतिहास साम्राज्यवादी शक्तियों द्वारा एशिया, अफ्रीका, वेस्टइंडीज आदि को सभ्य शिक्षित एवं आधुनिक बनाने की आड़ में भूखड़ों को हड़पने का इतिहास है ।”[6] क्योंकि आजादी के बाद भी भारत के आदिवासी पहले की तरह ही आज भी शोषण के शिकार हैं । जैसे प्राचीन काल से साम्राज्यवादी ताकतों के लोगों के साथ-साथ आज के महाजन, जमीदार और ठेकेदार तक आदिवासियों के उपर अन्याय करते हुए आ रहे है । इसी संबध में सुरेश कुमार लिखते है कि - “औपनिवेशिक युग में आदिवासियों के मूल अधिकारों के हनन व उनके संसासधनों का निर्बाध दोहन, सभी जानते हैं ....खेद की बात है कि स्वतन्त्रता प्राप्ति के बाद भी अनेक सकारत्मक कार्यक्रमों के बावजुद आदिवासियों का शोषण व उनके संसाधनों का दोहन निर्बाध गति से जारी है और आदिवासी अभी भी सबसे संघर्षरत समुदाय हैं ।”[7] इस उपन्यास में देख सकते है कि आदिवासी गगन बिहारी साहू जैसे महाजनों और बेचू तिवारी जैसे ठेकेदारों के शोषण के शिकार है, सिर्फ जल, जंगल और जमीन के ही शोषण नहीं उनके मन-मस्तिष्क के उपर अपना हक बनाकर बैठे है । जब संजीव मास्टर आदिवासी लोगों को पढ़ाता है तब एक दिन ठेकेदार तिवारी मास्टर से कहता है – “इन्हे साँप-गोजर की शिक्षा ही दीजिए। अक्षर ज्ञान थोड़ा कम ही रहे तो उत्तम । अधिक ज्ञान देंगे तो अतिसार हो जायेगा । एक तो ये ससुर स्वंय ही भालू ठहरे, दूसरे हाथ कुदाल।”[8] शोषक जानते है जब तक यह लोग अक्षिशित है, तब तक अपना शोषण चक्र चल सकता है । जब यह शिक्षित हो जायेगें तो सब कुछ समाप्त । क्योंकि उदारीकरण, बाजारीकरण और उपभोक्तावाद अशिक्षा के अंधकार में लिपटे आदिवासी गांव में शिक्षा की किरणें ले जाने वाला शिक्षक, दिकुओं से लगभग पूरी रचना में जान हथेली पर रख कर ही संघर्ष कर पाते है । यह कडवा सच है कि आदिवासी आज भी शिक्षा से काफी दूर हैं । शिक्षा रूपी प्रकाश की किरणें जंगल के अंधेरे को भेद पाने में आज भी असफल हैं । अंधेरे से लड़ते सहरानों के लिए प्रकाश को अभी कितना लहूलुहान होना पड़ेगा? यह उपन्यास बड़ी खूबी के साथ इस सच को उजागर करने में सफल रहा है।

‘अल्मा कबूतरी’ (2004) यायावर कबूतरा आदिवासी जीवन को केंद्र में रखकर लिखा गया मैत्रेयी पुष्पा का सशक्त उपन्यास है । इस उपन्यास में मध्यप्रदेश के बुन्देलखण्ड के जंगलो में निवास करने वाली कबूतरा नामक आदिवासी जनजाति का चित्रण है जो अपना संबंध जौहर के लिए किंवदंती बन चुकी रानी पद्मिनी से जोड़ती है तथा पौराणिक युग तक छलांग लगाकर महादेव शिव के समाज में शामिल हो जाती है । यह जाति आज भी समाज के वृत्त पर डेरा डालकर जीती है । खूंटे उखाड़े और पुन:गाड़े जाते हैं किंतु वृत्त के भीतर नहीं परिधि की रेखा से सटे या उससे बाहर । इसी जनजाति की उपेक्षित, तिरस्कृत और अपमानित स्री की स्थिति का चित्रण इस उपन्यास में मिलता है । इसके साथ-साथ नट, कलंदर साँसी, कंजर, बंजारा, पारदी, मोघिया, सपेरा, बावरिया, भदारिया आदि अन्य जनजातियों की भाँति डेरों में अस्थायी रूप से जीवन जीने वाली कबूतरा जाति के जीवन संघर्ष, विडम्बनाओं का जीवंत चित्रण मैत्रेयी पुष्पा ने किया है । इस उपन्यास में तीन स्त्रियों, भूरी बाई, कदम बाई और अल्मा के माध्यम से इस जनजाति की स्त्रियों के संघर्षमय और तिरस्कृत जीवन का कच्चा चिट्ठा हमारे सामने आता है ।

भारत में आज भी कुछ ऐसी अभागी जनजातियाँ हैं जो आजादी का अर्थ नहीं जानती उनके पास न तो अपनी जमीन है और न ठिकाने का घर । औपनिवेशिक शासन ने उन्हें ‘जरायमपेशा’ जाति घोषित कर न केवल सभ्य समाज के नजरों में उपेक्षा और घृणा का पात्र ही नहीं बल्कि पुलिस अत्याचार का नरमचारा भी बना दिया । यद्यपि देश के आजाद होने के बाद इन जातियों को समान नागरिकता का अधिकार तो प्राप्त हो गया, पर जीविकोपार्जन का कोई सम्मानजनक साधन उपलब्ध नहीं होने के कारण इनके पुरूष अपराधीकरण और स्त्रियाँ देह व्यापर के लिए विवश होती हैं । इसी तरह कबूतरा आदिवासी लोगो का हाल है । जैसे इस उपन्यास में अल्मा कहती है कि “हम लोग न खेतों के मालिक न मजूर सो गोह खाते-खाते होंठ चिपचिपा गए हैं । देखें तो धरती मैया कैसी-कैसी चीजें देती है ? जमीन में हमारा हिस्सा नहीं।”[9] कबतूरा जनजाति की स्त्रियाँ अपने आपको बेचकर अपने बच्चों का पलान पोषण करती हैं और इनके पुरूष इन बच्चों की सलामती के लिए अपनी जान तक कुर्बान करने से पीछे नहीं हटते। वहीं समानातंर में स्त्रियों का एक ऐसा वर्ग भी है जो ऐशो आराम से जीता है जिन्हे लेखिका ने कज्जा का नाम दिया है । ये कज्जा वर्ग के पुरूष अपनी कामवासना पूर्ति के लिए कबूतरी स्त्रियों का इस्तेमाल करते हूए शोषण करते हैं और उन्हें मुहरे की तरह बाजी पर भी लगा देते हैं । इस तथ्य से स्पष्ट होता है की अपराधी कबूतरा जनजाति नहीं बल्कि अपराधी अपने को सभ्य कहने वाला असभ्य और बर्बर समाज है जो इन जनजातियों को अपराधी बने रहने पर विवश कर देता है, वे उठना चाहे तो न उठने दे, पढ़ना भी चाहे तो न पढ़ने दे । सभ्य समाज का कानून और पुलिस उन्हे अपराधी और असभ्य इसलिए बनाए रखना चाहती है ताकि उन्ही के रू-ब-रू वे अपने को सभ्य और सुसंस्कृत कर सके ।

इसके साथ ही लेखिका ने समानांतर सभ्य समाज से जिन्हें वे कज्जा कहकर पुकारती हैं, शोषकवर्ग के रूप में इनका चित्रण बड़ी ही सफलता से किया है । कज्जा और कबूतरा का द्वंद ही अल्मा कबूतरी का केन्द्रीय विषय है । इसके साथ-साथ इस उपन्यास में भूरी, बेटे रामसिंह और उसकी बेटी अल्मा की अपमान, संघर्ष और पीडा की कहानी है । सभ्य समाज से संघर्ष करने में अपना सबकुछ दाँव पर लगा देने के बावजूद लहूलूहान कबूतरा ही रहते हैं । इसका कारण यह है कि पूरी व्यवस्था ही अपनी पूरी शक्ति के साथ उनके विरोध में खड़ी हैं । भूरी कज्जा समाज से टक्कर लेती है शरीर का सौदा करके भी अपने बेटे को पढ़ा लिखाकर इस योग्य बनाना चाहती है, कि वह समाज में सम्मान की जिंदगी जी सके । इसी बारें में भूरी कदमाबाई कहती है कि “पतिविरता लुगाई अपने आदमी के संग सती होती है । मैं अपने मर्द की ब्याहता खुद को तब माँनूगी, जब रामसिंह को पढ़ा लिखाकर इसी कचहरी के दरवाजे पर खड़ा कर दूँगीं । भले इस सफर में मुझे दस मर्दों के नीचे से गुजरना पड़े ।”[10]

बिहार के चंपारण जिले के मिनी चंबल नाम से कलंकित क्षेत्र के आदिवासी थारू जाति और डाकुओं एवं राजनीतिज्ञों के आपसी लड़ाई के संघर्षमय जीवन को ‘जंगल जहाँ शुरू होता है’ ( 2000) उपन्यास में नवें दशक के बहुमुखी प्रतिभा संपन्न कथाकार ‘संजीव’ ने यथार्थ के साथ उकेरा है । उपन्यासकार ने बिहार के थारू जनजाति के संघर्षमय जीवन के साथ-साथ उनके दु:ख दारिद्रय, गरीबी एवं अशिक्षा का फायदा उठाने वाले राजनैतिक लोग एवं पुलिस अफ़सरो से जनजाति के लोगों पर होनेवाले अन्याय, अत्याचार, हिंसा शोषण आदि को वर्णित किया है । यह आदिवासी समुदाय बिहार और उत्तर प्रदेश के बीच में टुभेघ जंगल, पहाड़, मीलों तक फैले गन्ने के खेत और जो नारायणी नदी के तिलस्मी कगार पर एक बड़ा अभयारण्य है उस इलाके में रहने वाले थारू नाम का आदिवासी समुदाय है । इन आदिवासी लोगो को राजनैतिक लोग और पुलिस प्रशासन अपने काम निकालने के लिए इस्तेमाल करते है जब काम हो जाता है तब इन्ही लोगो को डाकु कहकर मार भी देते है । जैसे नेता लोग इन जनजाति के लोगों की सहायता लेकर चुनाव जीतते हैं। जीतने के बाद इन्ही लोगों को डाकू कहते हुए गिरफ्तार करने के लिए पुलिस अफ़सरो को भेज देते हैं । जब असल में कोई नक्सलवाद या आतंकवादी पुलिस के हाथो नहीं लगते है तब बिचारे गरीब जनजाति के लोगों को गांव में जाकर उनके स्त्रियों को और बच्चो की पिटाई करके उसी आदिवासी समुदाय के आदमियों को डाकू, नक्सलवादी कहते हूए गिरफ्तार कर के झूठे केस में फँसा देते हैं । और सरकार के तरफ़ से बख्शीश के तौर पर मेडल और पैसा पा लेते है । एक तरफ पुलिस और दूसरी तरफ़ डाकू इन दोनो तरफ़ से सिर्फ आदिवासी(थारू) समुदाय के लोग ही पिसते हैं । जैसे इस उपन्यास में – बिसराम बहू द्वारा डाकुओं को खाना बनाकर देने पर डी.एस.पी कुमार उसे पीटता है, तो वह कहती है – “हम का करें साहब, हमारा तो दुनों तरफ से मौत है न बना के देते तो ऊ लोग मारता, बनाके दिये तो आप लोग ।”[11] उपन्यास में थारू आदिवासी महिलाओं के उपर पुलिस अत्याचार और शोषण किस तरह किया जाता है यह दिखता है । जब किसी डाकू और नक्सली की तलाश में पुलिस आती है तो महिलाओं के उपर भी अत्याचार करती है । इसी तरह एक बार पुलिस अफ़सर हथियार की तलाशी करते समय मलारी नाम के महिला को पहले तो बहुत पीटता है और बाद अपने वासना का शिकार बनाता है । इसके साथ डाकुओं ने भी इन आदिवासी महिला के उपर अन्याय किया है । संजीव जी लिखते है – “प्रेम आकाश उसी तरह झोंटा पकड़े हुए उसे घसीटकर ले गया घर में । पुलिस के जवानों ने पहले ही सर्च के चलते घर को तहस-नहस कर रखा था । चारों ओर दरिद्रता का आलम था, कथरी,गुद्ड़ी, लूगे, सूप, चलनी, मकाई की छतराई बालें अरागी पर से गिरी फटी रजाई ।”[12] इससे स्पष्ट होता है की थारू जनजाति के उपर डाकुओं और पुलिस की तरफ़ से दोहरा अन्याय होता है । इसके साथ-साथ जमींदार और ठेकेदार लोगों के द्वारा भी इन थारू जनजाति के लोगों का शोषण किया जाता है । जैसे थारू मर्दों को जमींदारों और ठेकेदारों की बेगारी करनी पड़ती है तो नारियाँ, जमींदार, डाकु और पुलिस की वासना की शिकार बनती है । इससे पता चलता है कि सवर्ण, पुलिस, डाकू, जमींदार और नेता आदिवासियों का जानवरों की तरह शोषण करते हैं । आतंक, असुरक्षा एंव शोषण से बिहार के पश्चिमी चंपारण की थारू जनजाति त्रस्त है । इस तरह जब जोगी दलाल थारू नारियों का जानवरों की तरह व्यापार करता है तो शोषण से त्रस्त होकर कली नाम की महिला सोचती है – ‘क्या हम वह हरामखोरों की बेगारी करे, इससे तो अच्छा डाकु बनकर अपना बदला ले ।’ इससे स्पष्ट होता है शोषण से परेशान होकर आदिवासी महिला या पुरूष डाकू, नक्सली बनने के लिए विवश हो जाते है ।

इस उपन्यास में संजीव जी ने यह भी प्रस्तुत किया है कि किस तरह जमींनदार लोग आदिवासीयों के जमीन हड़प लेते है । बिचारे इन आदिवासी लोगों के अपने ही घर की खेती में ठेकेदारों के पास मजूरी करनी पड़ती है । क्योंकि इन आदिवासियों की मजबूरी होती है जैसे किसी काम के लिए थोडा सा रूपया लिए की वह उसे कभी चुका नहीं पाते । और चुका भी पाते है तो जमीनदार हो या ठेकेदार उस थोडे से रूपये को ब्याज लगाते लगाते चक्री ब्याज लगा देते हैं । इसी जाल में पिसकर आदिवासी लोग अपनी जमींन जमीनदार को दे देते हैं । इसी तरह इस उपन्यास में भेया बिसराम किसान अपने ही बंधक खेत पर मजूरी करता है । तो काली शहर की चीनी मिल में छंटनी के बाद नहर के ठेकेदार के पास काम करता है । वह सोचता है की अपनी गाभिन भैस ठेकेदार को बेचकर और ठेकेदार के पैसे से जमीनदार का कर्जा चुकाकर खेत छुड़ा लेंगे, लेकिन भैंस बेचने के पहले ही जमीनदार उस भैंस को कर्ज के उपर ले जाता है । उस समय चुपचाप काली खेत छुडाने का सपना छोडकर मजूरी करते हुए जीता है । इस तरह बिहार के चंपारण का सारा इलाका जो थारू जनजाति के उपर होनेवाले अपहरण, हत्या, बलात्कार, गरीबी, असंतोष और विद्रोह आदि ढेर सारी समस्याओं के चित्रण के साथ-साथ थारू जनजाति की आर्थिक स्थिति, शोषण, पीड़ा, अत्याचार आदि की यथार्थ परिस्थिति का चित्र प्रस्तुत किया है ।

रणेन्द्र का ‘ग्लोबल गांव के देवता’ उपन्यास सन् 2009 में प्रकाशित हुआ । मोटे तौर पर देखा जाए तो यह उपन्यास झारखण्ड की ‘असुर जनजाति’ के संघर्षों को बयान करता है । लेकिन सूक्ष्म तौर पर यह उपन्यास उस पूरे समुदाय की संघर्ष-गाथा है जिसे तथाकथित ‘लोकतांत्रिक आधुनिकता’ लील रही है । रणेन्द्र ने बहुत कौशल के साथ इस कथा की देशकालबद्धता को कायम रखते हुए इसे एक वैश्विक आयाम दिया है और जो क्रमशः पूरे ‘इतिहास’ में संचरित दिखाई देता है ।

आज हर कोई विश्व को गांव बनाने की बात कर रहा है । एक ग्लोबल गांव । लेकिन दुनिया को गांव बनाने की दौड़ में जो असल गांव हैं, हम उनको गांव बनाए रखने में नाकाम साबित हो रहे हैं । गांव विलुप्त होते जा रहे हैं और हम विश्व को ग्लोबल गांव में बदलने की बात करते हैं । जब विकास होता है तब सब लोग खुशी से अपने-आप आसमान में तैरते रहते है लेकिन जब आसमान से नीचे देखते है तब उनको पता चलता है कि अपने आप को उपर उठने के लिए किसी को नीचे खाई में डालकर आये है । क्योंकि आज कल बड़ी-बड़ी कंपनियाँ या सरकार और फैक्ट्रियाँ यही काम कर रही हैं । जैसे अपने कंपनी को ग्लोबल में ले आने के लिए किसी गरीब आदिवासी लोगों की जमीन हड़पना, उनको नक्सल के नाम पे मार देना आदि । उनको सिर्फ अपनी कंपनी का नाम और फायदा देखना है दूसरो का नुकसान क्यों देखना है । लेकिन अपना विकास किसी के लिए विनाश का खतरा होता है । मनुष्य अपना छोटासा घर बनाता है तो उसमें जिंदगी के दो पल खुशियों के साथ बिताता है । लेकिन कई बार कुछ लोगों को दूसरे की खुशी की कीमत अपनी खुशियों की कुर्बानी देकर चुकानी पड़ती है ।

रणेन्द्र ने ‘असुर जनजाति’ के संघर्ष की समकालीनता को कायम रखते हुए उस सांस्कृतिक इतिहास की भी पड़ताल की है जिसने उसे असुर नाम दिया । लेखक शुरू में ही कहता है, ‘‘अब जाकर ध्यान आया कि एतवारी में इस सुदर्शन व्यक्ति का नाम लालचन्द असुर बताया था । सुना तो था कि यह इलाका असुरों का है, किन्तु असुरों के बारे में मेरी धारणा थी कि खूब लम्बे, चौड़े, काले-कलूटे, भयानक दांत-वांत निकले हुए, माथे पर सींग-वींग लगे हुए होंगे । लेकिन लालचन्द को देखकर सब उलट-पुलट हो रहा था । बचपन की सारी कहानियाँ उल्टी घूम रही थीं ।’’[13] दरअसल यह संघर्ष तबसे शुरु होता है जब से बाहर से आए आर्यों और इन स्थानीय लोहा गलाने वाले निवासियों के बीच संघर्ष शुरू हुआ । रूमझुम असुर कहता है कि ‘‘ऋग्वेद के प्रारम्भ के लगभग डेढ़ सौ श्लोकों में असुर देवताओं के रूप में हैं । मित्र, वरुण, अग्नि, रुद्र सभी असुर पुकारे जा रहे हैं । बाद में यह अर्थ बदलने लगता है और असुर दानव के रूप में पुकारे जाने लगते हैं ।

सांस्कृतिक इतिहास के साथ-साथ उपन्यासकार ने ‘असुर जनजाति’ की संघर्ष-गाथा के माध्यम से दुनिया के अनेक भागों में फैले हुए आदिवासियों के संघर्ष की पड़ताल की है । मसलन अमेरिकी महाद्वीप में ‘इंका’, ‘माया’, ‘एज़्टेक’ और सैकड़ों ‘रेड इण्डियन्स’ की मूक हत्याएँ भी ‘झारखण्डी असुरों’ के संघर्ष से अलग नहीं है क्योंकि उन्हें भी आधुनिकता के ठेकेदारों ने असहिष्णु और बर्बर कहकर कुछ इसी तरह मौत के घाट उतारा था । अमेरिका की चेराकी जनजाति सरकारी तंत्र द्वारा किस प्रकार मन्थर गति से मृत्यु तक पहुंचाई गई, इसका उल्लेख ‘टेल ऑफ टीयर्स’ (आँसुओं की पगडंडी) के माध्यम से लेखक ने किया है । इस से स्पष्ट होता है की ग्लोबल गांव के देवता उपन्यास के माध्यम से उपन्यासकार झारखंण्ड के असुर जनजाति का नहीं अपितु पुरे देश और विदेश में रहनेवाले जनजाति समूहों में किस तरह भूमण्डलीकरण का खतरा मंडराते जा रहा है उसका यथार्थ चित्रण किया है ।

श्री प्रकाश मिश्र का ‘जहाँ बाँस फुलते है’ उपन्यास 1997 सन् में प्रकाशित हुआ । उपन्यास के केन्द्र में मिजोरम के ईसाई आदिवासी विद्रोहियों की गाथा है, जो शेष भारत से पृथक अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करना चाहते हैं । जिनका नेता लालडेंगा है । इतिहास में यह उल्लेख मिलता है कि आज़ादी के बाद भारत सरकार देश में भावनात्मक और राष्ट्रीय एकता स्थापित करने के लिए पूरे देश को एक सूत्र में बांधने का प्रयास कर रही है । इसके साथ-साथ पूर्वोत्तर भारत की समस्त जन-जातियां भी राष्ट्र की प्रमुख धारा से जुड़े । इसके लिए जहाँ कल्याणकारी योजनाओं को प्रारंभ किया गया, स्थानीय जनता की इच्छाओं-अभिलाषाओं की पूर्ति एवं प्रादेशिक विकास हेतु छोटे-छोटे प्रातों का निर्माण किया गया । वहीं दूसरी ओर सशस्त्र सेनाओं द्वारा पृथकतावादी शक्तियों को परास्त करने की मुहिम भी छेड़ी गयी । लालडेंगा ने विदेश में रहकर विद्रोह का संचालन किया । भारत की क्षेत्रीय अखंडता तोड़ने का षडयंत्र रचनेवालों की मदद से मिजोरम को आजाद करने की लड़ाई काफी लंबी चली । आज भी उत्तर-पूर्वी भारत में भारतीयता और भारतीय परम्पराओं के विरूद्ध प्रचार जारी है, जिसका अनेक मोर्चों पर सामना किया जा रहा है । धर्म-निरपेक्षता का जीवन-मूल्य इस दिशा में सर्वाधिक सहायक हुआ है और स्थानीय जनता शेष भारत से उत्तरोत्तर जुड़ती जा रही है । वस्तुत: उत्तर-पूर्वी भारत की यह राजनीतिक व सांस्कृतिक समस्या ब्रिटिश-शासन की देन है । प्रस्तुत उपन्यास में उपन्यासकार ने स्वयं इस पूर्वोत्तर भारत के स्थानीय लोगों के बीच रहकर उनकी हर एक पहलुओं को खुद अनुभव करते हुए उन आदिवासी लोगों के जीवन संघर्ष को यथार्थ रूप में प्रस्तुत किया । जहाँ बास फुलते है उपन्यास के बारे में मिजोरम सरकार के पूर्व सचिव स्व. सुरेन्द्रनाथ अक्षरा पत्रिका में (47 अकं जनवरी 2000) टिप्पणी करते हुए लिखते है की – “जनजातियों और गिरिजनों का जीवन हमारे लिए अभी भी रहस्यमय है । श्री प्रकाश मिश्र ने जहाँ बाँस फुलते है उपन्यास में लुशाइयों की समस्याओं को उनके जीवन संदर्भों के बीच से उभारकर और जन तथा सरकार दोनों के दृष्टिकोण को सामने रखकर एक बड़ी जरूरत को पूरा किया है । उन्होंने जो इसकी आन्तरिक यात्रा की पहचान और झांकी प्रस्तुत की है । वह हमें इन सच्चाइयों से रू-ब-रू खड़ा कर देता है । वहाँ तक तथ्यपरक जीवन और दास्तान इस तरह से प्रस्तुत हुआ है कि इससे गुजरते हुए आप वहां की पहाड़ियों की ऊंचाई, कटानों का तीखापन, नदी का बहाव, आसमान की चमक, पानी का स्वाद, भूख से ऐंठते आदमी का रंग, बूटों की आवाज, शिकारी की चालाकी, पशुओं का बर्ताव, नाचते पाँव, हवा की छुवन, धूप की गर्मी अपनी नस-नस में महसूस करेंगे।”[14]

उपन्यास का आरंभ ईसाई लुशाइयों के इतवार के उत्सव से होता है और अंत इसके ठीक विपरीत मिजो विद्रोह में मारे गये विद्रोहियों के शोक से होता है । पूर्वोत्तर के जमीन पर ज्यादा बाँस का उत्पादन होता है और वहाँ के मिजोरम के मिजो आदिवासियों में यह मान्यता रही है कि मिजोरम में जब बाँस फुलते है तो वह अकाल पडने का संकेत होता है । कुछ लोगों में यह भी मान्यता है कि मिजोरम में बाँस फूलते हैं तो उस बाँस के फूल को चूहे खाते हैं और उनसे बहुत सारे चूहें पैदा होते है, जो वहां की फसलों को नष्ट कर देते है । ये फूल बिरले आते हैं लेकिन जब आते हैं तो प्रकृति नया असंतुलन पैदा करती है । आदिवासी के पूर्वजों का कहना था कि यह फुल एक बार आये तो तीन साल में इस इलाके में ज्यादातर बाँस की कोठियों में फूल आएंगें । उससे पहले अगर सारे बाँस जला नहीं दिए जाते तो तबाही तय है । इस प्रकार मिजों विद्रोह के प्रमुख कारणों में बाँस के फूलने से आए दुर्भिक्ष भी रहा होगा । इसी तरह विकास की योजना बनायी है तो जरूर कुछ तो कुछ इन मिजो जनजातियों का नुकसान होने का संकेत होगा । इसलिए एक जगह उपन्यासकार विकास के नाम से क्या समस्या है वह दोला द्वारा मिजोरम की समस्या का विश्लेषण इस प्रकार किया है – “मिजोरम पिछड़ा है, गँवार है । दुखी है, दरिद्र है । इसे बदलना चाहिए । इसे बदलना तो वाई भी चाहता है । पर, वाई भी दो है । एक तो सरकार है, जो नीति बनाती है: उन्हे वैसा ही छोड़ दो ; सिर्फ़ उन्हे लिखाओ-पढ़ाओ और आरक्षण की बदौलत नौकरी दो। सुरक्षा के लिए ज़रूरी हो तो सड़कें बनवा दो । लोग वाक़ई भुखों मरने लगें तो थोड़ा अन्न पहुँचा दो । किन्तु इन्हें छेड़ो नहीं । एक विशाल गणतंत्र की विरासत ‘एकता में अनेकता’ के उदाहरणस्वरूप इनकी जीवन पद्धति अक्षुण्य रखो । ‘एन्थ्रोपोलोजीकल म्यूज़ियम के पीस’ के रूप में । दूसरा, इस नीति को क्रियान्वित करने वाले वाइयों का दल है ; जो विकास के लिए मिले पैसे अपनी जेब में रख लेता है , यहाँ का अदरक, चावल, मिट्टी के मोल ले जाकर अपने वतन में सोना बनाता है , यहाँ की सुरा-सुन्दरियों का उपभोग इस तरह करता है कि जैसे मिजोरम उसकी ज़मीनदारी हो, उपनिवेश हो और वह इस उपनिवेश का एकमात्र मालिक ।”[15] उपन्यास का अंत कुछ इस प्रकार होता है । मिजों विद्रोहियों की पराजय होती हैं, सरकार द्वारा शांति-वार्ता की चर्चा होती है लेकिन वह असफल हो जाती है । बहुत अधिक संख्या में विद्रोही मारे जाते है जो बच जाता है वो जंगलो में चला जाता है ।

वीरेन्द्र जैन का ‘पार’ उपन्यास 1994 सन् में प्रकाशित हूआ है । उपन्यास के केन्द्र में वीरेन्द्र जैन ने बुन्देलखण्ड अँचल के आदिवासियों की जीवन पद्धति, परपंरा, संस्कृति और अस्मिता के उपर भूमण्डलीकरण का सकंट मंडराने के कारण आदिवासी लोगों को अपने जीवन-यापन में किन-किन संघर्षो का सामना करना पड रहा है उसका यथार्थ रूप अंकित किया है । साथ-साथ ही वीरेंन्द्र जैंन ने एक तरफ शोषित आदिवासी का जीवन यथार्थ देखते हैं तो दुसरी तरफ शोषकों के प्रति तीखा व्यंग अपने लेखन के माध्यम से करते है ।

बदलते समाज ने औद्योगीकरण, आधुनिक जीवन पद्धति, आर्थिक गतिशीलता को बढावा देने में आदिवासियों की सांस्कृतिक धरोहर, परंपराएँ और रीति-रिवाज को नष्ट करते आ रहे हैं । सरकार विकास के नाम पर जल, जंगल और जमीन को पूरी तरह उजाड़ रही है । इससे जनजातियों की जीविका के उपर असर पड़ रहा है । क्योकिं आदिवासी लोग इसी जल, जंगल और जमीन के उपर पूरी तरह निर्भर है । आदिवासी लोग जंगलों से शहद इकठ्ठा करते है तो कुछ लोग मछलियाँ पकड़कर और कुछ फलों को बेचकर अपना जीवन चलाते है और जब यह सब उजड जाता है तो अपने ही घर के जंगलों में दूसरो के पास गुलामी करनी पड़ती है । इसी तथ्य को उपन्यास में मुखिया गुनिया से कहता है – “हमें गाँव वालों से किसी चीज-वसत का सहारा था क्या ? तब तो हम अपनी गुजर-बसर इसी डाँग से कर लेते थे । अब दिनों दिन गाँव वालों के आसरे होते जा रहे हैं । काहे ? काहे कि अब डांग में वह बरकत नहीं रही । तू भी तो जाता है डांग में । बता तू ही कि कितना भटकने के बाद जलावन मिलता है ? गाद मिलती है ? शहद मिलता है ? जड़ी- बूटियाँ तो जाने कहाँ समाती जा रही है । हम भले ही हरा-भरा रूख नहीं काटते । वह देवता है हमारी निगाह में हमारा पालनहार । पर फिर भी हरे भरे रूख बच पाए ? रोक पाएँगे कभी ? ......अब ये शहरवाले नदी पर बाँध बना रहे हैं। तब हम कहाँ जीएँगे? केसे जिएँगे ?”[16]

सरकार विकास के नाम पर पाश्चात्य देशों के औद्योगिक लोगो से हाथ मिलाकर आदिवासियों के जल, जंगल और जमीन पर बड़ी-बड़ी कंपनियों को स्थापित कर रही है । इस कंपनी को चलाने के लिए बिजली अनिवार्य है । तब यह लोग जंगलों के नदियों में बाँध निर्माण करवा कर पूरा जल, जंगल और जमीन को नष्ट कर रहे है । यानी औद्योगिक विकास के लिए आदिवासियो के गाँव के गाँव उजाडे जा रहे है । जैसे प्रस्तुत उपन्यास में यह दिखाया है की राउत आदिवासियों के जंगलों में सरकार एक बड़ा बाँध निर्माण करती है और जब बाँध निर्माण हो जाता है उसके बाद इनके गाँवों को भी अपने बाँध के पानी में डुबा लेने का इशारा जताते हूए गाँव के लोगों को कहते है – “हमारा आग्रह है कि बाँध बनते ही आप अपने घरों से निकल जाएँ । घरों से निकल जाना ही आपके लिए बेहतर होगा । नहीं तो हम पानी छोड़ देंगे और आपको डूबों देंगे ।”[17] सदियों से ही आदिवासी लोग शासन द्वारा उपेक्षित और शिक्षा-दीक्षा, स्वास्थ्य, संचार, परिवहन आदि सुविधाओं से वंचित पर्वतीय ग्रामीण समस्याओं को भोगते और सहते आ रहे हैं । इस समस्या को झेलते-झेलते और एक नयी समस्या जो बाँध परियोजना की चपेट में आई एक औरत कहती है – “सिरकार जहर दे देत सब का तो अच्छा रहत । अपना मकान को रहन वालो इहां का अच्छा लगे इ टट्टीखाने मा । वो ही वो रहे आते अकेले ओके बाँध के साथ ।”[18]

इसके साथ-साथ उपन्यास में उनकी संस्कृति और रीति रिवाज के उपर भी उपन्यासकार ने प्रकाश डाला है । क्योंकि आदिवासियों में जो शादी के रीति रस्म बिल्कुल अलग तरीके से होते हैं । उसी तरह उपन्यास में यह दिखाया है गया है कि राउत आदिवासी लोग भी अपने विवाह का रीति रस्म अलग तरीके से करते है जब लड़का और लड़की शादी के बंधन में बांधे जाते है तब लड़का ढ़ोल बजाकर अपनी संगी की पसंदगी करनी होती है । जब खेरे के डोर बँधने की उम्र वाले युवक युवतियों को गोंड बना के स्थान समक्ष मुखिया, गुनिया की उपस्थिति में फेरे करवा देते हैं । तब वीरेंन्द्र जैन लिखते है – “गुरया अपनी जग से उठा । गौंड बब्बा के पथरा पर माथा टेका, मुखिया को प्रणाम किया । गुनिया को प्रणाम किया । ढ़ोल को प्रणाम किया । ढ़ोल उठाया । मोढ़ो के गोल के आगे बैठा । ढ़ोल को पाँवों के बीच चाँपा । दोनों हाथों में डंडिया थामी । डंडियों को तौल कर देखा । तय किया कि किस डंडी को किस हाथ में थामँ और ता........तिडता.....तिड़......।”[19]

उपन्यास गगन घटा घहरानी, काला पादरी, पठार पर कोहरा, अल्मा कबूतरी, जंगल जहाँ शुरू होता है, ग्लोबल गांव के देवता, जहाँ बास फुलते है और पार आदि में आदिवासी: परिचय एवं संघर्ष मिलता है । इसके साथ-साथ इन उपन्यासों में आदिवासी समाज के अतीत को उठाते हूए, उसकी समस्याओं एवं बुराईयों की चर्चा करते हूए उसे यथार्थ रूप से देखने का प्रयास किया है । जिसमें हाशिये की छटपटाहाट को उत्तर आधुनिकता के नजरियें से देखा जा सकता है। उनका यथार्थ चित्रण अलग-अलग उपन्यासों में भिन्न-भिन्न जनजाति समुदायों के माध्यम से समाने रखा गया है । उपन्यासों में वर्णित समस्याएँ आदिवासी जीवन की मुलभूत जरूरते है । आधुनिकी करण के चक्कर में उनकी परंम्परा ओं लोक गीतों एवं रहन सहन पर पर इसका असर पड़ रहा है । वैश्वीकरण का प्रभाव भी उपन्यासों में दिखता है जिससे आदिवासी समाज की अस्मिता को जादा खतरा है । अस्मिता के संघर्षों को समझने के लिए उपन्यासों कथा वस्त् एवं उसमें उठाई गई समस्याए आदिवासी समाज के भी मुख्य स्त्रोत के रूप में प्रभाव कारी सिद्ध हो सकती है ।

सन्दर्भ

  1. यादों का लाल गलियारा दंतेवाड़ा – रामशरण जोशी – राजकमल प्रकाशन प्रा.लि दरियागंज नई दिल्ली, पहला पेपरबैक्स संस्करण, 2015 पृ सं 8
  2. आदिवासी समाज,साहित्य और राजनीति – केदार प्रसाद मीणा, अनुज्ञा बुक्स दिल्ली , प्रथम संस्करण, 2014 – पृ सं 53
  3. गगन घटा घहरानी – मनमोहन पाठक – भूमिका , प्रकाशन संस्थान – नई दिल्ली सं 2000
  4. आदिवासी समाज,साहित्य और राजनीति – केदार प्रसाद मीणा – अनुज्ञा बुक्स दिल्ली , प्रथम संस्करण, 2014 पृ सं 57
  5. काला पादरी – तेजिंदर – नेशनल प्रकाशन पेपरबैक्स दिल्ली पृ. सं 26
  6. आदिवासी समाज,साहित्य और राजनीति – केदार प्रसाद मीणा – अनुज्ञा बुक्स दिल्ली , प्रथम संस्करण, 2014 पृ सं 67
  7. रामदयाल मुंडा, आदिवासी अस्तित्व और झारखँण्डी अस्मिता के सवाल – प्रस्तावना – कुमार सुरेश सिंह – पृ सं - 08
  8. पठार पर कोहरा – राकेश कुमार सिंह – भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्र. सं 2003 पृ सं – 143
  9. अल्मा कबूतरी – मैत्रेयी पुष्पा – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, तीसरी आवृत्ति 2011, पृ.सं - 58
  10. अल्मा कबूतरी – मैत्रेयी पुष्पा – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, तीसरी आवृत्ति 2011, पृ सं 74
  11. जंगल जहाँ शुरू होता है - संजीव – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ सं 195
  12. जंगल जहाँ शुरू होता है - संजीव – राजकमल प्रकाशन, नई दिल्ली, पृ सं 196
  13. ग्लोबल गांव के देवता – रणेन्द्र भारतीय ज्ञानपीठ, नई दिल्ली, प्र. सं 2009 पृ.सं – 9
  14. अक्षरा- कैलाशचंद्र पंत 47 जनवरी 2000 पृ सं 106
  15. श्रीप्रकाश मिश्र, जहाँ बाँस फूलते हैं, यस पब्लिकेशन्स, नई दिल्ली, 2011, पृष्ठ, सं 36
  16. पार- वीरेंन्द्र जैन – वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली , 1998 पृ. सं 15
  17. हिन्दी में आदिवासी जीवन केंद्रित उपन्यासों का समीक्षात्मक अध्ययन – प्रो. बी. के कलासवा – पृ सं 207
  18. पार- वीरेंन्द्र जैन – वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली , 1998 पृ. सं 108
  19. पार- वीरेंन्द्र जैन – वाणी प्रकाशन, नई दिल्ली , 1998 पृ. सं 55

डॉ गणशेटवार साईनाथ नागनाथ, सहायक प्राध्यापक, हिन्दी विभाग, संत जोसेफ कॉलेज बेंगलुरु - 560027 इमेल- saikumarganshetwar@gmail.com