हिन्दी दलित साहित्य लेखन का प्रमुख स्वर : सूरजपाल चौहान

इक्कीसवीं शताब्दी के दूसरे दशक में हिन्दी दलित साहित्य अपनी निजी पहचान स्थापित कर चुका है । ‘दलित’ संज्ञा को लेकर जो मतमतांतर प्रवर्तित हैं उस पर गौर करें तो एक बात स्पष्टतः उभरकर आती है कि अधिकतर दलितेतर लेखकों-आलोचकों का रुख ‘दलित’ से आर्थिक विपन्नता की ओर अधिक रहा है । ऐसे आलोचक-लेखक सिर्फ़ जातिगत तौर पर उपेक्षित, प्रताड़ित, अपमानित, अस्पृश्य वर्ग को ही ‘दलित’ कहा जाये, इसके पक्ष में नहीं दिखाई पड़ते । दूसरी ओर दलित लेखकों-आलोचकों में से अधिकतर वर्ग जन्मना अस्पृश्य वर्ग को ही ‘दलित’ मानने के पक्ष में हैं । आदिवासी स्वयं अब अपने आपको दलित साहित्य से पृथक करने लगे हैं और अपना निजी साहित्य रच रहे हैं । केवल आर्थिक रूप से ही जो विपन्न है ऐसे सवर्ण और धनिक पर जन्मना अस्पृश्य व्यक्ति के सामाजिक रुतबे को देखा जाये तो भारतभर के किसी भी प्रदेश में अस्पृश्य व्यक्ति का सामाजिक स्थान सवर्ण की तुलना में निम्न देखने मिलेगा । जाहिर है कि दोनों की समस्याओं में व्यापक अंतर हो ! अस्पृश्य जाति में पैदा हुए व्यक्ति ने जिस अवहेलना, अपमान, अत्याचार, विषमता को भोगा है, उसकी तुलना आर्थिक मानदंडों पर नहीं जा सकती । अत: दलित साहित्य लेखन में अस्पृश्य जातियाँ, घुमन्तु जातियाँ और कुछ विशेष पिछड़ी जातियों का ही समावेश करें यह अधिक समीचीन प्रतीत होता है ।

२० अप्रैल, १९५५ के दिन उत्तरप्रदेश के अलीगढ़ जिले के फुसावली गाँव में जन्में सूरजपाल चौहान प्रतिबद्ध दलित साहित्यकार हैं । कविता, कहानी व आत्मकथा के दो भाग प्रकाशित कर चौहानजी ने दलित साहित्य के प्रति अपनी प्रतिबद्धता सिद्ध की है । सरकारी कार्यालयों में भोगे यथार्थ को निर्भीकता से प्रस्तुत करनेवाले सूरजपालजी ने सवर्णों की खोखली नीति, पाखण्डी वृत्ति व उनके द्वारा किये जाते अत्याचारों पर जिस बेबाकी से प्रकाश डाला है, उतनी ही सच्चाई व ईमानदारी से दलित वर्ग में मौजूद भेदभाव व प्रपंच पर भी अपनी लेखनी चलायी है । दयाशंकर त्रिपाठीजी ने सही कहा है –

“वे जिस अधिकार के साथ सवर्ण-समाज का नंगापन उघारते हैं, उसी प्रकार दलित समाज की हकीकतों और कमजोरियों का भी साक्षात्कार हमें करवाते हैं ।”

बजरंग बिहारी तिवारी भी ‘धोखा’ कहानी संग्रह की भूमिका में लिखते हैं –

“….प्रतिबद्धता प्रायः कुछ चीजों को छुपा ले जाती है । दुनिया भर पर रोशनी डालती है, फटकारती है लेकिन खुद को कभी प्रकाश-वृत्त में नहीं लाती, स्वपरीक्षण नहीं करती । सूरजपाल चौहान के लिए प्रतिबद्धता सहूलियत भरा मामला नहीं है  । वह जितना ‘औरों’ के प्रति निर्मम है उतना अपने और ‘अपनों’ के प्रति कठोर । ‘अन्तर’, ‘एकता का ढ़ोल’ और ‘धोखा’ जैसी लघुकथाएँ यही साबित करती हैं ।”

सूरजपाल चौहान की प्रकाशित दलित कृतियाँ इस प्रकार हैं –

कविता संग्रह :-

१. प्रयास, १९९४ (प्रकाशन वर्ष)
२. क्यों विश्वास करूँ, २००४
३. कब होगी वह भोर, २००७
४. वह दिन जरुर आएगा, २०१४

 कहानी संग्रह :-

१. हैरी कब आएगा, १९९९
२. नया ब्राह्मण, २००९
३. धोखा, २०११

 आत्मकथा :-

१. तिरस्कृत, २००२
२. संतप्त, २००६

 जीवनी :-

  • मातादीन

लघुनाटिका :-

  • छू नहीं सकता, २०००

इसके अलावा बालगीत, संस्मरण, कई चिन्तनात्मक लेख आदि भी प्रकाशित हैं । सम्पादन कार्य भी बखूबी निभाया है ।

सूरजपाल चौहानजी का बचपन अन्य दलितों की भांति अभाव-अपमान, अवहेलना के बीच गुजरा । उनके अनुभव दलित जीवन के यथार्थ को खोलते हैं । स्वतन्त्रता से पूर्व या उसके आठ-दस वर्ष में जन्में अधिकतर ‘संवेदनशील’ दलित के लिए गाँव नरक यातना के समान रहा है । प्रत्येक डगर पर अपमान, अवहेलना, उपेक्षा ने दलितों का जीवन घोर यंत्रणामय कर दिया था । गाँव छोड़कर शहर गई दलितों की पढ़ी-लिखी पहली पीढ़ी गाँव को स्वर्ग के रूप में किस तरह स्वीकारे ? गन्दी, बजबजाती बस्ती में सवर्णों की प्रताड़ना सहनेवाले वर्ग को गाँव से कैसे प्यार हो सकता है ? गाँव के यंत्रणामय जीवन की पीड़ा उनकी अनेक रचनाओं में में देखने मिलती है । गाँव से मिली प्रताड़ना रचनाओं में विद्रोह का स्वर बनकर अभिव्यक्त होती है । अक्सर रचनाओं में चौहानजी सवर्णवादियों से प्रश्न करते नज़र आते हैं कि गन्दी, तंग गलियों में अवहेलना और अपमानभरे परिवेश में उनको अस्पृश्य बनकर रहना हो तो कैसा लगे ?

 दलित साहित्य सौन्दर्यपरक नहीं, समाजपरक है । प्रतिबद्ध है सामाजिक जीवन की अभिव्यक्ति के प्रति । दलित साहित्य में पात्र का संघर्ष वैयक्तिक न होकर सामाजिक होता है । दलित साहित्य सामाजिक जीवन की संघर्षगाथा प्रस्तुत करता हैं । यहाँ तक कि दलित आत्मकथाएँ भी बहुत अंशों तक किसी एक व्यक्ति की पीड़ा न बनकर पूरे समाज की यातनामय जिंदगी का दस्तावेज बन जाती हैं ।     ‘संतप्त’ के बारे में गणेश ‘राज’ का कहना है बिलकुल सही है –

“यह एक बालक, व्यक्ति की नहीं बल्कि वर्गविशेष की आपबीती है जिसमें रुग्ण समाज और राष्ट्र के कुरूप चेहरे उजागर हुए हैं ।”

भारत के किसी भी प्रदेश या धर्म में दलितों की स्थिति अच्छी नहीं । हिन्दू, ईसाई, इस्लाम, सिक्ख कोई भी धर्म-सम्प्रदाय जातिगत भेदभावों से मुक्त नहीं । चौहानजी ने कई रचनाओं में इस पीड़ा को स्वर दिया है । जैसे ‘धोखा’ कहानी पंजाब के सिक्ख सम्प्रदाय में दलितों की स्थिति पर श्रीमती बाली के जरिये प्रकाश डालती हैं । श्रीमती बाली बताती है –

“पंजाब के गाँव-देहात में देश के अन्य राज्यों के गाँवों से भी बुरा हाल है, पंगत में एक साथ लंगर चखने की तो बात दूर रही…., जट्ट सिक्ख महजबी व रामदासिया सिक्खों को अपने गुरुद्वारों के अन्दर प्रवेश तक नहीं करने देते ।”

देश के अन्य भागों में भी धार्मिक स्थानों पर ‘स्थानीय’ दलितों के प्रवेश की क्या स्थिति है यह किसी से छिपा नहीं है । इस कहानी के द्वारा लेखक ने पढ़-लिखकर बड़े आदमी बने और  अपने दलित समाज से दूरी बनाये रखनेवालों सफेदपोशों पर प्रहार किया है । श्रीमती बाली के इस कथन में कहानीकार के अंतर्मन की वेदना प्रस्फुटित होती है –

 “समाज विच टुआडे वर्गे पढ़े-लिखे रैन वाले लोका ने ही बाबा साहेब तू धोखा दित्ता है ।”

अपनी आत्मकथाओं में भी लेखक ने दलित बाबुओं की दम्भी विचारधारा पर प्रसंगानुरूप प्रकाश डाला है ।

दो आत्मकथाएँ देकर सूरजपालजी ने हिन्दी दलित साहित्य में हलचल मचा दी है । दोनों रचनाओं में लेखक की भोगी हुई यातनाएँ तो पाठकों को झकझोरती ही हैं, साथ में समकालीन दलित आन्दोलन और दलित लेखकों की दोहरी भूमिकाओं, दोहरे चेहरों को भी बेनकाब करती है । लेखक की भुक्तभोगी वेदना के बारे में प्रो. काशीनाथ सिंह लिखते हैं –

“….‘तिरस्कृत’ यदि तिरस्कृत होने की आत्मकथा है तो ‘संतप्त’ तिरस्कृत होने के संताप की । तिरस्कृत अपने गाँव से, अपने मुहल्लों से, अपने स्कूल और कालेजों से, अपने कार्यालयों और अफसरों से । इन सारे तिरस्कारों का मुकाबला किया जा सकता है बशर्ते परिवार साथ हो, भाई साथ हों, रिश्तेदार, नातेदार साथ हों । लेकिन उस सन्ताप का कोई क्या करे जिसे तमाम लोगों के सिवा पत्नी और बेटे तक के तिरस्कार ने दिया हो !”

आगे कहते हैं –

“सच पूछिए तो ये दोनों आत्मकथाएँ जुड़वाँ हैं । पैदा जरूर आगे पीछे हुई हैं लेकिन हैं जुडवाँ । मगर तिरस्कार की पीड़ा महसूस करनी हो तो ‘संतप्त’ पढ़िए और उसकी वजहें जाननी हो, तो ‘तिरस्कृत’ पढ़िए । ईमानदारी दोनों में है लेकिन यदि यदि ‘साहस’ आत्मकथा की बुनियादी शर्त हो तो वह सिर्फ ‘संतप्त’ में है- दु:साहस की हद तक ! इस अर्थ में यह हिन्दी की अकेली, बेबाक, बेजोड़ और ‘बोल्ड’ आत्मकथा कही जाएगी ।”

अपनी आत्मकथाओं में लेखक ने गाँव, शहर में सवर्णों से सहने पड़े अत्याचारों पर तो प्रकाश डाला ही है साथ में दलित लेखकों, दलित संघों आदि की खोखली नीतियों पर भी प्रहार किया है । ‘तस्वीर का दूसरा रुख’ लिखकर प्रतिष्ठित साहित्यकारों की नीयत नंगी कर दी है । ओमप्रकाश वाल्मीकि, मोहनदास नैमिशराय, जयप्रकाश कर्दम आदि लेखकों की तस्वीर का दूसरा पहलू खोलकर ईमानदारी का परिचय देते हैं ।

दलितों में भी ऊंच-नीच के वर्ग पाये जाते हैं । वाल्मीकि समाज देश के हर प्रदेश में निम्न कोटि का माना गया है । विशेषतः उत्तरी भारत में चमार और वाल्मीकि समुदाय के बीच अधिक वैमनस्य प्रवर्तित है । हिन्दी दलित साहित्य में वाल्मीकि रचनाकारों द्वारा यदाकदा इस भेदभाव पर भी प्रकाश डाला गया है । दलितों के आन्तरिक भेदभाव पर आधारित कोई रचना जब सामने आती है तो अक्सर दूसरे दल के लेखक उस रचना व रचनाकार पर टिप्पणियाँ कसने लग जाते हैं । ओमप्रकाश वाल्मीकि की कहानी ‘शवयात्रा’ को लेकर उठे विवाद इसका उदाहरण है । सवर्णों के अत्याचारों का पर्दाफ़ाश करनेवाले दलित लेखक अपने समाज की विसंगतताओं पर चुप्पी साध लेना चाहते हैं । लेकिन विशेषकर वाल्मीकि समाज के साहित्यकार अपनी भुक्तभोगी पीड़ा को जब अभिव्यक्त करते हैं तो उसमें दलित वर्ग भी बचता नहीं । सूरजपालजी ने अनेक रचनाओं में इस पीड़ा को अभिव्यक्त प्रदान की हैं । उनकी आत्मकथाएं, कहानियों व कविताओं में ‘अपनों’ से मिली पीड़ा अधिक गहन होकर फूट निकलती हैं । दलितों में प्रवर्तित भेदभावों पर प्रश्नचिन्ह उठाने पर जो लोग यह कहते हैं कि अपने घर की बातों को यूं सरेआम सवर्ण समाज के सामने नहीं लानी चाहिए, हमारी अंदरूनी समस्याओं को हम मिलकर सुलझा लेंगें, ऐसे व्यक्तिओं पर प्रहार करते चौहानजी कहते हैं –

“हमें आपस की लड़ाई को गैर-दलितों के सामने नहीं लाना चाहिए, इन अन्तर्विरोधों को हम आपस में मिल-बैठकर सुलझा लेंगे ।” इसी तरह की बातें तो देश के गैर-दलित भी वर्षों से कहते आए हैं कि छुआछूत व ऊंच-नीच की बातें हमारे देश का अंदरूनी मामला है । इस मामले को अन्तर्राष्ट्रीय मंचों पर ले जाने की क्या जरूरत है ?”

यहाँ दलित समाज की दोगली नीति पर लेखक प्रश्नचिन्ह उठाते हैं ।

दलित स्त्रियों पर दिनदहाड़े होते अत्याचार, उनके साथ किये जाते बलात्कार पर देश का मीडिया चुप्पी साधे बैठा रहता है । उन बेबस महिलाओं के लिए कोई ‘कैंडल मार्च’ नहीं होती । अपनी रचनाओं के द्वारा लेखक ने दलित स्त्रियों पर किये जाते अत्याचारों को अभिव्यक्ति प्रदान की है तो साथ ही में अपनी माँ के समान सामने वाले पुरुष का डटकर मुकाबला करने वाली स्त्रियों का रूप भी उनकी रचनाओं में नज़र आता है । अंगूरी, सत्तो बुआ आदि ऐसी ही नायिका है जो प्रतिकार करती है, अपने साथ बदसलूकी करने वाले पुरुष से ।

निजीकरण की आड़ में पिछड़े समुहों को सरकारी नौकरी से निष्कासित करने का षड्यंत्र चल रहा है । आरक्षित जगहें भी नहीं भरी जाती । साक्षात्कार के नाम पर अधिकतर किस्सों में  दलितों को कम अंक दिये जाते हैं । लोकसंघ आयोग जैसी उच्च कक्षा की संस्थाओं में भी इस तरह के षड्यंत्र जारी हैं । चौहानजी अपने साहित्य के द्वारा इस समस्या को उजागर करना चुकते नहीं । अंग्रेजी माध्यम में शिक्षा का भूत चारों ओर सवार है । निजी संस्थाओं में वातानुकूलित कक्षों में बैठकर मल्टीमीडिया से ज्ञान अर्जित करते बच्चे और सरकारी स्कूल-संस्थाओं में अनेकशः अभावों के बीच पहाड़ा रटते छात्रों के बीच की भेदरेखा कैसे कम होगी ? दोनों के बीच स्पर्धा कौन-सा न्याय है ? गरीब, बेबस, घुमक्कड़, दलित-आदिवासी को सुविधाओं से वंचित रखने की साजिश का पर्दाफ़ाश आक्रोशभरे स्वर में लेखक करते हैं ।

सूरजपाल चौहान की रचनाओं में कहीं-कहीं भाव व अभिव्यक्ति की पुनरुक्ति देखने मिलती हैं । अपनी आत्मकथा के प्रसंगों पर आधारित अनुभव लेकर जब कहानी या कविता का तानाबाना बुनते हैं तो कहीं-कहीं पुनरुक्ति के कारण अभिव्यक्ति की आंच मन्द पड़ती दिखाई देती है । उनकी आत्मकथाओं में पुनरुक्ति और अतिरिक्त आक्रोश के कारण गंभीरता नष्ट सी होती महसूस होती है । गुजरात के गांधीधाम से नोएडा जा रहे लेखक ने रेलवे के डिब्बे में सहयात्रियों के संवाद के जो अंश रखे हैं वे सवर्ण यात्रियों के अन्तर्मन के अवश्य हो सकते हैं लेकिन सरेआम यूँ खुली जगह जुबां पर आना मन में संदेह खड़ा कर देते हैं । इसी तरह ‘संतप्त’ में मैनेजर की पोस्ट पर पहुँचे टाई-सूट पहने बेटे के सामने बाप का रोना और गाँव के गुजरे दिनों की याद दिलाना प्रसंग की गंभीरता को नष्ट कर देता है क्योंकि लेखक स्वयं अपनी आँखों से गाँव की यंत्रणामय जिंदगी न केवल देख चुके हैं बल्कि जी चुके हैं ।

दलितेतर वर्ग के कई आलोचक दलित साहित्य को ‘साहित्य’ ही नहीं मानते । उनके मत से साहित्य के क्षेत्र में ऐसे भेद बेमाने हैं । उनको अपने सवर्ण लेखकों में दलित चेतना नज़र आती है और दलित लेखकों की आत्मपीड़ा की अभिव्यक्ति कलाविहीन लगती है । दया, सहानुभूति, अनुकम्पा के साहित्य को सार्थक और सशक्त मानते हैं लेकिन प्रतिरोध, नकार, विद्रोह, समानता-बन्धुता-स्वतंत्रता के पक्षधर भुक्तभोगी दलित लेखन में प्रलाप दिखाई पड़ता है । ऐसे माहौल में इक्कीसवीं शताब्दी के दलित रचनाकारों के समक्ष दोहरे प्रश्न मुँह बायें खड़ें हैं । एक ओर दलितेतर आलोचकों को अपनी सशक्त रचनाओं के द्वारा करारा उत्तर देना है तो दूसरी ओर अतीताभिव्यक्ति में से बाहर निकलकर भावी संकटपूर्ण प्रश्नों को प्रभावी ढ़ंग से उजागर करने हैं ।

सन्दर्भ संकेत :-

१. भूमिका, वह दिन जरूर आएगा, पृ.१७
२. धोखा, पृ. ९
३. संतप्त, कवर पृष्ठ
४. धोखा, पृ.४०
५. वही, पृ. ४१
६. संतप्त, भूमिका
७. वही
८. वही, पृ.७२

प्रा. रवीन्द्र एम. अमीन, आसी.प्रोफ़ेसर, हिन्दी विभाग, आर्ट्स एण्ड कोमर्स कोलेज, देहगाम, जिला :- गांधीनगर । संपर्क सूत्र :- ०९८२४६६२८२८, ravi6003@gmail.com