उर्ध्वशिखाओ को स्पर्शती प्रार्थना - एक ज रटना
“प्रार्थना करने से ईश्वर नहि, प्रार्थना करनेवाला बलता है।”
- सोरेन कीर्कगार्द, डेनिश चिंतक
ऐसी ही एक प्रार्थना प्रस्तुत है...
‘एक ज रटना’
उच्छवासे नि:श्वासे मारी एक ज रटना हो,
तुं मुजमां तुज धाम रची जो ऐ शुभ घटना हो।
हे उन्नत गिरीशृंग निवासी !
अम भूतलनो तुं बन वासी,
अणु अणुमां तुं रहे हुलासी,
मुज तुज बीच हवे प्रीतम, घूंघटपट ना हो।
हे अजरा तेजोना राशि !
अम अंधारा जो तुं प्रकाशी,
वखडां जो धकतीनां प्राशी,
अम ज्योतिना ऐ पंकजने झांखझरट ना हो।
हे आनंद परमना जलधि!
अम झरणानी संहर अवधि,
अम कलशे संभर तव रस-धी,
पंथ पंथ भणकारा तारी पद आहटना हो ।
सुन्दरम् (त्रिभुवनदास पुरुषोत्तमदास लुहार) का नाम गुजराती काव्य जगत में उन्नत शिखाओ को छूता है। सुन्दरम् ने गुजराती साहित्य में उत्तम प्रदान किया है, जिस में ‘कोया भगतनी कड़वी वाणी अने गरीबोना गीत’,‘काव्यमंगला’, ‘रंग रंग वादळिया’, ‘वसुधा’, ‘यात्रा’, ‘वरदा’, ‘मुदिता’‘उत्कंठा’, ‘अनागता’, ‘ईश’, ‘महानद’, ‘पल्लविता’, ‘प्रभुपद’, ‘अगम निगमा’–जैसे काव्यसंग्रह मिलते है। उसके उपरांत सुंनदकरम् ने कहानियाँ, नाटक और आलोचनात्मक ग्रंथ भी दीये है।
जिनमें से यहाँ ‘एक ज रटना’ प्रार्थनागीत की आस्वादमूलक उपलब्धि जानने का प्रयास है। ‘एक ज रटना’ प्रार्थनागीत सुन्दरम् कृत यात्रा काव्यसंग्रह के पृष्ठ नंबर 138 पर से ली गई है। गांधीजी ने प्रार्थना को मानव जीवन का अंतरतम सत्त्व कहा है। गांधीजी के अनुसार लोग दो प्रकार से प्रार्थना करते है। जिसमें से एक आजीजी रूप से और दुसरे बहुत ही व्यापक अर्थ में अंतर में अनंत ईश्वर के साथ अनुसंधान । यह अनुसंधान कैसा अतूट और चैतसिक होना चाहिए इसकी यह प्रार्थना है। ‘एक ज रटना’ प्रार्थनागीत में सुन्दरम् के प्रार्थना के विषय में उन्नत विचार प्रगट हुए है। महर्षि अरविंद और श्री माताजी जिसे अतिमनस कहते है, ऐसी उर्ध्वगामी स्थिति के साथ अनुसंधान के लिये यह प्रार्थना प्रेरित करती है। जीवन की प्रत्येक क्षण को जैसे अनंत चेतना में समर्पित कर देते हो, वैसे कवि ध्रुवपंक्ति में कहते है कि...
उच्छवासे नि:श्वासे मारी एक ज रटना हो,
तुं मुजमां तुज धाम रची जो ऐ शुभ घटना हो।
कवि यहाँ एक शुभ घटना के प्रार्थी है और यह शुभ घटना अन्य कोई साधारण घटना या साधन के साथे जूडी हुई नहीं है। शुभ घटना तो स्वयं सूक्ष्म तत्त्व की, परम तत्त्व की स्व चेतना में अवतरित होने की घटना है, इसीलिये कविने अपने जीवन की पर्त्येक क्षण अर्पण कर दी है। श्वासोच्छवास की, आदम-बदम की प्रत्येक क्षण में कवि की एक ही रटना है, कि स्वयं में परमतत्त्व- परमेश्वर का धाम रच जाये। स्वयं ईश्वर में लीन हो जाने की कवि की यह उत्कंठा यहाँ प्रगट हुई है। कवि प्रथम अंतरे में ईश्वर को उन्नत गिरीशृंगनिवासी कहके संबोधित करते है और प्रार्थते है कि...
हे उन्नत गिरीशृंग निवासी !
अम भूतलनो तुं बन वासी,
अणु अणुमां तुं रहे हुलासी,
मुज तुज बीच हवे प्रीतम, घूंघटपट ना हो।
‘ईशोपनिषद ग्रंथ में कहाँ गया है कि ईशावास्यमिदम् सर्वं यत्किञ्य जगत्यां जगत ।’ (ईशोपनिषद, मंत्र-1) जगत में जो भी जड़-चेतन है, उन सर्व के भीतर-बहार ईश्वर सूक्ष्म रूप से व्याप्त है। इस तरह ईश्वर के साथ हर किसी का अनुसंधान है। कवि यहाँ कहते है कि, ‘अम भूतलनो तुं बन वासी’ यहाँ भूतल शब्द कोई स्थूल स्थल के अर्थ में प्रयोजित नहीं है, लेकीन हृदय या आत्मा के सूक्ष्म अर्थ में संगोपित है। इसीलिये आगे कवि कहते है कि, हमारे अणु अणु में तव चेतना व्याप्त हो। एसे दिव्य चैतन्य के साथ अब कोई भी प्रकार के परदा-पट न रहे। तो दुसरे अंतरे में कवि ईश्वर को ‘अजरा तेजो के राशि’ कहके संबोधित करते है। जो स्वयं प्रकाश स्वरूप है, जो स्वयं विशाल रश्मि राशिपूंज है, वैसे ईश्वर की कवि यहाँ रटना करते है। वो प्रार्थना करते है कि, हमारे हृदय में तमस है, उस तमस को तुं अपने प्रकाश से प्रज्जवलित कर जा। हृदय में जो तुम्हारी भक्ति का ज्याति कमल खीला है, वह अविरत वैसे ही खीला हुआ रहे। ईस्वर स्वयं परम आनंद का सागर है, इसीलिये कवि अंतिम पंक्ति में कहते है कि...
हे आनंद परमना जलधि!
अम झरणानी संहर अवधि,
अम कलशे संभर तव रस-धी,
पंथ पंथ भणकारा तारी पद आहटना हो ।
कवि यहाँ ईश्वर को ‘आनंद परमना जलधि!’ कहते है और स्वयं एक छोटा सा झरना है, जिसे उसी आनंद जलधि में सम्मिलित हो जाना है। इसीलिये उसका संवर्धन करने की प्रार्थना कवि करते है। कवि अपने हृदय रूपी कलश को रसेश से तर-ब-तर हो जाने की प्रार्थना करते है। अंतिम पंक्ति में कविने जीवन के प्रत्येक क्षण में ईश्वर के साथ की, सानिध्य की रटना की है। अंत में तो सिर्फ इतना ही कह सकते है कि, ईश्वर के अतूट सांनिध्य की झंखना इस प्रार्थनागीत का प्राण है।