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महाकवि मैथेलीशरण गुप्त भारतवर्ष के सामान्य मनुष्य की असामान्य प्रतिभा के परिचायक, हमारे राष्ट्र कवि एवं राष्ट्रीय सांस्कृतिक काव्यधारा के उन्मुक गायक कवि है । गुप्तजी को हिन्दी साहित्य में दद्दा के नाम से पहचानते है । उसके काव्य लेखन का आारंभ ई. सन् 1909 में ‘रंग में भंग’ के सर्जन से होता है। तब से लेकर जीवन पर्यन्त तक वे साहित्य साधना करते रहे । ‘साकेत’ का भाव-सौंदर्य गुप्तजी को महा-कवि की ऊँचाई पर पहुँचा देता है । हिन्दी साहित्य कवि के इस गौरव पूर्ण कार्य के हंमेशा के लिए ऋणी रहेगा ।
'पंचवटी’ का सामान्य अर्थ होता है, पीपल, वट बेल, हरड और अशोक वृक्ष का समूह । पंचवटी स्थान भारत के नासिक में गोदावरी नदी के किनारे स्थित विख्यात धार्मिक तीर्थस्थान है । त्रेतायुग में लक्ष्मण व सीता सहित श्रीराम ने वनवास के कुछ वर्ष यहाँ बिताये थे । गुप्तजी द्वारा रचित ‘पंचवटी’ खंडकाव्य में इसी का वर्णन मिलता है । पवित्रता, नैतिकता तथा परंपरागत मानवीय सम्बन्धों की रक्षा कवि के काव्य के प्रथम गुण हैं। ‘पंचवटी’ उसका उदाहरण है।
पंचवटी खंडकाव्य की रचना ई. सन् 1925 में हुई । प्रस्तुत कविता का कथानक राम साहित्य का चिर-परिचित आख्यान शूर्पणखा प्रसंग है । जिसमें गुकप्तजी का काव्य सौंदर्य और काव्य-कला अधिकाधिक निखरी हैं ।
प्रस्तुत खंडकाव्य में कवि सदृश्य कवि की तरह प्रकृति और मनुष्य का चित्रालेखन करते हैं । प्रकृति और मनुष्य का सामंजस्य ही कवि का मुख्य लक्ष्य रहा हैं। मानव जीवन में प्रकृति को जीवन की सहचरी, प्रेरक तथा जीवन में नई उमंग भरनेवाली बताई हैं । प्रकृति मनुष्य की आदि-अनादि काल से सहचरी रही है।
गुप्तजी प्रकृति के कवि नहीं है, फिरभी उन्होंने ‘पंचवटी’ खंडकाव्य में पंचवटी के रमणीय वातावरण का सुन्दर वर्णन किया हैं । इसके अलावा कवि ने 'यशोधरा' और 'साकेत' जैसी रचनाओं में यत्र-तत्र सुन्दर एवं मनोरम्य वर्णन किया हैं।
समसामयिक समय में प्रकृति का रक्षण-संवर्धन अनिवार्य हो गया हैं । अगर जीव मात्र को संरक्षित रखना है तो प्रकृति को रक्षित करनी पडेगी। मनुष्य अपनी मित्र और सहचरी प्रकृति को विध्वंश करने पर उतारु हो गया हैं । येसे समय में ‘पंचवटी’ जैसी रचना हमे प्रत्यक्ष या परोक्ष रुप से संदेश सुनाती हैं।
तुलसीदास कृत रामचरित मानस के अरण्यकाण्ड को आधार बनाकर गुप्तजी ने राम वनवास की एक धटना नये साँचे में ढालकर प्रसतुत की हैं । सर्ग रहित एक सौ अट्ठाईस छंदो में 'पंचवटी' लधु खंडकाव्य लिखा हैं । इस काव्य में प्रकृति का वन वैभव वर्णित मिलता हैं ।
प्रकृति का सौंदर्य मनुष्य को प्रत्येक समय आकर्षित करता हैं । प्रकृति और मनुष्य एक दूसरे के साथ अभिन्न रूप से जुडे हुये हैं । पंचवटी खंडकाव्य में प्रकृति का सुन्दर एवं मनोरम रूप वर्णित हैं । कविता के काव्यारंभ का यह वर्णन कोई प्रकृति कवि से कम मूल्यवान नहीं हैं। कवि कवि अपनी काव्य भाषा को अलंकरणों से सजाकर रात की चांदनी का जीवन्त दृश्य प्रतिबिम्बित करते हैं-
‘‘चारू चन्द्र की चंचल किरणें
खेल रही हैं जल-थल में
स्वच्छ चाँदनी बिछी हुई है
अवनि और अम्बर तल में’’[1]
प्रकृति मनुष की आदि-अनादि काल से सहचरी रही है। मनुष्य अपना आश्रय प्रकृति की गोद में पाता था । राम-सीता और लक्ष्मण वनवास के समय अपना आशियाना प्रकृति की गोद में एवं प्रकृति प्रदत्त साधनों से निर्मित करते हैं।
‘‘पंचवटी की छाया में है
सुन्दर पर्ण-कुटीर बना।’’[2]
जहाँ पंचवटी भूमि में पर्ण-कुटी बनाई गयी है। वह वनभूमि मनष्य रहित देश है । अभी रात्री का समय बाकी रहा है और निशाचरी रात्री ठहरती है । प्रकृति का भयानक और डरावना रूप आलेखित किया है ।
‘‘विजन देश है निशा शेष है।
निशाचरी माया ठहरी।’’[3]
कवि ने दूध सी चाँदनी रात, शीतल छाया, सुन्दर कुटीर और शांत वातावरण का सुन्दर गूम्फन किया हैं। पंचवटी की पावनभूमि पर राम-सीता और लक्ष्मण की पवित्र कुटीर बनी हैं। उसके आस पास रात्री के समय का प्रकृति वैभव वर्णित है। आकाश में दूध से धूलि हुई स्वच्छ चाँदनी है । रात्री के समय जड़ और चेतन का पता नहीं चलता यानी चारों ओर निस्तब्धता बिछी है। येसे समय में मन्थर गति से मधुर वायु किस दिशा से आ रहा है इसका कुछ पता नहीं चलता। रात्री का यह सौंदर्य वर्णन आह्लादक है। मन और हदय को रम-माण करने वाला प्रकृति रूप है । चारों दिशाओं में आनंद ही आनंद हैं ।
‘‘क्या ही स्वच्छ चाँदनी है यह,
है क्या ही निस्तब्ध निशा;
है स्वच्छ सुमन्द गन्ध वह,
निरानन्द है कौन दिशा ?’’[4]
पंचवटी काव्य में नदी का वैभवगान भी किया है। बहती गोदावरी नदी मानो प्रकृति का प्राकृति आख्यान है । कवि नदि का किनारा, चंचल-कल-कल बहता जल, बहते जल का मधुर संगीत, वृक्षों के पतों का नृत्य, खिले फूलों का सौंदर्य तथा आकाश में टीम-टीमाने वाले नक्षत्रों को भी अपनी कलम से अंकित करते हैं । पंचवटी की पर्णकुटी में राम-सीता विश्राम करते है और लक्ष्मण प्रहरी है ।
‘‘गोदावरी नदी का तट वह
ताल दे रहा है अब भी
चंचल-जल कल-कल मानो
तान दे रहा है अब भी !
नाच रहे हैं अब भी पत्ते
मन-से सुमन महकते हैं
चन्द्र और नक्षत्र ललककर
लालच भरे लहकते हैं।’’[5]
मानव जीवन को प्रकृति से अलग करना असंभ है वैसे ही पंचवटी में राम-लक्ष्मण और सीता का जीवन भी प्रकृतिमय बन चुका हैं। पक्षी सीता के साथ ध्यान मग्न दिखाई पड़ते हैं और अपनी मधुर वाणी से नये-नये गीतों की संरचना में लिन है। इसमें कोकील की कूहूक सुनकर तो लगता है कि पक्षी स्वयं अपने आप में कवि हैं।
‘‘वैतालिक विहंग भाभी के
सम्प्रति ध्यानलग्न-से है;
नये गान की रचना में वे
कवि-कुल-तुल्य मग्न-से हैं
बीच-बीच में नर्तन केकी
मानो यह कह देता है-
मैं तो प्रस्तुत हूँ देखे कल
कौन बड़ाई लेता है।’’[6]
पंचवटी की यह पंक्तिया विश्वकुुटुम्बकम् की भावना को करती हैं । जिसमें प्रकृति और मनुष्य का सामंजस्यपूर्ण वर्णन किया हैं । राम-सीता और लक्ष्मण का जीवन प्रकृति के मध्य नयनरम्य सौंदर्य के बीच पनपता हैं । इसी भूमि में चारों तरफ हर घड़ हरियाली ही हरियाली लहराती हैं । स्थान-स्थान पर झाडियों में कल-कल करते मधुर गीत सुनाते हुये झरने बहते है तथा वन की प्रत्येक हिमकणी का सरस और सौंदर्य संपन्न हैं । जो सौ-सौ नगरजनों के समान रूचिपूर्ण लगते हैं।
‘‘आँखों के आगे हरियाली
रहती हैं हर घडी यहाँ,
जहाँ तहाँ झाडी में झरती
है-झरनों की झडी यहाँ।
वन की एक हिमकणिका
जैसे सरस और शुचि है।
क्या सौ सौ नागरिक जनों की
वैसी विमल रम्य रूचि है।’’[7]
कवि राम राज्य की व्यवस्था वर्णित करने के लिए भी प्रकृति को माध्यम बनाते है। सिंह और मृग दोनों की प्रकृति अलग-अलग है फिरभी दोनों प्राणी एक घाट पर पानी पीते हैं। कवि बताना चाहते है कि प्रकृति विभिन्न धारा प्रवाह को भी एक करने का सामर्थ रखती है ।
‘‘सिंह और मृग एक घाट पर
आकर पानी पीते हैं।’’[8]
आज के समय में मनुष्य प्रकृति प्रदत्त खान-पान से कटता चला जा रहा है । इसका खामियाजे के रूप में मनुष्य का स्वास्थय दिन-प्रतिदिन बिगडता जाता हैं । गुप्त जी पंचवटी मेें दैनिक आहार-विहार की प्राकृतिक व्यवस्था को हमारे सामने प्रस्तुत करते है, जो हम भुल गये है । राम, लक्ष्मण और सीता को पीने के लिए निर्मल जल, भोजन के लिए मधु कंद-मूल एवं फल-फूल मिलते हैं। लक्ष्मण स्वयं कहते है कि नगरी जीवन से दूर भी हमे कभी व्यंजनों की कमी महसुस नहीं होती।
‘‘कभी विपिन में हमें व्यंजन का
पडता नहीं प्रयोजन है,
निर्मल जल, मधु कन्द मूल, फल-
आयोजनमय भोजन है।’’[9]
मनुष्य के जीवन में स्वालंबी होना अति अनिवार्य है, लेकिन समकालिन जीवन व्यवस्था मनुष्य को ज्यादा से ज्यादा परावलंबी बना रही हैं । महात्मा गांधीजी ने भी मानव को स्वावलंबी रहने के लिए कहा था । कवि पंचवटी में स्वावलंबी बनने का संदेश भी प्रकृति के जरिए सुनाते हैं । प्रकृति स्वयं सामान्य मनुष्य की पाठशाला हैं । सीता स्वयं पौधों को पानी देकर चींचती हैं । खुरपी लेकर खेती करती है । उस समय उसे सुख-संतोष और गौरव का अनुभव होता हैं ।
‘‘अपने पौधों में जब भाभी
भर भर पानी देती हैं,
खुरपी लेकर आप निराती,
...कितना सुख, कितना संतोष!’’[10]
प्रस्तुत पंक्तियों में कवि ने प्रकृतिक द्वारा परिश्रम का महिमागान किया हैं । जैसे, वसुन्धरा का मोती बिखेरना, सबके सो जाने पर रवि का बटोर लेना तथा नया सबेरा एक प्रकार से मनुष्य को अंगुली निर्देश करता हैं कि मेहनत करने के बाद ही फल की प्राप्ति होती हैं।
‘‘है बिखेर देती वसुन्धरा
मोती, सबके सोने पर,
रवि बटोर लेता हैं उनको
सदा सबेरा होने पर।’’[11]
मानव जीवन में मानवीय भावनाओं का अपना एक अलग अस्तित्व होता हैं । प्रकृति भी मानवीय भावनाओं की तृप्तिकरण से वंचित नहीं है । प्रकृति जीव मात्र को आत्मीय आनंद, हर्ष, दण्ड तथा सहदय स्नेह समान रूप से बाटती हैं । यह कहने में कोई अतिश्योक्ति नहीं है कि प्रकृति सृष्टि को पालती और पोसती हैं । वनवास के दौरान राम, सीता और लक्षमण को प्रकृति उन्हें सबसे मून्यवान धन अगर कोई प्रदान करती है तो वह है, अपनत्व ।
‘‘सरल तरल जिन तुहिन कणों से
हँसती हर्षित होती है;
अति आत्मीया प्रकृति हमारे
साथ उन्हीं से रोती है ।
अनजानी भूलों पर भी वह
उदय दण्ड तो देती है,
पर बूढों को भी बच्चों-सा
सदय भाव से सेती हैं’’[12]
पंचवटी में कवि प्रकृति चित्रण के द्वारा बताना चाहते हैं कि मानव समाज का श्रीकल्याण प्रकृतिगत जीवनयापन में ही हैं । प्रकृति बाधा का नहीं बल्कि मुक्ति का आह्वान करती हैं । येसी मुक्ति जो स्वयंम् के द्वारा चालित हो । जिसे राम राज्य भी कहा जा सकता हैं । यह राज्य व्यवस्था प्रकृतिदत्त है, इसलिए आनंद प्रदान करती हैं ।
‘‘जो हो, जहाँ जैसे रहते हैं
वहीं राज्य वे करते हैं;
उनके शासन में वनचारी
सब स्वच्छन्द विहरते हैं ।’’[13]
कवि दोपहर के प्रकृति चित्रण में मानव के आपसी दायित्वज्ञान का बोध करवाते हैं । पशु-पक्षी पंचवटी की छाया में विश्राम करने आते तो सीता उसका पालन-पोषण करके सुगमता प्रदान करती हैं । अतः प्रकृति हमको पालती और पोसती हैं तो हमे भी प्रकृति का पालन पोषण करके संरक्षित तथा संवर्धीत करनी चाहिए ।
‘‘आ आकर विचित्र पशु-पक्षी
यहाँ बिताते दोपहरी
भाभी भोजन देतीं उनको
पंचवटी छाया गहरी ।’’[14]
कवि प्रकृति के द्वारा लोगों को संदेश देना चाहते हैं कि विश्व में प्रकृति ही विश्व की अधिष्ठात्री हैं । हिन्दी साहित्य में वन वैभव का वर्णन न हो येसा समय बहुत कम मिलता हैं । कवि पंचवटी में प्रत्यक्ष या परोक्ष रूप से वन वैभव का महिमा गान करते है । प्रकृति की महिमा अपार, अनुपम और प्रसन्न करने वाली हैं ।
‘‘और यहाँ की अनुपम महिमा...वे घर की ही भाँति प्रसन्न,’’[15]
इस सृष्टि में विश्राम करने के लिए अगर कोई सबसे बडी गोद है तो वे गोद प्रकृति की गोद है । जो जीव मात्र को आश्रय प्रदान करके पालती, पोसती और संवर्धित करती हैं ।
‘‘...मिली हमें है कितनी कोमल,
कितनी बडी प्रकृति की गोद ।’’[16]
कवि पंचवटी काव्य में उषा वर्णन, प्रकृति का ईश्वरीय रूप का स्मरण, नदी, पानी, मछलियाँ आदि की महिमा वर्णित हैं । कवि मैथिलीशरण गुप्त हमारे देश और संस्कृति के प्रतिनिधि कवि है । कवि संयोग के दृश्य अधिक अंकित करते हैं । काव्य में समस्या को सहज रूप से उठाना और उसका समाधान देना कवि की नीजि विशेषता रही है । द्विवदी युग में पहली बार प्रकृति का विनियोग पंचवटी में देखने को मिलता हैं। पंचवटी की संपूर्ण कथा प्रकृति की विशाल गोद में घटीत होती हैं ।
पंचवटी काव्यारंभ से लेकर अंत तक प्रकृति के रंगमंच पर प्रकृति का आवा-गमन होता हैं। काव्य में प्रकृति, मानवीय कार्यव्यापार और मनोविकार को सुन्दर पृष्ठभूमि प्रदान करती हैं। समय, स्थान एवं परिस्थिति का प्रकृति के साथ सुन्दर समन्वय हुआ हैं । गुप्तजी के काव्य में माानव जीवन की प्रायः सभी अवस्थाओं एवं परिस्थितियों का वर्णन हुआ हैं । इनकी कविताओं का मूल स्वर राष्ट्रीय-सांस्कृतिक भावना है । र्डा. गोविंदराम शर्मा का कथन यथार्थ लगता है कि ‘‘मैथिलीशरण गुप्त की दृष्टि प्रकृति वर्णन में अधिक नहीं रमी है, फिरभी साकेत, पंचवटी, यशोधरा जैसी रचनाओं से उन्होंने यत्र-तत्र प्रकृति के भव्य चित्र खींचे हैं । कहीं-कहीं मनोभावों एवं विविध घटनाओं की पृष्ठभूमि के रूप में प्रकृति-चित्रण सुन्दर बन पडा है।’’[17] अतः गुप्तजी के प्रकृति चित्रण के काव्य कौशल को नकारा नहीं जा सकता हैं।
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