स्वातंत्र्योत्तर हिन्दी उपन्यास में साम्प्रदायिकता का संदर्भ
15 अगस्त 1947 को भारत स्वतंत्र होने के साथही देश का विभाजन भी हुआ । एक तरफ आज़ादी के साथ लोकतंत्र का नारा दिया गया तो दूसरी तरफ सामन्तवादी मानसिकता एवं पद्धति ने देश में सदियों से जो समस्याएँ एवं रूढ़ियाँ बना रखी थी, चुनौती के रूप में लोकतांत्रिक पद्धति को ग्रासने को तैयार थी । जातिवाद, भाई-भतिजावाद, परिवारवाद, राजनीतिक पर सामन्तवादी शक्तियों का कब्जा, स्त्री-पुरुष असामनता, गरीबी-अमीरी के बीच की न पटने वाली खाई, आदिवासी जनजातियों की समस्याएँ, साम्प्रदायिकता आदि कई-कई समस्याओं ने देश को सौ से अधिक वर्षों की गुलामी ने बढ़ाकर दिया था । राजनीतिक क्षेत्र में वर्चस्व भी इन्हीं शक्तियों बढ़ावा देनेवाले तत्वों का होता जा रहा था । जिन संघटनों ने आजादी की लड़ाई में आवाज तक न उठायी थी, वे स्वातंत्रवीर कहलाने लगे, अपनी देशभक्ति के दावे पर समुदाय विशेष पर देशद्रोह के आरोप लगाने लगे । इन विरोधी विचारों, पद्धतियों और सभ्यताओं के महौल में आपातकाल, चीन भारत युद्ध, पाकिस्तान-भारत युद्ध, कट्टरवादी ताकतों का राजनीतिक-सांस्कृतिक मंच पर आसीन होने के प्रयास आदि ने अधिक गंभीर बना दिया, जिसमें कभी प्रतिरोध के स्वर तो कभी प्रतिगामी स्वरों के रूप में स्वातंत्र्योंत्तर हिन्दी उपन्यास ने अपना सफर आरंभ किया । एक ओर 1932-36 में आरंभ हुआ प्रगतिशील आन्दोलन अपने ही चक्रव्यूह में फँसकर साहित्यिक से अधिक राजनीतिक बनता जा रहा था, तो दूसरी ओर पार्टिगत राजनीति से ऊपर उठकर कुछ साहित्यकार मार्क्सवाद को रचनात्मक स्तर पर सफल बना रहे थे । मनोविश्लेषणवाद और प्रयोगवाद के नाम पर समाज विरोधी इलिट क्लास का साहित्य अपना सर उठा चुका था, जिसमें ग्रंथियों-मन की दशाओं का दर्भावनापूर्ण चित्रण किया जा रहा था, जिसका समाज से कोई लेना-देना नहीं था । कला, कला के लिए की तर्ज पर प्रयोग, प्रयोग के लिए की प्रतिध्वनि था प्रयोगवादी आन्दोलन, जिसे हरिवंशराय बच्चन ने बिल्कुल सही ‘बैठे ठालों का धन्धा’ कहा था । ग्रामीण आँचलिक उपन्यास इसका सही प्रतिरोध थे । स्वातंत्र्योत्तर समय में व्याप्त निराशा को आँचलिक-ग्रामीण उपन्यासों ने सही अर्थों में प्रस्तुत किया है । इसके बाद नववामपंथ के प्रभाव से जनवादी आन्दोलन ने उपन्यास साहित्य को दूर तक प्रभावित किया । इन विभिन्न आन्दोलनों ने हिन्दी उपन्यास साहित्य को स्थानीय, राष्ट्रीय तथा अन्तरराष्ट्रीय मुद्दों को उठाने में सक्षम बनाया । नब्बे के दशक में आयी वैश्विकरण की आँधी ने देश के साथ-साथ उपन्यास साहित्य को भी प्रतिरोध का एक साधन दिया । आरंभ में वैश्विकरण का अंध विरोध हिन्दी उपन्यास साहित्य में देखने मिलता है, जिसमें भावनात्मकता अधिक और वैचारिक सक्षमत कम थी, बाद के समय में विचारधारा का बल मिलने से अधिक रचनात्मक साहित्य आने लगा । इन सभी से गुज़रते हुए दलित, स्त्री, आदिवासी आदि अस्मितावादी स्वरों ने हिन्दी साहित्य के साथ उपन्यासों के स्वरों को भी नयी वाणी दी । अतीत के प्रभावों से मुक्त कराने में अस्मितावादी आन्दोलनों का अहम किरदार रहा । इन सभी से होते हुए हिन्दी उपन्यास ने शिल्प, विचार, संवेदना, कहन-शैली के साथ-साथ अपने दृष्टिकोण एवं संवेदना बिन्दुओं में कई बदलाव किए । इनका सविस्तार अध्ययन कर संक्षिप्त रूप में निम्न रूप में प्रस्तुत किया जा सकता है ।
स्वतंत्रपूर्व हिन्दी उपन्यास में साम्प्रदायिकता का चित्रण मिले-जुले रूप में रहा, जहाँ किशोरीलाल गोस्वामी स्कूल के रचनाकारों ने इतिहास को विकृत करके प्रस्तुत किया, वहीं आचार्य हजारी प्रसाद द्विवेदी, प्रेमचन्द आदि रचनाकारों ने इसके यथार्थ रूप को प्राथमिकता दी । आचार्य चतुरसेन शास्त्री भी ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में ख्यात हैं । शास्त्री जी तटस्थ दृष्टि के उपन्यासकार माने जाते हैं । पूर्ववर्ती अधिकांश ऐतिहासिक उपन्यासकारों की भाँति उन्होंने अपने उपन्यासों में पौराणिक, ऐतिहासिक और सामाजिक तथ्यों की साम्प्रदायिक व्याख्या न करते हुए तटस्थ रूप में कथा का आधार बनाया है । शिवकुमार मिश्र के अनुसार, “विलक्षणता के प्रेमी शास्त्री जी ने वैदिक, अवैदिक, बौद्ध, इस्लामी - किसी भी संस्कृति के प्रति अपने उपन्यासों में पक्षपात नहीं दिखाया है । सबका वस्तुनिष्ठ चित्रण किया है ।” (2015:68) प्रेमचन्द एवं उग्र की साम्प्रदायिक समरसता की दृष्टि उनमें भी पायी जाती है, जिसे आधार बनाकर उन्होंने ‘धर्मपुत्र’, ‘आलमगीर’ और ‘सोमनाथ’ शीर्षक उपन्यास लिखे हैं । इन पर भी तत्कालीन अधिकांश उपन्यासकारों की भाँति राष्ट्रीय आन्दोलन एवं गाँधी जी की धार्मिक नीति का गहरा प्रभाव था । चूँकि आचार्य चतुरसेन राष्ट्रीय आन्दोलन के शिखर पर पहुँचे समय और देश के आज़ाद होने के समय लिख रहे थे, ऐसे में भावी राष्ट्र की सदृढ़ परिकल्पना देना रचनाकार की सांस्कृतिक-रचनाकात्मक जिम्मेदारी का वहन करते हुए उन्होंने अपने उपन्यासों में सदृढ़ राष्ट्र की परिकल्पना देने का प्रयास किया है । ‘रक्त की प्यास’ (1951) में उन्होंने राजाओं के आपसी द्वेष और सामान्य जनता में राष्ट्र एवं राजा के प्रति उदासीनता के कारण एक राष्ट्र के परतांत्रिक होने का वर्णन कर इतिहास के माध्यम से अपने समय के पाठकों को सचेत करने का प्रयास किया है । जनता और राजाओं कीआपसी रंजिश में राष्ट्र के उज़ड़ने की कथा को प्रस्तुत कर उन्होंने राष्ट्रीय एकता का प्रयास किया ।
‘सोमनाथ’ में भी रचनाकार की यह चिन्ता व्यापक तौर पर देखने को मिलती है, जहाँ जातिवाद और धार्मिक संकिर्णता को कारणों के रूप में प्रस्तुत किया गया है । महमूद गजनवी के रूढ़ चरित्र चित्रण को नकारते हुए उन्होंने उसके मानवीय, संवेदनशील एवं राग-पक्ष को भी प्रस्तुत किया है । धर्मान्तरण के एक अन्य पक्ष को यहाँ प्रस्तुत करने का प्रयास दासी पुत्र देवस्वामी के माध्यम से किया गया है, जो अपने अपमान और उपेक्षा की प्रतिक्रिया में इस्लाम कबूल करके फतेह मुहम्मद बन जाता है और महमूद गजनवी का साथी बनकर सवर्ण हिन्दुओं से बदला लेने और मन्दिरों को ध्वंस में बढ़ चढ़कर आगे आता है । सवर्ण मानसिकता की अतिवादी प्रतिक्रिया इस उपन्यास में दर्शायी गयी है, जो अतिवादी और कई मायनों में काल्पनिक होने पर भी इतिहास की दृष्टि से कहीं भी गलत नहीं कही जा सकती है । यह सही है कि सामाजिक विखण्डन करनेवाली शक्तियों पर रचनाकार ने अधिक बल दिया है, किन्तु यह भी इतिहास का एक अध्याय है, जिसे प्रस्तुत करना अनिवार्य था । समकालीन दलितवादी दृष्टि से इसका और अधिक महत्व बढ़ जाता है तथा मुस्लिम राजाओं के प्रति अपनायी गयी पक्षपातपूर्ण दृष्टि और इस्लाम-तलवार सम्बन्धों का यह खण्डन करता है । ऐसे में यह अविश्वसनीय लगता है कि आचार्य चतुरसेन शास्त्री द्वारा ने ही इस्लाम का विषवृक्ष (1933) जैसी पुस्तक लिखी । क्योंकि यह वही आचार्य चतुरसेन शास्त्री हैं, जिन्होंने अपनी इस पुस्तक में इस्लाम को विषवृक्ष के रूप में प्रस्तुत किया, किन्तु पारम्पारिक रूप में कट्टर इस्लाम का प्रयोग करते हुए अत्यन्त क्रूर एवं निर्दयी, भारतीय इतिहास के लगभग सबसे बड़े खलनायक औरंगजेब को केन्द्र में रखकर ‘आलमगीर’ (1964) शीर्षक उपन्यास की रचना की । इसमें उन्होंने इतिहास के इस प्रति-नायक के चरित्र में कल्पनाओं का प्रयोग करते हुए मानवीय संवेदनशीलता के पक्ष को प्रस्तुत किया । इसके अतिरिक्त उन्होंने औरंगजेब के प्रेम प्रसंगों और धार्मिक कट्टरता की भी आलोचना की । ऐसे में शास्त्री जी ने कट्टरता के दूसरे छोर पर जाकर ‘इस्लाम का विषवृक्ष’ खड़ा किया । आलोचना धार्मिक कट्टरता की होनी चाहिए, किन्तु वह किसी और कट्टरता के माध्यम से नहीं, इस बात को शास्त्री जी ने ठीक से समझा नहीं था ।
इसी क्रम में आनेवाले ऐतिहासिक उपन्यासकार प्रताप नारायन मिश्र ने ‘बेकसी का मज़ार’ (1950) में प्रथम स्वतंत्रता संग्राम को कथा की पृष्ठभूमि में रखा । केन्द्रीय पात्र के स्थान पर अन्तिम मुगल सम्राट बहादुर शाह ज़फ़र को रखते हुए उसे राष्ट्रीय एकता एवं सद्भावना का पात्र बनाया । अपने समय की माँग के समझते हुए मिश्र जी ने अपना कथा-समय चुनकर उसके साथ न्याय करने का पूरा प्रयास किया ।
देवेन्द्र सत्यार्थी के उपन्यास ‘कठपुतली’ (1954)में असंवेदनशील समय में कलाकार पात्रों के माध्यम से संवेदनशीलता को तलाशने का प्रयास किया गया है । इस उपन्यास के पात्र सुनीता, दीपाली, विमल, जीनत आदि सभी कलाकार हैं और अपने जीवन को कला एवं उसकी साधना के प्रति के प्रति पूर्ण समर्पित कर चुके हैं । “कठपुतली की सबसे मोहक विशेषता यह है कि इसके कलाकार पात्रों का धर्म, जाति, क्षेत्र आदि से जुड़ी सकिर्णताओं से ऊपर उठकर शुद्ध मनुष्यता के स्तर पर एक दूसरे से जुड़ना और प्रेम की एक नयी मिसाल सामने रखना । हिन्दू मुस्लिम प्रेम की जैसी अनोखी और सहज तसवीर इस उपन्यास में प्रस्तुत की गयी है, वैसी कहीं और नहीं मिल सकती । स्वतंत्रता प्राप्ति के समय पंजाब में हुए साम्प्रदायिक दंगों का बड़ा ही संवेदनापूर्ण और प्रामाणिक अंकन किया गया है । पाकिस्तान से हिन्दुस्तान और हिन्दुस्तान से पाकिस्तान जानेवाले शरणार्थियों के काफिलों के वर्णन में सत्यार्थी जी ने अनुभव की प्रामाणकता और संवेदना की गहराई का ऐसा मिश्रण प्रस्तुत किया है कि पढ़कर रोमांच हो उठता है ।” (गोपालराय, 2010:238)
आज़ाद भारत की पहली सरकार चुनी गयी सन 52 में । जवाहरलाल नेहरु ने गाँधी जी के गाँव की ओर चलो नारे को गाँव के विकास नारे में बदलने का प्रयास किया । पंचवार्षिक योजनाओं द्वारा गाँवों की तरफ ध्यान दिया-दिलवाया गया । इसके माध्यम ‘झूठी आज़ादी’ के नारे को गलत साबित करने का प्रयास उन्होंने किया । हिन्दी उपन्यास लेखन प्रेमचन्द के समय गाँव की ओर ही था, किन्तु अज्ञेय, इलाचन्द्र जोशी ने उन्हें मन की अतल गहराइयों, शहरों की महलभरी गलियों और विदेश के वातावरण में विचरण करा दिया । नेहरु के नारे प्रतिध्वनि और अज्ञेय-जोशी के उपन्यासों की प्रतिक्रिया देने का कार्य फणीश्वरनाथ रेणु ने ‘मैला आँचल’ (1954) के माध्यम से किया । पहले उपन्यास की जोरदार सफलता के बाद उन्होंने इसी तर्ज पर ‘परती परिकथा’ (1957), दीर्घतपा (1964) और जुलूस (1965) शीर्षक उपन्यासों की रचना की । इन उपन्यासों का कथा-समय आजादी से पूर्व के और आजादी के बाद के दो-तीन वर्षों की बीच फैला है । इस बीच विभाजन, साम्प्रदायिक दंगे, मुहाजिरों-शरणार्थियों की समस्या आदि कई अमानवीय घटनाएँ हुई, किन्तु रेणु के गाँव प्रतीक बनने की फ़िराक़ में इन सबको भल जाते हैं । उनके गाँवों में मुसलमान रहते ही नहीं, तो वे इन समस्याओं को क्यों छुएँगें भला ! इनमें से केवल ‘जुलूस’ में पूर्वी पाकिस्तान (अब बांग्लादेश) से पूर्णिया आए शरणार्थियों की सामुहिक मानसिकता का जुलूस से रूप में वर्णन किया गया है, किन्तु यह उपन्यासकार का मुख्य उद्देश्य नहीं है और न ही इसमें उनकी समस्याओं को गहराई से उठाया गया है । इस अभाव को कमलेश्वर ने ‘लौटे हुए मुसाफिर’ (1961) में पूरा किया । कमलेश्वर ने इस उपन्यास में साम्प्रदायिकता की समस्या और पाकिस्तान के नाम पर छले गए मुसलमानों के मोहभंग का चित्रण किया है । उनके जीवन में आशा का संचारित होना, उसका फलीफूत होना और अंधकार छा जाना, इन्हें सुबह..दोपहर...शाम..शीर्षकों के अन्तर्गत विभाजित करते हुए प्रतीक रूप में प्रस्तुत किया गया है । भारतीय स्वतंत्रता में भाग लेनेवाले क्रान्तिकारी दल को कथा के केन्द्र में रखा गया है । कमलेश्वर का ‘कितने पाकिस्तान’ मोहभंग एवं दंगे की राजनीति एवं साम्प्रदायिकता में राजनीति की भूमिका को व्यापक फलक पर प्रस्तुत करता है, जिसका अध्ययन आगे के अध्यायों में सविस्तार किया जाएगा । कृष्ण बलदेव वैद का ‘नसरीन’ (1974) उपन्यास विषय से भटका हुआ एवं निरर्थक प्रयोगधर्मिता का उदाहरण है, न व्यक्तिमन के चित्रण में और न ही सामाजि-सांस्कृतिक चित्रण में कोई उल्लेखनीय उपलब्धि इस उपन्यास ने हासिल की ।
अमृतलाल नागर का ‘अमृत और विष’ (1966) में भी आँचलिक उपन्यास की विशेषताएँ देखी जा सकती हैं । पतनशील सामन्ती मूल्यों और दम तोड़ती खोखली दिखावटी संस्कृति के साथ साम्प्रदायिक दंगों में होनेवाली विशेष मानसिकता को उपन्यासकार ने शिद्दत से उकेरा है । उनके ‘करवट’ (1985) उपन्यास में भी लखनऊ के नवाबों की ध्वस्त होती शासन संस्था और मूल्यों के टकराव को केन्द्र में रखा गया है । ‘शतरंज के मोहरे’ (1959) और ‘सात घूँघट वाला मुखड़ा’ (1968) में अवध के नवाबी सामन्तवाद के बहाने सामन्तवाद के इसी पक्ष को प्रस्तुत किया गया है । इस समान्ती चेहरे और उसके घिनौने रूप के प्रस्तुत करते समय धर्म और सामन्तवादी प्रवृत्तियों का घाल-मेल उपन्यासकार ने नहीं किया है। यह उसकी सबसे बड़ी विशेषता है कि सामन्ती आचरण को धार्मिक आचारण के रूप में वह नहीं देखता।
कृष्णा सोबती ने जिन्दगीनामा’ में पंजाब की लोक-संस्कृति की सौंधी गंध और पंजाब की धार्मिक समन्वय से बनी साझ संस्कृति को स्थान दिया। तीज, त्यौहार, उत्सव, मेले जहाँ समन्वय एवं सौहार्द का प्रतीक हैं, वही राजनीतिक-सामाजिक परिवर्तन असंवेदनशील हो चले समाज का। सम्पन्नता-विपन्नताओं के साथ सारा समाज, समाज में सारे धर्म-जाति के लोग उपन्यास के फलक पर अपनी मौजूदगी दर्ज कराते हैं। लौटे हुए मुसाफिर’ (1965) में पाकिस्तान के नाम पर छले गए विपन्न लोगों को केन्द्र में रखा गया है। उनकी यातनाएँ और मनस्थितियाँ उपन्यास को एक झीनी रेखा से ढँक लेते हैं।
गुलशेर खाँ शानी हिन्दी उपन्यास लेखन क्षेत्र में मिशन के तहत मुस्लिम जीवन पर लिखनेवाले पहले कथाकार हैं। “शानी के पहले प्रेमचन्द, यशपाल, वृन्दावनलाल वर्मा आदि ने अपने उपन्यासों में सीमित अनुभव के आधार पर मुस्लिम जीवन का अंकन किया था, पर यह विषय किसी ऐसे संवेदनशील और प्रतिभाशाली उपन्यासकार की प्रतीक्षा कर रहा था, जो खुद उस जीवन का अभिन्न अंग हो। शानी इस बात को बहुत शिद्दत के साथ महसूस कर रहे थे कि हिन्दी उपन्यास में मुस्लिम जीवन का चित्रण बहुत कम हुआ है। कहा जा सकता है कि शानी ने इस अभाव को दूर करने की गौरवपूर्ण शुरुआत की।” (गोपालराय, 2010:290)उनके उपन्यास ‘काला जल’ (1965) में बस्तर के दो निम्न-मध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों की कहानी कही गयी है। काला जल प्रतीक है उस ठहरे हुए जीवन का, सिमटे हुए सपनों का और घुटन भरी गलियों-परिवार की रूढ़ियों का। इस रूके हुए जीवन में ठहरे हुए जल की तरह सँड़ाध मारने लगती है। वह काला पानी की तरह हो जाता है। शिया परिवार में होनेवाले त्यौहार, मुहर्रम, जुलूस आदि इस समाज को और अधिक सीमित कर देते हैं । जीवन की जड़ता और अवसाद को उपन्यास में सांस्कृतिक-धार्मिक परम्पराओं के माध्यम से भी प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है । उपन्यास में धर्म, राजनीति पर भी चुपके से विमर्श किया गया है । पाकिस्तान का मोह भी आता और उसके प्रति मोहभंग भी आता है, रामचरितमानस का पाठ भी होता है, फातिहा भी पढ़ी जाती हैं, पीढ़ियों की कथा भी । यह सम्पूर्ण जीवन को समेटने का प्रसास है, किन्तु यह जीवन की त्रासदीयों के अधिक सूक्ष्मता से रेखांकित करनेवाला उपन्यास है ।यह शानी का सर्वश्रेष्ठ उपन्यास तो माना ही जाता है, शिया मुस्लिम जीवन की त्रासदियों को रेखांकित करनेवाला इस युग का बेहतरीन उपन्यास भी माना जाता है । आगे आनेवाला ‘आधा गाँव’ इसी परम्परा का उपन्यास है । इसके विभिन्न पक्षों पर आगे के अध्यायों में सविस्तार प्रकाश डाला जाएगा ।
बदी उज़्ज़मा का कथा साहित्य साम्प्रदायिकता और विभाजन की त्रासदी को अभिव्यक्त करता है । उनके उपन्यास ‘छाको की वापसी’ (1975) और ‘सभापर्व’ इन्हीं दोनों बिन्दुओं को केन्द्र में रखते हैं । छूटे हुए वतन का दर्द, पाकिस्तान पहुँचकर भी अपनी पुरानी गलियों में और वहीं रह गए व्यक्तियों की यादें, पलायन के दौरान साम्प्रदायिक दंगों की विभीषिका, मुहाजिर के रूप में अपमानित जीवन, भारत में रह गए मुसलमान एवं पाकिस्तान में रह गए हिन्दुओं के जीवन की विभिन्न समस्याएँ, राष्ट्रीय धारा में उनकी स्थिति आदि व्यापक बिन्दुओं को उनके यह दोनों उपन्यास स्पर्श करते हैं । व्यापकता को एक घर की कथा को माध्यम बनाया गया है और घर की कथा को व्यापक बनाने के लिए उसे राष्ट्रीय सन्दर्भ दिए गए हैं । वह ‘घर’ से ‘देश’ और ‘देश’ से ‘घर’ को सन्दर्भित करने का प्रयास है, जहाँ दोनों में कोई अन्तर नहीं रह जाता है । इसकी समीक्षा करते हुए भगवान सिंह ने लिखा है, “इस रचना का ताना वर्तमान का है और बाना इतिहास और दर्शन का इसलिए वह (लेखक) रचनाकार के साथ-साथ समाज, धर्म और इतिहास के मिमांसक दार्शनिक बन जाते हैं ।” (20:88) और वह भी समासोक्ति-अन्योक्ति के सन्दर्भों से बचते हुए ।
लगभग आधा दर्जन उपन्यास लिखने के बाद रामदश मिश्र का उपन्यास मुस्लिम जीवन-सन्दर्भ से युक्त ‘दूसरा घर’ उपन्यास प्रकाशित हुआ । विभाजन के बाद दुनिया के सबसे बड़ी आबादी ने स्थलान्तरण किया, किन्तु विभाजन के बाद देश के अन्तर्गत लगातार चल रही मजदूरों की खानाबदोशी पर मिश्र जी ने जिस ईमानदारी और संवेदनशीलता से लेखन किया, वह हिन्दी उपन्यास साहित्य में दुभर है । उन्होंने इस उपन्यास में उत्तर प्रदेश से रोजगार की तलाश में महाराष्ट्र और गुजरात को पहुँच रहे और पहुँचे हुए मजदूरों की व्यथा कथा को व्यापकता एवं गहराई से से प्रस्तुत किया है । उनके उपन्यास की सबसे बड़ी विशेषता है कि उनके मजदूर पात्र-परिवार मजदूर पात्र-परिवार ही हैं, वह हिन्दू, मुसलमान या कुछ और नहीं हैं । वे मिलों में काम करनेवाले मजदूर, फुटपाथ पर चाय का धन्धा करनेवाले दूकानदार, होटलों में चौका-बर्तन करनेवाले तथा नाश्ता चाय देनेवाले किशोर बच्चे, घरों में काम करनेवाले नौकर, माली, चपरासी आदि से लेकर स्कूलों और कॉलेजों में कार्यरत मुख्यतः हिन्दी के अध्यापक, गुंडे, धन्धेबाज हिन्दू-मुसलमान, ब्राह्मण शूद्र सभी तरह के लोग हैं । वे अपनी खुबियों-कमजोरियों के साथ अपनी विविधताओं, जीवन-शैली, आचार-विचार, आर्थिक सामाजिक स्थिति आदि के कारण एक लघु उत्तर भारत का निर्माण करते हैं । दूसरा घर में इन्हीं प्रवासी के जीवन का यथार्थ, जो अत्यन्त सघन, बहुआयामी और जटिल है, अंकन, यथार्थवादी शैली में किया गया है । इस चित्रण में उत्तर भारत की जिन्दगी की सारी भद्दगियाँ, सामाजिक अन्तर्विरोध, जातिवादी कमीनगी, गरीबी और अशिक्षा से उपजी मानसिकता, पैसे के लोभ से पैदा हुई अमानवीयता और भ्रष्टाचार, गुण्डागर्दी आदि सजीव हो उठे हैं । उपन्यासकार ने प्रवासी मुसलमान मजदूरों के जीवन यथार्थ का बिना किसी भेद केकाफी विस्तार के साथ चित्रण किया है । धार्मिक अन्तर के बावजूद इन दोनों की नियति-स्थिति में कोई अन्तर नहीं है । गरीबी, अशिक्षा, शोषण, गन्दगी, विवशता, भूखमरी आदि की दृष्टि से दोनों की जिन्दगी एक जैसी है । दोनों ही जातियों में संवेदनशील और मानवीय मूल्यों के आग्रही लोग समान रूप से हैं । “दोनों में ही समाजों में संकीर्ण मानसिकता के, गरीबों के शोषण पर जीनेवाले परोपजीवी गुंड़े और राजनीति व्यवसायी हैं जो साम्प्रदायिक भावनाएँ उभारकर उनके बीच दंगे करा देते हैं और उसका राजनीतिक-आर्थिक लाभ उठाते हैं । यह प्रगतिशील मानवतावीद दृष्टि रामदश मिश्र को एक संवेदनशील कथाकार के रूप में प्रतिष्ठित करती है ।” (गोपालराय, 2010:276)
समुचित इतिहास-बोध, विश्लेषण क्षमता और उसके लिए सक्षम भाषा, सम्यक तथ्य ज्ञान और सम्यक-दृष्टि के अभाव में लिखित ऐतिहासिक उपन्यास या तो तथ्यों का पुलिंदा बनकर रह जाते हैं या फिर टारगेटेड अथवा बदले की भावन से लिखित दस्तावेज़ । सुखद है कि अपनी भाषा और वातावरण निर्माण के लिए प्रसिद्ध हजारी प्रसाद द्विवेदी के उपन्यास इस कसौटी पर खरे तरते हैं । उनके द्वारा लिखित एक उपन्यास ‘चारु चन्द्रलेख’ (1963) का कथा-समय मुस्लिमों से सम्बन्धित हैं, जिसमें पूर्ववर्ती अधिकांश ऐतिहासिक उपन्यासकारों से भिन्न समानतावादी दृष्टि को स्वीकृत किया गया है । इतिहास के प्रति बदले की भावना अथवा दर्भावना उनके इस उपन्यास में नहीं है । यह उपन्यास दिल्ली सल्तननत के आरंभिक काल के इतिहास को अपना कथा-समय बनाता है । समाज, इतिहास और सामाजिक-सांस्कृतिक इतिहास की नब्ज को सही पकड़ते हुए उन्होंने उपन्यास में आर्यावर्त के मुस्लिम आक्रमणकारियों द्वारा यहाँ के राजाओं की पराजय होने का मुख्य कारण सामान्य जनता की राजनीतिक उदासीनता, जातिभेद तथा वर्गभेद आदि बताए गए हैं । यह एक स्वीकृत तथ्य है । तुर्कों द्वारा भारतवर्ष के पराभव का कारण यहा के समाज का शतधा विभक्त होना तथा रूढ़ियों, अंधविश्वासों, ग्रह-नक्षत्रों, योग साधनाओं और मंत्र-तंत्र के विश्वास में जकड़े होना भी था । हजारी प्रसाद द्विवेदी इतिहास बोध और विश्लेषण क्षमता उपन्यास लेखन के लिए अत्यन्त अनुकूल है ।
गुलशेर खाँ शानी तथा बदी उज़्ज़मा ने अपने उपन्यासों में समकालीन मुस्लिम जीवन की त्रासदियों को चित्रित करने का प्रयास किया था । यदि ‘सहानुभूति’ और ‘स्वानुभूति’ वाला चलताऊ फॉर्मुले के ढाँचे में सोचा जाए तो कहा जा सकता है कि उपरोल्लेखित दो उपन्यासकारों के बाद राही मासूम रज़ा मुस्लिम जीवन के बेहतरीन उपन्यासकार हुए । वैसे यह अनिवार्य नहीं है कि मुस्लिम जीवन का चित्रण करनेवाला रचनाकार मुस्लिम हो ही । राही मासुम रज़ा ने अपने उपन्यासों में अवध की संस्कृति और प्रकृति को संस्कृति का हिस्सा बनाकर ऐसे प्रस्तुत किया कि पाठक की मनुष्यता और संवदेशीलता जागृत हो जाए । राही शानी की तरह केवल त्रासदियों के रचनाकार नहीं हैं, अपितु वे अन्तर्विरोधों को उभारकर उनकी आलोचना करनेवाले उपन्यासकार हैं । इस क्रम में वे केवल संवेदनशीलता से काम नहीं लेते, अपितु आलोचना दृष्टि को भी जागृत करते हैं । वे सम्मोहन या मिशन के तहत मुस्लिम समाज का चित्रण नहीं करते हैं, अपितु स्वाभाविक रूप में उनकी सभ्यता की समीक्षा करते हैं । इसमें कब धर्म और कब राजनीति की और कब रूढ़ियों की आलोचना की जा रही है, यह समझना मुश्किल है, क्यों राही के कथा संसार और कथा-क्षेत्र में यह सारी चीज़ें गड्मड् हैं ।
सन 1966 में राही मासूम रज़ा का ‘आधा गाँव’के बाद उनके ‘टोपी शुक्ला’ (1969), ‘हिम्मत जौनपुरी’ (1969), ‘ओस की बूँद’ (1970) और ‘दिल एक सादा काग़ज़’ (1973) उपन्यास प्रकाशित हुए। थोड़े से फेरबदल के बाद मोटा-मोटी तौर पर परवर्ती सारे उपन्यासों में ‘आधा गाँव’ के कथ्य का दोहराव देखा जा सकता है। इन पाँचों उपन्यासों में मुसलमान जमींदारों, मध्यवर्गीय किसानों की आजादी से पूर्व की राजनीति, धार्मिक रूढ़ियाँ, खुशहाली में बदहाली, विश्वदृष्टि आदि को विषय बनाकर आँचलिक संस्कृति का बेहतरीन चित्रण किया गया है। सामन्तवाद में फँसे मुस्लिम समाज की स्थिति इसी तरह के हिन्दू समाज से बहुत अधिक भिन्न नहीं थी, उन समान एवं भिन्न दोनों बिन्दुओं को रज़ा अपने अन्दाज़ें बयाँ से तराशते हुए प्रस्तुत करते हैं। मुहाजिर, राष्ट्रीयता, लीग-काँग्रेस राजनीतिक, मुसलमानों की आपसी फ़िरक़ापरस्ती, सामाजिक-पारिवारिक संबंध आदि को वे तार-तार कर देते हैं। दिल एक सादा काग़ज़ में मुहाजिरों के मोहभंग की कथा है। हिन्दू-मुसलमान सम्बन्धों को नए बिन्दु से प्रयास किया है। रज़ा का तमाम लेखन मानवीय संबंधों की खोज करता है, जो धर्म की दीवार के परे जाकर देखने का प्रयास है। टोपी शुक्ला में यह प्रयास अधिक संवेदनपूर्ण बन पड़ा है। हिम्मत जौनपुरी एक ऐसे मुसलमान की गाथा है, जो भारत की मिट्टी में पैदा हुआ और यहीं अपने को मिटते देखना चाहता है। यह ईमानदारी सिद्ध करने का सिद्ध प्रयास है, शक की निगाहों के खिलाफ। ओस की बूँद में पात्र हिन्दू-मुसलमान से परे हैं, किन्तु धार्मिक उन्माद और उसके परिणामों को रेखांकित करना उपन्यासकार का मुख्य ध्येय है। ‘सीन-75’ में चित्रित मुसलमान मुहल्ला आपात्काल के दौरान देश के मुसलमानों का प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करता है। कटरा बी अरजू इसी दौरान पूरे देश का प्रतिनिधित्व करने का प्रयास करता है। दोनों उपन्यासों में सपनों की टूटन, राजनीतिक निराशावाद, लोकतंत्र की असफलता से उपजी निराशा, राजनीतिक अस्थिरता आदि को दर्शाने का प्रयास किया गया है। खास तामपान की भाषा का लहजा, आँचलिक भाषा की मिठास, उसका गँवई अन्दाज़ रज़ा की विशेषता है। वे किसी धर्म या विचारधारा का जुमले में विरोध नहीं करते और न पात्रों से उस तरह के संवाद बुलवाते हैं, बल्कि आचरण से वे साम्प्रदायिकता, अमानवीयता, विभाजन आदि सभी का जमकर प्रतिरोध करते हैं। डॉ. प्रमिला अग्रवाल का राही के उपन्यासों के संदर्भ में कहना हैं, “राही के उपन्यासों के विवेचन से यह स्पष्ट होता है कि ये उपन्यास विभाजन के बाद पतनशील जीवन-मूल्यों, अविश्वास और सन्देह के माहौल में सच्चे, ईमानदार लोगों की मनोव्यथा का अंतरंग इनमें खुलकर सामने आया है, साथ ही भारतीय मुसलमान की पीड़ा का मार्मिक चित्र भी इनमें प्रस्तुत है।” (1992:213) रज़ा हिन्दी उपन्यास में अति-परिपक्वता के प्रतीक हैं, जो किसी से नफरत के बगैर किसी दूसरे समुदाय का साम्प्रदायिक-सांस्कृतिक चित्रण करते हैं। वे हिन्दी उपन्यास में साम्प्रदायिक समन्वय की प्रतिनिधि आवाज़ है, बुलन्द आवाज़।
शिवप्रसाद सिंह का 1993 में लिखित ‘दिल्ली दूर अस्त’ दो भागों में क्रमशः ‘कुहरे में युद्ध’ और ‘दिल्ली दूर है’ शिर्षक से प्रकाशित हुआ । कथा-समय के रूप में उपन्यास मुहम्मद गोरी द्वारा पृथ्वीराज और जयचन्द की पराजय के बाद उत्तर भारत में दिल्ली सल्तनत की स्थापना के क्रम में जुझौती में तुर्क सेनाओं की असफलता और नसिरुद्दीन शाह से लेकर अल्लाउद्दीन खिलजी तक की राजनीतिक धार्मिक और सांस्कृतिक टकराहटों और यत्किंचित हिन्दू और मुस्लिम इस्लामी संस्कृति के समन्वय का चित्र तक के बहुत लम्बे समय को समेटता है । सांस्कृतिक टकराव के साथ समन्वय को उपन्यास का लक्ष्य बनाते हुए शिवप्रसाद सिंह ने हिन्दु गौरव और हिन्दुत्व प्रेम को भी जगह-जगह प्रश्रय दिया है । “हिन्दू संस्कृति की गौरव गाथा और हिन्दुत्व प्रेम ने उपन्यास में चित्रित इतिहास और स्वयं उपन्यास को कई क्षतियाँ पहुँचायी है । उपन्यासकार को लगातार यह डर सताता रहा है कि सम्पूर्ण भारत इस्लाममय हो जाएगा, इसकी प्रतिध्वनि उपन्यास में प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप में कई बार सुनाई देती है ।” (गोपालराय, 2010:322) अपनी समकालीन चिन्ता से कटा हुआ चिन्तन तब प्रकट होता है, जब उपन्यासकार भारतवंश के राजाओं में एकता की चिन्ता में अधिक लिप्त हो जाता है, जिसकी सम्भावना उसे तत्कालीन इतिहास में नहीं दिखाई देतीहै । “यह स्पष्ट है कि अपने विचारों को इतिहास में ढूँढ़कर प्रस्तुत करने के लिए उन्होंने निश्चित लक्ष्य लेकर यह उपन्यास लिखे हैं, जिसके लिए बहुत ही विचारपूर्ण ढंग से इतिहास के उस काल को चुना गया है, जिसे सल्तनत की बुनियाद का काल कहा जाता है, यानी 12वीं 13वीं शताब्दी । इस कारण उपन्यासकार को मुस्लिम आक्रान्ताओं द्वारा पददलित होती हिन्दू जनता, आगजनी, लूट-पाट, हत्याओं, गुलाम बनाना, धर्म परिवर्तन, सांस्कृतिक विरासत को नष्ट करना, मन्दिरों का तोड़ना आदि घटनाओं को दिखाना आसान हो गया ।” (गोपालराय, 2010:323) यह ऐतिहासिक सच है, किन्तु इतिहास का सरलीकरण कर चन्द राजाओं-नवाबों द्वारा किए गए अन्यायों-अत्याचारों को तमाम कौम की सामान्य जनता पर चस्पा कर साम्प्रदायिक दृष्टिकोण का प्रसार करना भविष्य को इतिहास का बदला लेने तैयार करना है । एक खास लक्ष्य के तहत बुन्देलखण्ड के जुझौती का प्रसंग चना गया है, जिसमें हिन्दू राजाओं की वीरगाथाओं को प्रस्तुत किया जा सके । “सारे अत्याचार एवं शौर्य आदि तो इतिहासस्ममत हो सकते हैं । ऐतिहासिक दृष्टि से यह कदाचित् सच हो, पर आज के सन्दर्भ में इन स्थितियों का सहानुभूतिपूर्ण अंकन उपन्यासकार की साम्प्रदायिक सोच की ही उपज जान पड़ता है । ऐतिहासिक सच्चाई को शाश्वत सत्य मान लेने की भूल मनुष्यता के लिए घातक होती है । ...शिवप्रसाद सिंह अपने वक्तव्यों में असाम्प्रदायिक होने का दावा करते हैं, पर उनके ऐतिहासिक उपन्यास इस दावे पर प्रश्न चिन्ह अंकित करते दीखते हैं ।” (गोपालराय, 2010:324)
भारतीय समाज-संस्कृति पर मुस्लिमों के प्रभाव पर बात करते समय भाषा पर सर्वप्रथम ध्यान जाना स्वाभाविक है । आवश्यक नहीं कि मुस्लिम जीवन-संस्कृति के सन्दर्भ से युक्त उपन्यासों को ही इस सन्दर्भ में देखा जाए । कुछ ऐसे भी उपन्यास हो सकते हैं, जिनमें पात्र के रूप में एक भी मुस्लिम न आता हो, किन्तु वहाँ मुस्लिम प्रभाव देखा जा सकता है । कृष्णा सोबती के उपन्यास ‘दीलोदानिश’ (1993) में दिल्ली की मूल संस्कृति प्रस्तुत करने का प्रयास किया गया है, जो हिन्दू-मुस्लिम सम्पर्क का परिणाम है और अब लगभग समाप्त होने की कगार पर है । इस उपन्यास की भाषा करारी हिन्दुस्तानी है । रनचात्मक स्तर पर कृष्णा सोबती ने इसमें दिल्ली के आस-पास की बोलियों का मिश्रण कर, दिल्लीवाली भाषा को प्रस्तुत किया है । अभिजात मुस्लिम परिवारों में बोली जानेवाली हिन्दुस्तानी के लहज़ों, आदरार्थ बहुवचन के प्रयोगों, वचन विदग्धता आदि के कारण उपन्यास की भाषा अपने कथ्य को विश्वसनीय बनाने में पूरी तरह समर्थ है । यहाँ ध्यान देने की बात है कि रूप के स्तर पर उपन्यासों को संस्कृति रचनात्मक रूप में प्रभावित कर रही है, किसी पात्र के सीधे-सीधे न आते हुए भी । इस ओर भी ध्यान दिया जाना चाहिए । वैश्विकरण और उत्तर-आधुनिक मानसिकता-राजनीति को केन्द्र में रखनेवालामनोहर श्याम जोशी का उपन्यास ‘हमज़ाद’ (1996) भी इसी प्रकार रूप के स्तर पर फारसी शब्दों से प्रभावित है, किन्तु उसमें ‘दीलोदानिश’ की सरलता एवं स्वाभाविकता नहीं है । फारसी का इतना अधिक प्रयोग किया गया है कि इसकी रचनात्मकता के उद्देश्य और प्रयोगत्मकता की सार्थकता पर पाठक की दृष्टि से असफलता ही हाथ लगती है ।
सातवें दशक में काफ्का, कामू, सार्त्र आदि के प्रभाव से हिन्दी कथा साहित्य मन की अतल गहराइयों के गोते लगाने लगा और वहाँ समाज धुँधलके में चला गया । इसी समय लिख रही मेहरुन्निसा परवेज इस प्रभाव से बचते हुए अपने उपन्यासों के रूप मेंमध्य प्रदेश के बस्तर क्षेत्र को चुनते हुए ‘आँखों की दरहलीज’ (1972) और ‘कोरजा’ (1977) में मुस्लिम तथा ‘उसका घर’ में (1972) में इसाई परिवार की स्त्रियों की व्यथा-कथा को प्रस्तुत करने का प्रयास किया । इस दृष्टि से वे इन दोनों समाजों की इनसाइडर होने का बखूबी प्रयोग अपनी रचनाओं में करती हैं ।उन्होंने अपने उपन्यासों के लिए सम्पूर्ण संस्कृति या समाज को न चुनते हुए इन समाजों में हो रहे स्त्री शोषण और स्त्री संहिताओं और आधुनिकता के द्वन्द्व में फँसी स्त्री को केन्द्रीय पात्रों के रूप में चुना । ‘कोरजा’ में निम्नमध्यवर्गीय मुस्लिम समाज की औरत की पीड़ाओं को चित्रित किया गया है । उनके उपन्यासों की विशेषता है कि हिन्दू, मुस्लिम और ईसाई धर्म का अन्तर होने के बावजूद स्त्री की पीड़ा में कोई अन्तर नहीं पड़ता है, यही उनका केन्द्रीय कथ्य भी है । “मेहरुन्निसा परवेज़ के उपन्यासों में जिस मुस्लिम समाज का चित्रण हुआ है, वह धार्मिक दृष्टि से उदार, पर सामाजिक दृष्टि से, विशेषकर स्त्री के प्रति अनुदार है, दूसरी तरफ भारतीय ईसाई समुदाय में प्रेम और तलाक के मामले में स्त्री को आजादी है, पर धार्मिक कट्टरता उतनी ही अधिक है । धार्मिक कट्टरता किस प्रकार व्यक्ति को असहिष्णु और अमानवीय बना देती है, तथ उसकी दराँतों में यवक-युवती के सपने लहूलुहान हो जाते हैं, इसके अंकन में मेहरुन्निसा ने अद्भुत संवेदनशीलता का परिचय दिया है । इसी प्रकार स्त्री के अकेलेपन और संकिर्ण स्वार्थ वृत्ति से उपजी मानसिकता के कारण घर के उजड़ने की व्यथा को साकार करने भी लेखिका को अच्छी सफलता मिली है ।” (गोपालराय, 2010:331)
ऐतिहासिक उपन्यासकार इकबाल बहादुर देवसरे ने अपने ऐतिहासिक उपन्यासों में इतिहास की रूढ़ अवधारणा का प्रयोग करते हुए वैज्ञानिक इतिहास बोध को तिलांजलि दी । उन्होंने मध्यकालीन इतिहास पर लिखित अपने उपन्यासों मस्तानी (1972), बेगम हजरत महल (1973), जाने आलम (1974) नवाब बेमुल्क (1976), तानसेन (1978), गुलफाम मंजिल (1980) में राजाओं की विलासिता, फिजूलखर्ची और षड्यंत्रों का वर्णन तथ बीच-बीच में हिन्दू गौरव का अख्यान गाया है । ऐतिहासिक उपन्यासकार के रूप में हिन्दी में सबसे बड़ी असफलता समकालीन ऐतिहासिक सम्भावनाओं का उपयोग कथासूत्रों में करने में असफलता का रहा, देवसरे भी इसी कोटी में आते हैं । अपने समय के सन्दर्भों से अछूते, इतिहास के गंभीर सरोकारों से शून्य होना हिन्दी के ऐतिहासिक उपन्यासों की नियति सी रही, जो हिन्दी उपन्यास लेखन में किसी सार्थक लेखन को जन्म न दे पाया । इनमें आया मुस्लिम जीवन भी बदले की भावना, कुचालों, वैचारिक अपरिपक्वता आदि गुणों से युक्त रहा ।मंजूर ऐहतेशाम का पहला उपन्यास ‘कुछ दिन’ एक औसत दर्जे का सामन्य उपन्यास है । उनके बहुचर्चित उपन्यास ‘सूखा बरगद’ का सविस्तार अध्ययन अगले अध्यायों में किया जाएगा । नब्बे के दशक में उनका ‘दास्तान-ए-लापता’ (1995) प्रकाशित हुआ, जो ‘सूखा बरगद’ की परम्परा में कुछ नया नहीं जोड़ता ।
हिन्दी में विभाजन की त्रासदी पर आधारित उपन्यासों की एक परम्परा बन गयी थी, उसी क्रम में द्रोणवीर कोहली का ‘तक़सीम’ (1994) उपन्यास इसी विषय के दूसरे पक्ष को लेकर प्रस्तुत करते हुए देश विभाजन के पूर्व पंजाबी समाज के पारिवारिक विघटन की कहानी कही गयी है । राही मासूम रज़ा के उपन्यास ‘ओस की बूँद’ की तरह इस उपन्यास में भी परिवार के माध्यम से देश विभाजन और उसके व्यक्ति-मन पर पड़नेवाले परिणामों के बहाने पंजाबियों की सांस्कृतिक-मानसिक बनावट-प्रतिक्रिया का का चित्रण किया गया है । अन्तर केवल इतना है कि रज़ा के उपन्यासों में अवध केशिया मुसलमानों का खानाबदोशों के फिर बाद में शरणार्थियों रूप में चित्रण किया गया है, तो द्रोणवीर कोहली के उपन्यास में भारत पहुँचे सिखों के खानाबदोश जीवन, तकलीफों, संघर्षों और संवेदनाओं तथा उनके शरणार्थी जीवन को अंकित किया गया है ।
इब्राहिम शरीफ का उपन्यास ‘अँधरे के साथ’ हिन्दी उपन्यास में मुस्लिम समाज के चित्रण में परिक्वता का परिचायक है । इसमें एक साधारण व्यक्ति की सम्पन्न एवं क्रूर शक्तियों के साथ संघर्ष की कहानी है । जैसे हम उम्मीद करते हैं, गैर-मुस्लिम उपन्यासकारों द्वारा चित्रित पात्रों में मनुष्यता और संवेदनशीलता हो, उनका चित्रण पूर्वग्रहों से मुक्त एक मनुष्य मात्र के रूप में हो, वह नायक-खलनायक दोनों हो, ठीक वैसी उम्मीद हम मुस्लिम उपन्यासकारों से भी करते हैं । इब्राहिम शरीफ के इस उपन्यास का पात्र इस साधारण आदमी पात्र अपने संघर्ष में धर्म से ऊपर उठकर सम्पूर्ण संघर्षरत मनुष्यों का प्रतीक बन जाता है । उसका नाम मुस्लिमों वाला होने पर भी वह अपने संघर्षों, त्रासदियों और व्याख्या में मनुष्य मात्र है । यही बात संस्कृति के सन्दर्भ में भी लागू होती है । उपन्यासकार किसी अँचल या स्थान की संस्कृति का चित्रण कर रहा होता है, तो वह हिन्दू या मुस्लिम संस्कृति नहीं होनी चाहिए, वह अँचल की संस्कृति होनी चाहिए । रीति-रिवाज़, संस्कार-त्यौहार कुछ भिन्न हो सकते हैं । चन्द्रकान्ता के उपन्यास ‘ऐलान गली जिन्दा है’ (1984) कश्मीर के मुस्लिम समाज का चित्रण किया गया है । उपन्यासकार ने श्रीनगर की जिस ऐलान गली का चित्रण प्रस्तुत किया है, वह अपने चरित्र में हिन्दू-मुस्लिम होने से ऊपर है । पीढ़ियों से रह रहे लोग, वहाँ का परिवेश, उसमें धुएँ की तरह व्याप्त दर्द की झीनी सी रेखा और युवाओं का छटपटाकर उससे बाहर निकलना और निकलने के बाद परिवेश के प्रति आसक्ति इन सबमें मानव मात्र की भावना व्यक्त होती है । पलायन कर चुके युवक उस सांस्कृतिक-राजनीतिक परिवेश में ही जीते हैं, जिसे वे अजीवन भूला नहीं पाते हैं । वह संस्कृति भी तो उन्हें कहाँ भुलाती है, वह तो उन्हें बुलाती है, लगातार ।
शरद पगारे ने इतिहास को देखने और उन्हें प्रस्तुत करने की अपनी दृष्टि विकसित की थी । वे ऐतिहासिक तथ्यों को फेर में न पड़कर इतिहास से पात्रों और वातावरण को चुनते हैं और उत्पाद्य कथा के माध्यम से इतिहास को नया परिप्रेक्ष्य प्रदान करते हैं । ऐसे में उन पर यह आरोप भी नहीं लगाया जा सकता है कि वे इतिहास के साथ खिलवाड़ करते हैं, क्योंकि वे इतिहास का रचनात्मक प्रयोग करते हैं, न कि पूर्वाग्रह युक्त वर्णन । उन्होंने ‘गुलरा बेगम’ (1981) में शाहजादा खुर्रम और गुलरा बेगम और‘बेगम जैनाबादी’ (1996) में औरंगजेब और हीराबाई की प्रेमकथाएँ मुगलकालीन ऐतिहासिक परिवेश के साथ प्रस्तुत की है । विशेष उल्लेखनीय है कि इन दोनों उपन्यासों की नायिकाएँ कोठेवालियाँ हैं, पर लेखक ने उन्हें अपनी पूरी सहानुभूति दी है । यह नब्बे के दशक में एक साहसपूर्ण कदम कहा जा सकता है ।
नासिरा शर्मा अपने उपन्यासों में इस तथ्य को पूरी संवेदनशीलता के साथ प्रस्तुत करती हैं कि सभी धर्मों में स्त्री शोषण के विभिन्न रूप होने के बावजूद उनका अन्त एक जैसा ही है । उनका पहला उपन्यास ‘सात नदियाँ एक समुन्दर’ (1984) में ईरानी को राजकीय शक्ति के रूप में उभारनेवाली आयातुल्ला खुमैनी की खूनी क्रान्ति पर आधारित है । ईरान-इराक युद्ध में अन्तरराष्ट्रीय लोलुपता, राजनीति और धार्मिक उन्माद के चेहरे वे साफ साफ देख पाती है, जिसमें वे युद्धविरोधी भूमिका लेती हैं । यह युद्ध की अमावीयता के खिलाफ यह उनकी जोरदार एवं संवेदनशील आवाज थी । ‘शाल्मली’ (1987) और ‘ठीकरे की मंगनी’ आधुनिक भारतीय नारी की स्थिति पर आधारित उपन्यास हैं । ‘शाल्मली’ में हिन्दू परिवार की और ‘ठीकरे की मंगनी’ में मुस्लिम परिवार की स्त्री को संवेदना का केन्द्र बनाया गया है । मुस्लिम नारी संहिता, हिन्दू नारी संहिता, व्यक्तिगत कानून द्वारा निर्धारित स्त्री जीवन के कई मुद्दों को उठाने का इन उपन्यासों में प्रयास किया गया है । अबूझ लड़की की मँगनी और उसके जीवन की दशा को केन्द्र में रखा गया है । महरुख की जिन्दगी इसी रूढ़ी से आरंभ होती है और इसी छाया में वह अपना जीवन नहीं बिताती है । उसका मंगेतर संवेदनशून्य, दुनियायवी, अवसरवादी युवक है । यदि नासिर शर्मा का यह पात्र इसी में पिसकर रह जाता तो वह कुछ नहीं जोड़ा पाता और उनकी प्रगतिशील न बन पाती, वह अपने दायरों को तोड़ती हैं और दूसरा विवाह करने से नकार देती है । अपने जीवन का लक्ष्य सेवा और सहायता बना लेती है । अपनी तमाम प्रगतिशीलता और क्रान्तिकारिता के बावनजूद यहप्रेमचन्दीय आदर्शवाद की ओट में जा छिपता है ।
नासिरा शर्मा का उपन्यास ‘ज़िन्दा मुहावरे’ (1993) विभाजन के बाद एक भारत में रह रहे और दूसरे पाकिस्तान गए मुसलमान युवकों की कई समस्याओं को उठाने का प्रयास है । इसमें पाकिस्तान जाने की मानसिकता और न जाने की मानसिकता, दोनों के बीच का चुनाव और फिर दोनों ओर उदासी, इस उपन्यास के केन्द्रिय कथ्य है । एक तरफ देशभक्ति को बार-बार साबित करने की विवशता तो दूसरी तरफ मुहाजिर का जीवन । उपन्यास में भारतीय मुसलमानों के घरेलू जीवन का विश्वसनीय अंकन किया गया है । यह भारतीय मुस्लिम समाज की जिन्दगी का प्रामाणिक दस्तावेज़ तो है ही, साथ ही मानवीय सम्बन्धों को धर्म के ऊपर देखने का संवेदनशील प्रयास भी है । तद्भव और बोलचार की अरबी-फारसी शब्दों के मेल से बनी यह भाषा हिन्दी का स्वाभाविक रूप सामने रखती है ।
अब तक के अधिकांश हिन्दी उपन्यासों में मुस्लिम जीवन के सन्दर्भ या तो साम्प्रदायिकता को लेकर आते रहे हैं या फिर देश विभाजन की घटना को लेकर । अब्दुल बिस्मिल्लाह के उपन्यास ‘झीनी झीनी बीनी चदरिया’ (1986) से यह परम्परा पूर्णतः टूट जाती है, जहाँ वास्तविक रूप में उपन्यास केवल मध्यवर्ग का ही नहीं, मेहनत-मजदूरी करनेवाले शोषित बुनकर जैसे तबकों की आवाज बनकर उभरता है । इस उपन्यास में बनारस के बुनकर समाज कोउसकी मेहनत, अंधश्रद्धाएँ, परिवेश में व्याप्त शोषक शक्तियाँ आदि को प्रामाणिक रूप में प्रस्तुत करने का ईमानदार प्रयास किया गया है । तथ्यों की संवेदनशीलता प्रस्तुति, कलात्मकता और जीवन यथार्थ मिलकर इस उपन्यास को अद्वितीयता प्रदान करते हैं । अभावग्रस्तता, अंधविश्वास, मजहबी कट्टरपन और साम्प्रदायिक पूर्वाग्रहों को आलोचनात्मक दृष्टि से सामने रखने का धैर्य उपन्यासकार को विशिष्ट बना देता है ।बुनकरों की दशा के लिए जिम्मेदार गिरस्ता तथा कोठीवाल की शोषण-प्रक्रिया को सूक्ष्मता से अंकन उपन्यास को विश्वनीयता प्रदान करता है । नारकीय जीवन के चित्रण में उथली भावुकता का अभाव लेखक का कथा-क्षेत्र एवं स्वानुभूति का प्रमाण है । महाजनी शोषण चक्र में फँसा विकल्पहीन बुनकर, उनमें सामुहिक संघर्ष चेतना का जागृत होना, धार्मिक संकिर्णता और सम्प्रदायवाद का जमकर विरोध करना, उसके लिए अपार हिम्मत का इकठ्ठा करना, इस्लाम की रूढ़िवादी धारणाओं कोमानने से इन्कार करना आदि उपन्यास के हिन्दी कथा-क्षेत्र में नए बिन्दु हैं । मुस्लिमों के मुख्य धारा से अलगाव की प्रक्रिया की ओर भी उपन्यासकार चुपके से इशारा कर जाता है । आगे इस उपन्यास का विविध दृष्टियों से सविस्तार अध्ययन प्रस्तुत किया जाना है ।अब्दुल बिस्मिल्लाह के‘जहराबाद’ (1990) और ‘मुखड़ा क्या देखे’ (1996) में निम्नमध्यवर्गीय मुस्लिम परिवारों के जीवन का यथार्थ प्रस्तुत किया गया है । दोनों में कथाक्षेत्रगाँव का है, जहाँ सान्तवाद से लड़ते भिड़ते पात्र हैं । गाँवों का साम्प्रदायिकरण और सामन्तवादी प्रवृत्तियों की जोरदार उपस्थिति को दिखाना उपन्यासकार का निहित लक्ष्य है ।
गीतांजलि श्री के दूसरा उपन्यास ‘हमारा शहर उस बरस’ (1998) में हिन्दू साम्प्रदायिकता और उसके राजनीतिक हथकंड़ों को केन्द्र में रखा गया है । उपन्यास में चित्रित मठ और विश्वविद्यालय साम्प्रदायिकता के केन्द्र हैं । साम्प्रदायिक तनाव की अमानवीय स्थितियों में एक मुस्लिम पात्र के अकेला होना और अलग-थलग पड़ जाने की मानसिकता को सफलतापूर्वक दर्शाया गया है । साम्प्रदायिकता के शिकार एक बुद्धिजीवी का चित्रण बहुत ही प्रभावशाली रूप में करने में उन्हें सफलता मिली है ।
भगवानदास मोरवाल का ‘काला पहाड़’ (1999) बढ़ती साम्प्रदायिकता बनाम साझा-संस्कृति का विमर्श है । सत्तालोलुप व्यक्तियों द्वारा समाज के तोड़े जाने की प्रक्रिया और तद्जनित सामन्य जन जीवन में साम्प्रदायिकता के प्रवेश से नारकीय स्थिति का निर्माण और परिवारों का नाश, उपन्यास के केन्द्र में है । मेवाती संस्कृति अपने सम्पूर्ण रूप में प्रस्तुत कर उसके टूटन की चिन्ता उपन्यासकार की भी चिन्ता बन जाती है । अल्पसंख्यक हिन्दुओं के साथ बहुसंख्यक मुस्लिमों के सौहार्दपूर्ण सम्बन्धों को प्रस्तुत कर उपन्यासकार वर्तमान और भविष्य को सुखद बनाने की राह देता है । यह वही मेव मुसलमान हैं जिन्होंने बाबर के खिलाफ राना सांगा का साथ दिया था और पाकिस्तान जाने से इन्कार किया था । मेवात के संस्कारों और रस्मों को धर्म से कोई सम्बन्ध नहीं है । राजनीतिक ताकतों के प्रवेश के साथ ही यहाँ की साझ संस्कृति पर धर्म का रंग चढ़ने लगता है और बाबरी विध्वंस के साथ दंगों में परिवर्तित हो जाता है । मुख्य पात्र सलेमी साम्प्रदायिकता की जहरिली मानसिकता के खिलाफ संघर्ष करता है । हार के बावजूद वह साम्प्रदायिक शक्तियों के लिए चुनौती छोड़ जाता है । सत्तालोलुप राजनीति, प्रशानसन के छद्म-पाखण्ड मूल्यहीनता और संवेदनशून्यता को व्यगपूर्ण ढंग से प्रस्तुत गया किया है । मेवात की संस्कृति और इतिहास-भूगोल को रचनाकार ने ईमानदारी से व्यक्त करने का प्रयास किया है । गाँव की टूटन भी इसकी सारी बातें संश्लिष्ट रूप में आयी हैं कि उन्हें एक दूसरे से तोड़कर देखा ही नहीं जा सकता है । एक-से-दूसरी को जुड़ी हुई सारी समस्याओं और सांस्कृतिक पक्षों को समेटने का कार्य उपन्यासकार ने कथा के माध्यम से किया है ।
सारांश रूप में कहा जा सकता है कि हिन्दी उपन्यास ने आरंभ से लेकर कभी समयानुसार तो कभी समय से आगे-पीछे रहते हुए कई रूप बदले हैं । इन बदलावों में कथा, कथाक्षेत्र, पात्र, पात्रों के प्रति बर्ताव, विभिन्न वादों-विचारधाराओं का प्रभाव, विभिन्न शैलियों का प्रयोग, विभिन्न समस्याओं का समाधान-चित्रण आदि सम्मिलित है । इनमें सबसे प्रमुख है दृष्टियों में उसका लगातार परिवर्तित होना तथा रचनाकारों का लगातार पूर्वाग्रहों से मुक्त होता जाना । आरंभिक पचास-साठ वर्षों में मुस्लिम जीवन के सन्दर्भ केवल मध्यकाल पर आधारित ऐतिहासिक उपन्यासों में ही आते थे, जो क्रूर, आक्रमणकारी, दमणकारी आदि खल पात्रों को की ही प्रस्तुत करते थे । इसी के समानान्तर कुछ उपन्यासकारों ने मुस्लिम पात्रों के प्रति अतिसंवेदनशीलता दिखाए हुए उन्हें अत्यन्त ईमानदार और देवतानुमा रूप में चित्रित किया । स्पष्ट है कि यह दोनों स्थितियाँ यथार्थ के करीब नहीं हैं । वास्तव में हिन्दी उपन्यास में यथार्थवाद के उद्भव के साथ इस समस्या को जोड़कर देखा सकता है । भारतीय साहित्य दृष्टि आनन्द और आदर्श के ईर्द-गिर्द घूमती है । इसी का प्रतिफलन आरंभिक उपन्यासों एवं उसकी प्रतिक्रिया स्वरूप हुए लेखन के रूप में देखा जा सकता है ।
स्वातंत्र्योत्तर समय में लोकतांत्रिक मूल्यों के साथ हिन्दी उपन्यास में भी लोकतंत्र का प्रवेश होने लगा । जाति और धर्म को व्यक्ति के चरित्र से जोड़कर देखने की प्रवृत्ति धीरे-धीरे लोप होने लगी और इसी के साथ इतिहास के प्रति दृष्टिकोण में भी अमूलचूल परिवर्तन आने लगे । यही कारण है कि हिन्दू-मुस्लिम जीवन के प्रति हिन्दी उपन्यासकारों की दृष्टि में भी कई बदलाव आए । प्रेमचन्द के समय से ही पात्रों को धार्मिक-जातीय पूर्वाग्रहों से मुक्त होने की प्रक्रिया का आरंभ हो गया था, जो हजारी प्रसाद द्विवेदी से होते हुए गुलशेर खाँ शानी तक पहुँचा । स्वातंत्र्योत्तर काल में शानी, बदी उज़्ज़मा, राही मासूम रजा, मंजूर ऐतेशाम, मेहरुन्निसा परवेज़, नासिरा शर्मा, असग़र वज़ाहत, अब्दुल बिस्मिल्लाह, अनवर सुहैल आदि उपन्यासकारों ने मुस्लिम जीवन को इनसाइडर की भूमिक से तो भीष्म साहनी, भगवान दास मोरवाल, गीतांजलि श्री आदि उपन्यासकारों ने मुस्लिम जीवन को पूर्वाग्रहों से मुक्त होकर संवेदनशील दृष्टिकोण से चित्रित करने का प्रयास किया । इस क्रम में स्त्रीवाद, दलित विमर्श, आदिवासी विमर्श का भी प्रभाव मुस्लिम जीवन से सम्बन्धित चित्रण पर देखा जा सकता है । बदी उज़्ज़मा और नासिरा शर्मा स्त्रीवाद से, भगवान दास मोरवाल आदिवासी विमर्श से, अब्दुल बिस्मिल्लाह आंशिक रूप से दलित विमर्श की दृष्टि से प्रभावित दिखते हैं । असग़र वज़ाहत में जनवाद का स्पष्ट प्रभाव देखा जा सकता है । अनवर सुहैल नयी पीढ़ी के रचनाकार हैं । संभवनाएँ नयी पीढ़ी में होती हैं, लेकिन परम्परा उसे पोषित करती है, टूटते हुए जोड़ती हैं । इसी का नाम परम्परा है ।
संदर्भ -
- मिश्र, शिवकुमार (2015): साम्प्रदायिकता और हिन्दी उपन्यास, वाणी प्रकाशन, नयी दिल्ली.
- गोपालराय (2010): हिन्दी उपन्यास का इतिहास, राजकमल प्रकाशन, नयी दिल्ली.
- पुरोवाक्, अंक-20.
- अग्रवाल, डॉ. प्रमिला (1992): भारत विभाजन और हिन्दी कथा साहित्य, जयभारती प्रकाशन, इलाहाबाद.