सामाजिक सरोकार के कवि नागार्जुन
सन-१९११ में जन्मे नागार्जुन की रचना-यात्रा का प्रस्थान सन-१९३० से मिलता है. नागार्जुन की पहली हिंदी कविता राम के प्रति सन -१९३५ में प्रकशित हुई तब से लेकर सन-१९९४ तक नागार्जुन का रचनासंसार लगातार विकसित-संपन्न होता रहा.उनकी कविताओं का व्यवस्थित प्रकाशन सन-१९५३ से प्रारंभ होता है. युगधारा, सतरंगे पंखोंवाली, प्यासी-पथराई आँखें, तुमने कहा था,हजार-हजार बाँहों वाली, पुरानी जूतियों का कोरस, रत्नगर्भ, ऐसे भी हम क्या ऐसे भी तुम क्या, आखिर ऐसा क्या कह दिया मैने, इस गुब्बारे की छाया में, भूमिजा आदि उनके किता-संग्रह है.
भावबोध और कविता के मिजाज के स्तर पर नागार्जुन को सबसे अधिक निराला और कबीर के साथ जोड़कर देखा गया है. वैसे यदि अधिक व्यापक परिप्रेक्ष्य में देखा जाय, तो नागार्जुन के काव्य में हमें पूरी भारतीय परंपरा ही जीवंत दिखाई देती है. उनका कविपन कालिदास और विद्यापति जैसे कई कालजयी कवियों से प्रभावित था, तो दूसरी ओर बौद्ध एवं मार्क्सवाद के दर्शन के व्यावहारिक रूप से तथा सबसे बढ़कर अपने समय और परिवेश की समस्याओं, चिंताओं एवं संघर्षों से प्रत्यक्ष जुडाव, लोकसंस्कृति एवं लोकहदय की गहरी पहचान से निर्मित है. यात्री उपनाम से लिखनेवाले नागार्जुन का यात्रीपन भारतीय-मानस एवं विषयवस्तु को अपनी कविता के जरिये समझा पाया है. उनका गितशील, सक्रीय और प्रतिबद्ध सुदीर्घ जीवन उनके काव्य में जीवंत रूप से प्रतिध्वनित-प्रतिबिंबित है. नागार्जुन को हम सही अर्थ में भारतीय मिट्टी से बने आधुनिकतम कवि कह सकते है.
नागार्जुन की कविता में समाज के विभिन्न वर्गों की व्यापक हिस्सेदारी है. यही कारण है कि उनकी कविता में मानवजीवन से जुड़े प्रायः प्रत्येक पहलू पर करारा वयंग्य दिखाई देता है. शोषण के कारण जीवन को रसार्द्र करना मुश्किल होता है. स्वतंत्र भारत का अध्यापक ऐसा ही चरित्र है, जिसकी छवि नागार्जुनने प्रेत का बयान कविता में प्रकट की है. इस कविता में यम- नचिकेता की कथा का संकेत करके कविने ज्ञान और दरिद्रता की विडम्बना को उजागर किया है -
नागरिक हैं हम स्वतंत्र भारत के...
उम्रर है लगभग पचपन साल की
पेशे से प्रायमरी स्कूल का मास्टर था
तनखा थी तीस, सो भी नहीं मिली
मुश्कील से काटे है
एक नही, दो नही, नौ-नौ महीने. [१]
भारतीय राजनीति पर गांधीवादी विचारधारा दीर्घकाल से अब-तक छाई हुई है. लेकिन आदर्श-च्यूत नेताओंने इसका मखौल बना दिया है. गांधीजी से जुड़े सारे प्रतीक जो देशज तरीकों के और त्यागपूर्ण थे, आज के राजनेताओं के पास आकर व्यक्तित्वहीन पुतलों का श्रुगार -मात्र बनकर रह गए है. जिसे कवि इस कविता के माध्यम से बया करते हैं-
बापू के भी ताऊ निकले तीनों बंदर बापू के...
जल-थल-गगन-विहारी निकले तीनों बंदर बापू के...
बदल-बदल कर चखे मलाई तीनों बंदर बापू के...
हमे अंगूठा दिखा रहे हैं तीनों बंदर बापू के...
बापू को ही बना रहे हैं तीनों बंदर बापू के. [२]
इस राजनीतिक अधःपतन ने भारतीय जन को स्वतंत्रता के छदम को झेलने के लिए विवश किया. स्वतंत्रता प्राप्ति के लिए किये गए उत्सर्ग और क्रांतिकारी परंपरा के नतीजे सामान्य-जन के विरोध में चले गए. यहाँ कवि का क्षोभ सामान्य जन का क्षोभ है, जिसकी जन-आंदोलन के दौरान झेली गई यातनाएँ फलप्रद सिद्ध नहीं हुई. जैसे -
घर-बाहर भर गया तुम्हारा
रति भर भी हुआ नहीं उपकार हमारा
व्यर्थ हुई साधना, त्याग कुछ काम न आया
कुछ ही लोगोंने स्वतंत्रता का फल पाया. [३]
हम अवश्य यह सकते हैं कि नागार्जुन की यह पंक्तियाँ आज के राजनेतओं के सम्बन्ध में भी उतनी ही फीट बैठती है, जो तत्कालीन राजनेतओं पर व्यंग्य करने के लिये लिखी गई थी. भारतीय समाज को अपनी कविता में चित्रित करने वाले नागार्जुन के बारे में कहा गया है कि -नागार्जुन कि कविता में भारतीय समाज का यह हिस्सा कवि के क्रोध, व्यंग्य और आक्रमण का लक्ष्य बना है. कवि यहाँ तीखे आवेश में है. धन और धर्म का यह समीकरण राजनितिक शक्तियों से गठबंधन करके अस्सी प्रतिशत लोगो पर शासन करता है. [४] देश कि अस्सी प्रति त जनता पर शासन करनेवाले लोगों की पोल को नागार्जुन ने अपनी कविता के जरिये बेनकाब किया है. भारतीय राजनीति की यह वास्तविकता है कि शासन में आने के लिए और आने के बाद अपना उल्लू सीधा करने के लिए राजनेता लोग हर बार कोई-न-कोई नई तरकीब निकाल ही लेते हैं-
बैलों वाले पोस्टर साटे, चमक उठी दीवार
नीचे से ऊपर तक समझ गया सब हाल
सरकारी गल्ला चुपके से भेज रहा नेपाल
अंदर टंगे पड़े हैं गांधी-तिलक, जवाहरलाल...
चिकनी किस्मत, चिकना पेशा, मार रहा है माल
नया तरीका अपनाया है राधे ने इस साल. [५]
साहित्य जगत से सबंधित कविताओं में नागार्जुन उन प्रवृतियों पर व्यंग्य करते है, जो सामाजिक जीवन से भागकर आध्यात्म के रहस्यलोक मे कविता को ले जाती है. अमूर्तन की ओर बढ़ते इन कलावादियों की विशेषताओं को रेखांकित करते हुये बाबा उन्हें यथार्थ जीवन से कटे हुये कवि मानते है. इन कवियों की कविता में रूप की प्रमुखता और वस्तु का गौण होना ही महत्वपूर्ण है, इस कलात्मकता के कवच में कविता की जन-जन तक संप्रेषणीयता संदेहास्पद हो जाती है. अपने समय से जुड़कर कविता करनेवाले नागार्जुन की कविता में दृष्टिकोण-वैविध्य देखने को मिलता है. नागार्जुन उन सुविधाभोगी मध्यमवर्ग पर भी अपना निशाना ताकने से नही चुके है. कवि की द्रष्टि में वृक्ष की सर्वोतम देन फल है, तो कवि की प्रेरणा भी मेधा की उर्वरर्शीलता को रेखांकित करते हुए जन-जन के प्रति उसको प्रतिबद्ध भी करना चाहती है-
प्रतिबद्ध हूँ, जी हां, प्रतिबद्ध हूँ –
बहुजन समाज की अनुपल प्रगति के निमित्त –
संकुचित स्वार्थ की आपाधापी के निषेधार्थ ...
अंध-बधिर व्यक्तियों को सही रह बतलाने के लिए ...
अपने आपको भी व्यामोह से बारंबार उबारने की खातिर...
प्रतिबद्ध हूँ, जी हां, शतधा प्रतिबद्ध हूँ. [६]
स्वाधीन भारत में निर्बल नेतृत्व की आड़ में उपनिवेशवादी प्रवृति कायम होती चली आ रही है. स्वाधीन भारत की राजनीतिक स्थिति का बयान करनेवाली नागार्जुन की कविता की समीक्षा उचित ही है –ये कविताएँ गरीब देश में सामंती परंपरा की पोषक महारानी के साथ-साथ देश के उन कर्णधारों पर भी कटाक्ष करती है, जो इस सारी स्थिति के लिए जिम्मेदार है. [७]
आजादी की रजत-जयंती को कवि अस्सी प्रतिशत जनता की कष्ट-कथा मानते हैं और हिटलरी शासन को जंगल का राज्य. शासन के करफ्यू को आधार बनाकर नागार्जुन ने तीन दिन-तीन रात जैसी कविताएँ लिखी. करफ्यू के कारण आम जनता को कितनी परेशानियाँ उठानी पड़ती है उसको वे इस प्रकार व्यक्त करते है-
बस सर्विस बंद थी तीन दिन-तीन रात
लगता था जन-जन कि हृदयगति बंध थी तीन
दिन-तीन रात. [८]
नागार्जुन कि राजनीतिक कविताओं को राजनीतिक दृष्टिकोण से न देखते हुये भारतीय जन-मानस की द्रष्टि से देखा जाय तो नागार्जुन की बनावट बनी बनाई सीमाओं को स्वीकार नही करती, जो नागार्जुन के कविपन की ऐसी विशेषता है जो उन्हें राजनीतिक दलों की विकृति और समझौतापरस्त नीतियों से उपर उठाती है. इसीलिए नागार्जुन की कविताएँ राजनीतिक दलों पर व्यंग्य-आक्रमण करती है और उन दलों की षड्यंत्रकरी नीतियों की भी कड़ी आलोचना करती है. खिचडी विप्लव देखा हमने संकलन की कविताओं में यह टोन ज्यादा उग्र और मुखर है. नागार्जुन तटस्थता की आलोचना करते है. तटस्थ रहना कविता का वयंग्य ऐसे ही लोगों के लिए है जो वर्ग-संघर्ष की प्रक्रिया से आँख चुराते है-
तटस्थ रहना यानि तटस्थता के मजे लूटना
...वो आपको घर बैठे दक्षिणा पहुचाते हैं. [९]
नागार्जुन की कविता में नगरबोध की बनावटी मानसिकता नही मिलती. वे नगर की सड़क, चौराहे ट्राम आदि को अपना मंच बनाते है. नगर की उँची-उँची इमारतों, सजी-सवरी बस्तियां के समानान्तर वे झुग्गी-झोपड़ियों, रिक्शा खींचनेवाले, तरह-तरह के आजीविका व्यापार में लगे लोगों के बीच पहुँच जाते हैं.
नागार्जुन की सम्पूर्ण कविताओं का आकलन यहाँ संभव नही, पर प्रस्तुत अध्ययन के आधार पर हम कह सकते हैं कि उनके लिए समीक्षक नामवरसिंह की टिप्पणी सर्वथा उचित हीं है-तुलसीदास और निराला के बाद कविता में हिंदी भाषा की विविधता और समृद्धि का ऐसा सर्जनात्मक संयोग नागार्जुन में ही दिखाई पड़ता है. [१०] नागार्जुन की कविता में हमे उन्हें सचमुच में एक सजग सामाजिक के दर्शन होते है.
संदर्भ संकेत :-
डॉ. कपिला पटेल, बी.-१८ चन्द्रप्रभु सोसायटी, मु.पो., ता.-तलोद, जिला. साबरकांठा, गुजरात-३८३२१५ दूरभाष नं.- ०२७७० २२१०२४ चलभाष नं.-९९९८८७३४१३ Email ID-kapila.patel75@gmail.com