स्त्री-पुरूष सम्बन्धों का बदलता परिदृश्य- “क्या मुझे खरीदोगे” के संदर्भ में
प्रस्तावनाः
मोहनदास नैमिषराय कृत 1990 के दशक में लिखा गया उपन्यास- ‘क्या मुझे खरीदोगे’ महानगरीय बंबई परिवेश एवं वहाँ की संस्कृति को लेकर लिखा गया हैं। इस ग्लेमरयुक्त शहर में हर वस्तु आसानी से बिकती हैं और साथ में इनसान भी बिकते हैं- फुटपाथ से लेकर फाईव स्टार होटल तक। इस शहर मैं अगर सबसे ज्यादा विक्रय होता हैं तो वह हैं- नारी देह का। “बंबई की अँधेरी और बदनाम गलियों से लेकर शानदार कोठी-बंगलों तक में नारी को भोग्या समझकर खरीदा जाता हैं।”[1]
आलोच्य उपन्यास स्त्री-पुरूष के अस्तित्त्व एवं उनके सम्बन्धों के बदलते परिदृश्य को उजागर करता हैं। महानगरीय परिवेश में भटकती नारी का संघर्ष, उसकी अस्मिता एवं मनोभावों को इस उपन्यास में उजागर किया गया हैं। केन्द्रिय पात्र सरिता के जीवन संघर्ष को उजागर करनेवाला यह उपन्यास स्त्री-पुरूष सम्बन्धों की उस मानसिकता को प्रस्तुत करता हैं जो वर्तमान समय में देखी जाती हैं।
सारांशः
आलोच्य उपन्यास महानगर में पनपते उन व्यापारिक सम्बन्धों को उजागर करता हैं जो वर्तमान समय में भारतीय पुरूष प्रधान समाज में देखा जाता हैं। जहाँ पर स्त्री एक व्यक्ति न होकर महज एक शरीर हैं। सदियाँ गुजर गई, मगर पुरूषों की मानसिकता आज भी संकीर्ण ही रही हैं। स्त्रियों को लेकर उनका नजरिया हमेशा संकीर्ण ही रहा हैं। पुरूष प्रधान समाज में स्त्रियों का न तो अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व होता हैं और न ही वह अपने निर्णय लेने में स्वतंत्र हैं। “आदिकाल से आधुनिक काल तक यहीं सब होता रहा हैं। तब से लेकर आज तक कितने युग बदले, कितनी समस्याओं के समाधान किए गए। कितनी बिमारियों का आविष्कार हुआ। संस्कृति में अनेक बार परिवर्तन हुए, लेकिन पुरूष और नारी के बीच खरीद-फरोख्त की प्रक्रिया न बदली।”[2]
भारतीय पुरूषप्रधान समाज में स्त्री को देवी का सम्मान देना कितना व्यंग्यपूर्ण लगता हैं। स्त्रियों को आदर्श की मूर्ति बनाकर पूजनीय तो समजा गया हैं, लेकिन उस सोच को सिर्फ अपने घर तक ही सिमीत रखा गया हैं। जैसे ही पुरूष घर के बाहर की दुनिया में कदम रखता हैं, वह सब भूल जाता हैं। “महानगरों में रहनेवालों में अधिकांश ऐसे ही होते हैं जो सुबह घर से अपनी माँ, बहन, तथा बेटियों को छोड़ते हुए बाहर के परिवेश में कदम रखते हैं तो वे भूल जाते हैं कि उनके घर में भी कोई 14 या 16 या 18 वर्ष की उनकी फूल सी बेटी हैं जो सुबह-शाम उन्हें प्यार से पापा कहकर सम्बोधित करती हैं। पर घर के बाहर जाते ही उन्हें ये बातें याद नहीं रह पाती। उन्हें तो केवल यह याद रह जाता हैं कि नारी केवल भोग्या हैं। मनोरंजन का एक साधन हैं। जिसे जब चाहा इस्तेमाल कर लिया।”[3]
प्रस्तुत उपन्यास का केन्द्रिय भाव हैं, पुरूष प्रधान समाज की संकीर्ण मानसिकता से छूटकर स्वतंत्रता की ओर आगे बढ़ना। उपन्यास की प्रमुख पात्र सरिता एक नवयौवना हैं, जो अपने पिता की मृत्यु के पश्चात अपनी माँ के आँचल तले पली-बढ़ी थी। लेकिन जवानी में कदम रखते ही ऐसे दल-दल में फँस जाती हैं कि उसी में छटपटाती हुई अपना सब कुछ तबाह कर देती हैं। कॉलेज के सहपाठी सागर के साथ शारीरिक सम्बन्ध स्थापित कर गर्भवती हो जाती हैं। जिसका खामियाजा उसे अकेले ही भुगतना पड़ता हैं। जिस सागर को पाने के लिए उसने अपनी माँ को भी छोड़ दिया, उसी सागर ने उसे बंबई जैसे महानगर में ले जाकर उसे अकेली निःसहाय छोड़कर वापिस चला आया। सागर ने सरिता को महज इसलिए छोड़ दिया क्योंकि वह दलित जाति की हैं।
सागर- “इसलिए की यह समाज, यह दुनिया हमें चैन से यहाँ रहने नहीं न देगी। माना कि तुम्हारे घरवाले तैयार हो जायेंगे पर मेरा परिवार कभी भी तुम्हें अपने घर की बहू स्वीकार न कर सकेगा।
ऐसा क्यों...ॽ
इसलिए कि जिस जाति से तुम हो उस जाति की बहू को वे अपने घर में सहन नहीं कर पाएँगे।”[4]
कहा गया हैं कि नारी दलितों में भी दलित हैं। सागर सिर्फ इसलिए सरिता से शादी नहीं कर सकता क्योंकि वह दलित समाज से हैं। भारतीय समाज की सबसे बड़ी विडंबना हैं- वर्ग भेद एवं वर्ण भेद। जिस प्रकार हिन्दु धर्म में सवर्णों नें अपनी स्थायी सेवा के लिए शुद्रों के सारे अधिकार छिनकर, उन्हें दास बना दिया। उसी प्रकार पुरूष प्रधान समाज ने स्त्रियों के लिए केवल जिम्मेदारियाँ निश्चित की और सारे अधिकार अपने हाथ में ले लिए। सागर ने एक बार भी सरिता की मनःस्थिति को समजने की कोशिश नहीं की।
प्रकृति ने स्त्री-पुरूष को स्वतंत्र अस्मिता प्रदान की हैं। दोनों में कोई भेदभाव नहीं किया। फिर भी समाज द्वारा यह भेदभाव कहाँ तक उचित हैंॽ पुरूष अगर अपने अस्तित्त्व को कायम रखकर स्वतंत्र रह सकता हैं तो स्त्री क्यों नहीं..ॽ सारी मान्यताएँ, सारी परंपराएँ स्त्रियों पर ही क्यों थोपी जाती हैं...ॽ क्यों हमेशा से ही उसे गुलामी की बेड़ियों में जकड़ा जाता हैं..ॽ “हजारो वर्षों से सामाजिक बंधनों से छटपटाती संपूर्ण औरत जाति की नियति ही ऐसी हैं। पूरूष समाज द्वारा थोपी मानसिकता की हैं। सदियों से एक जैसी नियति को भोग रही महिला समाज के भीतर यह सवाल उठना जरूरी भी हैं। पुरूष क्यों चाहेगा कि कल की गुलाम औरत आज आजाद बनकर जिए...ॽ पर नारी समाज को ही इन सबमें परिवर्तन लाना होगा। पुरूषों की बनाई इन सड़ी-गली मान्यताओं को बदलना होगा।”[5]
स्त्रियों को निम्नकोटी में गिननेवाला पुरूष समाज हमेशा यह भूल जाता हैं कि आज वह जो कुछ भी हैं, एक स्त्री की वजह से हैं। जिस समाज की वह आगेवानी करता हैं, वह समाज भी स्त्री से हैं। क्योंकि स्त्री हैं तो समाज हैं, स्त्री हैं तो परंपराएँ हैं, स्त्री हैं तो संस्कृति हैं। फिर भी स्त्री के अस्तित्त्व को हमेशा नकारा ही गया हैं। स्त्री को बिखेरना पुरूष अपना अधिकार समझते हैं। “एक एक वस्तु वह उठाती और सोचती। पुरूष ने आज तक उसे बिखेरा ही हैं। पुरूष सबकुछ बिखेरता ही हैं। अपने आप को भी और साथ में दूसरों को भी। जैसे वह बिखरी हैं। उसके सपने बिखरे हैं।”[6]
आलोच्य उपन्यास में बंबई महानगर के परिवेश एवं वहाँ के वातावरण को भी उभारा गया हैं। यह शहर जितना रंगीन हैं, उतना ही उदासिनता की गर्त में डूबा हुआ हैं। माना की इस शहर ने सबकी भूख मिटाई हैं- पेट की भी और देह की भी। उपर से रंगीन दिखनेवाले इस शहर ने कितनी ही लड़कियों की जिंदगी को बेरंग कर दिया हैं। जिन सपनों को लेकर वह बंबई शहर में प्रवेश करती हैं, उन सभी सपनों को धीरें धीरें चकनाचूर होते हुए देखना भी उनकी नियति बन जाती हैं। “वह जहाँ से आई थी उस परिवेश और यहाँ के वातावरण में जमीन आसमान का अंतर था। अंतर था मानवीय मुल्यों में, संस्कारों में, लोगों की आदतों में। यहाँ जिंदगी का महज उद्देश्य था ईट ड्रिंक एंड बी मैरी। यानी खाओ पियों और मौज करों।”[7] बंबई जैसे महानगर में दलालों की भी कमी नहीं होती। जो अपने फायदे के लिए किसी भी हद तक जा सकते हैं। शर्मा भी ऐसा ही लंपट इनसान हैं जो अपने फायदे के लिए मीरा का इस्तेमाल करता हैं, या यूँ कहे तो उसकी देह का इस्तेमाल करता हैं। मीरा- “किताबों का व्यापार करते करते शर्माजी शरीर बेचने और खरीदने का व्यापार भी कराने लगे थे। मीरा ने भी शर्माजी की किताबों का ऑर्डर दिलाने में बहुत मदद कराई थी। पर शर्माजी ने कहाँ कहाँ उसका इस्तेमाल नही किया था। किस-किस के पास वह नहीं गई थी।”[8] अपना उल्लु साधने के लिए शर्मा जैसे लंपट इनसान नारी देह को बेचने में भी नहीं हिचकिचाते।
कुदरत ने स्त्री-पुरूष की रचना एक समान रूप से की हैं। स्त्री-पुरूष का स्वतंत्र अस्तित्त्व बनाया हैं। पर क्या भारतीय पुरूष प्रधान समाज में स्त्री-पुरूष सच में एक समान हैं..ॽ समानता के इस विचार को पुरूषों ने हमेशा स्त्री से दुर ही रखा हैं। समय के साथ साथ स्त्री-पुरूष सम्बन्धों में जो बदलाव आये हैं उनका जिम्मेदार कौन हैं..ॽ स्त्री और पुरूष के बीच आज कौन सा सम्बन्ध शेष रह गया हैं..ॽ औरत अपने घर में भी सलामत नहीं रहीं। आज के इस विकट समय में स्त्री अपने ही पिता, भाई या पति द्वारा शोषण का शिकार बनती जा रही हैं। “क्या पुरूष समाज का सच यहीं हैं..ॽ क्या नारी से पुरूष का रिश्ता इतनाभर ही हैं..ॽ” क्या जिस्म के इस सम्बन्ध के अलावा पुरूष और नारी के बीच और कुछ नहीं..ॽ।[9] पुरूष प्रधान समाज का एक कड़वा सच यह भी हैं कि औरत चाहैं कितना ही पढ़-लिख लें रहना तो उसे पुरूष के कहे मुताबिक ही हैं। आज भी पुरूषों की सोच वैसी ही संकीर्ण हैं, जो सदियों से स्त्रियों को अपना गुलाम समझती आ रही हैं। मीरा कहती हैं- “सरिता वेश्या आखिर कहाँ नहीं हैं..ॽ क्या पत्नी अपने घर में सिर्फ पत्नी हैं...ॽ।”[10] पुरूष को अपना सर्वस्व सोंप देने पर स्त्री को हमेशा के लिए दासीत्त्व स्वीकार करने के लिए विवश कर दिया जाता हैं।
निष्कर्षः
आलोच्य उपन्यास में लेखक ने स्त्री-पुरूष सम्बन्धों का लेखा-जोखा एवं देह के क्रय-विक्रय की समस्या को तो उजागर किया हैं, पर साथ ही उन्होंने नारी अस्मिता को स्वीकार कर उन्हें स्वतंत्र अस्तित्त्व प्रदान किया हैं। सरिता के माध्यम से उन्होंने उन सभी नारियों को अपने निर्णय स्वयं लेने की प्रेरणा दी हैं। लेखक के अनुसार अगर कोई भी परिस्थिति अपनी हद पार कर जाए तो उससे छूटकारा पाने का महज एक ही उपाय होता हैं- ‘नकार’। उन समस्त पुरूषवादी मानसिकता का ‘नकार’ जो यह सोचते हैं कि नारी पुरूष के बिना नहीं रह सकती। सरिता कहती हैं- “मीरा जी, जो कार्य कुछ समय पूर्व तुम्हें करना चाहिए था। तुम न कर सकी। पर आज मैं कर रही हूँ। तुम्हीं ने तो कहा था- हमें पुरूष पर आधारित होकर नहीं रहना चाहिए। अब मैं स्वतंत्र होकर जीना चाहती हूँ।”[11] जब तक स्त्री विषम परिस्थितियों का विद्रोह नहीं करती तब तक उन परिस्थितियों का दास बनकर रहना ही उनकी नियति होती हैं।
अंततः नैमिषरायजी ने आलोच्य उपन्यास के माध्यम से यह अंगुलिनिर्देश किया हैं कि अगर नारी चाहे तो किसी भी पुरूषवादी सोच को बदल सकती हैं। उसके लिए सिर्फ उसे अपना निर्णय स्वयं लेना हैं और उस निर्णय पर डँटे रहना हैं। तभी वह अपना स्वतंत्र अस्तित्त्व कायम रख सकती हैं।
संदर्भ :::
- मोहनदास नैमिषराय, क्या मुझे खरीदोगे, पृ.13
- वहीं, पृ.15
- वहीं, पृ.95
- वहीं, पृ.44
- वहीं, पृ.25
- वहीं, पृ.71
- वहीं, पृ.94
- वहीं, पृ.111
- वहीं, पृ.113
- वहीं, पृ.113
- वहीं, पृ.119