गुजराती कहानी ‘मा’
लेखक : पन्नालाल पटेल
अनुवाद – प्रा. शक्तिसिंह परमार
उन आषाढ़ के दिनों में जालम खांट के बड़े चौड़े परिवार की आखें अपनी अपनी धूनमें लगी हुई थी । अधेड़ होने पर भी बुढा लगने वाला जालम, काले मटमैले बादलों से भरे, सूखें-बंजर आसमान की ओर ताकता था । तो इस ओर जालम का सोलह-सत्रह साल का बड़का बेटा, गौने पर आई अपनी नइ नवेली दुल्हन की ऑर ताक ज़ाक करने का एक भी मौका नहीं छोड़ता था । पर यौवन मस्त बहु की नज़रें तो, वह खुद भी नहीं जानती थी की कहाँ कहाँ भटकती थी? क्यों भटकती थी? किस को ढूंढती थी?
जब कि जालम खांट के चार छोटे मोटे बच्चे, उनमे भी जो सब से छुटके दो थे, उनकी आँखे तो लगभग सारा दिन घर के आँगन में बंधी गाभिन भैस के आषाढ़ के बादल जैसे गदबद, उभरे हुवे पेट पर ही चिपकी रहती थी.. ।
..और एक थी जालम की पत्नी । इन सब की माँ बेचारी. हर किसी के, खास कर के भैस को टकटकी लगाए देख रहे उन बच्चों के मुंह की ओर असहाय बनके देखती रहती, उनके गालों को सहलाते हुए कुछ यूँ समजाती बूजाती रहती.. “ भैसी बियाएगी बेटा बियाएगी.. आकास के मेघ और माँ के पेट के बारे में तो कौन कह सकता हैं? पर जो पेट में है वह आये बगैर थोडाइ रहेगा ? ”
और सही में, दो-पांच दिन में तो झोरों की बरसात हुई, और कुछ दिनों के बाद जब एक शाम को भैस ने भी उठना बैठना शुरू कर दिया, तब बच्चोंसे भरे उस छोटे से कुनबे में आनंद की लहरें दौड़ गई. हर कोई सारा वख्त बातें भी उसी को लेकर किया करता था ।
“अब के तो हमार भैसी, पड़िया ही देने वाली है, देख लियो.”
तो दूसरा कहता “अरे..ज्जा..जा ! तुझे क्या मलूम ! पिछले साल भी तो पाड़ा आया था.. इसलिए हमार भैस को आदत होई गई है, ये तो पाड़े ही देती रहेगी..”
तीसरे ने आह्वान किया “ “ एइसा क्या ? तो फिर लगाओ मेरे से सर्त..!! ”
...और शर्त में तो देने-लेने के लिए और क्या होगा !?
“अगर पड़िया आई तो एक घूँसा में तुजे मारूँगा और पाड़ा आया तो एक घूँसा तू मुजे मारना...”
घर-आँगन में आती-जाती माँ के कानो में भी बच्चों की यह सब बाते जाने-अनजाने पड़ती रहेती और उसका मन भी- “अब की बारी पाड़ा होगा की पड़िया” - इसी उधेड़बुन में फँसा था ।
पिछले बरस की बात तो एसी ताज़ा थी जैसे कल ही की बात हो. दोसो रुपैयो का कर्जा ले कर, एक भैस मोल ले आये थे. पर घर के छोटेबड़े सभी के करमो का पातर फुटा निकला..
जब भैस दुधारू हुई ; तब चार थन में से डेढ़-दो थन का दूध तो पाड़े को पिलाते थे, फिर भी बच्चा बीमार हो के दो महीनों में मर गया.. पाड़े की मौत से माँ (भैस) तो जैसे बैरागिन ही बन बैठी । टोकरा भर भर के चारा-भूसा खाने के बावजूद उसने दूध की एक बूंद तक देना बंद कर दिया कि, तब कि घड़ी और आज का दिन...!
माँ बडबडाती थी : “..राम जाने अब के बच्चा तो जनेगी.. पर घर को दूध पिलाने को कि हमे रुलाने को..!”
कहानी के उस शेखचिल्लीने तो चार आने के उपर पूरा संसार बसा लिया था.. पर इस बेचारी माँ को तो भैस के चार थन के उपर, घर के आठ-आठ जनों के जीवन निभाने थे. वह हिसाब लगाती रहेती ।“ “ इब देखा जाये तो एक-डेढ़ थन का दूध तो पाड़ा गटक लेगा, और आधे थन का दूध घर के छोकरे खा जायेगे, हल चलाने वाले बाप बेटे को भी तो दो जून खाने के साथ छटांक भर दूध देना होगा.., तब बेचारी बहुरिया ने कौनसा पाप किया ? इस लिए ये सब छोड़ छाड़ के शायद एक जून का दो सेर गोरस बिलोनी में पड़ेगा, उसी में से बनिए को चुकाने लिए रख्खे घी के मटके में डाल लो, या मेहमान-पाहुने को परोस लो.., घर के लोगो को भी तो चार-पांच दिन में एकाध बार ऊँगली-ऊँगली, बूंद-दो बूंद घी तो देना ही पड़ेगा.. अभी इसी में से चाहो तो कर्जा चुकाओ, चाहे राज का लगान भरो, या बच्चों की इस पलटन को पालो...”
बिना दुधार पशु के ये एक साल घरमें क्या क्या बीती थी ये तो बस बेचारी माँ ही जानती थी । साहूकारों के तिरस्कार, गालियाँ और अपमान की बातें करने तो क्या, याद भी करने जैसी नहीं.. चलो, वे तो पराये ठहेरे. पर घरवालो ने जो बवाल मचाया था वह तो चाहने पर भी भुलाया नहीं जा सकता था. दूध-घी की बातें तो सुखीलोगो के मुँह की शोभा होती होंगी, पर यहाँ तो गर्मी के दिनों में छाछ भी जैसे सपना हो गई थी. कढ़ी भी बनाएँ तो कइसे ? दाल-दलहन खा खा के सब उकता गए थे और दाल में भी कौन से मेवे-मसाले डाल रक्खे थे? मसालों के नाम पर पूछो तो हल्दी, मिर्ची और नमक थे बस.. चौथी चीज अगर डालने लायक थी तो वो था पानी । अब दुःख की बात तो यह थी कि भगवान ने इन लोगो को स्वादेन्द्रिय भी दे रख्खी थी. सो भोर-दुपहरी को तो कोदरी (एक हल्का धान) की मोटी रोटी को दाल में मसल के, घोंट के खा लेते थे. पर रात को रोटी गले से उतारने के लिए कुछ तो होना चाहिए? इसी वजह से रोज रात को खाने के समय कुहराम मच जाता. बच्चे तो बच्चे, बड़का बेटा भी.. अरे.. कभी कभार तो जालम खुद थाली को पटक कर उठ जाता था ।
“खाख डालों इन सब बातो पर.. बनिए की चिंता बनिया करें, अगर दूध मिलता है तो कम से कम घर में सब को थोडा चिकना चुपड़ा खाना तो नसीब होगा..”
माँ ने चारे की टोकरी को सँभालते हुए चिंता को झाड़ दिया ।
रात ढली ।
भैस की उठ-बैठ भी बढ़ती चली. जालम भी कमीज़ की बाहें चढ़ा कर, जवान की अदा से तैयार हो कर बैठा.. और बच्चों की टोली तो अइसे बेठी जैसे रामलीला का खेल शुरू होने की बाट न देख रही हो..!
परंतु माँ ने सारे बच्चों को झिडक कर सुला दिया. अपने मरद को भी प्यार से समजा कर अंदर भेज दिया. “बोली आप काहे आँखें कोरी कर के जगराता कर रहे हो ? में हूँ न इधर.. कुछ जरुरत आन पड़ी तो जगाउंगी आप को.. जाइये, भीतर जा के सो जाइये..”
घुंघटे में निंदियाई आँखे लाल करके बहु भी इसी ताक मैं बैठी थी की कब ससुरजी भीतर जाए और कब वो घूँघट हटा के सो जाए । पर जैसे ही वह अपनी खटियाँ में करवट लेके पड़ी ही थी कि सासू की आवाझ ने उसे वापस झकझोर के जगा दिया । “अरी..बहू...ये आगे का दुवार बंद कर के तू भी जरा सो जा..”” बोलते बोलते माँ सोच में पड़ गई ““बहु को भी यहाँ बुला लूँ..? या फिर उसे भी सो जाने को कह दूँ? अरे भगवान, क्यों में इन सब को यहाँ से भगा रही हूँ?”
माँ खुद के अंदर चल रहे कोई भयंकर षड्यंत्र से अनजान बन कर खुद ही को पूछ रही थी । घडी भर सोचने पर पता चला ““ना करे नारायण, और भैस का बच्चा पेट में ही आड़ा-टेड़ा हो गया तो मैं अकेली क्या करुगी? और फिर वो...”” उस षड़यंत्र के अनुमोदन में जैसे बोल रही हो वैसे बडबडाई.. “आखिर वो भी इस घर की जेठी बहु हैं ना ? वो भी तो इस घर की मालकिन ठहरी.. उसको भी तो.. पर छोड़ो..” उस ने आवाज़ लगाईं “अरी ओ बहु... बिचवाला किवाड़ बंद कर के तनिक तू भी सुस्ताइ ले..”
सास ने नहीं बोला होता तो भी बहु तो सोने की फ़िराक में ही थी.. पर जब सासुजी ने आपही सो जाने को बोला तब शिष्टाचार के खातिर, थोड़ा प्यार जताने का मन बना कर बाहर आई. दरवाजा बंध करके आते हुए बोली ““कुछ चाहिए क्या बाईजी? शेली (पशु के पैरों को बाँधने की रस्सी) लाऊ क्या? ”
“सब कुछ है..” बोलके सास चुपचाप खड़ी रही.. उसको तो ये भी नहीं पता था की बहु पास में आ कर खड़ी है, कि वहीँ किवाड़ की चौखट पे खड़ी हे.. जिस तरहा उस गर्भिणी माँ की आँखें वेदना से कातर थी, उसी तरहा इस माँ का मन भी अनेक शंका-संदेहों से उबल रहा था.. अरे.. शायद दोनों के हृदय भी एक सी रफ्तार में धड़क रहे होंगे।
परीक्षा की घडी आ पहुची ।
माँ ने अपने घाघरे का छोर खींच के पीछे खोंस के कच्छ लगाया और जनम पाने वाले बच्चे का पैर बाहर आता देख उसे खीचते हुए बड़बड़ाने लगी “हे भगवान, कही पाड़ा होगा तो? मैं भी अभागीन कलमुहीं..! कब की पाड़े-पाड़े की रट लिए बैठी हूँ..”
बड़ी तेज गति में धड़कती उसकी नसे जैसे बोल रही थी “ “करम जले पाड़े ! कितना भी जतन करो, जीने वाले तो है ही नहीं.. और हमारे भी परान लेके जायेगे. जो पाड़े जिन्दा रह गए वो भी तो दो तीन से ज्यादा जेठ महीनें देख नहीं पाते थे.. कम उम्र वाली ये जात ही.. इस के बजाए तो जनम लेने से पहेले ही मर जाते तो भैस की नजर ही नहीं पड़ती उन पर.. फिर ना ही उसे अपने पाड़े की माया-ममता लगती ना ही बच्चा खोने का आघात लगता.”
आधा बच्चा बाहर आते ही माँ बोल उठी “अरी ओ बहु.., वो दिया तो लाना .. झरा तेज करके.. मरी.. वहा कहा ढूंढ रही है, उधर रक्खा है ताक के पास.. छोड़, रहने दे, मुजे ही जाना पड़ेगा...” बहु को अँधेरे में यहाँ वहाँ खोज-बिन करते देख, बच्चे को खीचना छोड़ के सास खुद दौड गई. बाड़े की दीवार के ताक में रख्खे दिये को लेने. दिया ले कर दौड़ी दौड़ी वापिस आई. दिये जला कर, लौ तेज करके भैस के बाजू में रख्खा और तुरंत जा कर आधे जनमे बच्चे को पकड़ लिया. फिर कड़ी आवाज़ में बहु को फरमान दे दिया “ “बहु..! जाओ.. जाके सो जाओ..! अरी जा ना..! ज्जा..!” ” परंतु जितनी हड़बड़ी और बेचेनी सास को थी उतनी.. अरे, उसके सो वे हिस्से की भी बेचेनी बहु को कहाँ थी..! अभी तो जाऊ कि ना जाऊ, विवेक-अविवेक का विचार बहु कर ही रही थी कि उतने में ही छोटे झटके, बलके बिना झटके के बच्चा पेट से बाहर आ गया । जनम देनेवाली माँ की आँखों के सामने काले-पीले अँधेरे छा गए और इधर पाड़े की पूंछ के निचे हाथ से टटोलती हुई इस माँ का दिमाग भी चक्कर-वक्कर घूमने लगा । बहु तो काफी स्वस्थ थी पर कुछ ऐसा हुआ कि वह भी सहम गई । पता नहीं क्यों, दिया झप से बुझ गया.. और सारी गोठ में अँधेरा छा गया, जब उस अँधेरे में से सास ने काँपती और धीमी आवाज़ में उसे पुकारा, तब तो वह सचमुच घबरा गई.
“ बहु... सो गई क्या? अरे, अभी भी यही मरी हो? ठीक हे फिर.. देख, घर के पिछवाड़े में एक पुराना बड़ा सा टोकरा ला रख्खा है, जा झट से लेइ के आ. अरी..! धरती में पैर गाड़े मूरत बनी क्यों खड़ी हो..!? टोकरे का क्या करना है, ये पूछके क्या करोगी?” ”और दूसरे ही पल बहु को बड़ा अचंभा हुवा की उसके बाद सासुजी बोली वह बोल तो प्यार भरे थे. ““अरी बहु, तू एक बार मुजे टोकरा लाके तो दे बेटी...”” सास को डर था कि “अभी बहु के साथ माथाफोड़ी करने में बखत बरबाद करुगी तो भैस को बच्चे के बारे में पता चल जाएगा और पता चलते ही उसको ममता उमड़ेगी.. और एक बार उसे अपने बच्चे से लगाव हो गया तब तो..” उसने सास हो कर बहु को बिनती की “ज़रा जल्दी करियो...हां..बहु !”
बेचारी अबोध अनुभवहीन बहु ! वह तो काले धुप्प अँधेरे में टोकरा ढूंढने गई और ले के यहाँ वहाँ भटकती हुई सास के पास भी पहुची । मगर अँधेरे में आते जाते, ढूंढते हुवे उसके पैरों को जितना भटकना पड़ा उससे कई ज्यादा उसका दिमाग भटक रहा था । तो इस ओर जनम देने वाली माँ भी बावरी बनकर पीछे मुड मुड कर, आँखे फाड़ फाड़ कर देख रही थी । लंबी लंबी साँसे ले कर सूंघ रही थी । धीरे धीरे रम्भा रही थी । परंतु वह आधे दरजन बच्चों की माँ तो हर पल अपने मानवहृदय पर जैसे कड़ी दृढ़ता के काले पत्थर एक के उपर एक चढाती रही ।
बहु के पैरों की आहट से ही उसने भाँप लिया था और जैसे कोई दुश्मन के हाथ से हथियार छीन लेता हे वैसे उसने बहु के हाथ से वह बाँस का टोकरा छीन लिया । फिर कोई बड़ा वजन उठा रही हो वैसी दबी आवाज़ में बडबडाई : “चलती तो अइसे है, जैसे कुछ खाती ही नहीं..! टूटे पैरों से चलती, मज़े से आ रही है महारानी..! ले ये टोकरा, जा और बाड़े के पीछे गंदे पानी की खाई है उसमें फेंक के आ जल्दी से..”
बहु के माथे पर तो जैसे आसमान टूट पड़ा.. खाई में गिर पड़ने का डर भी भूल गई.. टोकरे को छूते ही दो कदम पीछे हट गई.. “ हाय.. हाय.. माड़ी..रे..! ये पाड़ा तो अभी ज़िंदा है, बाईजी ! और आवाज़ भी दे रहा हे अपनी माँ को..”
सुनते ही सास का दिमाग गुस्से से तमतमा गया. एक पल के लिए तो सोचा की बहु की ज़बान ही खींच लू.. पर इस नाज़ुक घडी में खुद को सँभालते हुए धीरे से बोली.. ““अरी, डेढ़सयानी..! यह तो तेरा बाप पाड़ा (नर) है, पुरे पन्द्रह दिन भी जीने वाला नहीं, और पिछले साल घर के ऊपर जो बीती थी वो मुज से पूछ... बड़ी आई.. हाय हाय करने वाली !! चल हाथ लगा, तु भी तो इस घर की बहु.."
“अरे, ना रे ना माई..! चाहे मुजे मार ही डालों फिर भी मैं तो अइसा काम कभ्भी...” कहती हुई बहु घर के भीतर के कमरे तक भाग के चली गई.. यह देख क्षण भर के लिए सास अवाक् बनी खड़ी रही । पैरों के पास पड़े टोकरे में नवजात पाड़ा बिलबिला रहा था. धीरे धीरे आवाज़ लगा रहा था अपनी माँ को, वह भैस भी जैसे कुछ भरम में पड़ी हो, कुछ खोया हुआ ढूंढ रही हो, वैसे इधर से उधर, उधर से इधर घूम रही थी और इस माँ के मन में भी घमासान मचा हुआ था । उसके नन्हे से मन में भी सात-आठ मनुष्य छटपटा रहे थे । पुरे साल भर की आवाज़े एक साथ उसके दिमाग में चकरा रही थी । ये आवाज़े उससे कहती थी.. अरे, कहती क्या थी ! बलके नंगे-अधनंगे साये खाली कटोरे-भगौने आगे धर धर के उसको गुहार-पुकार दे रहे थे ।
“ला, दे.. किसमे पका के खिला रही हो ? अरे रे..माँ, कभी तो थोडा दूध दे देती..”
“मरे.. भाड़ में जाए दूध, चंगुल भर छाछ ही देइ दे..”
उसमेंसे पति की वो घुरघुरी आवाज़ ने तो हद ही कर दी.. “ “ज़रा तो बिचार कर.. दिन भर मजदूरी कूटते हैं, फिर भी खाने में देखों तो अँगारे...!! अरे..ये राख़ जैसे सूखे टुकड़े गले के निचे कैसे उतारू..?!”
एसे रूखे सूखे भविष्य की कल्पना भर से माँ तंग आ गई “ हाँ रे हाँ.. इस सतवंती को तो अभी किसी को खाना परोसना नहीं है न ? और नाही किसी के भूखे सूखे मुँह देखने है.. मैं इसकी बुद्धि से चलूंगी तो यह साल भी, अरे अइसे तो पूरा अवतार ही..”
इसीके साथ उसने अकेले वह टोकरा खुद अपने ही सर पे उठाया.., बड़ी महेनत से उठाया.. और इस लड़खड़ाती उम्र में भी जवान बहु को शरमातें हुवे उसने घनघोर अँधेरे की ओर कदम बढ़ाया । आँगन की ड्योढ़ी को पार करते हुए, किवाड़ की चौखट पर खड़ी बहु को सुनाते हुए, वह अंधरे में गुम होती गई । अँधेरे में उसके शब्द धीरे धीरे दूर जाते गए :“ “इस बखत तो तुझे, दया भावना की पूंछडी को कुछ नही बोलूंगी.. पर अगर भगवान मुजे एक दसका (दस साल) ओर जिन्दा रख्खे है, तो मैं भी देखूंगी तेरी दयामाया की यह सारी नौटंकी, जब तु घर संभालेगी तब पता चलेगा कि कितने तोले मिलके एक मण होता हैं..! कैसे इस पेट से जन्मे बच्चों के जुंड पाले जाते हैं..! कैसे राज के लगान भरे जाते है और कैसे बनियों के ब्याज और वेवहार....”
संदर्भ पुस्तक :
- ‘पन्नालालनी श्रेष्ठ वार्ताओ’ : पन्नालाल पटेल (विद्यार्थी आवृत्ति), साधना पब्लिकेशन, दसवां प्रिंट, २००५, प्रकाशक : अरविंद पी. पटेल ।